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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सत् शिव सुन्दर 4 - कर्तव्य बोध

       (2 reviews)

    सत् शिव सुन्दर 4 - कर्तव्य बोध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. गुणवान, गुणियों को आदर देते ही हैं क्योंकि उन्हें गुणों की महत्ता मालूम है।
    2. सभी लोग दूसरों से आदर पाना चाहते हैं पर देना नहीं। दूसरों को आदर दिये बगैर आदर मिल कैसे सकता है ?
    3. सहज जीवन जीना सीखो, मान के अभाव में मानव स्वयमेव सहज हो जाता है।
    4. अहंकारी का ही अधोगमन होता है, विनयी हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है।
    5. हे मानी प्राणी! देख तो इस पानी को और हो जा पानी-पानी।
    6. कठोरता बर्फ की तरह विभाव है जबकि तरलता पानी की तरह आत्म स्वभाव।
    7. मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं हृदय को छूकर होती है।
    8. लघुत्व को स्वीकार किये बिना अन्दर से गुरुत्व प्रकट हो ही नहीं सकता।
    9. बड़प्पन वही है जो सही को स्वीकार करे।
    10. वास्तव में बड़ा वही है जिसे छोटे का भी ध्यान हो।
    11. आज का व्यक्ति मान के पीछे सब कुछ न्यौछावर करने तैयार है पर मान को नहीं।
    12. मान को समझने और उसे जीतने में ही मानव की सफलता है।
    13. विनय, दीनता की प्रतीक नहीं है वह तो समीचीन तप है, जो आत्म-विकास तथा कर्म निर्जरा का श्रेष्ठ साधन है।
    14. विनय के माध्यम से सामने वाला पाषाण हृदय भी पिघल जाता है एक प्राचीन आचार्य को आज का दीक्षित शिष्य भी अपनी विनय वृत्ति से आकर्षित कर लेता है।
    15. विनय में हृदय साफ होना चाहिए, छल कपट मायाचारी से की गई विनय कोई विनय नहीं वह तो पाखण्ड मात्र है।
    16. सामने-सामने विनय भक्ति फिर भी स्वार्थ से हो सकती है किन्तु परोक्ष में भी विनय भक्ति करना निस्वार्थ गुणानुराग के बिना संभव नहीं।
    17. आज स्थितिकरण की बहुत जरूरत है पर ध्यान रहे वह उपगूहन की पृष्ठभूमि पर विनय और शालीनता के साथ होना चाहिए।
    18. जो अहंकार वश यहाँ अकड़कर ऊपर देखता हुआ चलता है उसको परभव में नीचा ही रहना पड़ता है किन्तु जो यहाँ विनम्र विनत दृष्टि रहता है उसे परभव में उच्चपद प्राप्त होता है।
    19. विवेक के साथ प्रत्येक घड़ी बिताने का नाम ही वास्तव में जीवन है।
    20. विवेकी कभी मुग्ध नहीं होता और जल्दबाजी में कभी क्षुब्ध भी नहीं होता है। अनुकूलता प्रतिकूलता में वह अपने आपको सम्हाले रखता है।
    21. आज दूरदर्शन की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी दूरदृष्टि रखने की।
    22. जिसका विवेक एक बार जागृत हो जाता है वह अधर्म से स्वयमेव बच जाता है उसे फिर किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं। वास्तविक स्वयं सेवक वही है जो आत्मा की सेवा करता है।
    23. दूसरों की सेवा में निमित्त बनकर अपने अन्तरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है।
    24. अनुभव में वृद्धि, सादगी और गंभीरता का आना वृद्ध सेवा का परिणाम है।
    25. सेवा वैय्यावृत्ति करना निश्चित ही उपकार है किन्तु किसी को अपनी तरफ से परेशानी में नहीं डालना भी उपकार है।
    26. प्रत्युपकार की इच्छा से किया गया उपकार वास्तविक उपकार नहीं है।
    27. पर के कल्याण में "स्व" का कल्याण निहित है। यह बात दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा न भी हो।
    28. परोपकार की वेदी पर चढ़ाया गया फल कभी निष्फल नहीं जाता।
    29. कर्तव्य में आनंद मनाने वाला व्यक्ति एक कर्तव्य को पूर्ण कर दूसरे कर्तव्य की खोज में तत्पर रहता है।
    30. कर्तव्य में अधिकार का भाव नहीं आना चाहिए क्योंकि अधिकार का भाव आते ही कर्तव्य, कतृत्व बन जाता है।
    31. बड़ों की विनय छोटों का कर्तव्य, छोटों के प्रति वात्सल्य बड़ों का कर्तव्य, परस्पर में एकता ये सभी संघ संचालन के जरूरी साधन हैं।
    32. अहंकार की नींव पर ही कर्तृत्व का ढाँचा टिका हुआ है।
    33. जैनदर्शन कहता है कि उतना ही उत्पादन करो जितना तुम्हें आवश्यक है बल्कि उससे कम ही करो जिससे कुछ समय बचेगा जिसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी।
    34. स्वार्थ सिद्धि और क्षणभंगुर जीवन की रक्षा के लिये अनाप-शनाप सामग्री का संग्रह, पता नहीं इन्सान को कहाँ ले जायेगा।
    35. कम से कम वस्तुओं में अपना निर्वाह करना यह गरीबी नहीं किन्तु सदाचरण सन्तोषवृत्ति है।
    36. स्वार्थ और संकुचित दायरों से ऊपर उठे बगैर किसी की सेवा संभव नहीं।
    37. सफलता उसके चरण चूमती है जो निरन्तर परिश्रम करता है।
    38. बड़ों की आज्ञा पालन करने से तन और मन दोनों की दूरी समाप्त होती है।
    39. “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” इस सूत्र को यदि हम सही-सही समझ लें, जीवन में उसे लागू करें तो आज जैनधर्म की व्यापक रूप से प्रभावना हो सकती है।
    40. अपने जीवन की सुख सुविधाओं में यदि थोड़ी भी कमी आ जाए तो व्यक्ति को शीघ्र ही रोष आ जाता है और उस रोष में हमारा होश भी खो जाता है। दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को भी हम भूल जाते हैं।
    41. दया का कथन निरा है और दया का वतन निरा है। एक में जीवन है और एक में जीवन का अभिनय।
    42. दया और अभय का धर्म से गहरा सम्बन्ध है। वीतरागी जीवन में हमें यह सहज ही दिखाई देते हैं।
    43. वे आँखें किस काम की जिनमें ज्ञान होते हुए भी संवेदना की दो-तीन बूंदे भी नहीं आतीं। वे आँखें लोहे की हैं, पत्थर की हैं, हमारे किसी काम की नहीं।
    44. दया के अभाव में शेष गुण विशेष महत्वशाली नहीं हैं। वह दया, शेष गुण रूपी मणियों को पिरोये जाने के लिये धागे के समान है।
    45. हे आर्य! दान देना दाता का कार्य है और अनिवार्य है।
    46. दाता अभिमानी न बने और पात्र दीन न हो तभी दान देय की महत्ता है।
    47. दाता, दान का पात्र नहीं है अत: वह दान देने की पात्रता तो रखता है पर लेने की नहीं।
    48. पात्र सत्पात्र हो और पावन होने वाला भी नीर-क्षीर विवेकी हंस के समान हो तो समागम करने वाला पतित से पावन नियम से बनता है।
    49. जो अतिथि सत्कार को बेचैन रहता है उससे कई गुना बेचैन होकर पुण्य उसकी खोज करता है।
    50. सर्वस्व समर्पण करने में न मांग होती है, न चाह, न प्रतिदान की भावना।
    51. दान के बिना अहिंसा धर्म की रक्षा न आज तक हुई है और न आगे होगी।
    52. धन का नहीं धर्म का स्वागत करो। न्यायोपात्त धन से जो दान दिया जाता है वह युगों-युगों तक कीर्ति का कारण बनता है।
    53. दान देने का अर्थ यह नहीं है कि यद्वा-तद्वा दान दें। यदि एक व्यक्ति चोरी करके दान दे तो क्या उसका दिया हुआ दान, दान कहलाएगा। नहीं...नहीं। वह तो पाप का ही कारण बन जाएगा।
    54. जो व्यक्ति अत्याचार, अनाचार के साथ वित्त का संग्रह करता है और मान के वशीभूत होकर दान करता है वह कभी भी धर्म प्रभावना नहीं कर सकता, और न ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है।
    55. वात्सल्य विहीन व्यक्ति पत्थर के समान होते हैं।
    56. अभिमान वश हम हाथी के साथ तो चल सकते हैं पर साथी के साथ नहीं।
    57. मैत्री भाव का प्रदर्शन तो स्वार्थ की वजह से कहीं भी हो जाता है किन्तु उसका दर्शन तो मैत्री के धारक महामुनिराजों के सान्निध्य में ही होता है।
    58. प्रेम में समय और स्थान की सभी दूरियाँ समाप्त हो जाती हैं क्योंकि प्रेम आत्मगत होता है।
    59. प्रेम की स्याही और आचरण की कलम से ही जीवन का काव्य निर्मित होता है।
    60. आनंद का अनुभव स्वयं को होता है किन्तु प्रेम का अनुभव तो निकट आने वाले को भी।
    61. जो प्रेम व्यक्ति या वस्तु-विशेष के प्रति होता है वह प्रेम नहीं राग का संबंध है क्योंकि प्रेम व्यापक और नि:स्वार्थ होता है।
    62. दीनता, विनय नहीं है वह तो मात्र जीवन का निर्वाह है।
    63. विवाह में पहला बंधन है राग, लेकिन वह राग, रागी बनने के लिये नहीं वीतरागी बनने के लिये है। इसमें एक ही के साथ सम्बन्ध है अनंत के साथ नहीं। अनंत के साथ तो बाद में होगा, सर्वज्ञ होने पर। पहले एक फिर अनंत। जो प्रारंभ में ही अनंत के साथ उलझता है, उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं रहता।
    64. एक दूसरे के पूरक होकर, प्रेम के साथ खाई गई रूखी-सूखी रोटी भी व्यक्ति को पहलवान बना देती है किन्तु ईर्ष्या के साथ मावा-मिष्ठान्न खाने पर भी अस्पताल जाने की आवश्यकता होती है।
    65. जिस प्रकार बिना किसी खिड़की या दरवाजे के कोई मकान संभव नहीं ठीक इसी प्रकार बिना गुणों के कोई भी व्यक्ति संभव नहीं। हाँ, उन्हें देखने के लिये चाहिए है मात्र दृष्टि।
    66. हमें हमेशा गुणवानों को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए। वह गुणी कोई भी हो सकता है बस गुण होना चाहिए। फिर जाति से, शरीर से, मजहब अथवा कौम से कोई भी मतलब नहीं है। राजा या रंक उसके सामने कोई वस्तु नहीं है।
    67. निंदा किसी की भी नहीं करनी चाहिए, यहाँ तक कि विपरीत वृत्ति वाले की भी नहीं।
    68. हमें दूसरों के गुणों की प्रशंसा ही करना चाहिए, निंदा-बुराई करके हम व्यर्थ ही अपने मुख को खराब करते हैं।
    69. सजनों के मुख से कभी भी निष्ठुर, निन्दक और निर्दयतापरक वचन नहीं निकलते।
    70. दूसरों की आलोचना/दोषों का कथन करते समय जिनकी जिह्वा मौन हो जाती है, वास्तव में वे ही महापुरुष होते हैं।
    71.  किसी के साथ नहीं बोलना यह तो अच्छा है लेकिन एक से बोलना और एक से नहीं बोलना यह हमारे रागद्वेष को सूचित करने वाली खतरनाक परिणति है।

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    Aatama345

      

    गुरुवर का एक एक शब्द अनमोल है 

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