ब्र. विजयलक्ष्मी, विजयनगर
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?सद्भावना राखी? गुरुदेव के द्वारा प्रदत्त सुंदर नाम। विश्वास है यह राखी बनानेवालों, बांधने वालों, बंधवाने वालों; सभी के मन की मलिनता को धोकर सद्भावना की स्थापना और संचार में सफल होगी। ?शुभकामना?
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आचार्य दादा गुरु श्री ज्ञानसागर जी महाराज के समाधि दिवस पर विशेष
श्रद्धा और परिणाम
गुरु द्रोणाचार्य और उनका शिष्य बनने के इच्छुक तीन पात्र- अर्जुन, कर्ण और एकलव्य। गुरु द्रोणाचार्य को इनमें से केवल राजपुत्र अर्जुन शिष्य के रूप में स्वीकार। सूतपुत्र कर्ण और वनवासी एकलव्य का तिरस्कार।
इस प्रसंग में गुरु द्रोणाचार्य के व्यवहार की व्याख्या तो प्रायः की जाती रही है लेकिन मेरे मानस पटल पर तो द्रोणाचार्य के द्वारा तिरस्कृत दोनों पात्रों का व्यवहार बार-बार उभरता है। योग्यता रखते हुए भी गुरु के द्वारा तिरस्कृत कर्ण और एकलव्य के व्यवहार पर गौर करें तो जीवन के अद्भुत सूत्र हाथ लगते हैं।
गुरु द्रोणाचार्य से तिरस्कृत होकर वीर कर्ण हीन भावना से ग्रस्त हो गया और अपनी योग्यता साबित करने के लिए, राजपुत्रों के समकक्ष होने के लिए वह दुराचारी दुर्योधन के हाथों बिक गया। अर्जुन का दुश्मन बना। परशुराम से छल पूर्वक विद्या प्राप्त कर शापित हुआ। परिणाम- युद्ध के समय विद्या विस्मृत हो गई और दारुण मृत्यु का वरण करना पड़ा। नरक के द्वार खुल गए। जीवन लांछित हो गया।
इसके विपरीत एकलव्य ने गुरु के तिरस्कार के प्रति भी गजब की सकारात्मकता दिखाई। उसने प्रतिरोध नहीं किया। हीन भावना से ग्रस्त नहीं हुआ। उसमें राजपुत्रों के समकक्ष बैठने की, किसी से प्रतिस्पर्धा करने की, तिरस्कार का प्रतिशोध लेने की भावना ही नहीं जागी। उसे तो बस धनुर्विद्या सीखनी थी और गुरु द्रोणाचार्य की योग्यता पर पूरा विश्वास था। गुरु से तिरस्कृत होकर भी कोई शिकायत नहीं की, प्रतिकार नहीं किया, जैसे तिरस्कार ने उसके हृदय को छुआ ही नहीं, जैसे उसने तिरस्कार को तिरस्कार माना ही नहीं। सिर झुका कर चला गया अपने जंगल में और गुरु के रेखाचित्र के समक्ष अभ्यास करता रहा। अभ्यास करते-करते एक दिन वह भी आया जब उसने अपने अभ्यास में व्यवधान डालने वाले भौंकते हुए कुत्ते को चुप करने के लिए जान से मारा नहीं उसकी जीभ पर सर संधान कर अपनी श्रेष्ठता उजागर कर दी।
धनुर्विद्या में उसकी ऐसी अद्वितीय प्रवीणता देख अर्जुन की सर्वोच्चता को कायम रखने के लिए गुरु द्रोणाचार्य द्वारा दाएं हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांगने पर भी उसने कोई प्रतिकार किए बिना हंसते-हंसते अपने दाएं हाथ का अंगूठा गुरु चरणों में समर्पित कर दिया और इतिहास में श्रेष्ठतम शिष्य के रूप में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अमर कर लिया।
छोटी-छोटी असफलताओं से निराश होकर आत्महत्या को उन्मुख भारत के युवाओं के लिए कितना प्रेरक, अद्भुत, अनुकरणीय है एकलव्य का यह व्यवहार।
सफल कहलाने के लिए दो चीजें आवश्यक है- कुव्वत और भाग्य।
कुव्वत और भाग्य दोनों ही न हों, वह अभागा।
कुव्वत हो पर भाग्य नहीं, वह दुर्भाग्यशाली; जैसे- कर्ण।
कुव्वत और भाग्य दोनों हों, वह सौभाग्यशाली; जैसे- अर्जुन, आचार्य श्री विद्यासागर जी
कुव्वत न हो पर भाग्य हो, वह परम सौभाग्यशाली; जैसे- मैं।
असफल कहलाने का मतलब असफल होना नहीं होता; जैसे- एकलव्य।
कुव्वत होकर भी असफल कहलाने का बस इतना ही मतलब है कि हम मूल्यांकन करनेवाले की दृष्टि में असफल हैं या कि आज दिन हमारा नहीं था।
पुरुषार्थ करते हुए धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा कर सके तो कभी वह दिन भी आएगा जब तो मूल्यांकन करने वाले की दृष्टि बदल जाएगी। कोई अयोग्य और असफल घोषित कर दे तो उदास होकर मरना क्यों?
?वह हर हाल में अपना वचन निभाते हैं? संस्मरण
In नमोस्तु गुरुवर
Posted · Edited by ब्र. विजयलक्ष्मी, विजयनगर
?वह हर हाल में अपना वचन निभाते हैं?
किस ने मुझसे कहा यह तो याद नहीं पर क्या कहा था यह मुझे अच्छी तरह याद है क्योंकि जो कुछ कहा था वह गुरुदेव के बारे में था। ?जब अचार्य श्री पपौरा जी पहुंचे तो किसी व्यक्ति ने मुझसे कहा कि दीदी मैंने स्वयं सुना है कि आचार्य श्री ने अपने साधुओं से कह दिया है कि मैं तो ज्येष्ठ माह में विहार करूंगा। जिसे ज्येष्ठ माह में विहार ना करना हो वह जहां चाहे वहां रुक सकता है। उस व्यक्ति ने यह भी कहा कि दीदी ऐसी तेज धूप अभी से पड़ रही है। ज्येष्ठ माह में तो और ज्यादा तपन होगी। नए-नए साधु कैसे इतनी गर्मी में विहार सहन कर पाएंगे और स्वयं आचार्य श्री की आयु तो देखो।
मैंने कहा भाई ध्यान रखो इस बार दो ज्येष्ठ माह हैं और आचार्य श्री के वचन कभी झूठे नहीं हो सकते। उन्होंने यदि ऐसा कहा है तो कुछ सोच समझकर ही कहा होगा।
इस बीच कई बार WhatsApp पर आचार्य श्री का विहार हो गया, विहार हो गया ऐसी अफवाहें उड़ती रहीं। हम आनंद लेते रहे। दो चतुर्दशी भी निकल गईं। सोचते-सोचते कल रात मेरा मन अचानक मुस्कुरा पड़ा और बोला कल प्रातः काल आचार्य श्री का विहार अवश्य ही होगा क्योंकि कल ज्येष्ठ माह का अंतिम दिन है और आचार्य श्री के वचन कभी झूठे हो नहीं सकते। मेरे आनंद की सीमा नहीं रही जब मैंने सुना कि आज प्रातः काल आचार्य श्री का विहार पपौरा जी से हो गया है।
?कितने कुशल हैं वे अपने वचन के निर्वाह में। वे वचन किसी को देते नहीं लेकिन उनके मुंह से जो वचन निकल जाएं वह असत्य होते नहीं।
?कितने कुशल हैं वह अपने संघ के पालन में।
?कितने कुशल हैं वे मन की बात को मन में छुपा कर रखने में।
? कितने कुशल हैं वे लोगों को सुख पहुंचाने में।
?अनंत कुशलता के धारी गुरुवर को बारंबार प्रणाम।
?काश! उनकी कुशलता का अंश मात्र भी मुझ में आ जाए तो बेड़ा पार हो जाए।
?जय हो गुरुदेव! आपकी सदा जय हो?