दैनन्दिन कार्यों के लिये कौन कब आयेगा और कब जायेगा? यह विचार संसारीजन नित प्रति करते रहते हैं। पर अतिथि तो कल की बात नहीं करता है। हर पल अपने पास रहता है। अतिथि कैसा होता है यह प्रसंग है आचार्यश्रीजी का।
बात बीना (बारहा)जी की है। 6 अप्रैल 1998, सोमवार शाम को आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्री के साथ कुछ महाराज और मैं बैठा था। तभी सागर से भाग्योदय ट्रस्ट के ट्रस्टी ब्रह्मचारी श्री दरबारीलालजी, डॉ. राजकुमार को लेकर आए। साथ में ट्रस्ट के 10-15 व्यक्ति भी थे।
ब्र. दरबारीलालजी ने आचार्यश्री से डॉ. राजकुमारजी का परिचय कराया और बताया कि आपने आयुर्वेद डिपार्टमेंट को संभाल लिया। हमने आयुर्वेदिक औषधालय तो प्रारंभ कर दिया है, अब आयुर्वेद-फार्मेसी का उद्धाटन आपके सानिध्य में कराना है।दरबारीलालजी बोले- महाराज हम ये काम कब करें, कोई तिथि आदि निश्चित कर दो, कब कार्यक्रम रखें और आप आशीर्वाद दे दो ।
आचार्यश्री ने कहा- 'हम अतिथियों से तिथि पूछने आए हो। अरे! तिथि बांध करके अतिथि नहीं चलता है और उनसे किसी निश्चित तिथि की कामना करना ठीक नहीं। हाँ। हम अच्छे काम के लिए आशीर्वाद तो अवश्य देते हैं, पर तिथि नहीं देते हैं।' 'सभी लोग हँसते हुए बोले- 'धन्य हैं गुरुदेव।'