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Record Reviews posted by रतन लाल
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सुन्दर प्रस्तुति
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उत्तम पूजा
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आपकी प्रभु भक्ति ही,
संसार का तम हार ती
आप में ही समाहित ज्ञानमय,
माँ शारदे, माँ भारती।।
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आप सा गुरु मिल सकें, हर
हृदय की यहीँ मंगल कामना
आपके चरणों में स्थान हो
मन की गहराई से ये भावना ।।
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प्रभु बस निज चरण
की शरण में रख लीजिये
शुभ आशीष प्रभु देकर
मुझें कृतार्थ कर दीजिये ।।
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भक्ति भाव वश शुभ चरणों में रह लों, यही शरण है,
यहीँ मोक्ष है, यहीं धर्म है, त्याग यही है, गुरुवर चरणों
में शीश नवाऊं, चरण धूल माथे पर चाहूँ, आशीष मिलें
सौभाग्य जगे, बस प्रभु इतना ही चाहूँ ।।
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प्रभु, मुझको पता है
भक्तों पर गुरु कृपा
रहती सदा, आप सम
बन जाउँ मैं, मेरी भावना।।
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श्रद्धा सुमन समर्पित
तन, मन अर्पित
नमन, वन्दन, अभिनन्दन
सन्त शिरोमणी गुरुवर।।
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सन्त शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
के चरण कमलों में कोटि-कोटि नमन-वन्दन
नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु गुरुवर
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आपसे स्नेह औरआशीष कीबस चाह है
आपकी शुभशरण गूरुवर मोक्ष का उपाय है ||
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तेरी ही भक्ति में मुझे बस डूब जाना है
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त्रय बार नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु
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आत्मिक साधना उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है,
और मुक्तिसुंदरी आपके समीप आ रही है,
यह राज हमें भी सिखा दीजिए।
तन की सुंदरता के लिए नहीं,
शिवरमा को पाने के लिए,
आत्मिक शाश्वत सौन्दर्य पाने के लिए।
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ज्ञानगुरु पर्वत से पावन, विधाधारा फूट पड़ी।
विधामृत को जी भर पीने, सारी जनता उमड़ पड़ी।।
जिसने पान किया श्रद्धा से, अमर तत्व को जान लिया।
विधासागर गुरु को अपना, परमातम हीं मान लिया।।
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जिसकी सौम्यछवि दर्शन कर, आतम दर्शन होता हैं।
सदियों से जो भाग्य सो रहा, तत्क्षण जागृत होता है।।
पशु भी परमेश्वर पथ पाता, मानव की क्या बात कहे।
भाव सहित जो गुरु को वंदे, सिद्धदशा तक साथ रहे।।
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वर्द्धमान के बाद प्रथम हीं, ऐसा अवसर पाये हैं।
बाल ब्रह्म कई शिष्यो के गुरू, विधासागर आये हैं।।
आगम के अनुकूल आचारण, करते और कराते हैं।
महासंत श्री विद्यासागर, गुरु को शीश नवाते हैं।।
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ज्ञानसिंधु में प्रवेश करके, गहन आत्मचिंतन करते।
जग से द्रष्टि हटाकर गुरुवर, ज्ञान गगन केलि करते।।
कुंदकंद अकलंकदेव सम, आगम को कहते निर्भय।
इसीलिए चऊ दिश में गूँजी, विधा गुरुवर
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दुनिया को समझने के लिए,
जिस बुद्धि का मैं उपयोग करता हूँ।
उस बुद्धि से आपको समझने का,
प्रयास भी न करूँ।
जिन चक्षुओं से मैं दुनिया को देखता हूँ।
उन चक्षुओं से आपको देखने की
धृष्टता कभी न करूँ।
हे गुरुवर... मुझे, इतनी भक्ति देना,
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नीरस सा लेते आहार पर, सरस मधुर जीवन जीते।
प्रवचन करते वचन न देते, स्वतंत्र हो समरस पीते॥
चौथे युग सम सच्चे गुरुवर, मेरे मन में बसते हैं।
तुम भी दर्श करो जगवालों, दर्शन से भय नशते हैं।।”
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हे शुद्धात्म प्रदेश निवासी, गुरुवर तुमको वंदन हो।
निजात्म प्रेमी ज्ञानी-ध्यानी, गुरुवर का अभिनंदन हो।
हे अनन्य आत्मीय मुनीश्वर, जग का हरते कंदन हो।
विद्यासागर परम कृपालु, पद में जीवन अर्पण
गुरु पद पूजन
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In कृतज्ञांजलि / पूजांजलि
Posted
उत्तम