दाता के द्रव्य को नहीं वरन उसकी भावना को देखें। द्रव्य थोड़ा हो सकता है पर उसकी भावना यदि विशुद्ध हो तो थोड़ा सा द्रव्य-दान बहुत पुण्यवर्द्धन का कारण बन जाता है। सभी उसकी भावना की प्रशंसा करते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है :-
7 मार्च 1998, गुरुवार, भाग्योदयतीर्थ सागर पंचकल्याणक महोत्सव पूर्ण हुआ। गरमी का समय होने से प्रात:काल ही फेरी हो गई थी। भाग्योदय तीर्थ के ट्रस्टीगण शाम को आचार्य भक्ति के बाद सदस्यों का सम्मान एवं दान की घोषणाएँ डॉ. अमरनाथजी कर रहे थे। तभी एक अजैन बाबा जी अपने थैले में करीब 7-8 किलो गेहूँ रखकर लाये और आचार्यश्री जी से बोले- ये हमारा थोड़ा सा दान भी ले लो। सभी लोग देखने लगे कि बाबाजी क्या दे रहे...।
आचार्यश्री जी ने डॉ. अमरनाथ को इशारा किया। डॉ. अमरनाथजी ने बाबाजी से नाम, गाँव पूछा और बड़े उत्साह के साथ उस बाबाजी के भावों की सराहना की। जितना जनसमूह था तालियाँ बजाकर बाबाजी के दान की अनुमोदना की। आचार्यश्री जी ने कहा- ये कहलाता है दान। जो शुद्ध-समर्पण भावों के माध्यम से दान दिया जाता है। दान छोटा हो या बड़ा दान तो दान है, पर ऐसा दान अपार पुण्य बंध का कारण होता है।