सत् शिव सुन्दर 7 - श्रेयस् पथ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है।
- वर्तमान पुरुषार्थ का प्रभाव भूत और भविष्य दोनों पर पड़ता है।
- त्रस पर्याय की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है जितनी कि गुणों में कृतज्ञता।
- बड़ों में गंभीरता, धैर्य, साहस, वैराग्य सब कुछ प्रौढ़ होना चाहिए।
- पक्ष-विपक्ष से परे जीवन को निष्पक्ष बनाना ही श्रेयस्कर है।
- कैंची नहीं सुई बनो क्योंकि कैंची का काम है काटना और सुई का काम है जोड़ना।
- हमें जोरदार नाम नहीं करना, किन्तु जोरदार काम करना है।
- उच्चविचार ही जीवन में उच्च आचार को लाते हैं तथा उच्चतम स्थान दिलाने में कारण होते हैं।
- अच्छे कार्य करने से ही अच्छे पद मिला करते हैं, बुरे कार्य करने से कभी भी अच्छे पद नहीं मिलते।
- यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को निष्पन्न कराना असम्भव ही है।
- अधिक बोलने से शक्ति का अपव्यय होता है, मौन रहने से चिन्तन में प्रखरता तथा विचारों में प्रौढ़ता आती है।
- मौन की अपेक्षा ऐसे वचन बोलना भी श्रेष्ठ हैं जिससे क्षुब्ध वातावरण भी शांति का अनुभव कर सके।
- कषायी के ऊपर नहीं, कषायों के ऊपर क्रोध करना श्रेयस्कर है।
- वज़ के प्रहार से पत्थर कट सकता है पर नवनीत नहीं क्योंकि नवनीत विनीत ही बना रहता है।
- दुनियाँ भले ही हमसे मतलब रखे, किन्तु हमें दुनियाँ से मतलब नहीं रखना है।
- खसखस के दाने बराबर दूसरों को दिया गया दुख हमारे लिये मेरु के बराबर होकर फलता है।
- अपनी रक्षा करना तो ठीक है, लेकिन अपनी रक्षा के लिये दुनियाँ भी मिट जाय यह कोई धार्मिकता नहीं है।
- जो पापों से बचाकर प्राणियों की रक्षा करे वह है क्षत्रिय।
- अपराधियों को मारने के लिये नहीं किन्तु अपराध से भयभीत कराने के लिये क्षत्रियों के हाथ में शस्त्र दिये जाते हैं।
- अपनी और पर की रक्षा के लिये शस्त्र रखा जाता है न कि हिंसा के लिये।
- चक्र चलाने के लिये नहीं किन्तु जिसका मन चलायमन है उसे स्थिर करने के लिये है।
- चक्रवर्ती षट्खण्ड को जीतकर आया है फिर भी उसकी सुरक्षा के लिये अंग रक्षक (Body Guard) अहो! आश्चर्य की बात है।
- कर्तव्य के प्रति अनादर एवं अकर्तव्य के प्रति आदर होना प्रमाद का सूचक है।
- भय, दबाव और अरुचि से की गई क्रियायें कभी भी वास्तविक फल की प्राप्ति नहीं करा पाती।
- मात्र लीक के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो भेड़ों की तरह जीवन का अन्त हो जायगा।
- हम जहाँ कहीं भी जो भी कार्य करें वह अपनी भूमिका, योग्यता और विवेक के साथ करें। प्रमाद के साथ नहीं किन्तु जागृति से करें।
- जिसके कदम लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं वह न तो भटकता है और न ही अटकता है क्योंकि अधिक अटकने पर भटकने का भी भय रहता है।
- जीवन में यदि सच्चा साधु न मिल पाये तो भी कार्य सध सकता है किन्तु कुसाधु की संगति अवश्य ही संसार में डुबोती है।
- अपनी क्षमता तथा पद की मर्यादा के अनुकूल ही कर्तव्य होना चाहिए किन्तु ध्यान रहे उसमें कर्तृत्व बुद्धि न हो।
- पापी के पीछे पड़े रहने से स्वयं का भी पुण्य लुट सकता है और अपने ही पुण्य में लगे रहने से पापी भी मुड़ सकता है।
- गुणीजनों को हमेशा मान-सम्मान देने का प्रयास करो किन्तु मान-सम्मान पाने की भूख मत रखो।
- स्वयं में गुरुता का अनुभव करने वाला व्यक्ति ही गर्व करता है।
- यदि माता-पिता और गुरुओं का वरदहस्त हमारे ऊपर है तो हम अपने लक्ष्य की ओर अबाधित बढ़ते जायेंगे। फिर हर जगह सफलता ही सफलता मिलेगी।
- उपकरणों की संख्या देखकर ही उसके प्रति आसक्ति का अन्दाज लगाया जा सकता है।
- वातावरण ऐसा निर्मित करें जिससे व्यक्ति पतन नहीं बल्कि उत्थान की ओर अग्रसर हो।
- भौतिक सुविधायें मन को दुविधाग्रस्त करती हैं।
- मंदिर जाओ, जाना न पड़े और घर न जाओ, जाना पड़े तो समझ लो धर्म की शुरूआत हो गई।
- बहुमूल्य प्रतिमाओं का मूल्य नहीं किन्तु न्यौछावर होना चाहिए।
- व्यक्ति की परख उसके कुल से नहीं कर्म से होती है।
- सत् शिव सुन्दर की चर्चा खूब की अब तब। अब चर्चा की नहीं अर्चा की जरूरत है।
- सत् शिव और सुन्दर का जो साम्राज्य जहाँ छिपा है उसे खोजो और पाने का प्रयास करो।
- प्रतिनिधि सामान्य बात नहीं है क्योंकि प्रतिनिधि के माध्यम से ही उस निधि की पहचान होती है।
- विपरीत वृत्ति वाले के लिये उत्तर नहीं मौन ही श्रेष्ठ है।
- कर्म से प्रभावित उपयोग में वस्तुतत्व का वास्तविक अनुभव/अवलोकन संभव नहीं।
- अर्थ का अधिक संग्रह शांति का कारण नहीं बल्कि समुचित वितरण शांति का कारण है।
- हमें धन का समर्थन परिवर्द्धन नहीं करना किन्तु समय-समय पर उसका सदुपयोग करना है।
- दुख को समझना/अनुभव करना ही सुख को प्राप्त करने का सही रास्ता है।
- वह सुख किस काम का जो चाहते हुए भी किसी के दुख को दूर न कर सके।
- जब तक दुख का सही-सही अनुभव नहीं होता तब तक सुख की गवेषणा नहीं हो पाती।
- पावन का झुकना पतित होना नहीं वरन् पतित को पावन बनाने की प्रक्रिया है।
- असंयमी पुण्ययोग से प्राप्त दिव्य वस्तु का उपयोग भी असंयत होकर ही करता है।
- भले ही देश बदल जाये, वेश बदल जाये, लेकिन कभी अपना लक्ष्य नहीं बदलना, उद्देश्य नहीं बदलना।
- राग-द्वेष वाले दो पलड़े सहित कर्म कॉवड़ी को यह संसारी प्राणी भारवह बना अनंत काल से ढो रहा है।
- अन्तर की शुद्धि का महत्व अपने लिये अधिक होता है दूसरे के लिये कम और व्यवहार शुद्धि का महत्व अपने लिये कम होता है दूसरे के लिये अधिक।
- मानव पर्याय की दुर्लभता को पाना तभी सार्थक है जबकि हमारे जीवन में अध्यवसान/रागद्वेष कम हो ।
- आप अपने जीवन को जैसा ढालेंगे वैसा ही ढलेगा। आप उसे अपना मित्र बनाएँ या शत्रु, सुख-दुख के कार्य आपके अपने ही होंगे।
- भगवान महावीर का उपासक वही है जो नमस्कार करता है चेतन को और बहिष्कार करता है अचेतन का।
- हमें जीवन को चलाना नहीं है जीवन तो अपने आप अविराम चल रहा है लेकिन जीवन को उन्नति की ओर बढ़ाने में ही मानव जीवन की सफलता है।
- दूसरों की सुख-सुविधाओं को देखकर जलने वाला व्यक्ति कभी भी सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता।
- आज का व्यक्ति अपने दु:ख से दु:खी कम है किंतु दूसरों को प्राप्त सुख से दु:खी ज्यादा है।
- दूसरा नरक नहीं है, दूसरा हमारे लिये दु:ख नहीं है अपितु दूसरों को पकड़ने की जो परिणति है वही हमारे लिये दु:ख और नरक का काम करती है।
- जिस प्रकार नदी ढलान की ओर सहज ही बह जाती है उसी प्रकार इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों की ओर सहज ही बह जाते हैं।
- सुख से प्राप्त हुआ ज्ञान दु:ख के आने पर कपूर के समान उड़ जाता किन्तु जो कष्ट परिषह झेलकर ज्ञान अर्जित किया जाता है वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्थायी बना रहता है।
- जो समझना चाहता है उसे समझाना चाहिए लेकिन जो समझाने पर भी नहीं समझता, उल्टा काम करता है, उससे माध्यस्थ भाव रखना ही श्रेष्ठ है।
- सोचो, विचार करो! आर्थिक विकास के लिये अर्थ का अवलम्बन लेना ठीक है, लेकिन जीवन ही अर्थ के लिये बन जाय। जीवन चलाने के लिये तो भोजन ठीक है किन्तु भोजन के लिये ही जीवन बन जाये, यह ठीक नहीं है।
- ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिये नहीं वरन् विनाश के लिये कारण है, या यूँ कहो कि ज्ञान का विकास रोकने में कारण है।
- मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठना बहुत आसान है किन्तु परमात्मा के निकट पहुँचना अत्यन्त कठिन है। जो मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठने का आकांक्षी है वह तो अनिवार्यत: परमात्मा की दृष्टि में नीचे गिर जाता है।
- जिससे अपराध हुआ है उससे मौन लेना तो अच्छा है लेकिन अन्य जगह जाकर उसकी निन्दा करना ठीक नहीं। यदि पीठ पीछे उसकी निन्दा करते हैं तो माध्यस्थ भाव नहीं है अपितु द्वेषभाव हो जायेगा। माध्यस्थ भाव रखना अपराधी के लिये सबसे उत्तम दण्ड है।