लेखनी लिखती है कि-
पुण्य योग से तू पा गया शरण
कर रहे गुरु तुम पर कृपा वर्षण
पाकर गुरु का स्नेह
अपना औचित्य गुण भूल मत जाना
अहं से फूल मत जाना।
गुरु-स्नेह लघु होने के लिए है
गर्व करके बिखरने के लिए नहीं
अंतर्मुख होने के लिए है,
बहिर्मुखी होकर अपनी महिमा दिखाने के लिए नहीं
अपनी महिमा जानने के लिए है।
गुरु ने थमा दिया रोशनी का दीया
चाहे तो आरती का दीपक भी जला सकते
चाहे तो किसी का घर भी,
गुरु ने दे दी वचनामृत औषध
उससे स्वस्थ भी हो सकते
मात्रा के अविवेक से अस्वस्थ भी,
गुरु ने तो दिखा दीं सीढ़ियाँ
चाहे तो चढ़ सकते ऊपर छत तक
सँभलकर न चलने पर गिर सकते हैं नीचे भी,
गुरु ने बरसा दीं स्नेह बदरियाँ
चाहे तो बुझा ले प्यास
या मिटा दे श्वाँस।
कृपा पाकर गुरुवर श्रीविद्यासागरजी की
कृपा करना है स्वयं पर
विजय पाना है विकारों पर
तभी सार्थक है गुरु-स्नेह पाना
गुरु का शिष्य बनना।