लेखनी लिखती है कि-
सच्चे गुरु हैं जगत् में वे
जो अपने गुरुत्व को भी कर देते विस्मृत
पर्याय दृष्टि से हटकर
द्रव्य दृष्टि का पीते हैं अमृतं।
शिष्यों को तमस से प्रकाश
पतन पाताल से उत्थान
अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी
दुख से हटाकर परम सुखी
बनाते हैं
फिर भी कर्तापन की गंध नहीं लेते तनिक भी;
क्योंकि वे जानते हैं
पर कर्ता बनना ही स्वात्मसुख का हंता होना है
अपने ही हाथों से दुख के बीज बोना है।
इसीलिए रहते वे निर्लेप
जागृत रखते सदा विवेक
जो करके अनंत उपकार
चाहते सबका उद्धार
पर बदले में चाहते नहीं कुछ भी किसी से
इसीलिए गुरु का पुण्य बढ़ता है तीव्र गति से।
मनसा वचसा वपुषा
पाप से तो परे हैं जो
पर पुण्य फल की ओर दृष्टि भी नहीं रखते
ऐसे ही सहज महामना को
शिष्यगण गुरु मान चरणों में नमते।
जो करके कर्मों का अंत
होना चाहते हैं अरहंत
ऐसे गुरु भगवंत श्री विद्यासागर संत
धरा गगन में
रहे सदा जयवंत/जयवंत/जयवंत।