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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 103

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    नैनागिर में चल रहा चौमासा

    अचानक तलहटी पर छा गया

    गहन सन्नाटा...

    आचार्य श्री हो गये अस्वस्थ

    जन-समूह पर्वत की ओर भागता दिखा

    ऊपर कोलाहल व्याप्त था।

    श्वास लेने में कष्ट हो रहा था...

    हृदय की धड़कनें हो रहीं अनियंत्रित

    बोले आचार्यवर्य

    मुझे लेकर समाधि, होना है समाधिस्थ।

     

    तभी गुरूभक्त कवि मिश्रीलाल जी ने कहा

    आप हैं श्रमण संस्कृति के सिरमौर

    मैं अल्पज्ञ हूँ क्षमा कीजिए मुझे

    समाधि का कारण एक भी नहीं दिख रहा बलजोर।

    कुछ तीव्र स्वर में बोले आचार्य श्री

    तुम मोही हो रागी ।

    मैं जान रहा रोग को भलीभाँति

    अंत समय तक स्वात्म तत्त्व में लीन रह सकूँ

    इसीलिए चेतना पूर्वक लेना चाहता हूँ समाधि...।"

     

    सुन शब्दावली

    काँप उठी चेतना,

    किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई कवि की आत्मा

    कहीं मुख से कह न दें कि ।

    लेता हूँ समाधि

    इसके पूर्व ही बटोरकर साहस

    सहसा बोले विनम्र हो

     

    “गुरुवर! आचार्यपद भी है परिग्रह

    इसे त्याग कर किसे देंगे आप?

    कौन है वह योग्य शिष्य आपका?''

    सुनते ही यह

    चिंतन की बदल गई दिशा...

    तत्क्षण कंपित कंठ से किया अनुनय कवि ने

    पण्डित जगन्मोहनलालजी को बुलवाकर

    समीप में क्षुल्लक सन्मतिसागरजी से वार्ता कर

    पश्चात् करिये सल्लेखना स्वीकार…

     

    तीन-चार दिन में दोनों आये नैनागिरि  

    सौभाग्य से तब तक स्वस्थ हुए आचार्य श्री

    भक्तों ने चैन की साँस ली

    बदलियाँ मँडरायी पर बरसी नहीं

    दीये की लौ कॅपी पर बुझी नहीं।


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