Jump to content
सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • स्वाध्याय 5 - स्वाध्याय/शिक्षा

       (1 review)

    स्वाध्याय 5 - स्वाध्याय/शिक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. स्वाध्याय मन की खुराक है। वह तन को ही नहीं बाह्य जगत् में भागते हुए मन को भी मन्त्र की तरह कीलित कर अन्तर्मुखी करता है। माँ जैसे अपने बेटे को अहित पथ से बचाकर सन्मार्ग में लगाती है, ठीक वैसे ही जिनवाणी माता भव्यात्माओं को सतपथ पर लगाकर स्वस्थसंपोषित करती है। भूमिका के अनुसार गुरु निर्देशन में किया गया स्वाध्याय विरागता का फल प्रदान कर, पर्त दर पर्त चेतना का शोधन करता है। आप पायेंगे कि वक्ता-श्रोता और ज्ञानीअज्ञानी के स्वरूप सन्दर्भों के साथ-साथ तत्व-सिद्धांत के सरस सीकरों से इस खण्ड को काफी हद तक अभिषित किया गया है।
    2. स्वाध्याय का अर्थ मात्र लिखना पढ़ना ही नहीं है बल्कि आलस्य, असावधानी के त्याग का नाम भी स्वाध्याय है।
    3. जिस व्यक्ति का उपयोग चर्चा और चर्या में हमेशा जागरूक रहता है उसका सही स्वाध्याय माना जाता है।
    4. बार-बार पढ़ने से ज्ञान में रस आने लगता है यानि ज्ञान अनुभव में आ जाता है और अनुभव ही सबसे बड़ा मन्त्र है।
    5. यह जगत् ही खुला समयसार है यदि इसे सही-सही समझोगे तो जागृति जरूर आयेगी।
    6. शरीर भी एक खुली किताब का काम कर सकता है यदि चिन्तन की कला है तो।
    7. विचारों का मूल्य होता है मात्र शब्दों का नहीं।
    8. वही पढ़ो, वही सीखो, वही करो जिसके उपसंहार में आत्मा सुख-शांति का अनुभव कर सके।
    9. शिक्षा वही श्रेष्ठ है जो जन्म-मरण का क्षय करती है।
    10. मन-वचन-काय की चेष्टा का नाम ही कर्मकाण्ड है, अत: कर्मकाण्ड ग्रन्थ को पढ़कर के कर्मकाण्ड (प्रवृत्ति) में कमी आनी चाहिए।
    11. कुछ पंक्तियों को अंडर लाइन करना और कुछ को अंडर ग्राऊंड कर देना यह स्वाध्याय की पद्धति ठीक नहीं।
    12. स्वाध्याय करने वाले के पास ध्यान नहीं भी हो किन्तु चर्या जिसके पास है उसके पास हर समय ध्यान है सावधानी रहती है।
    13. भावश्रुत का साक्षात्कार करने में द्रव्यश्रुत माध्यम बनता है। शब्द से अर्थ की ओर और अर्थ से भाव की ओर बढ़ना ही स्वाध्याय का मूल लक्ष्य है।
    14. स्वाध्याय, अध्ययन आदि के समय आदान-प्रदान जैसा व्यवहार देखने में आता है किन्तु आदान-प्रदान को गौण कर उपादान की ओर दृष्टि डालना है और पूर्व की धारणाओं को बदलना है। द्रव्य-गुण- पर्याय के कथन का यही प्रयोजन होना चाहिए।
    15. स्वाध्याय से एक दो दिन में ही आप अपनी प्रतिभा के द्वारा बहुत-सी गलत धारणाओं का समाधान पा जायेंगे लेकिन यह ध्यान रखना कि ग्रन्थ आर्ष प्रणीत (आचार्य प्रणीत) मूल प्राकृत व संस्कृत भाषा के ही हों मुख्य रूप से उन्हीं का स्वाध्याय करना चाहिए।
    16. उत्तर जल्दी नहीं मिलने पर पाठक को निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि यदि प्रश्न है तो उसका उत्तर अवश्य होगा, प्रश्नकर्ता है तो समाधान कर्ता है ही।
    17. स्वाध्याय करते हुए भी जिस व्यक्ति के कदम चारित्र की ओर नहीं बढ़ रहे हैं उसका अर्थ यही है कि उसने स्वाध्याय करना तो सीख लिया किन्तु स्वाध्याय के वास्तविक प्रयोजन को प्राप्त नहीं किया।
    18. जो व्यक्ति वस्तु तत्व को अंधेरे में रखता है वह स्वयं खाली हाथ रह जाता है और दूसरों को भी खाली हाथ ही रखता है।
    19. गुरुभक्ति से विशुद्ध व्यक्ति ही विशिष्ट ग्रन्थों के अध्ययन की पात्रता रखते हैं।
    20. स्वाध्याय बीच का आलम्बन है अन्तिम नहीं। स्वाध्याय में रत व्यक्ति स्वाध्याय में रत है स्वभाव में नहीं।
    21. स्वाध्याय करने की योग्यता (पात्रता) के लिये प्राथमिक भूमिका में सप्त व्यसन का त्याग अनिवार्य है। वैसे सप्तव्यसन व्यवहारिक जीवन और राष्ट्र की उन्नति के लिये भी हानिकारक है। आत्मोन्नति में तो बाधक है ही।
    22. "स्वाध्याय परमं तप:" कहा गया है यह बात ठीक है किन्तु ध्यान रहे तप, व्रत अंगीकार करने के बाद ही आता है। अत: व्रतों (अणुव्रत, महाव्रत) को अंगीकार किये बिना जो पठन-पाठन किया जाता है वह स्वाध्याय भले ही हो पर तप कभी नहीं हो सकता।
    23. अकेले आहार में ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि जरूरी नहीं है किन्तु ग्रन्थों के स्वाध्याय में भी इनकी शुद्धता जरूरी है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला में इस बात पर बहुत जोर दिया है, यहाँ तक कहा है कि प्रत्याख्यान पूर्वक (कुछ त्याग करके) ही संकल्प सहित स्वाध्याय करना चाहिए।
    24. स्वाध्याय करने वाले को चाहिए कि वह आगम के किसी भी संदर्भ को शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ आगमार्थ और भावार्थ के माध्यम से समझकर स्वयं की धारणा बनाये एवं जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करें।
    25. स्वाध्यायी मुमुक्षु को चाहिए कि वह वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धमोपदेश के क्रम को ध्यान में रखकर क्रमबद्ध स्वाध्याय करें।
    26. प्रारंभिक चार प्रकार के स्वाध्याय की उपेक्षाकर जो व्यक्ति मात्र धर्मोपदेश में ही लगा रहता है वह व्यक्ति धर्म प्रभावक और तत्वज्ञ हो ही नहीं सकता।
    27. आज कुछ, कल कुछ और परसों कुछ, कभी कोई शास्त्र कभी कोई शास्त्र यह स्वाध्याय की पद्धति नहीं है। भले ही कम ग्रन्थ पढ़ो किन्तु एकाग्रता से व्यवस्थित किया गया अध्ययन ही लाभदायी होता है।
    28. तीर्थंकर प्रकृति के बंध में हेतुभूत सोलहकारण भावनाओं में एक भावना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग संवेग भी है। इसका मतलब यह नहीं कि सिर्फ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही तीर्थकर प्रकृति के बंध में कारण है बल्कि अभीक्ष्ण संवेग भावना (निरन्तर वैराग्य की भावना) भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारण है।
    29. प्रथमानुयोग भले ही बहुत राउन्ड लेकर तत्व पर आता है किन्तु उसके पठन-पाठन से प्रशम भाव की प्राप्ति होती है, वैराग्य की ओर कदम बढ़ाने में सुविधा होती है। जिन लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि प्रथमानुयोग ग्रन्थों में सिर्फ कथा कहानियाँ ही हैं उन्हें रत्नकरण्डक श्रावकाचार के प्रसंग को भली-भाँति पढ़ लेना चाहिए। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने प्रथमानुयोग को बोधि-समाधि का निधान कहा है। वास्तव में शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़ने से कषायें शान्त होती हैं, मार्ग पर बढ़ने का साहस आता है।
    30. करण शब्द के दो अर्थ हैं एक परिणाम और दूसरा गणित। अनुयोग के प्रसंग में करण का अर्थ गणित ही लिया गया है क्योंकि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने स्वयं कहा है कि जो शास्त्र चतुर्गति, युग परिवर्तन और लोक-अलोक के विभाग आदि का कथन करते हैं वे सब करणानुयोग के शास्त्र हैं अर्थात् भौगोलिक जानकारी देने वाले शास्त्रों को करणानुयोग में ही गर्भित करना चाहिए। इन शास्त्रों के स्वाध्याय करने से संवेग भाव की प्राप्ति होती है।
    31. किस ओर चलें? और कैसे चलें? इस निर्णय के बाद भी पथ में पाथेय की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति चरणानुयोग से ही होती है। सागार और अनगार की चर्या का वर्णन करने वाले इन शास्त्रों के पढ़ने से जीवों के प्रति करुणा/अनुकंपा का भाव हृदय में स्वयमेव आता है।
    32. पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष और जीवादिक तत्वों का कथन जिन शास्त्रों में है वे सभी शास्त्र द्रव्यानुयोग के ही शास्त्र हैं। इन शास्त्रों के पठन-पाठन से विश्वास मजबूत होता है, आस्तिक्य भाव की प्राप्ति होती है अत: जो व्यक्ति जोर देकर यह कहते हैं कि सम्यकदर्शन की प्राप्ति के लिये मात्र अध्यात्म ग्रन्थों को ही पढ़ना चाहिए उन्हें अभी और अधिक गंभीरता से द्रव्यानुयोग के विषय में चिन्तन करने की जरूरत है।

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    शिक्षण  तो दीक्षा ग्रहण करने का मार्ग है ।

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...