अंतरंग दृष्टि आत्मगत दृष्टि है, जो बाह्य जगत् से सम्बन्ध का विच्छेद करा देती है। निश्चय चारित्र की प्राप्ति का कारण मन; वह जगह है जहाँ बाह्य जगत् का प्रकाश नहीं पहुँचता है। केवल वहाँ अंतरंग अनुभूति का प्रकाश प्राप्त हो, अंतर्मुखी बना जगत् के प्रकाश को जीरो पर ले जाकर खड़ा कर देता है, जड़ और चैतन्य की भिन्नता यहाँ जान पड़ती है, यह अंतरंग सारे रंगों से रहित हो जाता है, करने की क्रिया एकदम दूर जाती है, जो आरम्भवर्धनी, पापवर्धनी मानी जाती है। साधक इस स्थिति में आने पर पाप एवं पुण्य से उठ जाता है, अनंतसुख, अनंतवीर्य, अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अव्याबाध से रहित अगुरुलघु के तत्त्व की ओर जाने के साधन की खोज में लग जाता है।
व्यवहार जगत् उनके लिए शून्य हो जाता है। निश्चय जगत् से ही नाता रह जाता है। इसलिए शरीर की जीर्ण स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाता, अंतरंग की शुद्धि काय की स्थिरता के प्रयोजन समाप्त हो जाते हैं, आचार्य ज्ञानसागरजी अपने जीवन काल में इतने सावधान थे, वे कहते थे दुनिया की कोई वस्तु इस मनुष्य जीवन में किसी को मिले या न मिले लेकिन संयम अवश्य सभी को मिले इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम आठ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य रूपी संयम को प्राप्त किया, उसके बाद देशसंयम की प्रतिमा रूप में प्राप्त कर आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा कहे हुए श्रावक के क्षुल्लक, ऐलक लिंग को धारण किया। बाद में महाव्रतों को धारण कर मुनि पद को प्राप्त किया। इस संयम की प्राप्ति से वे आलम्बन से रहित हो, अंतरंग के रंग में समा जगत् को संयम का रूप, रंग का संदेश देकर चले गये।
आचार्यश्री के मुख से,
२९.९.२००४, गुरुवार,
तिलवाराघाट, जबलपुर (मध्यप्रदेश)