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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 99

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    यों क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर

    नैनागिर से चातुर्मास संपन्न कर

    पहुँचना था मदनगंज किशनगढ़

    दे दिया था वचन

    तिथि हुई निश्चित,

    लेकिन

    बीच में ही देह में बढा ताप

    असाता के राक्षस ने डेढ़ माह दिया संताप

    संत भयंकर देह दाह में भी थे निश्चित

    जो मिटाने चले हैं भव आताप।

     

    ज्वर मंद होते ही किया विहार

    पर मन ही मन यह कर लिया विचार

    अब आगे से किसी को वचन नहीं देना

    इससे हो जाता है विकल्प;

    क्योंकि परिस्थितिवश

    चाहते हुए भी

    पूरा न कर पाते संकल्प।

     

    संकल्प-विकल्प से परे हो

    जीवन जीना है मुझे

    कल-कल का कारण कल से परे हो

    निष्कल होना है मुझे।

     

    श्रावक भले ही करे आग्रह

    वे गृहवासी हैं

    गृह परिग्रह से परे श्रमण

    रत्नत्रयधारी हैं।

     

    आग्रह, आवेश, आक्रोश

    ये तीन आकार का बना शिकार

    भटक रहा अनंत संसार

    अब मुझे होना है निराकार,

    तो गुरू-आज्ञा करके स्वीकार

    ध्येय बनाये रखना है चिन्मय चिदाकार।

     

    अब वचन देना नहीं किसी श्रावक को

    वचन दे दिया है मन ही मन अपने गुरूवर को

    अनुभव से सीख ली स्वयं ने

    पहुँच गये किशनगढ़ में,

    समाज थी सारी प्रसन्न

    पंच कल्याणक हुए सानंद संपन्न

    तन कमजोर होने पर भी

    चेतन था बलजोर…

     

    सिरदर्द और देह में शुष्कता

    बढ़ती जा रही थी।

    मौसम में उष्णता

    दिन पर दिन तेज हो रही थी...

    तभी घी लेना स्वीकार कर

    सर्व फलों का कर दिया त्याग...

     

    असंयमी कहता है

    यह भव मीठा, परभव किसने दीठा'

    संयमी संत कहते हैं

    इस भव में त्याग तो परभव में कैसा संताप?

    यूँ परम त्यागी यतिवर

    ‘दक्षिण के संत उत्तर के बसंत' मुनि ने विचरण कर

    थूबौन में उन्यासी का किया चातुर्मास।

     

    शिष्य की गुरु से क्या है अनजानी?

    गुरु ने शिष्य के मन की पहचानी

    एक दिवस क्षुल्लक समयसागरजी ।

    पहुँचे गुरुवर के समीप...

    प्रत्येक अष्टमी-चतुर्दशी करते नियमित उपवास

    आज भी रख दी उपवास की भावना

    शीश धर चरण में की वंदना।

     

    गुरू ने किया आदेशित

    उपवास नहीं, करना है ऊनोदर

    तभी नियमसागरजी ने सोचा

    अपने मन के अंदर...

    मैं भी गुरु से माँग लँ ऊनोदर

    किया निवेदन गुरु से हाथ जोड़कर

    आचार्यश्री!

    मैं करना चाहता हूँ ऊनीदर'

    कुछ पल सोचकर कहा गुरू ने

    यदि कर सकते हो उपवास

    तो कर लो आज

    सौभाग्य मान किया उपवास।

     

    गुरू होते जननी-सम

    ज्यों जननी

    एक बेटे को पानी डाल पिलाती दूध

    दूजे को मलाई डाल पिलाती दूध

    शिष्य को कब क्या करना है

    कहाँ कितने समय रहना है

    गुरु ही यह जानते हैं

    ऐसे गुरु को शिष्य भगवान मानते हैं।


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