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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - १ भूमिका

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    ७-११-२0१५

    भीलवाड़ा (राजः)

     

    सर्व विद्याविज्ञ ज्ञानमूर्ति चारित्रविभूषण गुरुनाम गुरु आचार्यवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पावन चरणकमलों में त्रिकाल त्रियोग त्रिभक्तिपूर्वक नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु…

    ‘ अत्र कुशलम् तत्रास्तु ’

    हे गुरुवर! आप मुझे नहीं जानते परन्तु आपको मुझ सहित कौन नहीं जानता, जिन्होंने आपके दर्शन किए हैं वे बताते हैं आप कैसे थे, मैं तो आपके सर्वश्रेष्ठ शिष्य का एक अदना-सा शिष्य हूँ। मैंने आपको नहीं देखा लेकिन अपने गुरुवर आचार्यश्री विद्यासागरजी महामुनिराज को देखने के बाद आपको देखने की ज्यादा जिज्ञासा नहीं रही क्योंकि वे आपका ही तो स्वरूप हैं, उनको देख-देखकर ही मैंने जान लिया कि आप कैसे होंगे, ज्ञान की ही पर्याय तो विद्या है और विद्या की ही पर्याय ज्ञान है।

     

    भगवन् ! जब आपके समक्ष एक नये नवेले मासूम से ब्रह्मचारी विद्याधर जी आये थे तब आपने उनसे कुछ प्रश्न पूछे थे, प्रश्न बहुत छोटे-छोटे से थे, उत्तर भी विद्याधर जी ने संक्षिप्त में ही दे दिए थे किन्तु आपको संक्षिप्त से क्या? आप तो हर संक्षेप का विस्तार हो।

     

    हे आचार्य प्रवर! आप महान् जौहरी थे जो आपने थोड़े से में ही अपने समक्ष आये इस मानवरत्न की प्रतिभा का परीक्षण कर लिया था। जैसे इनके बारे में जानने की आपके अन्दर अत्यल्प जिज्ञासा जागी थी वैसी ही जिज्ञासा मेरे अन्दर भी जागी हैं परन्तु मेरी जिज्ञासा अंतहीन है। मैं आपके इन महाशिष्य को जितना जानने की कोशिश करता हूँ, उनका विराट व्यक्तित्व उतना ही सीमातीत विस्तार लेता चला जाता है।

     

    हे ज्ञानाकाश के सूर्य-गुरुवर! कभी-कभी तो लगता है कि आपने इन्हें इतना निर्मोही बनाया कि सारी दुनिया इनके वीतमोह पाश में बंधकर रह गई है। आपको पता हैं क्या कि आपका यह नन्हा शिष्य वत्स कितना बड़ा हो चुका है। बड़े तो ये जन्म से ही थे परन्तु संसार के चर्म चक्षु इन्हें छोटे रूप में ही देखते रहे। चर्म चक्षुओं से बड़ा रूप निहारा भी नहीं जा सकता। वो तो इन्हीं की कृपा थी कि हम सभी के प्रज्ञा-चक्षु खुल गए। जैसे ही प्रज्ञा चक्षुओं ने इन पर दृष्टि डाली तो ये हम सभी को साक्षात् तीर्थंकरसम आचार्य कुन्दकुन्द की पर्याय और आचार्य समन्तभद्र के स्वरूप में प्रतीत हुए।

     

    हे आचार्य श्रेष्ठ! विद्याधर जी ने आपके चन्द प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर ही दिया था परन्तु न जाने कितने प्रश्न उस समय किसी की जिव्हा पर नहीं आए, आते भी कैसे, उस समय विद्याधर जी की अंतरंग छवि को मात्र आप ही निहार पा रहे थे। आपके अलावा और किसी ने उन्हें पहचाना ही नहीं था। आज जब हम सभी को इन्हें जानने-पहचानने का भाव जागृत हुआ है तब हमने इनके उन अनसुलझे पहलुओं को तलाशना प्रारम्भ कर दिया है।

     

    हे आत्म साधक-गुरुवर! मैं आपसे बहुत सारी बातें करना चाहता हूँ। आप मेरे दादा गुरु हैं। दादा की गोदी का प्यार संसार में प्रसिद्ध ही है, यह तो जगजाहिर है कि अपने पोतों के प्रति दादाजी के अन्दर कितनी ममता होती हैं। मुझे भी आपका वह वीतरागी प्रेम चाहिए जिसकी छाया तले मैं भी अपना और अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकूँ।

     

    हे मानस प्रत्यक्ष ज्ञाता-गुरुदेव! जैसा कि मैंने कहा मैं आपसे कुछ बातें करना चाहता हूँ किन्तु आप प्रत्यक्ष तो हैं नहीं, आपको नहीं पता गुरुवर कि आपको प्रत्यक्ष में पाने की मेरे अंदर कितनी तीव्र उत्कण्ठा है। यदि आप मुझे मिल जाते ना, तो मैं एक क्षण को भी आपकी अंगुलि नहीं छोड़ता। आपके चारों ओर बाल सम क्रीड़ा करता हुआ आपसे अनेकों ऐसी जिज्ञासाओं के समाधान लेता जिनका समाधान स्वयं आप या मेरे गुरुवर आचार्यश्री विद्यासागर जी के अलावा कोई और नहीं कर सकता। हालांकि, गुरुवर साक्षात् हम सभी के समक्ष हैं परन्तु उन्हें स्वयं से जुड़े किसी भी प्रश्न का उत्तर देना ही नहीं आता और आप हम लोगों को दर्शन दिए बिना ही हम लोगों से बहुत दूर चले गए हैं।

     

    हे ज्ञान शिरोमणि गुरुवर! आज मैं आपसे वार्ता प्रारम्भ कर रहा हूँ। भले ही मेरी वार्ता का माध्यम पत्राचार ही क्यों न हो। मैं अब आपको अनेक पत्र लिखूँगा। उन पत्रों में मैं अपनी पूरी बात तो लिखूँगा ही साथ ही उस विराट व्यक्तित्व को जिसका सृजन आपने किया है उसके उजास को भी प्रगट करूँगा और आपका वह अनुराग पाने का भी प्रयत्न करूँगा जिससे मैं वंचित रह गया हूँ। मुझे विश्वास है कि आप मुझ जैसे नन्हें से बालक पर कभी न कभी तो दया करोगे और कोई न कोई माध्यम अवश्य बनाओगे मुझे संतुष्ट करने का। मैं जानता हूँ ज्ञान देने के आपके अनोखे तरीकों को। आखिर में भी आपके अनोखे शिष्य का ही तो शिष्य हूँ। मुझमें ज्ञान-विद्या-विवेक शक्ति प्रगट हो गुरुवर, नमोस्तु....

    आपका शिष्यानुशिष्य


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