पुण्य पुरूषों को
प्रकृति स्वयं ही संयोग जुटाती है
होनहार पवित्रात्मा को
महात्माओं से स्वयं ही मिलाप कराती है।
नौ वर्ष की उम्र में
शेडवाल में पधारे थे
‘‘चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी”
पास ही बहती थी
कल-कल करती कृष्णा नदी
उसी के पार्श्व में मुत्तिन केरे इक तालाब
इससे दस मील दूर पर ग्राम था दानवाड
जहाँ गले मिलती थीं दोनों नदियाँ
वेदगंगा और लोकगंगा
एक ओर प्रकृति अपनी छटा बिखेरे थी,
तो दूसरी ओर प्रकृति पुरूष महासंत
आत्म-साधना से साधित
अपनी दिव्य छवि से
अभूतपूर्व धर्म प्रभावना कर रहे थे।
उन्हीं के दर्शनार्थ सपरिवार
मल्लप्पा जी जा रहे थे...
पहुँचते ही गाँव में ज्ञात हुआ कि
आज है आचार्य श्री का केशकुंचन
उमड़ पड़ी थी भारी भीड़ करने को दर्शन,
फिर भी सबसे अग्रिम पंक्ति में जा
किया वंदन...
प्रवचन में वैराग्य प्रद कहानी सुन
बदल गई
जीवन की धुन…
श्यामल घूँघराले केशों को
उखाड़ने का करने लगे प्रयास
अनुभूत हुआ
बड़ा कष्ट साध्य है यह कार्य,
किंतु होने पर भेद-ज्ञान
कर लेता है सहज वह आर्य
पावन बाल-मानस में दृश्य यह
हो गया कीलित-सा।
पल्लवित करने
विद्या-तरु सघन
हो चुका है यहाँ
धर्म-बीज का वपन,
देख यह मंजर
प्रसन्नता से भरकर
उल्लसित हो
कुछ बूंदों को
बिखराती बीज पर
बही जा रही... बही जा रही...
लक्ष्य को पाने का
प्रथम पड़ाव है यह
बहते-बहते,
यह कहती जा रही
ज्ञा ऽ ऽ ऽ न धा ऽ ऽ ऽ रा ऽ ऽ ऽ