साधना 5 - समता/अध्यात्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- समता भाव ही श्रामण्य है उसी में श्रमण की शोभा है।
- सुख दुःख कर्माश्रित है किन्तु समता आत्माश्रित, जो कि कषाय विजय की प्रतीक है।
- सरलता और समता ही मेरा स्वभाव है, कुटिलता और ममता केवल विभाव।
- अध्यात्म की पृष्ठभूमि वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ से दृष्टि में समता आती है।
- समता के साथ सुख का गठबंधन है।
- अध्यात्म का आनंद समता की गोद में है।
- समता के साँचे में ढला हुआ ज्ञान ही विपत्ति के समय काम आता है।
- समता का विलोम है तामस। समता जीवन का वरदान है और तामस अभिशाप।
- समताधारी यश में फूलता नहीं और अपयश में सूखता नहीं।
- समता का अर्थ पक्षपात नहीं है किन्तु वह तो माध्यस्थ भावों की एक ऐसी भूमिका है जहाँ पर न वाद है न विवाद।
- समता भाव ध्यान नहीं है वह तो राग द्वेष से रहित एक परम पुरुषार्थ है।
- साधक के लिये अन्य सभी शरण तात्कालिक हो सकती हैं पर उसे समता ही एक मात्र शाश्वत शरण है।
- जरा-जरा सी बातों में क्षुब्ध होना ज्ञानी की प्रौढ़ता नहीं है, ज्ञानी की प्रौढ़ता की झलक समता में है।
- जो आँखें अपमान का प्रसंग पाकर भी रक्त वर्ण की नहीं होती अपितु क्षमा-समता के दूध से भर जाती हैं वे दिव्यता को पा जाती हैं।
- जो साधक वस्तुओं को न अच्छी न बुरी मानता है अपितु समता भाव रखता है वही व्यक्ति भगवान् महावीर का अनुगामी बन सकता है।
- जिसे स्वरूप का ज्ञान हो गया है वह समता में आये बिना रह नहीं सकता और कभी भी वह विषमता की ओर पैर नहीं बढ़ायेगा।
- समता वहीं पर टिकती है जहाँ पर किसी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रहती। आशा से मलीन मन में उपशम भाव नहीं आ सकते।
- तलवारों का वार सहने वाले लोग आज फिर भी मिल सकते हैं लेकिन फूलमालाओं का वार सहना कितना कठिन है। इसे सहने वाले विरले ही साधक मिलते हैं बन्धुओ!
- कर्म के उदय में नवीन कर्म का बन्ध हो ही यह नियम नहीं है किन्तु राग न करने वाला ज्ञानी कर्मोदय के समय समता भाव रखकर नये कर्म-बन्ध से बच जाता है।
- समयसार जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है उसमें पर की बात नहीं स्व की बात है।
- भूत और भविष्यत् इन दोनों को भुलाकर वर्तमान का संवेदन करना ही अध्यात्म का सार है।
- 'अब' के पास आने के लिये ‘तब' और 'कब' का सम्बन्ध तोड़ना होगा।
- बाह्य पदार्थों को ओझल कर अपने आप में आने का नाम ही अध्यात्म है।
- अध्यात्म का अर्थ झुण्ड नहीं अकेला है, द्वैत नहीं अद्वैत है, वह तो एकाकी यात्रा है।
- हे मन! तू कहीं भी चला जा पर ध्यान रख, स्वरूप से बढ़कर दुनिया में कोई उत्कृष्ट वस्तु नहीं।
- जिसे मरण से भीति नहीं और जन्म से प्रीति नहीं, वही अध्यात्म को पा सकता है।
- अध्यात्म जब गौण हो जाता है तब पूरा का पूरा ज्ञान मिट जाता है। वास्तव में त्यागी का जीवन अध्यात्म ही है।
- जो अध्यात्म के धरातल से नीचे खिसक जाता है उसे अध्ययन की आकुलता बढ़ जाती है।
- वस्तुत: अध्यात्म साधना यही है कि जो भी ज्ञान का विषय बने उसमें समता रखनी चाहिए।
- अध्यात्म प्रेमी कभी बाहर में किसी से उलझता नहीं और किसी को उलझाता भी नहीं।
- जिसने समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार को समझ लिया वास्तव में वही अध्यात्म के रहस्य को समझ सकता है।
- स्वभाव की ओर आने के लिये यह जानना आवश्यक है कि कौन किस-किस का किस रूप में कर्ता है।
- इन्ट्रेस्ट (रुचि) के बिना इंटर (प्रवेश) संभव नहीं। उसके बिना भीतर अध्यात्म की बात उतर नहीं सकती।
- भावना ही एकमात्र अध्यात्म का प्रवाह है अत: उस अध्यात्म तक पहुँचने के लिये अनुप्रेक्षा आवश्यक है।
- इस युग में अध्यात्म शास्त्रों का असर तो हुआ है पर लगता है सर तक हुआ है।
- गुरुभक्ति करते-करते जिसका हृदय शुद्ध हो गया है, आस्था मजबूत हो गई है उसे ही गुरु अध्यात्म का रहस्य उद्घाटित करते हैं।
- जहाँ पर अध्यात्म जीवित है, वहीं पर आत्मा जीवित है।
- आज हम उस उत्कृष्ट अध्यात्म को मात्र शब्दों में देख रहे हैं, जीवन में नहीं।
- स्मृति अतीत की प्रतीक है और आशा भविष्य बनकर खड़ी है। इन दोनों पर विजय पाने वाला ही वर्तमान में निराकुलता से जी सकता है।
- अध्यात्म के बिना जीवन में कोई रस नहीं रह जाता। चौबीसों घंटे बहिर्मुखी दृष्टि के साथ ही जीवन चला जा रहा है। उसे छोड़कर अध्यात्म के साथ अन्तर्मुखी साधना करनी चाहिए।
- आध्यात्मिक साधना वही है, जिसमें एकमात्र आत्मा ही रह जाती है, परमात्मा भी गौण हो जाता है। इतना साहस जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व में आ जाता है, वही अकेला इस परम अध्यात्म को पा सकता है।
- आप आनंद की अनुभूति चाहते हुए भी चाह रहे हैं कि वह कहीं बाहर से आ जाये। पर ध्यान रखना बाहर से कभी भी आने वाली नहीं है। 'बसंत की बहार' बाहर नहीं अन्दर है।
- सुख-शान्ति बाहर नहीं अन्दर है। अन्दर आनंद का सरोवर लहरा रहा है उसमें कूद जाओ तो सारा जीवन शान्त हो जाये।
- जहाँ पर तेरा-मेरा, यह-वह, सब विराम पा जाता है वस्तुत: वही अध्यात्म है।
- लेखक, वत्ता और कवि होना दुर्लभ नहीं है, दुर्लभ तो है आत्मानुभवी होना।
- सोचिये! स्वयं को छाने बगैर सारे संसार को छानने का प्रयास आखिरकार तुम्हारे लिये क्या देगा।
- मैं यथाकार बनना चाहता हूँ व्यथाकार नहीं, और मैं तथाकार बनना चाहता हूँ कथाकार नहीं।
- आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है, किन्तु सन्तों की भोग सामग्री चैतन्य शक्ति है। जिसमें आत्मा के साथ सतत् भोग चलता रहता है।
- अध्यात्म में उत्पाद, व्यय की अपेक्षा ध्रौव्य (सत्ता) को विशेष महत्व दिया गया है। इसमें जो एक बार उतर जाता है वह तर जाता है ।
- एकान्त में शान्त चित्त से एकत्व का चिन्तन जब तक नहीं चलता तब तक संसारी प्राणी की दीनता समाप्त नहीं हो सकती क्योंकि एकत्व अनुप्रेक्षा में अपना सारा आत्म साम्राज्य सामने आता है फिर दीनता की कोई बात ही शेष नहीं रह जाती है।
- पेड़ा खाना ध्यान करना है और मावा बनाना भावना भाना है। ध्यान रूपी पेड़ा खाने के लिये बारह भावना रूपी मावा बनाना जरूरी है और मावा बनाने के लिये दूध के उबलते समय वहीं पर बैठकर बार-बार आवश्यकों की चम्मच चलाना आवश्यक है।