सत् शिव सुन्दर 5 - निजता का पाठ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- हम लोग अभाव में पूजा तो करते हैं पर सद्भाव में नहीं।
- सद्भावना हमारे अन्दर छिपी सम्भावनाओं को अभिव्यक्त कर देती है।
- चिराग को नहीं किन्तु चिर-आग (राग) को बुझाओ।
- मानव, माया का दास बना है माया, मानव की दासी नहीं।
- आशा को ही जिन्होंने दासी बना लिया अब उनके चरणों में सारा जगत् ही दास बनकर खड़ा हो जायेगा।
- अज्ञानता की धरती पर ही राग-द्वेष की खेती हो रही है।
- लक्ष्योन्मुखी दृष्टि होने से गिरा हुआ व्यक्ति भी उठ सकता है जैसे कि चींटी।
- उत्कृष्ट साधकों के दर्शन करने से ही उत्कृष्ट परिणाम (भाव) प्राप्त होते हैं।
- व्यक्ति, माल से मालदार नहीं किन्तु भावों से मालदार बनता है।
- हमें दीप का नहीं ज्योति का और सीप का नहीं मोती का सम्मान करना है।
- अपनी पहचान मानवता की पहली शर्त है।
- प्रत्येक प्राणी का जीवन अपने आप में एक आधी अधूरी कहानी है।
- प्रत्येक द्रव्य अपनी सृजनशीलता का कोष है।
- अपने में अपने हित की भावना ही जागृति है, तभी जीवन में सवेरा है।
- जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम कर जाती है। और जब दवा काम नहीं करती तब दुआ काम कर जाती है।
- वर्ण का आशय न रंग से है न अंग से वरन् चाल-चलन ढंग से है।
- वचनों के माध्यम से देश, वंश और परिवार का परिचय प्राप्त हो जाता है।
- कलयुग की यही पहचान है जिसे खरा भी अखरा है सदा और सतयुग उसे तू मान जिसे बुरा भी बूरा सा लगा है सदा।
- शांति कहीं और से आने वाली नहीं, अशान्ति जहाँ से आ रही है उसे दूर करना ही शान्ति को लाना है।
- शांति किसके लिये ? स्वयं को या दुनिया को। यदि स्वयं शांत हो जाओगे तो दुनिया अपने आप शांत हो जायेगी।
- मंगलाचरण और मंगल ध्वजारोहण आदिक कार्यों के समय ही हमें मंगलकारी भावना नहीं भानी चाहिए बल्कि हमेशा भाते रहना चाहिए।
- शुद्ध तत्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति पावन/पवित्र होता है।
- हमारी दृष्टि में समीचीनता तभी आ सकती है जब हम वस्तु के असली रूप को देखने का प्रयास करेंगे।
- स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ स्वतंत्रता के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है।
- अर्थ पुरुषार्थ का अर्थ है कि दो अर्थों के बीच पुरुष। जिसका अर्थ है कि अर्थ (धन) पुरुष (आत्मा) के लिये है।
- लोग कहते हैं कि उत्पादन नहीं हो रहा पर मैं कहता हूँ कि आज मुख्य समस्या उत्पाद की नहीं, उत्पात की है जो हर जगह हो रहा है।
- संतुलित एवं संयमित आहार के द्वारा शारीरिक बल को नियन्त्रित किया जाता है जो शरीर एवं स्वास्थ्य दोनों के लिये लाभप्रद होता है।
- शाकाहार के साथ-साथ आहार की मात्रा भी संतुलित करना जरूरी है। अभक्ष्य और अनिष्ट का त्यागकर उसी तरह का भोजन करना चाहिए जो स्वास्थ्य वर्धक एवं हितकारी हो।
- आप हाथापाही को ठीक मानते हैं और माथाफोड़ी में कठिनाई महसूस करते हैं, पर विज्ञजन कहते हैं कि हाथापाही बहुत की अब थोड़ी माथाफोड़ी भी कर लो यानि अनर्गल (असम्यक्र) प्रवृत्ति छोड़ दो और युक्ति संगत कार्य करो।
- आज के युग की सबसे बड़ी समस्या विचार, उच्चार एवं आचार के बीच की खाई है, जिस दिन यह पटेगी उस दिन मानव जीवन की बहुत सारी समस्यायें स्वयमेव सुलझ जाएँगी।
- पहले नाव की बात होती थी, आज सिर्फ चुनाव की बात होती है। पहले तैरने-तिराने की बात होती थी। आज सिर्फ डूबने-डुबाने की बात होती है।
- हमें कागज की नाव में नहीं चलना है। कागजी नाव से आज सारी की सारी समाज परेशान है। आज नावें भी सही नहीं हैं बल्कि नाव के स्थान पर आज चुनाव हावी होता जा रहा है।
- जीव के परिणाम और कर्म के बीच की स्थिति है नोकर्म, हमें नोकर्म पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। जैसे पत्र पाने वाला व्यक्ति अपनी प्रतिक्रिया पत्र प्रेषक के प्रति करता है न कि डाकिया पर।
- समय इतना सूक्ष्म है जिसका विभाजन करना संभव नहीं। वह तो निरन्तर प्रवाहमान है, रविवार के समापन और सोमवार की शुरूआत के बीच की संधि आज तक कोई भी नहीं पकड़ पाया।
- नगर-पालिका की ओर से यदि दो चार दिन ही शहर में सफाई न हो तो गंदगी काफी फेल जाती है निकलना कठिन हो जाता है किन्तु इस आत्मा के अन्दर जन्म जन्मान्तरों का कचरा पड़ा हुआ है फिर भी हमें ध्यान नहीं।
- व्याकरण में प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष यह तीन पुरुष होते हैं। अन्य पुरुष में ‘है' का प्रयोग होता है, प्रथम पुरुष में ‘हूँ' का और मध्यम पुरुष में ‘हो’ का प्रयोग होता है। जब 'हूँ' या ‘हो’ निकल जायेगा तब ‘है' शेष रह जायेगा। सर्वोदय का साक्षात् दर्शन अन्य पुरुषों में होता है। अन्य पुरुष में पूर्ण समष्टि है, इसे आचार्य कुन्दकुन्द ने महासत्ता कहा है। अन्य पुरुष में प्रथम और मध्यम पुरुष की अपेक्षा वात्सल्य प्रेम का व्यापक दृष्टिकोण होता है।