लेखनी लिखती है कि-
विचार तो हैं तरंगों की भाँति
आते हैं और मिट जाते हैं
जो हैं गुरु के प्रति भक्ति भाव
उसे पृष्ठों पर कहाँ लिख पाते हैं
अब यह समझ में आता है कि
शिष्य तो सिर्फ आवाज गुरु ही संगीत हैं
हर परिस्थिति में गुरु ही सच्चे मीत हैं
शिष्य जो छू रहा अध्यात्म का शिखर
यह गुरु की ही सौगात है
जिनने बना दिया अमावस को पूनम
इसमें गुरु का ही हाथ है।
एक महानतम इंसान
अपने जीवन में
किसी एक आदर्श को
अवश्य स्वीकारता है,
शिष्य है अज्ञानी
वह स्वयं की अस्मिता जाने या न जाने
पर गुरु उसे अवश्य जानता है;
क्योंकि जिसे स्वयं का ज्ञान है
उसे पर का भी भान है
गुरु तो निर्झर स्वरूप हैं
सच्चरित्र और ज्ञान के कूप हैं
शिष्य है पतली-सी धार
इसे अर्णव बनाने में
गुरु का ही है उपकार।
शिष्य है चींटी-सी चाल वाला
गुरु हिरण-सी त्वरित चाल वाला
फिर भी शिष्य को लेकर चलता
यही है गुरु की महान् लघुता।
जो विद्या के सागर होकर भी
एक नन्हीं-सी बूंद का ध्यान रखते हैं
ऐसे ही गुरु को शिष्य हृदय मंदिर में
विराजमान करते हैं।