पत्र क्रमांक-१९६
०६-०५-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
श्रमणोत्तम अमरसाधक दादागुरु परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.. हे गुरुवर! जब गुरु से थोड़ा दूर हो जाते हैं तो शिष्य कैसे कुम्हला जाते हैं, इसका अनुभव आपको भी होगा। जिस प्रकार से सूरज के अभाव में कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार गुरुरूपी सूर्य के अभाव में शिष्यरूपी हृदय कमल कुम्हला जाता है, किन्तु गुरु की स्मृतिरूप शिक्षाओं से वह पुनः अपने आप में स्थिर होकर खिल जाता है। ठीक यही स्थिति आपके लाड़ले शिष्य प्रिय आचार्य मेरे गुरुवर की हुई । सुरेश जी जैन दिल्ली ने यह क्षण देखा, जब आप अस्ताचल की ओर चले गए तब गुरु वियोगरूपी वज्राघात होने के बावजूद भी व्यथित मन से आचार्य विद्यासागर जी अपूर्व धैर्य और गम्भीरता के साथ उन परिस्थितियों में अपने आप को सम्भाले हुए थे। शून्य को ताकतीं आँखें आलम्बन को खोजती हुईं लौटकर निज आश्रय में सहज हो पातीं, किन्तु एकान्त में तो पता नहीं उनकी मनःस्थिति कैसी रही होगी। इस सम्बन्ध में ब्राह्मीविद्या आश्रम जबलपुर की ब्रह्मचारिणी जयंती बहिन ने आचार्य श्री की पाण्डुलिपि में से लिखकर भेजा-
“०१ जून १९७३ को गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की समाधि हो जाने के बाद दूसरे दिन आचार्यश्री विद्यासागर जी ने अपनी अनुभूति अपनी कॉपी पर इस तरह लिखी (मुक्त छन्द में)
गुरु के अभाव की प्रथम अनुभूति
हो कृत-कृत्य स्वयंभू अथ च श्रीवर हरो मेरा गम।
जो मुझे दुस्सह अरु भयानक दुख दे रहा हरदम ॥१॥
आस्रव रहित जिन मुनियों की शुभाराधना कर नित भाई।
जिससे भयानक विपिन में भी पथ मिल जायेगा सच्चाई ॥२॥
अहो गुरुवर! अवगाह करने वाले सदा योगाब्धि में।
नमोऽस्तु त्रि-बार नमोऽस्तु मम सदा तव चरणों में ॥३॥
क्रोधादि इन कषायों के कारण रह न सका समाधि में।
अतः व्यस्त रहना पड़ा उसकी सामग्री जुटाने में ॥४॥
मन-वच-तन और कृत-कारितादिक से प्रमत्त अवस्था में।
आहार-निहार में करूं विहार के साथ इस पक्ष में ॥५॥
कुछ दोष लगा होगा तुमसे प्राप्य बीस आठ गुणों में।
अतः निर्दोष होने आया हूँ आपके सुसान्निध्य में ॥६॥
सुनो अब स्वामी देर मत करो प्रायश्चित्त देने में।
ऐलकादिक प्रायश्चित्त प्यासी अभी हैं तव संघ में ॥७॥
इसके साथ ही आचार्यश्री जी ने आपके प्रति अपने समर्पण और श्रद्धा स्वरूप श्रद्धांजलि के रूप में २० मुक्त छन्दों में स्तुति की रचना की। जो सन् १९७३ में ब्यावर चातुर्मास स्मारिका में प्रकाशित हुई जो पुनः आपको प्रेषित कर रहा हूँ-
मृत्युञ्जयी गुरु के चरणों में निर्यापकाचार्य की श्रद्धाञ्जलि
गुरो ! दल दल में मैं था फंसा,
मोह पाश से हुआ था कसा।
बंध छुड़ाया दिया आधार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१॥
पाप पंक से पूर्ण लिप्त था,
मोह नींद में सुचिर सुप्त था।
तुमने जगाया किया उपचार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२॥
आपने किया महान् उपकार
पहनाया मुझे रतन-त्रय हार।
हुए साकार मम सब विचार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥३॥
मैंने कुछ ना की तव सेवा,
पर तुमसे मिला मिष्ट मेवा।
यह गुरुवर की गरिमा अपार
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥४॥
निज धाम मिला, विश्राम मिला,
सब मिला, उर समकित पद्म खिला।
अरे! गुरुवर का वर उपकार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥५।।
अंध था, बहिर था, था मैं अज्ञ,
दिये नयन व करण बनाया विज्ञ।
समझाया मुझको समयसार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥६॥
मोह-मल घुला, शिव द्वार खुला,
पिलाया निजामृत घुला, घुला।
कितना था गुरुवर उर उदार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥७॥
प्रवृत्ति का परिपाक संसार,
निवृत्ति नित्य सुख का भण्डार।।
कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥८॥
रवि से बढ़कर है काम किया,
जन गण को बोध प्रकाश दिया।
चिर ऋणी रहेगा यह संसार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥९॥
स्व-पर हित तुम लिखते ग्रन्थ,
आचार्य - उवझाय थे निर्ग्रन्थ।
तुम सा मुझ बनाया अनगार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१०॥
इन्द्रिय दमण कर, कषाय शमण,
करत निशदिन निज में ही रमण।
क्षमा था तव सुरम्य श्रृंगार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥११॥
बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे,
पक्ष पात से नित दूर रहे।
चूंकि तुममें था साम्य - संचार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१२॥
मुनि गावे तव गुण - गण - गाथा,
झुके तुम पाद में मम माथा।
चलते, चलाते समयानुसार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१३॥
तुम थे द्वादश - विध - तप तपते, पल,
पल जिनप नाम जप जपते ।
किया धर्म का प्रसार, प्रचार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१४॥
दुर्लभ से मिली यह 'ज्ञान' सुधा,
‘विद्या' पी इसे, मत रो मुधा।
कहते यों गुरुवर यही ‘सार',
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१५ ।।
व्यक्तित्व की सत्ता मिटादी,
उसे महासत्ता में मिलादी।
क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१६॥
करके दिखा दी सल्लेखना,
शब्दों में न हो उल्लेखना।
सुर नर कर रहे जय जयकार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१७॥
आधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि,
जब आपने ली, परम समाधि ।
अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१८॥
मेरी भी हो इस विध समाधि,
रोष, तोष नशे, दोष उपाधि।
मम आधार सहज समयसार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१९॥
जय हो! ज्ञान सागर ऋषिराज,
तुमने मुझे सफल बनाया आज।
और इक बार करो उपकार,
मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२०॥
ज्ञानसागरेभ्यो नमः।
इस तरह मेरे गुरु ने गुरु-शिष्य की समाधि कराकर एक महान् आत्मोपलब्धि की है और जन मानस की दृष्टि में एक ऐतिहासिक कीर्ति स्तम्भ खड़ा किया है। ऐसे इतिहास पुरुष एवं इतिहास लेखक के चरणों में हर्षपूर्वक स्वर्णिम नमस्कार करता हूँ...
आपका शिष्यानुशिष्य