नैनागिरि में आचार्य महाराज के तीसरे चातुर्मास की स्थापना से पूर्व की बात है। सार संघ जल-मन्दिर में ठहरा हुआ था। वर्षा अभी शुरू नहीं हुई थी। गर्मी बहुत थी। एक दिन जल-मन्दिर के बाहर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सामायिक के समय एक जहरीले कीड़े ने मुझे दंश लिया। बहुत वेदना हुई। सामायिक ठीक से नहीं कर सका। आचार्य महाराज समीप ही थे और शान्त भाव से सब देख रहे थे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वेदना कम हो गई। हमने आचार्य महाराज के चरणों में निवेदन किया कि वेदना अधिक होने से समता भाव नहीं रह पाया, सामायिक ठीक नहीं हुई।
उन्होंने अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक कहा कि ‘साधु को तो परीषह और उपसर्ग आने पर उसे शान्त भाव से सहना चाहिए, तभी तो कर्मनिर्जरा होगी। आवश्यकों में कमी करना भी ठीक नहीं है। समता रखना चाहिए। जाओ, रस परित्याग करना। यही प्रायश्चित है।” सभी को आश्चर्य हुआ कि पीड़ा के बावजूद भी इतने करुणावंत आचार्य महाराज ने प्रायश्चित दे दिया।
वास्तव में, अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना, शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना; यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा अनुग्रह है।
नैनागिरि (१९८२)