लेखनी लिखती है कि-
निश्चय से गुरु
शिष्य को अपनाते कहाँ ?
शिष्य भी है पर
उसे अपना बनाते कहाँ ?
हाँ, ऐसे गुरु के समागम से
अपनत्व का शोध होता है
जन्म-मरण से परे
अमरत्व का बोध होता है
फिर वह जानता है अपना अस्तित्व
अपने ही गुणों का स्वामित्व
मिट जाता है पर से ममत्व
शेष रहता एक निजात्म से ही एकत्व
देख उसकी अंतर्साधना
गुरु को होती प्रसन्नता
ज्यों-ज्यों आत्मदर्शन की प्यास बढ़ती
त्यों-त्यों वह अंतर की गहराई में उतरता
खो जाता वह स्वयं में इतना
कि अंतर का प्रभु झलकता
अनुभूत होता है तब उसे
अंतर्ध्वभाव में दुख है कहाँ ?
बाहर में सुख था कहाँ ?
यहाँ तो आनंद का बगीचा है।
सुख का बिछाया गलीचा है।
अनंत उपकार है गुरु का
जो यहाँ तक पहुँच पाया,
गुरु के दिशा बोध से
स्वतत्त्व का दर्शन पाया।
कहता है वह शिष्य-
गुरु का ही अनंत उपकार है यह
गुरु का ही आभार है यह
ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी का
जिसे मिला आशीष
वही बन गया अपना मीत।