धर्म संस्कृति 2 - गुरु गरिमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- गुरुवचन आपत्तियों में भी पथ प्रदर्शित करते हैं।
- गुरुवचन जिनशासन में उपकरण माने गये हैं।
- पथ और पथप्रदर्शक के अभाव में पथिक भटक जाते हैं।
- गुरु के अभाव में गुरु के पदचिह्न ही हमारे लिये दर्पण का काम करते हैं।
- गुरु के द्वारा दिये गये निर्देश दीपक की तरह हमारे पथ को आलोकित करते हैं।
- जिसे गुरुओं द्वारा राह मिल जाती है फिर उसके लिये किसी तरह की परवाह नहीं होती है।
- जीवन में गुरुओं से अपने लिये जो कुछ भी मिला है उसे दीपक की भांति प्रकाशमान रखें एवं प्रकाश में ही जियें।
- वास्तव में गुरु वही हैं जो अन्तरंग में छाये हुए अंधकार को दूर कर प्रकाश प्रदान करते हैं।
- दृष्टि और चरण दोनों के लड़खड़ाने पर जो सहारा देते हैं, वास्तव में वे ही प्राज्ञ हैं वे ही गुरु हैं।
- यह बात ठीक है कि आँखें हमारी हैं, दृष्टि हमारी है लेकिन उसका उपयोग कैसे करना है ? यह हमें गुरु ही सिखलाते हैं, यही तो गुरु की महिमा है।
- सावधानी से चोट देकर पतितों के जीवन की खोटों को निकालने वाले पतितोद्धारक वे शिल्पी गुरु ही हैं जो बदले में कुछ भी नहीं चाहते। धन्य हैं उन गुरुओं की महती अनुकम्पा को।
- मिट्टी के अन्दर कई तरह की शक्तियाँ विद्यमान हैं वह यदि दलदल बन सकती है तो कुंभ भी। कुशल कुंभकार का योग पाकर वह पतित मिट्टी भी पावन कुंभ बन जाती है।
- हमारे गुरु आशावान नहीं बल्कि आशा पर नियंत्रण रखने वाले होते हैं।
- गुरु कृपा के उपरान्त भी आलसी की कभी उन्नति नहीं हो सकती।
- शिष्य वही कुशल है जो उपदेश में भी आज्ञा/आदेश को निकाल लेता है।
- सच्चा शिष्य गुरु आज्ञा मिलने पर अहो भाग्य की अनुभूति करता है। शिष्य के द्वारा की गई विनय भक्ति को प्रसन्नता से स्वीकारना ही गुरु के द्वारा किया गया शिष्य का बहुमान है।
- हमें सबकी बातें तो सुनना है लेकिन सबका जवाब नहीं देना। गुरु ने सुनना सिखाया है बोलना नहीं।
- गुरु से दूसरों को क्या क्या आदेश मिले हैं। इसकी ओर ध्यान न देकर गुरु ने हमें क्या आदेश दिये हैं, इसका ध्यान रखें तथा उत्साह पूर्वक पूर्ण करने का प्रयास करें।
- गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते ही हैं, दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने वाले का काम अधिक कठिन है।
- यद्यपि बच्चा चलता अपने पैरों से है तथापि माता-पिता की अँगुली उसे सहायक होती है। इसी तरह शिष्य स्वयं मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करता है परन्तु गुरु की अँगुली, गुरु का संकेत उसे आगे बढ़ने में सहायक होता है।
- भगवान् की वाणी को हमारे पास तक पहुँचाने वाले वे गुरु गणधर ही हैं। उन्हीं से गुरु परम्परा प्रारंभ हुई है गुरु पूर्णिमा के रूप में।
- इन्हीं महान् गुरुओं ने ही उस दिव्य वाणी को शास्त्र रूप प्रदान कर आगम परम्परा को सुरक्षित किया है अत: इस गुरु परम्परा का हम सब पर महान् उपकार है।
- जिनवाणी और सच्चे गुरुओं की शरण हमें मिली इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? हमारे जैसा बड़भागी और कौन हो सकता है। लेकिन अकेले बड़भागी मानकर यहीं पर बैठना नहीं किन्तु उस ओर कदम जरूर बढ़ाना जिसका कि हमें संकेत मिल रहा है।
- गुरु का उपकार शिष्य को दीक्षा-शिक्षा देने में है और शिष्य का उपकार गुरु द्वारा बताये मार्ग पर सही-सही निर्देशन के अनुसार चलने में है। जब तक उनके अनुसार नहीं चलेंगे तब तक अपने गुरुओं के द्वारा किये गये उपकार को हम प्रति उपकार में नहीं बदल सकते।