लेखनी लेखती है कि-
सद्गुरु सारी धरा के वरदान हैं
गुरु ही शिष्य के लिए भगवान् हैं;
क्योंकि माँ तन को देती है जन्म
पिता वसीयत के नाम पर देता है धन
लेकिन गुरु मिटा देते हैं जनम-मरण,
माता देती है संस्कार
पिता देता है घर बार
लेकिन गुरु देते हैं मुक्ति का उपहार,
माता का रिश्ता जुड़ा है देह से
पिता का जुड़ा है गेह नेह से
लेकिन गुरु का नाता है विदेह से ।
गुरु शिष्य को प्रथम मूच्र्छा से जगाते हैं
फिर उसके अस्तित्व का भान कराते हैं
इसीलिए कहता है शिष्य-
मंदिर के द्वार से कम नहीं गुरु का द्वार
कैसे करू गुरु का आभार?
श्रीराम थे सर्व कला परायण
फिर भी गुरु वशिष्ठ की शरण आना पड़ा,
घनश्याम थे नारायण
फिर भी उन्हें गुरु आश्रम जाना पड़ा,
अनंत-ज्ञानी थे चौबीस तीर्थंकर
फिर भी उन्हें 'नमः सिद्धेभ्यः' कहना पड़ा।
सच! गुरु बिन भव से तिरा जाता नहीं
गुरु जो कर सकें
वह प्रभु से भी किया जाता नहीं
इसीलिए शिष्य को
श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु बिन रहा जाता नहीं।