३0-०३-२०१६
वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः)
कल्पद्रुम महामण्डल विधान
जीवन में स्वयंभू, सत्यधर्मों का प्रकाश प्रकट करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के प्रकाशवान् चरणों की वंदना करता हूँ...
हे गुरुवर! मेरे गुरु की साधना और वैराग्य को देखते हुए आप इतने प्रभावित हुए थे कि आपने उनको उदाहरण के रूप में उपस्थित किया था। वह वाकया पण्डित विद्याकुमार सेठी जी ने १९९४ अजमेर चातुर्मास में मुझे सुनाया। जिसे सुनकर हम शिष्यों को गौरव की अनुभूति होती है। वह संस्मरण हमने लिख लिया था, जो आपको प्रेषित कर रहा हूँ
गुरुदेव ने मुनि विद्यासागर जी को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया
"ज्ञानसागर जी महाराज बड़े ही शान्त प्रकृति के थे, वो कहते थे- ‘सिद्धान्त तो निश्चयरूप है और व्यवहार प्रेक्टिकलरूप है। उत्सर्ग और अपवाद में विरोध नहीं है। उत्सर्ग मार्ग अपवाद सापेक्ष है। इस तरह वो जब भी किसी को समझाते थे तो पिता-पुत्र के समान समझाते थे या कोई ज्ञानी आता तो उससे मित्र के समान बोला करते थे। विद्याधर जी की मुनि दीक्षा होने के बाद एक दिन मुझको देखकर गुरुदेव ज्ञानसागर जी बोले- 'अरे पण्डित जी संयम के बिना जीवन अपूर्ण है। विद्यासागर जी को देखो! कुछ तो शिक्षा लो। भरी जवानी में संयम की साधना कर रहे हैं और ज्ञान को अंदर उतार रहे हैं। जो उनके आचरण में प्रकट हो रहा है। उनसे कुछ शिक्षा ले लो, खाली पण्डित बने रहने से कुछ नहीं होगा। आपको स्वस्थ शरीर मिला है तो इसको बाह्य उपकरण बनाओ। इसको स्वर्ण की पेटी बनाकर सम्यग्दर्शनादि रत्न उसमें रखो। तभी वह सुरक्षित रह सकेगा।’ इतना सुनकर मेरा हृदय परिवर्तित हो गया और हमने तत्काल चार प्रतिमा के व्रत गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से ले लिए।" इस तरह आपकी और आपके शिष्य मेरे गुरुवर की कई विशेषताएँ हम शिष्यों को प्रेरणा प्रदान करती हैं। ऐसे प्रेरक गुरुओं के उपकारों को कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य