संसार में सबसे अधिक विकल्प के कारण परिग्रह और परिचय हैं। कहा भी है- "परिग्रह, चिंता, दुःख ही मानो" अर्थात् जितना अधिक परिग्रह होगा उतने अधिक विकल्प होगें इसलिए विकल्पों से बचना चाहते हो तो परिग्रह एवं परिचय का त्याग करो। ठीक उसी प्रकार दूसरे से परिचय करने से विकल्प उत्पन्न होते हैं। पर - पदार्थों से पहले परिचय होता है फिर वह चित्त में आता है, चित्त में आकर चिपक जाता है फिर आत्मा को गाफिल कर देता है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक दिन कहा कि- दूसरे पदार्थ के साथ परिचय प्राप्त नहीं करना ही मोक्षमार्ग में बहुत बड़ी साधना मानी जाती है। धार्मिक क्षेत्र में किसी को भी मित्र व पड़ोसी बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। साधना के क्षेत्र में यदि कोई साथी हैं तो वह है अपनी श्वाँस। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना यह साथी तभी साथ देता है जब आत्मा पंचेन्द्रिय के विषयों से दूर हो जाता है। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- लौकिकता में जिसे जितना अधिक पर पदार्थों का परिचय होता है वह उतना अधिक बुद्धिमान माना जाता है लेकिन मोक्षमार्ग में जिसे जितना अधिक पर पदार्थों से परिचय होता है या जो दूसरों के परिचय प्राप्त करने में लगा रहता है वह उतना ही बड़ा पागल माना जाता है।
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