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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म संस्कृति 1- धर्म/धर्मात्मा

       (2 reviews)

    धर्म संस्कृति 1- धर्म/धर्मात्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. उज्ज्वल भावधारा का नाम ही धर्म है।
    2. धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में ही है।
    3. "स्व" से पलायन नहीं, "स्व" के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है।
    4. आत्मा का सम परिणाम ही स्वभाव है वही समता है वही धर्म है।
    5. धर्म, प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है।
    6. आत्मधर्म देने-लेने या खरीदने योग्य नहीं है, वह तो निजी-भीतरी परिणति पर आधारित है।
    7. धर्म वह है जिसका आश्रय लेने से प्राणी सुखी बन जाये, जो शान्ति-संतोष दिला दे और परस्पर सभी जीवों में मैत्री-वात्सल्य भाव ला दे।
    8. धर्म वह है जो दुख के स्थान से उठाकर सुख के स्थान पर विराजमान करा देता है और अधर्म वह है जो दुख के गर्त में ढकेल देता है।
    9. धर्म नाव के समान है। नाव उसी को पार लगाती है जो उसमें बैठता है, ठीक इसी तरह धर्म भी उसे ही पार लगाता है, जो उसे धारण करता है।
    10. वही धर्म, जैन धर्म है, सत्य धर्म है, अहिंसा धर्म है, परम धर्म है, सनातन धर्म है, वही सर्वस्व है जो आत्म-तत्व की स्वतंत्र सत्ता का अवलोकन कराता है।
    11. जिस प्रकार रत्नों में हीरा और वृक्षों में गोशीर चन्दन श्रेष्ठ है उसी प्रकार समस्त धर्मों में अहिंसा धर्म श्रेष्ठ है।
    12. धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित नहीं है, वह निर्बन्ध-निस्सीम है सूर्य के प्रकाश की तरह।
    13. धर्म मात्र मानने की वस्तु नहीं अपितु महसूस करने की चीज है क्योंकि वह परिभाषा ही नहीं प्रयोग भी है।
    14. मात्र लिखना-पढ़ना ही धर्म नहीं है किन्तु धर्म तो आत्मा के जीवन्त आचरण का नाम है।
    15. धर्म वही है जो हमें अनुभूति कराता है, मात्र चर्चा ही नहीं चर्या भी सिखाता है।
    16. धर्म का प्रचार-प्रसार उस पर चलने से आचरण करने से होता है।
    17. धर्म को जानना अलग बात है किन्तु उसे जीवन में उतारना अलग बात। धर्म को अंगीकार करना श्रद्धा एवं विश्वास के बिना संभव नहीं।
    18. जिस प्रकार अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रहते उसी प्रकार धर्म और अधर्म एक साथ नहीं रह सकते।
    19. आधुनिक विज्ञान ने आज तक मोह को क्षीण करने का कोई रसायन तैयार नहीं किया। धर्म ही वह रसायन है जो मोह को क्षीण कर देता है।
    20. धर्म और मोह ये दोनों विपक्षी दल हैं। मोह धर्म को दबाना चाहता है और धर्म मोह को।
    21. आज धर्म का नाम लेकर मोह का प्रचार-प्रसार खूब हो रहा है किन्तु वस्तुत: मोह के ऊपर प्रहार करने का नाम ही धर्म है।
    22. दीन-दुखी जीवों को देखकर जो व्यक्ति आँखों में करुणा का पानी नहीं लाता, उस पाषाण जैसे हृदय से कभी भी धर्म की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती।
    23. धर्म का अर्थ यही है कि दीन-दुखियों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके, अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं।
    24. शरणागत दीन-दुखी, असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, उन्हें संकटों से बचाकर पथ प्रशस्त करना यही क्षत्रिय धर्म है।
    25. जिसने धर्म रूपी कील का सहारा लिया है, जिसने रत्नत्रय का सहारा लिया है वह तीन काल में पिस नहीं सकता क्योंकि केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में घुमाव।
    26. दो ही धर्म का व्याख्यान शास्त्रों में आता है एक अनगार और दूसरा सागार। तीसरा कोई धर्म नहीं है, हाँ! धर्मशाला अवश्य है।
    27. श्रावक और मुनि दो तरह के धर्म हैं जिसमें श्रावक धर्म अनुष्ठान प्रधान होता है और मुनि धर्म अध्यात्म प्रधान ।
    28. धर्म से बढ़कर कोई भी नेकी नहीं और अधर्म से बढ़कर कोई बुराई नहीं।
    29. धर्म के क्षेत्र में नाम नहीं काम जाना जाता है अन्यथा काम के अभाव में नाम भी बदनाम हो जाता है।
    30. आप लोग जिस तरह धन की रक्षा करते हैं उससे भी बढ़कर आपको धर्म की रक्षा करना चाहिए। क्योंकि धर्म के द्वारा ही जीवन का निर्माण होता है।
    31. यह जड़ की पूजा, धन की पूजा ही संसारी प्राणी को पतन के गर्त में ढकेल रही है। आत्मा की,गुणों की पूजा ही धर्म का आधार है अत: हमें जड़ की नहीं चेतन की पूजा करनी चाहिए।
    32. हम धर्म की ज्यादा प्रभावना कर रहे हैं दूसरे नहीं। इस प्रकार के भाव जिसके मन में हैं वह धर्म की बात समझ ही नहीं रहे हैं वह अभी धर्म से कोशों दूर हैं।
    33. धर्म की प्रभावना परमत का खण्डन करते हुए नहीं किन्तु स्वमत का मण्डन करते हुए करना चाहिए।
    34. गंधहीन पुष्प को व्यक्ति सूघ रहा है और सोच रहा है कि गंध क्यों नहीं आ रही है, यानि व्यक्ति धर्म के बिना जीवन जी रहा है और सोचता है कि धर्म का फल क्यों नहीं मिल रहा है।
    35. धर्म का फल कभी निष्फल नहीं जाता। यह बात अलग है, उसके स्वाद में अन्तर आ सकता है अपने हीनाधिक परिणामों के कारण।
    36. धर्म के क्षेत्र में आस्था और सद्भावना के साथ यदि हम तप त्याग के छोटे-छोटे बीज भी बो देते हैं तो कुछ ही समय में वह शीतलता प्रदायी विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेता है।
    37. यदि आकाश समुद्र के जल का पान एवं दान बंद कर दे तो स्वयं समुद्र काँप उठेगा। यदि धर्म, त्याग और दान कराना बंद कर दे तो मानव जीवन गंदगी और दुर्भावनाओं की अग्नि से जलकर खाक हो जायेगा।
    38. जैसे माँ अपने बच्चे को जबरदस्ती दूध नहीं पिला सकती यदि पिला भी दे तो वह वमन कर देता है। ठीक इसी तरह धर्म की स्थिति है, जबरदस्ती ग्रहण कराया गया धर्म अन्दर तक नहीं पहुँच पाता।
    39. लघु बनकर नहीं गुरु बनकर ही धर्म का दान दिया जाता है किन्तु गुरु बनकर नहीं लघु बनकर ही कर्म का हान किया जाता है। यह तो बाहरी बात हुई, न लघु बनकर न गुरु बनकर बल्कि अगुरुलघु बनकर ही धर्म का पान किया जा सकता है।
    40. हम "अहिंसा परमो धर्म:” का नारा तो बहुत लगाते हैं पर फिर भी हम जीवन में किनारा नहीं पाते, कारण सिर्फ इतना है कि समय आने पर हम धर्म से किनारा कर जाते हैं।
    41. धर्म के बिना जीना भी क्या जीना ? नीतिकारों ने कहा है - मर जाना फिर भी अच्छा है लेकिन धर्म के बिना जीना अच्छा नहीं। धर्म के अभाव में जीवन, जीवन नहीं अभिनय मात्र है।
    42. धर्मात्मा, अधर्मात्मा को भी अपने जैसा बनाने का भाव रखता है।
    43. धर्मात्मा वही है जो किसी दूसरे धार्मिक व्यक्ति के धर्म भावों को ठेस न पहुँचाये।
    44. धर्मात्मा को धर्म प्रिय होना चाहिए, स्थान नहीं।
    45. धर्मी के अभाव में धर्म और धर्म के अभाव में धर्मी नहीं रह सकता। 'न धर्मों धार्मिकैर्विना' इसलिये यदि आप धर्म को चाहते हो तो धर्मात्मा के पास जाना ही होगा।
    46. लोग कहते हैं धर्म संकट में है, धर्म गुरु संकट में हैं, जिनवाणी भी संकट में है किन्तु मैं कहता हूँ ये तीनों संकट मुक्त हैं तभी मुक्ति के साधन हैं। संकट तो हमारे ऊपर है। संकट तभी आते हैं जब हमारे भीतर ये तीनों जीवित नहीं रहते।
    47. दुख दूर हो तथा शान्ति की प्रस्थापना हो इसलिये धर्म का उपदेश होता है।
    48. विषयों में रुचि जगाने के लिये धर्मोंपदेश नहीं है बल्कि मोक्षमार्ग में रुचि जगाने के लिये धर्मोंपदेश है।
    49. धार्मिक कार्यों में प्रारंभ से लेकर अंतिम दशा तक जितनी भी क्रियायें होती है, वे सब संसार से छूटने के लिये ही हैं।
    50. अरहन्त पूजा, भक्ति, दान आदि प्रशस्त चर्या है। इसके द्वारा पुण्य का संचय तो होता ही है, साथ-साथ क्रमश: यानि परम्परा से निर्वाण की प्राप्ति भी होती है।
    51. जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना, शील का पालन करना, उपवास करना तथा सत्पात्रों को दान देना ये चारों धर्म श्रावकों के लिये नित्य करने योग्य कहे गये हैं।
    52.  जो व्यक्ति दान, पूजा, शील और उपवास को जड़ की क्रिया कहता है, वह आगम का अपलाप कर रहा है। उसे अभी आगम का सही-सही ज्ञान नहीं है। वह तो अपना अहित कर ही रहा है किन्तु उसके उस उपदेश से सारी की सारी जनता भी अपने कर्तव्य से विमुख हो जायेगी। बंधुओ! यह उपदेश प्रणाली ही आगम विरुद्ध है क्योंकि आचार्यों का कहना है कि यह सब जड़ की क्रियायें नहीं बल्कि धर्म की क्रियायें हैं।
    53. धर्म के माध्यम से ही जीवन में निखार आ सकता है धर्म के माध्यम से ही सारी की सारी योजनायें सफल होने वाली हैं, केवल एक शर्त है कि हमारी दृष्टि भीतर की ओर हो।
    54. उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्गों का कथन आगम में आया है। जो व्यक्ति किसी एक मार्ग को भूल जाते हैं वह फेल हो जाते हैं, दोनों में साम्य होना जरूरी है।
    55. यदि जीवन में धर्म है तो बाह्य वैभव सम्पदा से क्या प्रयोजन और यदि धर्म नहीं है तो भी अन्य वैभव सम्पदा से क्या प्रयोजन।
    56. जिस प्रकार घर में आग लगने पर कुआं खुदवाने से कोई लाभ नहीं होता उसी प्रकार वृद्धावस्था में धर्म का मार्ग अपनाने पर अपेक्षित लाभ नहीं होता।
    57. देह से परे आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान, विज्ञान की पकड़ से परे है। इसका विवरण मात्र धर्म ग्रंथों में ही मिलता है।
    58. मोक्ष की ओर दौड़ लगाने वाला यह युग धर्म का नाम तो लेता है किन्तु धर्म की भावना नहीं रखता, सुख-शान्ति चाहते हुए भी उसके पथ पर चलना पसंद नहीं करता।

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    Aatama345

      

    गुरुवर की वाणी का मूल्यांकन कोई नही कर सकता !

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