वर्षाकाल पूरा होने को था। दीपावली की पूर्व संध्या में आचार्य महाराज ध्यानस्थ हुए तो सारी रात निश्चल ध्यान में बैठे-बैठे ही बीत गई। महावीर स्वामी के परिनिर्वाण की प्रत्यूष बेला में उन्होंने आँखें खोलीं और क्षण भर हम सभी की ओर देखकर कहा कि ‘‘भगवान् तो वर्षों पहले मुक्त हो गए, हम भी ऐसे ही कभी मुक्त होंगे, पर जाने कब होंगे ?”
उस क्षण उनकी दिगन्त में झाँकती आँखें, मुखमण्डल पर छायी अपार शान्ति और गदगद् कंठ से झरती यह अमृत वाणी देख-सुनकर हम सभी अवाक् रह गए। एक क्षण को लगा, मानो वे सचमुच संसार के आल-जाल से मुक्त होकर आत्म-आनन्द में डूब गए हैं। मुक्ति पाने की इतनी गहरी प्यास उन्हें शीघ्र ही संसार के आवागमन से मुक्त करेगी।
मुक्तागिरि (नवम्बर, १९८०)