पत्र क्रमांक-२०६
२०-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
दूर दृष्टा सांस्कृतिक चिंतक परमपूज्य दादा गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की चरणोत्तम रज को ललाट पर धारण करता हुआ नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! जिस प्रकार आप संजय दृष्टि रखते थे इसी प्रकार आपके लाड़ले शिष्य आचार्य भी आपसे सांस्कृतिक समझ पाकर अपने चिन्तन से समाज को जागृत करते थे। इस सम्बन्ध में ब्यावर के पदम जी गंगवाल (असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर एल.आई.सी.) ने दो संस्मरण सुनाये -
(१) दूर दृष्टा : आचार्यश्री
चातुर्मास की स्थापना रायबहादुर सेठ चंपालाल रामस्वरूप रानी वाला की नसियाँ में हुई, उस - नसियाँ के उत्तर-पूर्व में मीलों खेत जंगल और हरियाली हुआ करती थी। तब आचार्यश्री जी ने नसियाँ की काफी बड़ी जमीन को देखते हुए कहा था-'कलिकाल है धार्मिक स्थानों की जमीन सुरक्षित कर लेना चाहिए।' तो लोगों ने कहा-महाराज! मन्दिर हैं, नसियाँ हैं और समाज में क्या चीज की आवश्यकता है। तब आचार्यश्री जी बोले-‘विद्यालय, छात्रावास, अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम, विधवाश्रम, औषधालय आदि के द्वारा भी समाज की सेवा होती है और जमीन भी सुरक्षित रह जाती है। आज बड़े खेद से कहना पड़ रहा है कि दूर दृष्टा सांस्कृतिक सोच रखने वाले गुरुवर की बातों पर ध्यान न देने का परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़े भूखण्ड पर सरकार ने व अन्य हठधर्मियों ने कब्जा कर लिया।
(२) चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी : आचार्यश्री
आचार्यश्री का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है, उनको जो एक बार देख लेता या उनके प्रवचन सुन लेता तो वह बहुत अधिक प्रभावित हो जाता था, उसके जीवन में बहुत अधिक परिवर्तन आ जाता था। उनके चातुर्मास में सकल ब्यावर समाज धर्ममय हो गयी थी। वे प्रवचन में जैसा बोलते वैसा ही लोग करने लगते थे। इतना बड़ा परिवर्तन पहले कभी नहीं आया। आचार्यश्री के चुम्बकीय व्यक्तित्व के कारण पूरे चातुर्मास में चौका लगाने की होड़ लगी रही। १०-१५ चौके प्रतिदिन लगते थे और जिन घरों में कभी चौके नहीं लगे उन्होंने भी आचार्यश्री को पड़गाहन कर आहार दान दिया। बाबू मानमल जी सुशीलचंद जी बाकलीवाल ने आचार्यश्री की फोटो छपवाकर घर-घर वितरित की और उनकी पुस्तक भी छपवाकर वितरित की थीं। आचार्यश्री जी की प्रेरणा से ब्यावर समाज के घर-घर में णमोकार मंत्र लिखने का अभियान शुरु हुआ था। सबसे अधिक बाबू मानमल जी बाकलीवाल ने अपने जीवन में ६७ हजार बार णमोकारमंत्र लिखा। उन कॉपियों को उनके पुत्र वीरेन्द्र बाकलीवाल ने श्रवणबेलगोला के वाचनालय में अलमारी बनवाकर वहाँ रखवायीं ।”
इस तरह मेरे गुरुवर का चिन्तन-विचार-उपदेश और चर्या को देख लोग बड़े ही प्रभावित होते थे। ऐसे गुरुदेव को पाकर आप धन्य हुए। हम शिष्यानुशिष्य भी धन्य हुए और आज दुनियाँ भी धन्य हो रही है। गुरु-शिष्य के चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य