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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 104 नसीराबाद में मुनि ज्ञानसागर जी को आचार्यपद

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१०४

    १२-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    आत्ममानिन् स्वोपयोगशालिन् गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के जगत्पूज्य चरणों की त्रिकाल वन्दना करता हूँ। हे गुरुवर! आप परम समाधि की साधना का ध्येय लेकर आत्माहुति के ध्यानयज्ञ में तल्लीन रहते और जो भव्य आत्मानंद का साक्षात्कार करने की इच्छा रखकर आपकी चरणसन्निधि में आता तो उसे आप अवकाश प्राप्त समय में से कुछ क्षण ज्ञान प्रकाश प्रदान करते थे। आपने अनेक मुमुक्षुओं को मार्गदर्शन प्रदान किया है और उन्हें पथ दे पद दे पाथेय भी दिया है। आपके इस आचार्यत्व परिणति को देख समाज श्रद्धावनत थी। तब एक दिन समाज की जाजम पर श्रद्धा-भक्ति-समर्पण का सम्मेलन हुआ और आपको सभी हृदयों में आचार्य कहने की ललक जागृत हो उठी। भक्त हृदय के जजवातों ने आपसे निवेदन किया किन्तु ‘अहम्’ को ‘सोऽहम्' बनाने वाले अहंकाम को गलाकर आत्मकाम में लीन आप्तकाम के ध्येयी आपश्री को पद भी भार सा महसूस हुआ और आपने एक परम समाधान की मुद्रामौन को धारण कर लिया। तब एक घटनाक्रम चला। जिसके सम्बन्ध में तीन चश्मदीद गवाहों ने मुझे जो बताया वह मैं आपको बता रहा हूँ। सर्वप्रथम इन्दरचंद जी पाटनी जो भूतपूर्व मंत्री बाहुबली दिगम्बर जैन पाठशाला नसीराबाद के हैं। उन्होंने २७-१०-२०१५ शरद पूर्णिमा के दिन भीलवाड़ा में बताया था। वह मैं आपके समक्ष रख रहा हूँ-

     

    योग्यताओं ने आचार्य घोषित किया

     

    परमपूज्य ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज अपने युवा मुनि विद्यासागर जी महाराज क्षुल्लक सन्मति सागर जी महाराज एवं अन्य संघ के क्षुल्लक सिद्धसागर जी, क्षुल्लक सम्भवसागर जी एवं ब्रह्मचारी आदि संघ सहित नसीराबाद लगभग २२ जनवरी १९६९ में पधारे। तब एक दिन नसीराबाद समाज ने मिलकर विचार किया कि वयोवृद्ध ज्ञानसागर जी महाराज उत्कृष्ट कोटि के विद्वान् हैं, जिनका साहित्य पढ़कर प्रबुद्ध लोग उनकी विद्वत्ता को मानते हैं और संघस्थ साधु उन्हें अपना गुरु-आचार्य मानते हैं क्यों न उन्हें हम सब भी अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करें और विधिवत् घोषित करें। तब नसीराबाद समाज ने अजमेर के गणमान्य प्रतिष्ठित सर्व श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब, श्री छगनलाल जी पाटनी, मास्टर श्री मनोहरलाल जी जैन, श्री ताराचंद जी गंगवाल, श्री कजौड़ीमल जी अजमेरा, श्री भागचंद जी बज, श्री कैलाशचंद जी पाटनी, श्री कंवरलाल जी छाबड़ा, श्री निहालचंद जी कासलीवाल, प्राचार्य निहालचंद जी बड़जात्या आदि, मदनगंज-किशनगढ़ के पं. श्री मूलचंद जी लुहाड़िया, श्री दीपचंद जी चौधरी, श्री बोदुलाल जी गंगवाल आदि, ब्यावर से पं. श्री हीरालाल जी शास्त्री (साढूमल वाले), श्री प्रकाश चंद जी मास्टर साहब, श्री अमरचंद जी रांवका, श्री कैलाशचंद जी जैन आदि, केकड़ी के श्री रतनलाल जी कटारिया, श्री अमोलकचंद जी गदिया आदि लोगों को आमन्त्रित किया। नसीराबाद समाज ने सभी अतिथियों का हृदय से स्वागत किया और मीटिंग में अपनी बात रखी कि “ज्ञानमूर्ति चारित्रविभूषण वयोवृद्ध मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज की ख्याति समाज में ही नहीं वरन् साहित्यजगत् में भी फैल रही है एवं संघस्थ साधुजन उन्हें अपना आचार्य मानते हैं। जो शिक्षा-दीक्षाप्रायश्चित्त देने में निपुण हैं, ऐसे गुरु मुनिराज को हम सभी भी अपना आचार्य परमेष्ठी मानकर उनकी शरण में धर्मार्जन करें और उनके निर्देशन से आत्मकल्याण के मार्ग को प्रशस्त करें। इस हेतु ज्ञानसागर जी मुनिराज को आप सभी की सहमति से नसीराबाद समाज आचार्य परमेष्ठी घोषित करना चाहती है। क्या आप सभी सहमत हैं?''  इस प्रस्ताव को सुन सभी ने एक स्वर से सहमति प्रदान की। तब हम सभी लोग मिलकर संघस्थ मुनि श्री विद्यासागर जी और क्षुल्लक जी महाराजों के पास गए। हम सभी ने कहा-आप लोग भी हमारे साथ ज्ञानसागर जी मुनिराज से निवेदन करें और आचार्यपद लेने की स्वीकृति दिलावें। तब संघस्थ साधु बोले-“हम तो अपने गुरु को आचार्य ही मानते हैं। उनसे शिक्षा-दीक्षा-प्रायश्चित्त लेते हैं। वे आचार्य परमेष्ठी से किसी बात में कम नहीं हैं। पदवी के बारे में आप लोग जानें, हम लोगों का समर्थन है। तब हम सभी लोग मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज के पास अपने मन्तव्य को लेकर गए और गुरु महाराज के समक्ष निवेदन किया-अजमेर, किशनगढ़, ब्यावर, केकड़ी, नसीराबाद की सकल समाज का प्रतिनिधि मण्डल एकमत होकर आपको अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करता है और इसकी विधिवत् घोषणा करने हेतु आपसे आशीर्वाद चाहता है, संघ का भी समर्थन है। तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘‘ये सब क्यों कर रहे हो भैया? अभी तो हमारे गुरु विराजमान हैं। मुझे आचार्यपद की आवश्यकता नहीं है और मेरी उम्र भी बहुत हो गयी है। मुझे अपना कल्याण करना है। पद के परिग्रह से नहीं बंधना है।'' तब सभी की ओर से श्रीमान् छगनलाल जी पाटनी साहब बोले-‘‘महाराज जी! आचार्य पद मोक्षमार्ग का ही पद है, संसार मार्ग का नहीं एवं आपने ४-५ लोगों को दीक्षा देकर मोक्षमार्ग पर प्रवर्तन कराया है न जाने कितने लोग दीक्षा लेंगे अतः आपके कल्याण के लिए नहीं किन्तु समाज के कल्याण के लिए यह पद समाज घोषित करना चाहती है। आप तो वैसे भी आचार्यत्व का काम कर ही रहे हैं, फिर समाज की भावनाओं को स्वीकार करने में बाधा क्या है? तथा वर्तमान की परिस्थिति को देखते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की परम्परा को जीवित रखने के लिए इस पद को स्वीकार करना चाहिए और अपने युवा शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को कुन्दकुन्द की परम्परा को जीवित रखने के लिए निर्देशन-प्रेरणा-संस्कार देना चाहिए और यह पद आपके लिए तो है ही नहीं यह तो आने वाले शिष्य-प्रशिष्यों के लिए है, अतः हम सभी की आप से करबद्ध प्रार्थना है, कि आप कुछ समय के लिए आचार्य पद ग्रहण करने की स्वीकृति प्रदान करें।'' इसके बाद और भी लोगों ने निवेदन किया। तब ज्ञानसागर जी महाराज सकल जैन समाज की भावना और दबाव को देखते हुए मौन रहे सभी लोगों ने पुनः निवेदन किया कि “आप ज्योतिष विज्ञ हैं। अतः योग्य मुहूर्त बता देवें'' किन्तु ज्ञानसागर जी महाराज कुछ नहीं बोले। तब हम सभी लोग मुनिराज को नमोऽस्तु कर चले आए। बाहर आकर हम सभी ने निर्णय लिया-‘‘जब भी कोई बड़ा कार्यक्रम होगा तब हम समाज में आचार्यपद घोषित करेंगे।' पुण्ययोग से वह दिन भी शीघ्र ही आ गया। फाल्गुन कृष्णा पंचमी विक्रम संवत् २०२५,७ फरवरी १९६९ शुक्रवार के दिन ज्ञानसागर जी महाराज ने ब्रह्मचारी लक्ष्मीनारायण जी जैन मरवा वालों की (सन् १९६८ सोनी नसियाँ अजमेर चातुर्मास के मध्य में वासिम महाराष्ट्र से आए और संघ में सम्मिलित हुए) मुनि दीक्षा एवं क्षुल्लक सन्मतिसागर जी को ऐलक दीक्षा प्रदान करने की घोषणा की। ०७ फरवरी को दोपहर में दीक्षा के पश्चात् १५-२० हजार जैन-अजैन जनता से भरे सिनेमा मैदान के विशाल पांडाल में संघ की सहमति से सर्वप्रथम एडव्होकेट माणकचंद जी गदिया ने उद्घोषणा की-‘‘अजमेर जिले की दिगम्बर जैन समाज, ज्ञानमूर्ति, चारित्रविभूषण, आगमज्ञाता, महाकाव्य रचयिता, सर्वमान्य मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज को संघ तो अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करता ही है अतः आज से समाज भी उन्हें आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के नाम से पहचान करेगी।'' जैसे ही यह घोषणा हुई। तो जनता ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की जय बोली किन्तु ज्ञानसागर जी महाराज मौन बैठे रहे। तब माणकचंद जी वकील साहब ने पुनः घोषणा की। तो जनता ने पुनः जयकारा किया। इस जयकार को सुनकर ज्ञानसागर जी महाराज ने सकल समाज की एवं संघ की स्वीकारोक्ति देखकर सभी को हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया और उन्होंने नौ-बार णमोकार महामंत्र पढ़ा फिर आचार्यपद ग्रहण करने की विधि के अनुसार कुछ पाठ किया और संक्षिप्त में उद्बोधन दिया। उसके बाद पुनः जनता ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का जयकारा किया।''

     

    इस तरह इन्दरचंद जी पाटनी ने आँखों देखा वर्णन मुझे लिखाया। जिसमें आपकी निरीहवृत्ति, दूरदृष्टि, पक्का इरादा एवं धीर-वीर-गम्भीरता को जानकर हृदय श्रद्धा से भर उठा। इस सम्बन्ध में दूसरे क्रम पर उस कार्यक्रम के साक्षी संचालक रहे नसीराबाद के श्री माणकचंद जी गदिया, एडव्होकेट, अजमेर ने ०२-१२-२०१५ को एवं तीसरे क्रम पर नसीराबाद के ताराचंद जी सेठी, सेवा निवृत्त आयकर अधिकारी, अजमेर ने १५-१२-२०१५ को भीलवाड़ा में संघ के दर्शनार्थ पधारे तो उनसे हमने चर्चा की। तो दोनों महानुभावों ने हमें जो लिखाया वह क्रमश: शब्दश: आपको बता रहा हूँ -

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    समस्त संघ ने घोषित किया आचार्य

     

    ‘‘जनवरी १९६९ का शुभ दिवस था। जब नसीराबाद समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने मिलकर चर्चा की कि परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज जो वर्तमान में महान् तपस्वी एवं प्रज्ञा-विचक्षण हैं एवं वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध हैं, उन्होंने कई मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान कर मोक्षमार्ग पर लगाया है। ऐसे आचार्य कुन्दकुन्द की राह पर चलने वाले महामुनि को आचार्य पद से विभूषित करना चाहिए पर नसीराबाद समाज के कुछ प्रमुख लोगों ने कहा कि मात्र संघस्थ साधुओं की सहमति से काम नहीं चलेगा। इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण जनपद के प्रबुद्ध वर्ग, श्रेष्ठी वर्ग, त्यागी वर्ग एवं गणमान्य समाज जनों के बीच में निर्णय किया जाए तो अच्छा रहेगा। तत्पश्चात् नसीराबाद समाज ने एक मीटिंग का आयोजन किया और उसमें भारतवर्ष के प्रतिष्ठित सर सेठ भागचंद जी सोनी की अध्यक्षता में अजमेर जिला के प्रबुद्ध वर्ग को, श्रेष्ठी वर्ग एवं गणमान्य लोगों को आमन्त्रित किया गया और विचार विमर्श हुआ। उस समय हमने एक जैन अखबार का समाचार पढ़के सुनाया कि परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ति श्री शान्तिसागर जी महाराज को समडोली (महाराष्ट्र) में संघ के साधुओं ने विचार किया कि अपने संघ में मुनि हैं, ऐलक हैं, क्षुल्लक हैं, त्यागी हैं, किन्तु आचार्य नहीं हैं। तब संघ के मुनि श्री चन्द्रसागर जी महाराज ने कहा-' अपने दीक्षा गुरु, दीक्षा में बड़े हैं, प्रायश्चित्त देते हैं और तपस्या में श्रेष्ठ हैं, अत: हम सब इनको आचार्य पदवी से विभूषित करते हैं और तब संघस्थ मुनिराजों ने जोर से जयकारा लगाया ‘आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की-जय' बोलकर शान्तिसागर जी मुनिमहाराज को आचार्य घोषित कर दिया था। जिनकी परम्परा आज तक चली आ रही है। इसी प्रकार मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघ में पूरा संघ मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, त्यागीगण एवं श्रावक जन सभी लोग ज्ञानसागर जी मुनिराज को आचार्य मानते हैं, उनसे शिक्षा लेते हैं, प्रायश्चित्त लेते हैं, उन सबकी भावना भी है कि समाज भी उन्हें आचार्य परमेष्ठी माने इसलिए उन्हें आचार्य पद से घोषित करना उपयुक्त एवं सामयिक आवश्यकता है, तब सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब के समर्थन में सभी लोगों ने हाथ उठाकर अपनी सम्मति प्रकट की और सभी लोग मिलकर परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज के पास गए और सभी ने अपनी सहमति सहित निवेदन किया हम सभी आपको अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करते हैं। तब उन्होंने अपनी अनिच्छा जाहिर की। तब मैंने कहा-महाराज जिस प्रकार से सिंह को वनराज की उपाधि उससे पूछ के नहीं दी जाती है अपितु उसके पराक्रम के आधार पर ही उसे सब लोग वनराज मानते हैं, इसी प्रकार आपकी तपस्या, विशाल ज्ञान भण्डार, शास्त्रोक्त चर्या, अनेकविध-भाषाविज्ञ, संस्कृत-हिन्दी महाकाव्य के रचयिता एवं शिष्यों को शिक्षा-दीक्षा-प्रायश्चित्त देने वाले होने से चतुर्विध संघ आपको अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करता है। यह सुनकर वे मौन रहे, तब हम लोग बाहर आ गए और निर्णय किया जब कोई बड़ा कार्यक्रम होगा उसमें आचार्यपद की घोषणा करेंगे।

    कुछ दिन बाद ७ फरवरी १९६९ को ब्र. लक्ष्मीनारायण वाशिम निवासी को मुनिदीक्षा एवं क्षुल्लक सन्मतिसागर जी को ऐलक दीक्षा प्रदान की। उस सभा का संचालन का दायित्व समाज ने मुझे सौंपा। उस वक्त मैं नसीराबाद केन्टोन्मेंट बोर्ड के अध्यक्ष होने के नाते शहर का प्रथम नागरिक था। उस सभा में लगभग १४-१५ हजार जैन-अजैन जन समूह उपस्थित था। गुरुवर ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने जैसे ही दोनों दीक्षाएँ सम्पन्न की उसके तत्काल बाद हमने उनको आचार्य पद से विभूषित करने की इस प्रकार घोषणा की-अजमेर जिले की दिगम्बर जैन समाज एवं मुनि संघ, श्रावक-श्राविकाएँ मिलकर चारित्रविभूषण, आगमज्ञाता, महाकाव्य रचयिता, सर्वमान्य मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज को अपना आचार्य परमेष्ठी स्वीकार करती है और आज से उन्हें आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के नाम से पहचान करेगी। जैसे ही यह घोषणा की, तत्काल जन समुदाय ने अपने दोनों हाथ खड़े करके आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की जय की उद्घोषणाओं से आकाश को गुंजायमान कर दिया। तब नूतन आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने कायोत्सर्ग किया और पिच्छी उठाकर हाथ जोड़कर भक्ति पाठ किया और पंच परमेष्ठी को नमोऽस्तु किया था और संघस्थ साधुओं ने कायोत्सर्ग करके आचार्यश्री की भक्ति कर नमोऽस्तु किया।'' इसका संक्षिप्त समाचार ‘जैन मित्र' ०६-०३-१९६९ में चम्पालाल जैन ने प्रकाशित कराया-

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    नसीराबाद में मुनि ज्ञानसागर जी को आचार्यपद

     

    ‘‘ता. ३१ जनवरी से ७ फरवरी १९६९ तक दीक्षा समारोह अनेक आयोजन के साथ मनाया एवं नवदीक्षित मुनि का नाम विवेकसागर जी रखा गया एवं विशाल समुदाय के मध्य में मुनि ज्ञानसागर जी को आचार्यपद से विभूषित किया। जिसको चतुर्विध संघ ने जय ध्वनि से समर्थन किया था। इस तरह वर्षों पुरानी जिज्ञासा का समाधान हुआ कि जिस प्रकार मुनि श्री शान्तिसागर जी महाराज को समडोली महाराष्ट्र में आसोज शुक्ला एकादशी ८ अक्टूबर बुधवार सन् १९२४ वि.सं. १९८१ को जब चतुर्विध संघ के समक्ष मुनि श्री शान्तिसागर जी महाराज ने क्षुल्लक श्री वीरसागर जी और क्षुल्लक श्री नेमिसागर जी महाराज को मुनि दीक्षा प्रदान की तब चतुर्विध संघ ने मुनि श्री शान्तिसागर जी महाराज को आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया था। (सन्दर्भ-‘प्रश्नोत्तरी' आशीर्वाद-जिनधर्म प्रभावक प.पू. आ. १०८ श्री वर्धमानसागर जी महाराज लेखक मुनिराज १०८ श्री पुण्यसागर जी महाराज आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के ६०वें समाधि दिवस पर प्रकाशित । आयोजक-सकल दिगम्बर जैन समाज निवाई (राज.) चातुर्मास-२०१५)। हे गुरुवर! ठीक इसी प्रकार संघस्थ साधुओं की सम्मति एवं चतुर्विध संघ की सहमति से अनिच्छापूर्वक आप, आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे क्योंकि तत्कालीन श्रमण संस्कृति का स्वरूप देखकर प्रबुद्ध वर्ग चिन्तित था और आपने श्रमण संस्कृति के उज्ज्वल भविष्य की कुण्डली पढ़ी तो आपने अपने जर्जर कंधों पर भी गुरुतर भार वहन करने का बीड़ा उठाया। धन्य है आपकी दिव्यदृष्टि। इस युग के परमपूज्य कुन्दकुन्द के जनक के श्री चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हुआ...

    आपका शिष्यानुशिष्य

     

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