यों ही समय का रेला
आगे बढ़ता जा रहा था कि
एक दिन
पकड़ हाथ पूछ लिया माँ ने...
‘‘दो माह शेष हैं वार्षिक परीक्षा में
याद है सब कुछ?”
पूछते ही
यंत्रवत् सारे विषय सुना दिये
सुनते-सुनते थक गई
उठकर जाते-जाते कह गई…
“सफलता के प्रति प्रेम ने
तुम्हें परिश्रम के दुख सहने की शक्ति दी है,
उसी प्रकार
परमात्मा के प्रति प्रेम तुम्हें
पवित्र भावों का सत्कार करने की शक्ति दे,
निजात्मा के प्रति प्रेम तुम्हें
पुण्य के प्रलोभनों से प्रतिकार करने की शक्ति दे।''
श्रीमति की अंतर्पकार
बेटे के मन को छू गयी
कर लिया संकल्प ‘भक्तामर' पढ़ने का
कुछ श्लोक करते ही कंठस्थ
एक दिन माँ के गले में हाथ डाले
सीधे जा बैठे गोद में
वह कुछ कहे उसके पूर्व ही
तोते-सी मीठी आवाज़ में
लयबद्ध सुनाने लगे 'भक्तामर'
माँ हो गई चकित!
पूर्व जन्मकृत् पुण्य से ही
बाहर और भीतर का
लौकिक और धर्म का
संतुलन बनाकर जो चल रहा है
स्वयं अपने लक्ष्य को जो चुन रहा है,
मैं क्या समझाऊँ इसे
जो स्वयं समझदार है,
मैं क्या सिखाऊँ इसे
जो स्वयं विद्या का भंडार है...
बोली प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए
धर्म की पढ़ाई के साथ
विद्यालय की पढ़ाई भी करते रहना।
और जब हुए घोषित परिणाम
कक्षा में प्रथम रहा विद्याधर का नाम,
खुशी से चूम लिया सिर
माता-पिता ने विद्या का...
और यह कहते हुए
विद्या ने छू लिये चरण
माता-पिता के
कि
यह सब
आप ही के आशीर्वाद का फल है
वरना मुझमें क्या बल है।