लेखनी लिखती है कि-
गुरु तनाव की तेज धूप में
बन जाते हैं छाँव
परेशानियों की नदी के पूर में
बनकर आते हैं नाव
अज्ञान अंध के कूप में गिरने पर
शिष्य के लिए बन जाते मजबूत डोर
क्या कोई है गुरु-सा निस्वार्थी
दुनिया में कोई ओर ?
अरे! गुरु की एक नेह नजर में
इन्द्रिय सुख भी नीरस लगता,
किंतु अरूणाई-सी नजर में
नरकों-सा दुख अनुभवता।
गुरु का गणित ही अलग है
गुणों से धन करते हैं
दोषों से ऋण करते हैं
भाग करते हैं व्यर्थ के विकल्पों से
गुणा करते हैं सत् संकल्पों से।
विकार हटाकर व्यक्तित्व जगाते हैं
अपनों से छुड़ाकर अपने से मिलाते हैं
अपने को अपना मानना सिखाते हैं,
गुरु हैं शांत झरने की तरह प्रवाहशील
जो मिलने और मिटने को राजी हो
उसे अपने में मिलाकर रत्नाकर बनाते हैं।
गुरु हैं स्वैर विहारी हवाओं की तरह
जो उड़ने को राजी हो
उसे अनंत चिदाकाश की सैर कराते हैं,
कलम पकड़ना नहीं
हृदय कमल खिलाकर
लिखना नहीं लखना सिखाते हैं।
क्या हर कोई गुरु को परख सकता ?
होगा कोई सद् विद्या का धारक विद्याधर
वही तो श्रीज्ञानसिंधु को समझ सकता।