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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 106 नसीराबाद ने दी सुबकते हुए विदाई

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१०६

    १४-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    पदविहारी करपात्री ज्ञानमूर्ति गुरुवर के चरणों में नमन वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! ०७-०३-१९६९ को नसीराबाद से जब आपने ससंघ विहार किया तब नसीराबाद के लोगों की क्या स्थिति बनी, इस सम्बन्ध में इन्दरचंद जी पाटनी ने बताया । वह आपको बताने का मन हो रहा है-

     

    नसीराबाद ने दी सुबकते हुए विदाई

     

    ‘‘जैसे ही संघस्थ क्षुल्लकों से पता चला कि विहार होने वाला है तब मध्याह्न की सामायिक के पश्चात् नसियाँ जी में सकल समाज उपस्थित हो गई। जैसे ही आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज भगवान के दर्शन करने ऊपर गए तब युवा लोग जयकारे करने लगे। तब खास तौर पर हम युवाओं के आँखों में आँसू भर आए क्योंकि मनोज्ञ मुनि श्री विद्यासागर जी से लगाव जो था, उनका विरह सहन नहीं हो रहा था। जैसे ही बाजार में पहुँचे अजैन समूह भी मुनिसंघ के चरणों में नमोऽस्तु के लिए आ गया और सभी साथ में चलने लगे। नसीराबाद के बाहर तक महिलाएँ बच्चे बुजुर्ग एवं अजैन समाज के लोग विदाई देने आए। आचार्यश्री जी ने सभी को आशीर्वाद दिया तब सभी लोग मुनि श्री विद्यासागर जी से रोते हुए कह रहे थे-महाराज नसीराबाद में ही चातुर्मास करना! तब नीचे निगाह किए मुनि श्री विद्यासागर जी मन्दमन्द मुस्कुराते हुए आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए, लेकिन युवाओं का समूह ६ कि.मी. जाटिया ग्राम तक साथ चला, वहाँ पर एक सज्जन के खाली पड़े मकान में विश्राम हेतु रोका गया। गाँव के सभी लोग परिचित थे। उन सभी का जैन समाज के लोगों से व्यापारिक लेन-देन था एवं सभी सरल स्वभावी थे सभी ने आचार्य संघ के चरणों में अपनी विनयांजलि अर्पित की। कुछ युवा लोग संघ के साथ ही रुके| दूसरे दिन सुबह नसीराबाद समाज ने जाटिया ग्राम में आहार की व्यवस्था की चौके लगाए और संघ की आहारचर्या कराई। फिर वहाँ से मध्याह्न सामायिक के पश्चात् विहार हुआ। ३ कि.मी. चलकर बीर ग्राम के चौराहे पर अन्य समाज की धर्मशाला में विश्राम हेतु रुके। शाम को बीर ग्राम की दिगम्बर जैन समाज ने आकर निवेदन किया-बीर में आचार्यश्री आपके एवं द्वय नवोदित मुनिराजों के चरणों से भूमि पवित्र हो, वहाँ संघ का प्रवास हो। तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने हँसते हुए आशीर्वाद दिया।

     

    तीसरे दिन सुबह बीर ग्राम चौराहे पर ही नसीराबाद समाज एवं बीर ग्राम की समाज ने संघ को आहार दान देकर पुण्यार्जन किया। मध्याह्न सामायिक के पश्चात् ६ कि.मी. चलकर संघ माखुपुरा पहुँचा साथ में नसीराबाद के लोग चल रहे थे। माखुपुरा में एक जैन चैत्यालय है यहाँ पर पाटनी परिवार निवास करता है। उन्होंने संघ को ठहरने की पूरी व्यवस्था बनाई। अजमेर समाज के लोग रात में वैयावृत्य करने हेतु पधारे। चौथे दिन १० मार्च को पाटनी परिवार ने आहार दान देकर पुण्यार्जन किया। संघ ने रात्रि विश्राम भी वहीं किया। ११ मार्च को प्रातः ८ कि.मी. चलकर सोनी जी की नसियाँ में प्रवेश किया। नसियाँ जी में सकल समाज ने मिलकर तीनों मुनिराजों की पूजा की। अजमेर के प्रसिद्ध कवि गीतकार श्रीमान् प्रभुदयाल जी जैन स्वरचित पूजा बनाकर लाए और अपनी भजन मण्डली के साथ बड़े ही भक्ति-भाव से पूजा करवाई। तत्पश्चात् कुछ वक्ताओं ने अपने भाव व्यक्त किए और फिर नवदीक्षित मुनिराज श्री १०८ विवेकसागर जी महाराज, मनोज्ञ मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज और चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का संक्षिप्त उद्बोधन हुआ। कुछ समय बाद वह पूजा ' श्रद्धासुमन' पंचम पुष्प में प्रभुदयाल जी ने प्रकाशित की जो इस प्रकार है-

     

    आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं उनके शिष्य

    मुनि श्री १०८ श्री विद्यासागर जी एवं मुनि श्री १०८ श्री विवेकसागर जी की पूजा

     

    स्थापना

    दोहा-ज्ञानामृत बरसाय कर, ज्ञानसिन्धु गुणखान।।

    संतप्तों की दाह हर, करते जन कल्याण ॥

    तेजपुञ्ज तप मूरती, विद्यासागर धीर।।

    दे उपदेश विवेक युत, हरे जगत की पीर ।।।

        ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-योगीश्वराः! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। |

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-योगीश्वराः! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।।

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-योगीश्वराः! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट्।

     

    अथाष्टक

    शीतल सुरभित जल लाय, चरण पखार करूं।

    दुःख जन्म जरा मृत जाय, नमन हजार करूँ ॥

    चारित्र विभूषण ज्ञान मूरत आचारज।

    विद्या विवेक युत ज्ञान, पूजें पद पंकज ।।

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।

     

    घसि चन्दन केसर संग, चरण चढ़ावत हूँ।

     पुलकित होता हर अंग, ताप मिटावत हूँ ॥ चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।

     

    लाकर के तन्दुल सेत, पुंज करूं चरणां।

    अक्षत पद पायन हेत, लीना गुरु शरणां ॥ चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।

     

    बहुभांति सुमन मंगवाय, पूज रचावन को।

    कर भेंट हिया हरषाय, काम नशावन को ।। चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।

     

    फैनी मोदक भर थार, पूजन हित लाया।

    मम क्षुधा रोग निरवार, बहु मैं अकुलाया । चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

     

    ले दीप रतनमय ज्योत, आरती आन करूं।

    अज्ञान तिमिर क्षय होत, तब गुणगान करूं । चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

     

    ये कर्म कहा नहीं जाय, भव भव दु:खकारी।

    जारन को धूप मंगाय, धूपायन डारी । चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।

     

    नारंगी दाड़िम आम, लाया फल ताजे।

    तब पूजन को गुणधाम, शिवपद के काजे ॥ चारित्र...

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।

     

    जल चन्दन अक्षत पुष्प, चरु वर दीप धरूं।

    ले संग धूप फल अर्घ, तुम पद् भेंट करूँ । चारित्र..

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्योऽनर्व्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।

     

    जयमाला

    दोहा

    संगम विद्या ज्ञान का, अरु विवेक हैं साथ।

    सन्मति सुख संभव करन, गही शरण मुनिनाथ ॥

    भक्ति भाव पूजा रची, पद सरोज गुरुदेव।

    जब लों शिव पद ना मिले, करूं सदा ही सेव ॥

    पद्धरी छन्द

    जय जय जय जय गुरु ज्ञान सिंधु, करुणानिधान तुम दीन बन्धु ।

    ले जन्म गाँव राणोली मांय, छाबड़ा वंश दीपक कहाय।

    घृतवरी मान चतुर्भुज जी तात, भूरामल पण्डित हुए विख्यात ।

    जय बाल ब्रह्मचारी महान्, रखते हैं अपरिमित शास्त्र ज्ञान ।

    आचार्य वीर सान्निध्य पाय, क्षुल्लक पदवी लीनी धराय।

    आचार्य देव शिव सिंधु पास, धारा मुनि पद धर कर उलास।

    की धर्म प्रभावन फिर विशेष, अज्ञान नसा बनकर दिनेश।

    संस्कृत हिन्दी के ग्रन्थकार, टीका है सरल की समयसार।

    जन नगर नसीराबाद भार, दिया पद आचारज हर्ष धार ।

    जय जय विद्यासागर कृपाल, लख चन्द्र वदन जग नमत भाल।

    तुम बाल ब्रह्मचारी अनूप, बाईस वर्ष धर मुनि स्वरूप ।

    है धन्य मात श्रीमंती तुम्हार, तुम पितर मल्लप्पा कुल सिंगार।

    लिया जन्म सदलगा ग्राम मांय, दीक्षा लीनी अजमेर आय।

    जिन शास्त्र पठन करते हैं भार, अरु तप तपते आगमानुसार।

    अति विनयवान गुरु ज्ञान शिष्य, उज्ज्वलतम है जिनका भविष्य।

    जय ज्ञान शिष्य दूजे विवेक, होता तुमसा लाखों में एक।

    जय राजमती सुत प्राण प्यार, हुए लक्ष्मीवान मरवा मंझार।

    जय कुलदीपक श्री सुगनचन्द, बढ़े धर्ममार्ग उर धर जिनन्द ।

    फागुन वदी पंचम शुक्र आय, दो हजार पचीस की साल माय।

    निर्ग्रन्थ रूप लीना सजाय, छावनी नसीराबाद मांय।

    बहुविध तप तपते हैं भार, अरु करें धर्म का बहु प्रचार।

    ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-विद्यासागर-विवेकसागर-मुनीश्वरेभ्यः पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।

     

    सोरठा

    भाव सहित उर धार, विद्या ज्ञान विवेक वर।

    ‘प्रभु' हो भव से पार, रत्नत्रय सिंगार कर ।।

    पुष्पांजलिं क्षिपेत् 

     

    संघ के नगर प्रवेश की खुशी के समाचार ‘जैन गजट' अजमेर में २७ मार्च १९६९ गुरुवार को । प्रकाशित हुए जिसकी कटिंग इन्द्रचंद जी पाटनी ने दी जो इस प्रकार है-

     

    भव्य स्वागत

     

    "चारित्रविभूषण वयोवृद्ध श्री १०८ प. पू. आ. ज्ञानसागर जी महाराज का ११-०३-१९६९ को ससंघ अजमेर में पदार्पण हुआ। पूज्य मुनिराज श्री का नसीराबाद से यहाँ पदार्पण हुआ। संघ का शहर में भव्य स्वागत जुलूस निकाला गया जो श्री सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी की नसियाँ जी में पहुँचकर सभा के रूप में परिणत हो गया। सभा में अनेक वक्ताओं ने पूज्य महाराज श्री से अजमेर में ही विराजकर धर्मोद्योत करने का विनम्र निवेदन किया।' 'इस तरह नसीराबाद के प्रवास में एक स्वर्णिम इतिहास आपने रचा और नव नवोन्वेषी साधक मुनि श्री विद्यासागर जी ने सबके हृदय में एक विशेष स्थान बनाया। हे गुरुवर ! नसीराबाद से जब आपने विहार किया तब जाटिया ग्राम का एक संस्मरण और आपको लिख रहा हूँ जो मुझे अजमेर के श्रीमान् कैलाशचंद पाटनी जी ने सन् १९९५ में लिखकर दिया था-

     

    सच्चे आज्ञाकारी शिष्य

     

    ‘‘आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने जब नसीराबाद से विहार किया तो मैं ८ तारीख को सुबह दर्शनार्थ जाटिया ग्राम पहुँच गया, तब मुनि संघ शौच क्रिया से निवृत्त होकर आ रहा था और जहाँ रुके थे वहाँ पर संघ ने स्वाध्याय शुरु कर दिया। मैं भी पीछे बैठ गया। स्वाध्याय के बीच रामायण का एक प्रकरण चल पड़ा, जिसमें महापुरुष रामचन्द्र जी की दीक्षा को लेकर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने कोई बात कही तब मुनि श्री विद्यासागर जी को वह बात समझ में नहीं आयी। तो वे अपना मंतव्य रख रहे थे। फिर गुरु महाराज ने समझाया तब भी बात मनोज्ञ शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को समझ में नहीं आयी। तब बड़े प्यार से गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बोले- “थोड़ी देर शांतचित्त होकर एकांत में बैठकर सारी बातों पर गम्भीरता से विचार करो तो सब बात समझ में आ जाएगी।' स्वाध्याय समाप्त हो जाने के बाद मुनि श्री विद्यासागर जी सच्चे आज्ञाकारी शिष्य होने के नाते वहाँ से उठकर एक कोने में जाकर बैठ गए। फिर आहारचर्या हुई दोपहर में विहार हुआ। ११ ता. को अजमेर प्रवेश करने के बाद, दूसरे दिन सुबह-सुबह स्वाध्याय चल रहा था, मैं भी पीछे बैठ गया तब विनयशील मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने समय पाकर अपने गुरु को कहा- ‘महाराज जी! अब मुझे वह बात समझ में आ गई।' तब गुरु महाराज बोले- जैसे-जैसे स्वाध्याय करते जाओगे शंकाएँ सब मिट जायेंगी, विद्या कालेन पच्यते इसको ध्यान में रखना।' यह सुनकर मेरे आँसू आ गए आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का अपने शिष्य के प्रति इतना कोमल भाव देखकर मैं गदगद हो उठा। इतनी जर्जर अवस्था में भी स्वकल्याण के साथ-साथ पर कल्याण और संस्कृति रक्षार्थ अनमोल रत्न को तैयार करने का पुरुषार्थ कर रहे हैं।'' इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए, आप जो भी बताते वो बड़े ध्यान से सुनते और जिज्ञासा का समाधान पाने तक विनम्रतापूर्ण ऊहापोह करते हे ज्ञान के सागर गुरुवर! आपने जितना दिया उतना पिया और आपके द्वारा बताया सूत्र ‘विद्याकालेन पच्यते' को गाँठ बाँधकर ५० वर्षों से अभीक्ष्ण ज्ञान साधना के अध्यवसायी बन नाम संज्ञा के सार्थक पर्यायी विद्यासागर बन गए हैं। अकूत करुणा से भरकर अज्ञानियों को ज्ञान की विद्या बाँट रहे हैं। ऐसे महाउपकारी गुरु-शिष्य के पावनभावों को नमन-वन्दन-अभिनन्दन करते हैं।

    आपका शिष्यानुशिष्य


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