धर्म संस्कृति 9 - पर्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- भारतीय पर्व जहाँ सामाजिक, राष्ट्रीय और ऐतिहासिक महत्ता को लिये होते हैं तो वहीं प्राचीन संस्कृति से भी वह अत्यधिक सम्बद्ध रहते हैं।
- पर्व का अर्थ है सन्धिकाल। एक ऐसा अवसर जिसमें हमारा मन धर्म-ध्यान की ओर सहज ही प्रेरित होता है।
- पर्व, सिर्फ खाने-पीने और मनोरंजन के लिये ही नहीं आते किन्तु जीवन में परिवर्तन और आदर्श स्थापित करने के लिये आते हैं।
- अष्टमी और चतुर्दशी जैन परम्परा में ऐसे शाश्वत पर्व माने गये हैं जिनका सम्बन्ध प्रकृति, तत्व विज्ञान और सौरमंडल से है। यही वजह है कि इन दिनों में गृहस्थ और साधुओं को तन-मन और चेतन को स्वस्थ सौम्य बनाये रखने के लिये उपवास आदि तपों के विधान बनाये गये।
- पर्व आने का अभिप्राय ही सिर्फ इतना है कि हम जागें और अतीत में घटी हुई घटनाओं को आदर्श बनाकर उस राह पर चलने का प्रयास करें।
- दीपावली का पर्व सामाजिक और ऐतिहासिक होते हुए भी अत्यधिक धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है। इस दिन ऐसा कोई भी घर नहीं रहता जहाँ संस्कृति से जुड़े हुए महापुरुषों की पुरातन गाथा न दुहराई जाती हो।
- कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रत्यूष बेला में भगवान महावीर स्वामी इस संसार से मुक्त हुए और शाम को गणधर गौतमस्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्हीं प्रसंगों की पावन स्मृति स्वरूप आज भी जन-जन प्रात: निर्वाण लाडू चढ़ाता है एवं शाम को अज्ञान तिमिर नाशक भावना से दीपक जलाकर दीपावली पर्व मनाता है।
- इस पर्व के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी है कि श्री रामचंद्र जी जब लंका विजय के पश्चात् अयोध्या नगरी में पधारे तब नगर वासियों ने उनके स्वागत में खुशियों के दीप जलाये थे। इसे ऐसा समझना चाहिए कि यह पर्व विजयी सत्य के स्वागत का पर्व है।
- जिस तरह आदिनाथ को धर्मतीर्थ का कर्ता कहा जाता है उसी तरह राजा श्रेयांस को भी दान तीर्थ का कर्ता कहना चाहिए, क्योंकि मुनिराज आदिनाथ को प्रथम आहार दान देकर राजा श्रेयांस ने सर्वस्व त्यागी पात्रों को दान देने की परम्परा प्रारंभ की।
- श्रुत पंचमी का पर्व, जिनवाणी आराधना का वह पावन स्मृति दिवस है जिस दिन आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम सूत्र ग्रन्थों की रचना पूर्ण की थी तथा श्रावकों ने उन सिद्धान्त ग्रन्थों की भक्ति-भाव से पूजा की थी।
- रक्षाबन्धन का पर्व वात्सल्य का पर्व है, रक्षा का पर्व है। इसी भावना से प्रेरित होकर जब विष्णुकुमार जैसे तपस्वी मुनिराज भी आगे आये और ७०० मुनियों का उपसर्ग दूर किया तब हमें भी सोचना चाहिए और धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिए।
- स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना ही रक्षाबन्धन मनाने का वास्तविक रहस्य है।
- चाहे अष्टान्हिका पर्व हो या दशलक्षण, श्रावकों को चाहिए कि वह इन दिनों में हिंसा, आरंभादिक पाप कार्यों से ज्यादा से ज्यादा बचें तथा अहिंसाव्रत का पालन करते हुए सादगी-सात्विकता से समय बिताकर धर्मध्यान करें।
- जो राग-द्वेष कर्मादि विभावों को जलाता है, नष्ट करता है, जीवन में प्रभात लाता है वह पर्युषण कहलाता है। ऐसा महान् पर्वराज पर्युषण न कभी आता है न कभी जाता है, वह तो सदा विद्यमान रहता है। इसका हम अनुभव भी कर सकते हैं, होनी चाहिए सिर्फ जिज्ञासा और समझ |