विश्व वंदनीय आचार्यश्री 108 विद्यासागरजी महाराज के बचपन की यादें
शिशु सौन्दर्य
एक दिन घर पर लगाये गये नन्हे बगीचे में एक खाट पर लेटे हुए मात्र साल भर के ‘पीलू’ को देखा, जो दिगम्बर अवस्था में पडा अपना अंगुठा चूस रहा है। कमर में चान्दी की करधनी बँधी शोभा बिखेर रही है। नन्हे शिशु की छवि देखते ही बनती थी।
बलपना
एक तीर्थ की वेदी पर पिता ने बादाम चढाए और माथा टेककर झुके।फिर नजर बचा कर जेब से दोनो बादाम निकाल कर रख दी वापिस वेदी पर। पीलू ‘त्यै’ बोलने में मस्त रहे।
बिच्छू ने डंक मारा
घर के भीतर वाली देहलीज पर हाथ रख कर बैठा था पीलू, दूसरे हाथ का अंगूठा मुँह में था। अंगुठे में जाने कैसी मिठास थी के पीलू चाहे जब चूसता रहता था। उस दिन भी वह चूसने का आनन्द ले रहा था। सिर की झालर फरफरा रही थी। आँखें मोतियों की तरह चमक रही थीं। छोटे छोटे हाथ कभी मुँह की तरफ, कभी देहलीज की तरफ उठते-गिरते। तभी जोर से चीख पडे पीलू। चीख के बाद रोने क भी क्रम था। रोने में तडपन और तडपन में घबराहट भी थी। दौडा हुआ परिवार आया, देखा बिच्छू ने काटा है।
बाल खरीददार
मल्लप्पा जी ने 5 क नोट दिया, पहुँचे पीलू सीधे दुकानदार के समक्ष – चॉकलेट खरीदने। दुकानदार ने चार आने की चॉकलेट दे दी।
बाल छात्र
पाँच वर्ष के पीलू। पिताजी उसे ले कर शाला में नाम लिखवाने पहुँचे। आँखे फाडे-फाडे पीलू कमरे को देखता, तो कभी छात्र समूह को, कभी सामने कक्ष की दीवाल पर टँगे श्यामपट को। तभी लिखने लगे प्रधान अध्यापक रजिस्टर पर नाम, बालक पीलू अब छात्र विद्याधर बन गये।
अध्ययन में बाल छात्र
विद्या प्रवेश कर गये विद्या मन्दिर की पहली कक्षा मे। मन लगा कर विद्यार्थियों जे बीच पढने लगे। देखते ही देखते पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी तथा तीसरी से चौथी कक्षा में पहुँच गये।
सबसे बडा श्रोता : नन्हा श्रावक
मल्लप्पा जी ज शास्त्र बाँचने बैठते मन्दिर में, तो वृद्ध, प्रौढ, युवक श्रावकों के मध्य एक नन्हा श्रावक भी हुआ करता। नन्हा श्रावक सीधा मल्लप्पा जी के पास पहुँचता और कोई ना कोई प्रश्न जड देता।कभी तो मल्लप्प जी उत्तर देते, कभी कह देते- पीलू बेटे घर चल कर बतलायेंगे।
अपनी वाणी से जिनवाणी
माँ ने कहा- स्चूल की पढाई के साथ थोडी धार्मिक पढाई भी किया कर! देख सामने आले में जैन धर्म की पुस्तक रखी है, उसमे भक्तामर याद करके बता! प्रसन्न हो गये तोता। उठा कर ले आये जिनवाणी। कुच दिन बाद बोले- माँ जी भक्तामर सुनोगी! मुझे कंठस्त हो गया है। उन्होने कहा- सुना भला! इतना कहा नहीं कि सुनाने लगे तोता अपनी वाणी से जिनवाणी।
खेल खेल में मुनि दर्शन
तोता दौड्ते हुए वहाँ पहुँच गये। अपनी गिल्लि उठा कर भागनेवाले थे कि उनकी नजर गुफा के अन्दर चली गयी। व्हा एक दिगम्बर साधु स्वाध्याय पूर्ण कर उठ ही रहे थे।
प्रयास की कथा
घर आये तो देखा कि माँ दही मथने की तैयारी कर रही है। मक्खन उठा कर दे देती। मक्खन क्या है? दही का सार तत्व ही है ना? विद्याधर की दृष्टि कभी थोथे पर नहीं रही, सार चाहने वाला यह किशोर एक दिन सारे संसार को सार का दिग्दर्शन करायेगा, कौन जानता था?
मूँजी- बन्धन
दक्षिण भारत की परम्परा के अनुसार वहाँ 12 वर्ष तक के बच्चों को एक विशेष संस्कार से संस्कारित किया जाता है, जिसे मूँजी- बन्धन कहते हैं। इसके अनुसार 12 वर्ष या उससे उपर उम्र के किशोर मूँजी-बन्धन के दिन उपवास करते हैं, नाई से बाल कटाते हैं, चोटी रखते हैं, सफेद धोती पहनते हैं, कन्धे पर दुपट्टा डालते, फिर सात घर जा कर भिक्षा माँगते हैं। भिक्षा से प्राप्त अन्न से भोजन बना लेते हैं और अन्य कुच नहीं खाते हैं।
सब कुछ छोड कर प्रसन्न होने का आभास
नहीं मालूम था उस क्षण मल्लप्पा जी को, नहीं ज्ञात था श्री जी को के हेंडल छोड कर साइकल चलाने वाले हाथ, एक दिन हँसते-हँसते यह घर-बार, सांसारिकता भी छोड देंगे।
दयालु श्रमशील बालक
धैर्यवान मुस्कुराये और बोले- ऐसा। बैल के स्थान पर वे खडे हो गये थे और हल का जुँआ अपने पुष्ट स्कन्ध पर धर लिया था। बोले व्यर्थ चिंता मत करो, कार्य चल जायेगा। काफी देर बैल के स्थान पर हल खींचते रहे। श्रम, लगन, दया, कर्तव्य के कई रंग देखने को मिले- मिलेंगे उनकी चर्या में।
मुनि सेवा और मंत्र उच्चारण
एक बार बोरगाँव से खबर उठी कि मुनि श्री नेमिसागर जी ने समाधी – मरण स्वीकार कर सल्लेखना व्रतसमाधि ले ली है। नेमिसागर जी को णमो मंत्र सुनान प्रारम्भ कर दिया विद्याधर ने।
बुद्धि का खेल: सेवा भाव
र्क रात की बात है। अचानक श्री देशभूषण जी महाराज को बिच्छू ने डंक मार दिया। फिर क्या, दर्द –कम्पन शरीर में होने लगा। और दौडते हुए हाजिर हो गये महाराज के समक्ष। दवा के द्वारा डंक का दर्द दूर किया, फिर आराम हुआ।
पानी में बाल भानु : ध्यान मुद्रा
सदलगा में विद्याधर के घर के पास ही बावडी बनी थी। वे कभी कभी उस में पालथी मारकर, पानी में आसन लगाकर ध्यान किया करते थे।जब माँ ने प्रश्नरूपी कंकड उछाला तब थोडे से हिले, बोले मैं आसन लगा कर ध्यान करता हूँ।
जैन प्रतीकों में रुचि
विद्या कभी मेले में जाते, तो कभी पंचकल्याणक मे, तो कभी मुनि-संघ के दर्शनों के लिये। और बोलने लगा- लो माँ! मैं आपके लिये भगवान लाया हूँ। और खुद भगवान बनने वचल पडा, माँ उधर हिलाती हुए सोचती है।
धर्म शिक्षक
बालक विद्याधर की चिंतन प्रक्रिया स्वस्थ होने से 14-15 वर्ष की इस बाल उम्र, अल्प आयु में अपनी ही भाई-बहन को धर्म की शिक्षा दे, सहस्त्र नाम, भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र आदि का पाठ पढाने लगे।
रेल यात्री- संयमी यात्री
दक्षिण का युवक उत्तर भारत की ओर लम्बाई लाँघता-फलांगता बॉम्बे सेंट्रल पहुँच गया।
यहाँ से ट्रेन बदल कर अजमेर जाना था। प्रतीक्षा करनी होगी। स्टेशन के एक कक्ष के समक्ष बोर्ड पर लिखा था – प्रथम श्रेणी के यात्रियों के लिये प्रतिक्षालय। वही अखबार था टेबल पर। उठा कर पढने लगे। तबतक वहाँ का कर्मचारी आ गया। भूखे-प्यासे विद्या के चेहरे पर उस समय दैन्यता झलक रही थी। कर्मचारी पूछ बैठा- टिकट? विद्याधर ने पॉकेट से टिकट निकाल कर बतला दी। कर्मचारी के कहने पर, यह तो तृतीय श्रेणी यात्रियों ले प्रतीक्षालय के योग्य थर्ड क्लास का टिकट है। फिर क्या, प्रथम को ठुकरा कर तृतीय का गौरव बढाने वाले विद्याधर इस कक्ष के लिये नये नहीं थे, कभी महात्मा गाँधी भी इसी परम्परा में उस कक्ष को अपना स्पर्श दे गये थे। ऐतिहासिक हो गया वह कक्ष। वह प्लेटफार्म। वस स्टेशन्।
त्याग के साथ गुरु दर्शन
स्नान, दर्शन, पूजन, भोजन सम्पन्न हुआ। अजमेर की धरती पर विद्याधर, फिर दुरुवार के दर्शन करने चल पडे मदनगंज- किशनगढ की ओर। प्रथम दर्शन यहीं हुए पू. मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी को नजर भरकर देखा ज्ञानसागर जी ने विद्याधर जी की ओर। पूछ बैठे- क्या नाम है तुम्हारा? जी मैं विद्याधर हूँ… तुम विद्याधर हो? मुस्कुराये… फिर बोले, तो विद्या सीख कर उड जाओगे, विद्याधरों की तरह। फिर मैं श्रम क्यु करु? नहीं महाराज नही। मैं उडने नहीं आया, मैं रमने आया हूँ। ज्ञानसागर जी के चरणरज में रमने। विश्वास करें, मैं ज्ञानार्जन कर भागुंगा नहीं। कुच पल रोक कर बोले – विद्य्ताधर मुनिवर से, यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं हैतो मैं सपथ लेता हूँ, आज से ही आजीवन सवारी का त्याग करता हूँ। जरा सी बात में महान त्याग।
गुरु शिक्षा
अध्ययन की लगन देख कर अब धीरे धीरे मुनिवर ज्ञानसागर जी विद्याधर को पढाने हेतु समय देने लगे। पहले थोडा, फिर अधिक, फिर और अधिक। कुछ माह चार घंटे से ले लर आठ घंटे तक पढाने लगे।
मुख से जिनवाणी
दशलक्षण पर्व प्रारम्भ हो चुका था। पू. ज्ञानसागर जी ने विद्याधर से कहा-तत्त्वार्थ-सूत्र का पाठ करो। विद्याधर को सूत्र अच्छी तरह से याद थे। अतः वहीं बैठ कर उन्होने बोलना प्रारम्भ किय। ज्ञानसागर जी परेशान थे के इसने हाथ में पुस्तक नहीं ली, अब बीच में फिर उठना पडेगा इसे पुस्तक के लिये। पर ये तो लगातार मौखिक बोलते चले गये।
गुरु सेवा
एक दिन पू. ज्ञानसागर जी के गले में दर्द हुआ। विद्याधर जाने कैसे जान गये।मुनिवर ज्ञानसागर जी ने कहा- तेरे हाथों में जादू है। लगत है तू वैद्य बन कर आया है, मेरी सेवा के लिये। सेवा और संकल्प की गंगा उनके जीवन में नित्य बहा करती थी।
पिच्छिका निर्माता
एक दिन पारस पारखी, गुरुवार ज्ञानसागर जी महाराज ने चुपके से अपनी पिच्छी के पंख बिखेर दिये और सहज हो कर बोले- विद्याधर! इस पिच्छिका को पुनः बना सकते हो? न शब्द वहाँ था ही नहीं, सो हाँ कह दिया और विद्याधर ने शास्त्रों में वर्णित विद्याधरों की तरह शीघ्र पीछी बना डाली। गुरु जी ने पीछी देखी और देखते ही कह दिया- ‘ब्रह्मचारी, आपका ज्ञान सही में पीछी लेने योग्य हो चुका है।’
संकलन- सुशीला पाटनी
आर. के. हाऊस
मदनगंज- किशनगढ
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