पत्र क्रमांक-२०९
२३-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
शुद्ध निश्चय नय से सिद्धरूप शुद्ध पर्याय से अभिन्न शुद्ध जीवास्तिकाय के ज्ञाता ज्ञानमूर्ति दादागुरु परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! ५-६ वर्ष के अल्पकाल में प्रतिभा सम्पन्न आपके लाड़ले शिष्य ने आपसे आगम, अध्यात्म, दर्शन का ज्ञान तो प्राप्त किया ही साथ ही प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी भाषा का और साहित्य का भी ज्ञान प्राप्त किया तथा आपकी ही तरह उनके हृदय में काव्य ने जन्म ले लिया और अपने सम्बोधनार्थ उन्होंने रचनाबद्ध किया। जिसे पढ़कर लगता है कि आत्मा की गहन गहराईयों में जाकर स्वानुभूतिरूप मणियों को शब्दों में पिरो दिया है| -
निजानुभव-शतक
ब्यावर चातुर्मास में उन्होंने जो आत्मा का अनुभव किया वह राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रथम शतक के रूप में सर्जित कर दिया, जिसका नामकरण किया निजानुभव शतक। यह शतक वसंततिलका के १०४ छन्दों में है जिसके अन्तिम दो छन्दों में आचार्यश्री लिखते हैं -
अजयमेर के पास है ब्यावर नगर महान।
धारा वर्षायोग को ध्येय स्व-पर कल्याण ॥१०३॥
नव नव चउ द्वय वर्ष की सुगन्ध दशमी आज ।
लिखा गया यह ग्रन्थ है, निजानन्द के काज ।।१०४॥
(अंकानां वामतो गतिः अनुसार, सुगन्ध दशमी
वी.नि.सं. २४९९, ७-९-७३ ब्यावर अजमेर)
यह शतक आध्यात्मिक सुषमा से ओतप्रोत है और आत्म स्वभाव की मुख्यता को लेकर के लिखा गया है। जिसके कुछ छन्द द्रष्टव्य हैं-
गुरु समर्पण
थे ज्ञानसागर गुरु मम प्राण प्यारे,
थे पूज्य साधुगण से बुध मुख्य न्यारे ।
शास्त्रानुसार चलते मुझको चलाते,
वन्दें उन्हें विनय से सिर को झुकाते ॥२॥
स्वहिताय
सम्बोधनार्थ निज को कुछ मैं लिखेंगा,
शुद्धोपयोग जिससे, द्रुत पा सर्केगा।
संताप पाप सपने अपने तनँगा,
तो वीतरागमय भाव सदा भनँगा ॥४॥
मेरी खरी सुखकरी रमणी क्षमा है,
शोभावती भगवती जननी प्रभा है।
मैं बार-बार निज को करता प्रणाम,
आनन्द नित्य फिर तो दुःख का न नाम ॥५९॥
ब्रह्मा महेश शिव मैं मम नाम राम,
मेरा विराम मुझमें, मुझमें न काम।
ऐसा विवेक मुझको अधुना हुआ है,
सौभाग्य से सहज द्वार अहो! खुला है ॥६॥
स्वामी! ‘निजानुभव' नामक काव्य प्यारा,
कल्याण खान भव नाशक श्राव्य न्यारा।
जो भी इसे विनय से पढ़ आत्म ध्यावे,
विद्यादिसागर बने शिव सौख्य पावे ॥१०२॥
इस तरह सन् १९७३ चातुर्मास के बाद एक और राष्ट्रभाषा में काव्य की रचना की। इस सम्बन्ध में डिण्डौरी में २१ मार्च २०१८ को दोपहर में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) के द्वारा जिज्ञासा रखवायी तो जवाब में आचार्यश्री ने बताया -
जम्बूस्वामी चरित्र
इस चरित्र में अन्तिम श्रुत केवली बाल ब्रह्मचारी जम्बूस्वामी के अप्रतिम वैराग्य की चरमोत्कर्ष दशा को दर्शाया है। जिसका वसन्ततिलका, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, द्रुतविलम्बित आदि अनेक छन्दों में ग्रथित हुआ है, किन्तु यह विशिष्ट कृति पूर्ण होने से पूर्व गुम हो गयी।
इस तरह ब्यावर चातुर्मास अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के साथ सम्पन्न हुआ। ऐसे ज्ञानोपयोगी गुरु-शिष्य के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य