लेखनी लिखती है कि-
गुरु नहीं चाहते कि
शिष्य मेरा ही मेरा नाम रटे
जो कुछ करे, मेरे लिए ही करे
मेरे ही नाम के गीत गाये।
बल्कि गुरु तो चाहते हैं कि
मेरा नाम ही भूल जाये
जगत् के सारे काम ही छूट जायें
बन जाये निष्काम,
वंदक और वंद्य-भाव ही न रहे
कर्तापन की गंध ही न रहे
हो जाये कृतकाम,
नहीं सोचते गुरु कि
शिष्य मेरा ही ध्यान रखे
सोचते वे कि शुद्धातम का ध्यान करे
पा जाये शिवधाम।
नहीं विचारते सच्चे संत कि
मेरे अनुयायियों की संख्या
कहीं कम न हो जाये
वे तो अंतर्मुख होकर विचारते कि
विभाव से प्रभावित होकर
मेरे स्वाभाविक गुण कहीं कम न हो जाये।
विचारों की भीड़ से दूर अविचारी संत
जनता की भीड़ क्या चाहेंगे?
पुण्य भी हेय लगा जिन्हें
वे पाप के पंक में क्या फँसेंगे?
जो कर्म तक को दोषी नहीं ठहराते
वे क्या किसी नोकर्म को दोष देंगे?
गुरु अपने अशुभ उपादान को शुद्ध कर
शीघ्र स्वयं को ध्रुवधाम पहुँचा देंगे
लेकिन प्रश्न फिर रह गया शेष कि
हम क्या करेंगे?
शिष्य हृदय यही कहेगा
जो गुरु श्रीविद्यासागरजी कहेंगे
वही करेंगे।