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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Sushila Patni

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  1. भारत-भू पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संत कवि जन्म ले चुके हैं। उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है। इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है। जिसने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं। भगवान राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, हजरत मुहम्मदौर आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद्, मुनि योगिन्दु, शंकराचार्य, संत कबीर, दादू, नानक, बनारसीदास, द्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत करके सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है। उनके त्याग और संयम में, सिद्धांतों और वाणियों से आज भी सुख शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है। जीवन में आस्था और विश्वास, चरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बैर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषों, साधकों, संत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैं, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैं, इसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की, मानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है। आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोत, संवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयम, अनुशासन, रीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था। आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है। विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जाना, धर्म-प्रवचन सुनना, शुद्ध सात्विक आहार करना, मुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्य, सभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने , उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगाना, मन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करना, बिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जाना, परंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देना, उनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे। गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शे, पल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण किया, तभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं। वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृत, अपभ्रंस, संस्कृत, कन्नड, मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरण, छन्दशास्त्र, न्याय, दर्शन, साहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजित, नदी की तरह प्रवाहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं। आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलता, कमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्र, सम्मुन्नत ललाट, सुदीर्घ कर्ण, अजान बाहु, सुडौल नासिका, तप्त स्वर्ण-सा गौरवर्ण, चम्पकीय आभा से युक्त कपोल, माधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुख, लम्बी सुन्दर अंगुलियाँ, पाटलवर्ण की हथेलियाँ, सुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानी, मनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञा, प्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति। बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलना, शिक्षाप्रद फिल्में देखना, मन्दिर के प्रति आस्था रखना, तकली कातना, गिल्ली-डंडा खेलना, महापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्र, जो की खाने-पीने, भोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती है, तब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञान, तपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था। आप संसार की असारता, जीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्ट, गोरे चिट्टे, लजीले, युवा विद्याधर की निष्ठा, दृढता और अडिगता के सामने मोह, माया, श्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग 1 वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रह, असार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्ति, उद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है। ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारी, पूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौना, आकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा – सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोर, परंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालन, सबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है। गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूप, य हो झुलसाती गृष्म की तपन, मुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रही, जो देश, समाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकता, उतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी। किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर की, परंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुए, तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीया, संवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में “मूक माटी” महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है। संकलन- सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस मदनगंज- किशनगढ
  2. विश्व वंदनीय आचार्यश्री 108 विद्यासागरजी महाराज के बचपन की यादें शिशु सौन्दर्य एक दिन घर पर लगाये गये नन्हे बगीचे में एक खाट पर लेटे हुए मात्र साल भर के ‘पीलू’ को देखा, जो दिगम्बर अवस्था में पडा अपना अंगुठा चूस रहा है। कमर में चान्दी की करधनी बँधी शोभा बिखेर रही है। नन्हे शिशु की छवि देखते ही बनती थी। बलपना एक तीर्थ की वेदी पर पिता ने बादाम चढाए और माथा टेककर झुके।फिर नजर बचा कर जेब से दोनो बादाम निकाल कर रख दी वापिस वेदी पर। पीलू ‘त्यै’ बोलने में मस्त रहे। बिच्छू ने डंक मारा घर के भीतर वाली देहलीज पर हाथ रख कर बैठा था पीलू, दूसरे हाथ का अंगूठा मुँह में था। अंगुठे में जाने कैसी मिठास थी के पीलू चाहे जब चूसता रहता था। उस दिन भी वह चूसने का आनन्द ले रहा था। सिर की झालर फरफरा रही थी। आँखें मोतियों की तरह चमक रही थीं। छोटे छोटे हाथ कभी मुँह की तरफ, कभी देहलीज की तरफ उठते-गिरते। तभी जोर से चीख पडे पीलू। चीख के बाद रोने क भी क्रम था। रोने में तडपन और तडपन में घबराहट भी थी। दौडा हुआ परिवार आया, देखा बिच्छू ने काटा है। बाल खरीददार मल्लप्पा जी ने 5 क नोट दिया, पहुँचे पीलू सीधे दुकानदार के समक्ष – चॉकलेट खरीदने। दुकानदार ने चार आने की चॉकलेट दे दी। बाल छात्र पाँच वर्ष के पीलू। पिताजी उसे ले कर शाला में नाम लिखवाने पहुँचे। आँखे फाडे-फाडे पीलू कमरे को देखता, तो कभी छात्र समूह को, कभी सामने कक्ष की दीवाल पर टँगे श्यामपट को। तभी लिखने लगे प्रधान अध्यापक रजिस्टर पर नाम, बालक पीलू अब छात्र विद्याधर बन गये। अध्ययन में बाल छात्र विद्या प्रवेश कर गये विद्या मन्दिर की पहली कक्षा मे। मन लगा कर विद्यार्थियों जे बीच पढने लगे। देखते ही देखते पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी तथा तीसरी से चौथी कक्षा में पहुँच गये। सबसे बडा श्रोता : नन्हा श्रावक मल्लप्पा जी ज शास्त्र बाँचने बैठते मन्दिर में, तो वृद्ध, प्रौढ, युवक श्रावकों के मध्य एक नन्हा श्रावक भी हुआ करता। नन्हा श्रावक सीधा मल्लप्पा जी के पास पहुँचता और कोई ना कोई प्रश्न जड देता।कभी तो मल्लप्प जी उत्तर देते, कभी कह देते- पीलू बेटे घर चल कर बतलायेंगे। अपनी वाणी से जिनवाणी माँ ने कहा- स्चूल की पढाई के साथ थोडी धार्मिक पढाई भी किया कर! देख सामने आले में जैन धर्म की पुस्तक रखी है, उसमे भक्तामर याद करके बता! प्रसन्न हो गये तोता। उठा कर ले आये जिनवाणी। कुच दिन बाद बोले- माँ जी भक्तामर सुनोगी! मुझे कंठस्त हो गया है। उन्होने कहा- सुना भला! इतना कहा नहीं कि सुनाने लगे तोता अपनी वाणी से जिनवाणी। खेल खेल में मुनि दर्शन तोता दौड्ते हुए वहाँ पहुँच गये। अपनी गिल्लि उठा कर भागनेवाले थे कि उनकी नजर गुफा के अन्दर चली गयी। व्हा एक दिगम्बर साधु स्वाध्याय पूर्ण कर उठ ही रहे थे। प्रयास की कथा घर आये तो देखा कि माँ दही मथने की तैयारी कर रही है। मक्खन उठा कर दे देती। मक्खन क्या है? दही का सार तत्व ही है ना? विद्याधर की दृष्टि कभी थोथे पर नहीं रही, सार चाहने वाला यह किशोर एक दिन सारे संसार को सार का दिग्दर्शन करायेगा, कौन जानता था? मूँजी- बन्धन दक्षिण भारत की परम्परा के अनुसार वहाँ 12 वर्ष तक के बच्चों को एक विशेष संस्कार से संस्कारित किया जाता है, जिसे मूँजी- बन्धन कहते हैं। इसके अनुसार 12 वर्ष या उससे उपर उम्र के किशोर मूँजी-बन्धन के दिन उपवास करते हैं, नाई से बाल कटाते हैं, चोटी रखते हैं, सफेद धोती पहनते हैं, कन्धे पर दुपट्टा डालते, फिर सात घर जा कर भिक्षा माँगते हैं। भिक्षा से प्राप्त अन्न से भोजन बना लेते हैं और अन्य कुच नहीं खाते हैं। सब कुछ छोड कर प्रसन्न होने का आभास नहीं मालूम था उस क्षण मल्लप्पा जी को, नहीं ज्ञात था श्री जी को के हेंडल छोड कर साइकल चलाने वाले हाथ, एक दिन हँसते-हँसते यह घर-बार, सांसारिकता भी छोड देंगे। दयालु श्रमशील बालक धैर्यवान मुस्कुराये और बोले- ऐसा। बैल के स्थान पर वे खडे हो गये थे और हल का जुँआ अपने पुष्ट स्कन्ध पर धर लिया था। बोले व्यर्थ चिंता मत करो, कार्य चल जायेगा। काफी देर बैल के स्थान पर हल खींचते रहे। श्रम, लगन, दया, कर्तव्य के कई रंग देखने को मिले- मिलेंगे उनकी चर्या में। मुनि सेवा और मंत्र उच्चारण एक बार बोरगाँव से खबर उठी कि मुनि श्री नेमिसागर जी ने समाधी – मरण स्वीकार कर सल्लेखना व्रतसमाधि ले ली है। नेमिसागर जी को णमो मंत्र सुनान प्रारम्भ कर दिया विद्याधर ने। बुद्धि का खेल: सेवा भाव र्क रात की बात है। अचानक श्री देशभूषण जी महाराज को बिच्छू ने डंक मार दिया। फिर क्या, दर्द –कम्पन शरीर में होने लगा। और दौडते हुए हाजिर हो गये महाराज के समक्ष। दवा के द्वारा डंक का दर्द दूर किया, फिर आराम हुआ। पानी में बाल भानु : ध्यान मुद्रा सदलगा में विद्याधर के घर के पास ही बावडी बनी थी। वे कभी कभी उस में पालथी मारकर, पानी में आसन लगाकर ध्यान किया करते थे।जब माँ ने प्रश्नरूपी कंकड उछाला तब थोडे से हिले, बोले मैं आसन लगा कर ध्यान करता हूँ। जैन प्रतीकों में रुचि विद्या कभी मेले में जाते, तो कभी पंचकल्याणक मे, तो कभी मुनि-संघ के दर्शनों के लिये। और बोलने लगा- लो माँ! मैं आपके लिये भगवान लाया हूँ। और खुद भगवान बनने वचल पडा, माँ उधर हिलाती हुए सोचती है। धर्म शिक्षक बालक विद्याधर की चिंतन प्रक्रिया स्वस्थ होने से 14-15 वर्ष की इस बाल उम्र, अल्प आयु में अपनी ही भाई-बहन को धर्म की शिक्षा दे, सहस्त्र नाम, भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र आदि का पाठ पढाने लगे। रेल यात्री- संयमी यात्री दक्षिण का युवक उत्तर भारत की ओर लम्बाई लाँघता-फलांगता बॉम्बे सेंट्रल पहुँच गया। यहाँ से ट्रेन बदल कर अजमेर जाना था। प्रतीक्षा करनी होगी। स्टेशन के एक कक्ष के समक्ष बोर्ड पर लिखा था – प्रथम श्रेणी के यात्रियों के लिये प्रतिक्षालय। वही अखबार था टेबल पर। उठा कर पढने लगे। तबतक वहाँ का कर्मचारी आ गया। भूखे-प्यासे विद्या के चेहरे पर उस समय दैन्यता झलक रही थी। कर्मचारी पूछ बैठा- टिकट? विद्याधर ने पॉकेट से टिकट निकाल कर बतला दी। कर्मचारी के कहने पर, यह तो तृतीय श्रेणी यात्रियों ले प्रतीक्षालय के योग्य थर्ड क्लास का टिकट है। फिर क्या, प्रथम को ठुकरा कर तृतीय का गौरव बढाने वाले विद्याधर इस कक्ष के लिये नये नहीं थे, कभी महात्मा गाँधी भी इसी परम्परा में उस कक्ष को अपना स्पर्श दे गये थे। ऐतिहासिक हो गया वह कक्ष। वह प्लेटफार्म। वस स्टेशन्। त्याग के साथ गुरु दर्शन स्नान, दर्शन, पूजन, भोजन सम्पन्न हुआ। अजमेर की धरती पर विद्याधर, फिर दुरुवार के दर्शन करने चल पडे मदनगंज- किशनगढ की ओर। प्रथम दर्शन यहीं हुए पू. मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी को नजर भरकर देखा ज्ञानसागर जी ने विद्याधर जी की ओर। पूछ बैठे- क्या नाम है तुम्हारा? जी मैं विद्याधर हूँ… तुम विद्याधर हो? मुस्कुराये… फिर बोले, तो विद्या सीख कर उड जाओगे, विद्याधरों की तरह। फिर मैं श्रम क्यु करु? नहीं महाराज नही। मैं उडने नहीं आया, मैं रमने आया हूँ। ज्ञानसागर जी के चरणरज में रमने। विश्वास करें, मैं ज्ञानार्जन कर भागुंगा नहीं। कुच पल रोक कर बोले – विद्य्ताधर मुनिवर से, यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं हैतो मैं सपथ लेता हूँ, आज से ही आजीवन सवारी का त्याग करता हूँ। जरा सी बात में महान त्याग। गुरु शिक्षा अध्ययन की लगन देख कर अब धीरे धीरे मुनिवर ज्ञानसागर जी विद्याधर को पढाने हेतु समय देने लगे। पहले थोडा, फिर अधिक, फिर और अधिक। कुछ माह चार घंटे से ले लर आठ घंटे तक पढाने लगे। मुख से जिनवाणी दशलक्षण पर्व प्रारम्भ हो चुका था। पू. ज्ञानसागर जी ने विद्याधर से कहा-तत्त्वार्थ-सूत्र का पाठ करो। विद्याधर को सूत्र अच्छी तरह से याद थे। अतः वहीं बैठ कर उन्होने बोलना प्रारम्भ किय। ज्ञानसागर जी परेशान थे के इसने हाथ में पुस्तक नहीं ली, अब बीच में फिर उठना पडेगा इसे पुस्तक के लिये। पर ये तो लगातार मौखिक बोलते चले गये। गुरु सेवा एक दिन पू. ज्ञानसागर जी के गले में दर्द हुआ। विद्याधर जाने कैसे जान गये।मुनिवर ज्ञानसागर जी ने कहा- तेरे हाथों में जादू है। लगत है तू वैद्य बन कर आया है, मेरी सेवा के लिये। सेवा और संकल्प की गंगा उनके जीवन में नित्य बहा करती थी। पिच्छिका निर्माता एक दिन पारस पारखी, गुरुवार ज्ञानसागर जी महाराज ने चुपके से अपनी पिच्छी के पंख बिखेर दिये और सहज हो कर बोले- विद्याधर! इस पिच्छिका को पुनः बना सकते हो? न शब्द वहाँ था ही नहीं, सो हाँ कह दिया और विद्याधर ने शास्त्रों में वर्णित विद्याधरों की तरह शीघ्र पीछी बना डाली। गुरु जी ने पीछी देखी और देखते ही कह दिया- ‘ब्रह्मचारी, आपका ज्ञान सही में पीछी लेने योग्य हो चुका है।’ संकलन- सुशीला पाटनी आर. के. हाऊस मदनगंज- किशनगढ
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