संसारी प्राणी का सुख-दुःख दूसरों पर आधरित रहता है। क्योंकि वह वास्तविक सुख से परिचित ही नहीं होता। उसके सुख-दुःख का रिमोट कन्ट्रोल दूसरों के हाथ में हुआ करता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसे अच्छा या बुरा जो कुछ भी कहता है उसे वह उसी रूप में स्वीकार कर लेता है। दूसरा उसकी निन्दा करता है तो दुःखी हो जाता है और प्रशंसा करता है तो आनन्दित हो उठता है।
एक दिन आचार्य श्री जी ने बताया कि संसार का सुख-दुःख कल्पना मात्र है, किन्तु ये संसारी प्राणी उसे वास्तविक मानकर चलता है। जब कोई व्यक्ति बाजार से अपनी मनपसंद का एवं मँहगा सुन्दर कपड़ा खरीदकर लाता है तो फूला नहीं समाता है। जब कोई व्यक्ति उसके नए कपड़े देखता है तो कहता है कि अरे! इतने बेकार कपड़े और इतने मॅहगे तुम तो ठग गये। और यदि उन्हीं कपड़ों को देखकर दूसरा व्यक्ति कह देता है कि आपने कितने सुन्दर कपड़े खरीदे तो वह व्यक्ति खुशी के मारे फूला नहीं समाता और सोचता है कि मेरे तो पैसे बसूल हो गये इससे सिद्ध होता है कि संसारी प्राणी का सुख-दुःख दूसरों पर आधारित है। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि- हमें किसी की निन्दा और प्रशंसा पर ध्यान न देते हुए वास्तविकता की पहचान करते हुए सुख का स्रोत स्वयं में खोजना चाहिए।