Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सत् शिव सुन्दर 2 - धर्मनीति

       (1 review)

    सत् शिव सुन्दर 2 - धर्मनीति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. अहिंसा धर्म के सद्भाव में सब धर्म अपने आप पल जाते हैं।
    2. अहिंसा ही हमारा धर्म है, हमारा उपास्य है, उसकी रक्षा के लिये हमें हमेशा कटिबद्ध रहना चाहिए।
    3. मूलधर्म अहिंसा है, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन उसी अहिंसा धर्म की रक्षा के लिये किया जाता है।
    4. यदि हम अहिंसा से भावित हैं तो दूसरा हमसे अपने आप ही प्रभावित होगा।
    5. धर्म वृक्ष से गुजरी हुई सद्भावना की हवा सभी को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाती है।
    6. धार्मिक क्रियाकलापों को सामूहिक रूप से करने पर विचार तथा अनुभवों में वृद्धि होती है।
    7. धार्मिक क्रियाएँ करते हुए भी दोष लगते रहते हैं, जैसे दीपक के साथ-साथ कालिख भी निकलती रहती है।
    8. मिलन अलग बात है और मिल जाना अलग बात। रेत का जल के साथ मिलन होता है किन्तु दूध में शक्कर घुल-मिल जाती है, बस धर्म की इतनी ही परिभाषा है।
    9. आचार-विचारों में पतित व्यक्ति के भी कल्याण की भावना से गले लगा लेना सच्ची धर्म प्रभावना है।
    10. धर्मात्मा के बिना धर्म कभी रह नहीं सकता अत: धर्म की चाह से हमें धर्मात्मा की भी रक्षा करनी चाहिए।
    11. जैनधर्म, क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष का नहीं है वह तो सार्वभौमिक लोक कल्याणकारी है।
    12. जैनधर्म परस्पर मैत्री, सहयोग और उपकार पर विश्वास रखता है। संघर्ष, अविश्वास, द्वेष और दुराव का यहाँ पर कोई स्थान नहीं है।
    13. अपनी अपनी शक्ति/क्षमता के अनुसार सामाजिक जन धर्माराधना में एक जुट हो सके ऐसा उपदेश तथा प्रेरणा विवेकी जनों के द्वारा दी जानी चाहिए।
    14. रुढ़िवाद की पूजा और अपने को हीन मानकर दूसरे किसी बड़े के सम्मुख समग्र समर्पण यही लोक मूढ़ता है।
    15. कर्तृत्व के साथ दयाबुद्धि कभी नहीं होती, करुणा का सम्बन्ध तो धर्म के साथ है।
    16. सत्य उसे मिलता है जिसकी आत्मा गहरी और शान्त होती है।
    17. जहाँ पर धर्म है, सत्य है, न्याय है वहाँ पर रक्षा अपने आप होती है।
    18. जो सत्य है वही हमारा है, जो हमारा है वही सत्य है, ऐसा नहीं।
    19. सत्य का साक्षात्कार बाद में होता है, पहले उस सत्य पर विश्वास करना जरूरी है।
    20. चिरकाल तक संघर्ष करने के उपरान्त भी अन्त में सत्य की ही विजय होती है, क्योंकि सत्य अमर है और असत्य की पग-पग पर मृत्यु।
    21. जो आँखें सत्य की ओर निहार रही हैं, वे पूज्य हैं, आखिर ज्ञान की आँखें ही तो पूज्य होती हैं।
    22. असत्य से सहमत कभी मत होना, भले ही उसका बहुमत क्यों न हो।
    23. शब्द सत्य या असत्य रूप नहीं होते बल्कि बोलने वाले का अभिप्राय ही सत्य असत्य रूप होता है।
    24. सद्-अभिप्राय से प्राणीरक्षा के लिए बोला गया झूठ भी सत्य होता है और विपत्ति में डालने वाला कष्टकारक बोला गया सत्य भी झूठ ही होता है।
    25. हितकारक, कटुक और कठोर वचन भी ठीक है किन्तु अहित करने वाले मधुर वचन भी ठीक नहीं।
    26. वचनों में अद्भुत शक्ति है इसलिए तो कभी वह कर्णफूल बन जाते हैं तो कभी कर्णशूल।
    27. सत्य को कहा नहीं जा सकता उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि जो कहा जाता है वह सत्य नहीं, सत्यांश ही होता है।
    28. उतावली के कारण कभी-कभी व्यक्ति को सत्य से वंचित होना पड़ता है और असत्य की शरण में जाना पड़ता है।
    29. ऐसी भाषा का प्रयोग करो जो कि सत्य को असत्य और असत्य को सत्य सिद्ध न कर सके।
    30. सत्य हमेशा एक होता है और असत्य अनंत। लेकिन एक सत्य भी अनेकों असत्यों को समाप्त कर देता है जैसे एक चन्द्रमा सघन अंधकार को समाप्त कर देता है।
    31. जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित न होकर दूसरों पर अनुशासन चलाना चाहता है वह व्यक्ति कभी भी सफल नहीं हो सकता।
    32. आत्मानुशासन के लिये अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है एक मात्र अपनी कषायों पर ‘कुठाराघात' करने की।
    33. संसारी प्राणी शासन चलाना चाहता है स्वयं अनुशासित होना नहीं चाहता, लेकिन जब भगवान ने स्वयं अपने आपको अनुशासित किया तभी उनको सारे भक्त लोग शासक मानकर पूजने लगे।
    34. शासन का नहीं आत्मानुशासन का महत्व है। मोक्षमार्ग में।
    35. प्रकाश के अभाव की पीड़ा अँधे को नहीं, आँख वाले को ही होती है। आँख के अभाव वाला अंधा नहीं बल्कि सही अंधा तो विवेक आचरण के अभाव वाला है।
    36. प्रकाश तो वह है, ज्ञान तो वह है जिसमें कोई भी वस्तु अंधकारमय न रहे।
    37. संसारी जीवों से विशेष सम्पर्क रखना ही संसार बन्धन का मूल कारण है।
    38. विषय कषायों में अनुरंजन एवं संग्रहवृत्ति का नाम ही संसार है।
    39. वह गृहस्थ जिसके पास कौड़ी भी नहीं, कौड़ी का नहीं और वह साधु जिसके पास कौड़ी भी है कौड़ी का नहीं।
    40. उत्साह का जल आलस्य के मल को बहाने में सक्षम है।
    41. हतोत्साही बनकर नहीं बल्कि उत्साही बनकर सत्कार्य करो, लेकिन उतावली मत करो।
    42. उत्साह जीवन की वह सम्पदा है जो संसार की किसी भी वस्तु को खरीद सकती है।
    43. सही तो दृष्टि की दृढ़ता होती है और दृष्टि की दृढ़ता से आचरण में दृढ़ता आती है।
    44. जिस ओर हमें बढ़ना चाहिए उस ओर यदि हम नहीं बढ़ रहे हैं तो उसका एक ही कारण है आस्था का अभाव ।
    45. निष्ठा और पुरुषार्थ में ऐसा बल है जो बलवान को भी हरा देता है, तथा पद और पथ से डिगने वालों को भी दिशा बोध दिला सकता है।
    46. गल्ती करने वाले को गल्ती बता देना मगर उसे अपनी दृष्टि से नहीं गिराना बल्कि गल्ती से परिचित कराकर उसे ऊपर उठाना महानता है।
    47. जिन लोगों ने बुराई की उनको शीघ्रातिशीघ्र भूल जाओ क्योंकि उनका एक क्षण का स्मरण भी अनंत जन्मों के अर्जित आनंद को पलभर में नष्ट कर देता है।
    48. मोह को जीतना मानवता का एक दिव्य अनुष्ठान है।
    49. मोह का प्रभाव जड़ के ऊपर नहीं चेतन के ऊपर पड़ता है।
    50. मोह एक ऐसा जहर है जिसे देखने मात्र से ही जीवन विषाक्त हो जाता हे, काटने की बात तो बहुत दूर रही।
    51. भौतिक सम्पदा से सुरक्षा नहीं, सच्ची सुरक्षा तो आत्मिक सम्पदा से है।
    52. कामाग्नि को उद्दीप्त करने के लिये भौतिक सामग्री घासलेट तेल का काम करती है।
    53. जीवन बहुत संघर्षमय है, इसे हर्ष के साथ जीना चाहिए।
    54. संघर्षमय जीवन का उपसंहार हमेशा हर्षमय होता है।
    55. विकार से ही विकार टकराता है। विकार, विकार का संघर्ष है, विकार और निर्विकार का संघर्ष तीन काल में संभव नहीं है।
    56. हमारा जीवन संघर्षमय है इस पर भी अनादिकालीन संस्कार ऐसे हैं जो आत्मा को झकझोर रहे हैं | और वे कभी-कभी आत्मपद से च्युत कराने में सफल भी हो जाते हैं। अत: धर्म के क्षेत्र में अहर्निश सावधानी रखनी चाहिए।
    57. तुम दुनिया के साथ भले ही छल करो लेकिन छाले तुम्हारी आत्मा में ही पड़ेंगे।
    58. यह संसार ठगों का बाजार है इसके ठगने में नहीं आना किन्तु अपनी कषायों को ही ठगकर संसार से पार हो जाना।
    59. चोर से नहीं ‘चौर्य' भाव से नफरत करो, घृणा पापी से नहीं पाप से करना चाहिए।
    60. पकड़ना चोरी है जानना चोरी नहीं है, हमारी दृष्टि लेने के भावों से भरी है और भगवान की दृष्टि ज्ञान-भाव से भरी हुई है।
    61. मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। वह तो मात्र ड्रेस और एड्रेस का बदलना है।
    62. वह जन्म अच्छा माना गया है जो मरण को जन्म नहीं देता और वही मरण अच्छा माना गया है जो बार-बार जन्म को जन्म नहीं देता।
    63. सबसे ज्यादा क्षमता उसी की होती है जो क्षमाशील होता है।
    64. क्षमा मांगना नहीं, क्षमा धारण करना ही श्रेष्ठ है।
    65. क्षमा करने वाला क्षमा मांगने वालों से बहुत आगे पहुँचा हुआ माना जाता है।
    66. यदि क्रोध हमारे अन्दर विद्यमान नहीं तो फिर हमें क्रोध दिलाने में कोई समर्थ नहीं हो सकता।
    67. हम सोचते हैं कि अपने क्रोध के द्वारा हम दूसरों को जला डालेंगे लेकिन ध्यान रखना विश्व में कोई भी शक्ति दूसरों को नहीं जला सकती।
    68. उबलती हुई सामग्री जैसे छूने लायक नहीं रहती अर्थात् अस्पृश्य हो जाती है ठीक इसी तरह क्रोधाग्नि से तप्तायमान व्यक्ति भी अस्पृश्य हो जाता है।
    69. शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्य हिंसा है और आध्यात्मिक जीवन में व्यवधान करना भाव हिंसा है।
    70. दीपक, बाती और तेल से नहीं जलता बल्कि इन दोनों के त्याग से जलता है।
    71. मार्ग का अन्त ही मंजिल है। यात्रा वही है जिससे मार्ग का अन्त आ जाये।
    72. यात्रा तो हमेशा एक ही दिशा की ओर हुआ करती है। घुमाव और भटकन का नाम यात्रा नहीं है।

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now


×
×
  • Create New...