कुछ वर्ष तक मैं तीसरी प्रतिमा की साधना करती रही। नैनागिर का चातुर्मास चल रहा था। आचार्य श्री ने कहा- सप्तम प्रतिमा ले लो। साधना तो करती हो, सामायिक बगैरह की। शाम के समय जो जल बगैरह लेती थी, वह अब नहीं लेना है। अच्छा रहेगा। रत्तीबाई जी पास में बैठी थीं, वह मुझे प्रोत्साहन देती हुई कहती हैं- ले लो, पुष्पा, मेरी भी सप्तम प्रतिमा हैं। कर लो कायोत्सर्ग। मैंने गुरु के मुख से सुनकर मन तो बना ही लिया था, लेकिन आश्रम की संचालिका बाई जी का प्रोत्साहन भी मिल गया, सो मैंने सप्तम प्रतिमा के व्रत भी ले लिये।
कुछ समय बाद आचार्य श्री के मन में विचार उठे कि सप्तम प्रतिमाधारी तक मैंने देखे। अष्टम, नवम व दशम प्रतिमा तो लोग कभी लेते ही नहीं हैं। उनके मन में जैसे ही विचार उठे, उन्होंने कुछ बहिनों को अष्टम प्रतिमाधारी बनाना चाहा। कुछ चर्चा चल रही थी कि अष्टम प्रतिमाधारी जो बनेगा वह रात्रि में मैौन रखेगा, लाईट में नहीं पढ़ेगा। एक गाँव से दूसरे गाँव में प्रभावना करने के लिए विहार करके जायेंगे। वहाँ जो श्रावक तुम्हें निमन्त्रण देकर ले जायेगा, तुम्हें उसी के घर में आहार को जाना होगा। निमन्त्रण पहले से नहीं होगा। जब तुम मन्दिर में बैठी हो, उस समय कोई कहेगा चलिये आहार के लिए, तभी जाना होगा। साधुओं को आहार नहीं देना। अगर वहाँ तुम्हें आहार करना है तो उसमें अपना आहार कम करके देना। अपने हाथों से कुछ तैयार नहीं करना होगा। आर्यिकावत् रात्रि में चर्या करनी होगी। एक जगह बैठना। रात्रि में चलना-फिरना नहीं। कुछ शारीरिक बाधा हो तो उसकी छूट रहेगी। मैंने आचार्य श्री के मुख से अष्टम प्रतिमा के विधि विधान सुनें। लेकिन आचार्य श्री ने मुझे पहले याद किया, वह भी, यह कहकर कि उसके पास योग्यता है। उसको मैं अष्टम प्रतिमा दूँगा। कुछ अन्य बहिनें भी अष्टम प्रतिमा लेने की इच्छुक हुई। आचार्य श्री बोले- उसको भी आने दो, बुलाओ कहा है? एक बहिन ने कह दिया- अभी-अभी यहाँ महाराज को भेजकर चौके में आहार करने चली गई। कमलाबाई जी बामौरा वाली आचार्य श्री के निकट बैठी थीं। आचार्य श्री ने उनसे कहा- जाओ, पटेरा वाली को मेरे पास भेज दो। कमलाबाई जी ने आचार्य श्री के विचार मुझसे कहे, कि आचार्य श्री अष्टम प्रतिमा देने की भावना कर रहे हैं। और तुम्हें बुलाया है। कह रहे हैं कि जल्दी भेजना। पौने बारह बज गये हैं, सामायिक का समय होने वाला है। मैंने जैसे ही सुना, पता नहीं कर्म का वेग ऐसा आया, मैंने आचार्य श्री के पास अष्टम प्रतिमाधारी नहीं बनने की असमर्थता एक पत्र के माध्यम से लिखकर भेज दी। आचार्य श्री मुझमें इतनी पात्रता नहीं है। मैं विहार भी नहीं कर सकती और धर्मप्रभावना करने की पात्रता भी नहीं। मैं अभी आशा मलैया से न्यायग्रन्थ, प्रमेयरत्नमाला आदि बड़े ग्रन्थ पढ़ रही हूँ। अभी मुझे अध्ययन करने की भावना भी है। इसमें अपनी बुरिका प्रयोग था। गुरु की भावना का ख्याल मैंने शायद उस समय नहीं किया। आचार्य श्री के पास वह पत्र कमलाबाई जी ले गई। आचार्य श्री ने पूछा- वह नहीं आई। कमलाबाई जी ने कहा- आहार करने लगी सो, पत्र लिखकर दिया है।
आचार्य श्री ने पत्र पढ़ा, जिसमें अष्टम प्रतिमा लेने सम्बन्धी स्वीकृति नहीं थी। जो भी आचार्य श्री के विचार बने हों, मुझे पता नहीं, लेकिन दोपहर की क्लास के बाद अलग से मैं रत्तीबाई के साथ नमोऽस्तु करने गई। नमोऽस्तुकरते ही मैंने कहा- आचार्य श्री सप्तम प्रतिमाही ठीक है। अष्टम प्रतिमा की मेरे पास योग्यता नहीं है। प्रथम बार मैंने गुरु को देखा था, जो कह रहे थे- क्या योग्यता नहीं है? मुझे सब पता है। ऐसा जब कह रहे थे तब स्नेह-वात्सल्य दिखाई नहीं दे रहा था। मन यही कहने लगा कि जिन रत्तीबाई ने मुझे दूसरी प्रतिमाधारी के रूप में देखा है, उनके पास रही। उन्होंने मुझे संबल दिया, संरक्षिका के रूप में। जब कभी आरा आश्रम के अनुभव सुनाती रहती थीं। उन्होंने मुझे प्रथम भाग से आरम्भ करके अध्ययन कराया था। उनके निकट या कहें एक साथ कमरे में रहने का साथ मिला। मुझसे अपनी प्रत्येक बात वह कहतीं थीं। मैंने उन्हें माँ का दर्जा दिया। उसी तरह कचनबाई जी, जिन्होंने मुझे आचार्य ज्ञानसागर जी मेरे गुरु के गुरु के संस्मरण सुनाये और अनुभव तथा विवेक की शिक्षा भी देती रहीं। कहा- कैसा बैठना, सोना, कैसा बोलना, आदि-आदि। जिन्होंने मुझे सुना-समझाकर योग्य बनाया उनसे अपना दर्जा ऊँचा कैसे करूं ? दोनों विकल्प थे यहाँ। पर गुरु की भावना प्रथम, फिर मुझे अपनी विहार करने आदि की योग्यता स्वयं में दिखाई नहीं दे रही थी और जिनके साथ रहना, उनसे स्वभाव में मेल नहीं बन रहा था। आश्रम वालों से फिर सम्पर्क अधिक नहीं करना होगा। आर्यिकावत् चर्या करना है। इन सब विकल्पों ने मुझे गुरु की भावना पूर्ण नहीं करने दी। आखिर मैंने यही निर्णय लिया कि अभी मैं सप्तम प्रतिमाधारी रहकर, अध्ययन करूंगी। रत्तीबाई और कचनबाई के यथायोग्य संरक्षण में रहकर उनका अनुभव लेती रहूँगी।
स्वयं के तर्क का निर्णय मोक्षमार्ग में खतरनाक होता है। यहाँ तक की जरूरत नहीं होती, यहाँ हृदय और समर्पण की जरूरत होती है। अपने गुरु ही सर्वमान्य होता है। गुरु कभी मधुर भी बोलता है, कभी तीखा भी बोल सकता है। दोनों में शिष्य का भला होता है। ईख का टुकड़ा टेड़ा भी हो तब भी मीठा ही रहता है। जलेबी टेड़ी-मेड़ी होती है लेकिन रस से भरी होती है। खींचने पर धनुष की डोरी टेड़ी होती है, मगर तीर तो सीधा ही जाता है।
ऐसा ही मेरे आचार्य श्री का उस समय ऊपर से कठोर स्वभाव दिख रहा था। लेकिन अन्दर से मधुर ही बने थे। लेकिन मैंने उस समय इस प्रकार का कुछ सोच पैदा ही नहीं किया। गुरु ने मुझ पर कितनी बड़ी कृपा की थी, मेरा क्रम-क्रम से विकास करने में हमेशा मुझे समझाया। उनका इतना भारी उपकार होने पर भी मैं यह सब भूल गई। जिन्होंने मुझे गुरु की अपेक्षा जरा सा संबल दिया। मैं उसमें भूल गई। वर्तमान में ख्याल आता है कि बात ऐसी हो गई- लाख रूपये देने वाला का एहसान नहीं, हजार रूपये देने वाला का एहसान मानने लगी। कर्मोदय से मैं हमेशा रत्तीबाई जी संचालिका से कहती थी कि आपसे मैं पद में बड़ी नहीं बनूँगी।
कुछ समयोपरान्त एहसास हुआ, जब अन्य बहिनों (सुमन बण्डा, विमलेश, सविता आदि) को अष्टम प्रतिमाधारी बना दिया। मैं प्रतिमा लेने में पीछे रह गई। गुरु उन्हें बड़ा वात्सल्य देने लगे। जब कभी शंका का समाधान देते, अलग से कुछ आगम की बात बताते और मैं इन बहिनों से बात करती तो इनका रुख-स्वभाव अष्टम प्रतिमाधारी के पद का कुछ अहं दिखाई देता। मुझे जो पहले सम्मान की दृष्टि से देखती थीं, जिनको मैं शुरूआत से अध्ययन कराती थीं, वे भी कुछ विपरीत बन गई। तब उस समय यह युक्ति समझ में आई कि बाप से बढ़कर बेटा सवाई बन गया। यानी गुरु से अधिक विपरीतता होने का मुझे अब अहसास होने लगा था। गुरु ने मेरा विकास चाहा था, लेकिन मैं यह नहीं समझ पायी। हिंडोला की पालकी कभी ऊपर जाती है, तब क्या होता है ?
कुछ समय गुजरा। आचार्य श्री का कोनी जी क्षेत्र में विराजमान होना हुआ। हम सभी शीतकालीन वाचना में वहाँ गये। लेकिन आचार्यश्री से मैं छिप-छिप कर रहती थी, भय के कारण। जो गुरु आज्ञा का उल्लंघन करता है, गुरु आज्ञा नहीं मानता, उसकी स्थिति ऐसी ही बनती है। यह मेरा अनुभव है।
एक दिन मैंने संरक्षिका कचनबाई अजमेर वाली से कहा- माँजी मुझे आचार्य श्री से आठवीं प्रतिमा दिलवा दी। चलो आप मेरे साथ। उन्होंने कहा- चलो। वह मेरे साथ आचार्य श्री के पास पहुँचीं। आचार्य श्री बड़े हाल में बैठे थे। वह आँगन के पास ही था। उसमें मुनि क्षमासागर जी भी बैठे हुए थे। स्वाध्याय कर रहे थे। कचनबार्ड जी आचार्य श्री के पास पहुँचकर नमोऽस्तु करती हैं। मैं साथ में गई थी। लेकिन भय के कारण साथ में होते हुये भी दरवाजे की ओट में खड़ी रही। कचनबार्ड जी ने कहा गुरुदेव ब्रह्मचारिणी पुष्पा छोरी आपसे आठवीं प्रतिमा लेना चाह रही है। आचार्य श्री बड़ी सहज सरल भाषा में बोले- कहाँ है वो ? कचनबार्ड जी बोलीं- यह खड़ी है। आपसे डर रही है। सामने नहीं आ पा रही, इसलिये मुझे साथ में लायी है। आचार्य श्री कहते हैं- कहो उससे, मेरे सामने आये। मैंने सुना। मैंने शर्म से शिर नीचा किये हुए ही नमोऽस्तु आचार्य श्री कहा। उन्होंने बड़े स्नेह के साथ हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया। कहने लगे तुम्हें आठवीं प्रतिमा चाहिए। मैंने कहा-जी आचार्य श्री।
आचार्य श्री कहते हैं- पहले तुम अगुआ हुई थीं अब पीछे कैसे रह गई ? यह वाक्य सुनते ही अाँखों में आँसू भर आये। मेरे आँसू देखते ही कहते हैं- अब तुममें योग्यता आ गई। बोलो ? मैं मौन थी कुछ बोल नहीं पा रही थी। सिर नीचे किये थी। आचार्य श्री आगे बोले- अच्छा बताओ, तुम कितना पैदल चल सकती हो ? मैंने जबाव दिया था- करीब 10 किलोमीटर। मेरी भयभीत व घबरायी रोनी सूरत को देखकर स्नेहभरी दृष्टि से फिर कहते हैं- अच्छा कायोत्सर्ग कर लो। और जो अष्टम प्रतिमाधारी बहिनें हैं उनका ब्राही संघ है। उसमें शामिल हो जाओ।
यह है गुरु की शिष्यों पर करुणा। यह है।गन्ने जैसी मिठास। ऊपर से कुछ भी तेजी, अन्दर विकास कराने की प्रवृत्ति। मैंने प्रतिमा ले लीं। फिर अपनी अतीत की प्रवृत्ति को सोच-सोच दु:खी होती रही कि मैंने गुरु के सोचे गये अरमान की कीमत नहीं की। वह आज भी मुझे ख्याल में है। वह तो अब कभी मिट नहीं सकेगा। भले आचार्य श्री ने इस इतिहास को भुला दिया हो, लेकिन मैं इस इतिहास को कभी भूल नहीं पायी। प्रसंगानुसार याद करती हूँकि गुरु-आदेश नहीं मानने पर सिर्फ पश्चाताप ही हाथ लगता है।