लेखनी लिखती है कि
एक अबोध सद्यः जात शिशु को
दुख नहीं होता मानापमान का,
किसी के प्रति भाव नहीं आता
राग-द्वेष रूप मलिनता का,
चाहे गृह में चोर घुस जाये
या सम्माननीय व्यक्ति आ जाये
किसी का मरण हो जाये
या मांगलिक उत्सव आये
वह तो निश्चित होकर रहता
अपने ही विचारों में डूबता।
गुरु की कृपा कोख मिलते ही
जन्म हो जाता है शिष्य का,
असंख्य आत्मप्रदेश में श्रद्धा नयन खुलते ही
जागरण होता है आतम का,
तब वह नवजात शिशु-सा
अपने परायों के भेद बिना
करता नहीं रागादिक का व्यक्तिकरण
चाहे कोई जन्मे या हो जाये मरण
लगता है मानो देखते हुए भी देखता नहीं
सुनते हुए भी सुनता नहीं
अपनों में रहते हुए भी एकत्व नहीं
मोह करने वालों पर भी ममत्व नहीं।
सच है, जगत् में निश्चित हैं दो ही आत्मा
पहला नवजन्मा बालक
दूसरा आत्माराधक साधक
गुरुवर श्रीविद्यासागरजी निश्छल बालक सम हैं
निरीह निर्विकार साधक संत हैं
ऐसे ही गुरु की पाकर शरण
शिष्य करके कर्मों का अंत
होता अरहंत है।