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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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प्रवचन Reviews posted by रतन लाल

  1. प्रेम का मतलब हरेक व्यक्ति सुखी रहे, मोही कहता है मैं ही जीवित रहूँ चाहे दूसरों का सत्यानाश हो जाये। संतोष वहाँ है, जहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ तो फिर प्रेत है। विश्वासघात प्रेम पर आघात है। जो कुछ बाहर से प्राप्त करने की चेष्टा है, उसे भूलकर ब्रह्मा के पास जाने की चेष्टा करो। ब्रह्मचर्य की महिमा बहुत अनोखी है, उसे अपनाओ। जो ब्रह्मा में रमण कर रहा है, उसको शत-शत प्रणाम।

  2. भगवान् के पास, निरभिमानी के पास निरभिमानी बन कर जाना चाहिए और विचार कर कहना चाहिए कि मैं बालक हूँ, मंद बुद्धि हूँ, छोटा हूँ, राग को अपना रहा हूँ। हे भगवान्! मुझे मुझमें मिला कर सुखद शांति दिला दे। ये चैतन्य शक्ति जो आत्मा के पास है, वह ज्ञान दर्शनात्मक है, वह शक्ति सच्चेतन बन जाये, अपने आप में मिल जाये। चेतन आपके पास भी है, पर वह तो कर्म चेतना है, अपने स्वभाव को भूल कर रस ढूँढ़ रही है। बाहर की ओर चेतना नहीं जाने देना यही आकिंचन्य धर्म है, बाकी तो मात्र अभिनय है।

  3. सरलता स्वभाव की ओर और कठिनता बाहर की ओर ले जाती है। ग्रहण करने में समय लगता है, पर छोड़ने में नहीं, फिर प्राप्त होवे नहीं भी होवे। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। 

  4. अन्तरंग तप में ध्यान और बहिरंग तप में कायोत्सर्ग मुख्य रखा गया है। अनशन तो बहुत दूर रह गया है। खाने का लक्ष्य कर जो कायोत्सर्ग करता है उससे चित्त की प्रवृत्तियाँ चंचल होती है। कुतप के द्वारा तो संसार के अनेक पदार्थ प्राप्त कर लिए पर मुक्ति नहीं। सम्यक दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सुख दुख राग द्वेष युक्त आत्मा से है। अत: जिस प्रकार भगवान् महावीर ने तप को अपनाया है, आप भी उसे अपनाओ। उन सत् तपस्वियों के लिए मेरा शत-शत प्रणाम।

  5. द्रव्य संयम में मान रहता है, भाव संयम में मान नहीं रहता। द्रव्य संयम एक प्रकार से ऊपर का फोटो है और भाव संयम अन्दर का एक्स-रे। वह अन्दर की कमी बताता है। मिथ्यादृष्टि भाव संयम को नहीं अपना सकता है। अत: अपने ऊपर कंट्रोल कर वास्तविक संयम को अपनाओ।

  6. संयम का मतलब बंध जाना। व्रत-नियम में कानून में बंध जाना। हरेक क्षेत्र में संयम की बड़ी आवश्यकता है। बंधन जब तक टूटता नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है और जब तक बंधन (संयम) नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार ऊंट के लिए नकेल, घोड़ों के लिए लगाम, मोटर के लिए ब्रेक की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए ब्रेक, बंधन, संयम की आवश्यकता है।

  7. जिसका राग व्यतीत हो गया है, वही वीतरागी है। सुख बाहर से नहीं आता, जिसकी अपेक्षा की जाये वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।

  8. शरीर तो जड़ पदार्थ है, बिखरने वाला है। इसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मोह नहीं करना चाहिए, इससे अनन्त संसार बढ़ जायेगा, वह अपने आपके प्रति निर्दयी बन जायेगा। शरीर के स्नान से आरम्भ परिग्रह हिंसा होती है, इसलिए मुनि शरीर का स्नान नहीं करते। वे हवा, धूप, वर्षा आदि से प्राकृतिक स्नान करते हैं। शरीर को जितना जितना शुद्ध करेंगे उतना शुचिता से दूर हो जाओगे। शरीर अशुचि है, आत्मा शुचि है। शरीर के प्रति मोहभाव है, इसलिए आत्मा अशुचि है।

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  9. जिनालयों की रक्षा नव जिनालय निर्माण

    पर ब्रेक लगाकर व पुरातन जिनालयों का जीर्णोद्धार ‌‌व नवीनीकरण कर ज्यादा अच्छी तरह से की जा सकती है

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