प्रत्येक धर्मात्मा अपना कल्याण चाहता है। ऐसे बहुत कम धर्मात्मा होते हैं, जो अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरे के कल्याण की बात भी सोचते हैं एवं दूसरों को उपदेश देकर कल्याण पथ पर लगाते हैं। स्वोपकार के साथ परोपकार में लगा हुआ व्यवहार में श्रेष्ठ धर्मात्मा माना जाता है। दूसरों को कल्याण का रास्ता बताने के लिए समय का भी त्याग करना पड़ता है। किसी सज्जन ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि धर्मात्मा वह होता है जो सभी के कल्याण की भावना भाता है फिर सभी धर्मात्मा तीर्थंकर क्यों नहीं बनते? सभी एक-दूसरे को समय भी देते हैं। इस बात को सुनकर आचार्य श्री ने समाधान करते हुए कहा- धन का त्याग करना-वचन का त्याग करना यह तो त्याग है ही किन्तु सबसे बड़ा त्याग तो है समय का त्याग करना। जड़ समय की अपेक्षा चेतन समय का आदान-प्रदान करना चाहिए। जिस प्रकार पैसे के माध्यम से पैसे की वृद्धि होती चली जाती है- ब्याज आदि के माध्यम से उसी प्रकार एक धर्मात्मा के होने से अनेक जीवों का कल्याण हो जाता है जैसे कि एक तीर्थंकर के समय में अनेक जीवों का कल्याण हो जाता है।
सभी सम्यग्दृष्टियों के मन में समस्त जीवों के कल्याण की भावना नहीं होती, किन्तु कुछ विरले सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। स्व का कल्याण करते हुए पर जीवों का कल्याण चाहना- इसके लिए अलग प्रकार की ही क्षमता की आवश्यकता होती है- इसके लिए दिशा-बोध अनुभव, अध्ययन-चिन्तन, मनन और विशुद्धि की आवश्यकता होती है, क्योंकि स्वयं के अनुभव के माध्यम से दूसरों को भी इस ओर प्रेरित करना पड़ता है।