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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सत् शिव सुन्दर 1 - न्याय/नीति

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    सत् शिव सुन्दर 1 - न्याय/नीति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अधिक विलम्ब के कारण कभी-कभी न्याय भी अन्याय-सा लगने लगता है।
    2. जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं वरन् समस्त विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में।
    3. स्वयं यदि अन्याय करना नहीं चाहते हो तो अन्याय करने वाले का विरोध भी करना चाहिए।
    4. आज का न्याय केवल अर्थ के ऊपर आधारित है। अर्थ मिलता है तो परमार्थ को गौण किया जा सकता है, और यदि अर्थ नहीं मिलता है तो उसका विरोध भी किया जा सकता है।
    5. जो न्याय नीति के विपरीत चलता है, वह भगवान महावीर के शासन को भी कलंकित करता है।
    6. यह भगवान महावीर का दरबार है, इसमें अनीति-अन्याय के लिये स्थान नहीं मिलता। यहाँ तो नीति-न्याय के अनुसार सादगी जीवन से काम लेना होगा।
    7. सभी क्षेत्रों में सभी प्रकार की नीतियाँ होती हैं, जो समय-समय पर नष्ट होती रहती हैं, बदलती रहती हैं लेकिन आत्मनीति एक ऐसी नीति है, जो कभी नष्ट न हुई है न होगी।
    8. पेट भरने की चिन्ता करो, पेटी भरने की नहीं। पेट फिर भी न्याय-नीति से भरा जा सकता है किन्तु पेटी नियम से अन्याय/अनीति के द्वारा ही भरी जायेगी।
    9. किसी कार्य में समय देना तन, मन, धन से भी अधिक मूल्यवान है।
    10. अच्छाइयों के प्रति उदारता एवं बुराइयों के प्रति कृपणता का भाव रखना चाहिए।
    11. समझदार भी कभी-कभी मझधार में रह जाते हैं।
    12. धन का आकर्षण ही धर्म का अवरोधक है।
    13. जिस कार्य में व्यक्ति की रुचि होती है, उसी ओर उसकी मति और गति होती है।
    14.  निर्णय के बिना जो मार्ग में आगे बढ़ते चले जाते हैं वे गुमराह हो जाते हैं।
    15. पारम्परिक मार्ग का अनुकरण करना ही श्रेष्ठ है। नया रास्ता बनाना स्वयं तथा अन्य सभी के लिये भी हानिप्रद हो सकता है।
    16. विपरीत दिशा की ओर नहीं, सही दिशा की ओर हमारे कदम बढ़ना चाहिए। यदि उतावली में हम कोई काम करेंगे तो वह नियम से ठीक नहीं होगा।
    17. जिन्दगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो समय की बर्बादी से वह भी बहुत छोटी हो जाती है।
    18. अपात्र जनों को बहुमान देने से गुणीजनों के गौरव में क्षति पहुँचती है।
    19. विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय नहीं है।
    20. बिना जाँचे परखे किसी को भी अपना मित्र बना लेना जीवन की सबसे अप्रिय घटना है।
    21. जब नीति रीति प्रीति कुछ भी काम न करे, तब फिर कुछ अलग ही सोचना चाहिए।
    22. पथ्य का सही पालन हो तो औषधि की आवश्यकता नहीं और यदि पथ्य का पालन नहीं हो तो भी औषधि सेवन से क्या प्रयोजन ?
    23. बुखार के समय यदि ताकत की दवाई दे दी जाए तो बुखार ही ताकत से आयेगा। ठीक ऐसे ही विपरीत बुद्धि वालों को यदि प्रोत्साहन मिले तो उनका अहंकार ही बढ़ता है।
    24. मन की खुराक मान है, वह न मिलने पर मन खुरापाती हो जाता है।
    25. मनमाना मन तब हो जाता है, जब उसके मन की नहीं होती।
    26. जब सुई से काम चल सकता है तो तलवार का प्रहार क्यों? और जब फूल से काम चल सकता है तो शूल का व्यवहार क्यों ?
    27. खण्डन की नहीं मण्डन की दृष्टि रखने से खण्डन में भी मण्डन ही नजर आता है।
    28. जैसे गाय रूखी-सूखी घास खाकर भी मधुर स्वादिष्ट दूध प्रदान करती है, वैसे ही प्रतिकूल नीरस वचनों को सुनकर हमें भी हितकर वचन बोलना चाहिए।
    29. महत्वपूर्ण कीमती वस्तु के लिये हर किसी को किसी भी जगह नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसकी महत्ता में कमी आती है।
    30. वोट से भी ज्यादा महत्वपूर्ण सपोर्ट होता है, क्योंकि वोट अपना एक ही होता है, पर सपोर्ट न जाने कितनों का किया जाता है।
    31. पक्षाघात रोग से तो शरीर का एक भाग ही जड़ (शून्य) हो पाता है, किन्तु पक्षपात के रोग से तो सारा का सारा शरीर और दिमाग दोनों ही जड़ जैसे हो जाते हैं।
    32. पक्षपात एक ऐसा जलप्रपात है, जहाँ पर सत्य की सजीव माटी टिक नहीं पाती बह जाती है, बहकर जाने वह कहाँ जाती है ?
    33. पक्षपात एक ऐसी बुराई है जो बुरे को भी अच्छा मानकर स्वीकार करती है। तथा मात्सर्य एक ऐसा भाव है जो निर्दोष और सहजता को भी स्वीकार नहीं कर पाता।
    34. मिट्टी के ऊपर ही पानी का सिंचन किया जाता है, पाषाण पर नहीं। ठीक इसी प्रकार पात्र के ऊपर ही उपकार होता है अपात्र पर नहीं।
    35. अपराधी के लिये दण्ड देना अनिवार्य है अन्यथा वह अपराधिक प्रवृति में बढ़ सकता है और गुणीजनों को देखकर मुख प्रसन्न होना चाहिए अन्यथा उसके गुणों में विकास नहीं हो सकता।
    36. क्रूर अपराध के लिये दण्ड भी क्रूर ही दिया जाय यह कुछ जमता सा नहीं है।

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