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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म संस्कृति 7 - आचार्य

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    धर्म संस्कृति 7 - आचार्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. आचार्य स्वयं भी तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। आचार्य नौका के समान हैं, वह पूज्य हैं।
    2. आचार्यों की यह निर्मल परम्परा निर्दोष संघ शासन की निरंतर वृद्धि करती रहे। यही हम सबकी भावना हो ।
    3. आचार्य महाराज नारियल की तरह बाहर से कठोर किन्तु अन्दर से मृदुस्वभावी होते हैं। यही वजह है कि उनके जीवन में अनुशासन और अनुकम्पा एक साथ झलकते हैं।
    4. जैसे वृक्ष सारी धूप को झेलकर पथिक को छाया प्रदान करते हैं ठीक वैसे ही आचार्य महाराज भी निस्वार्थ सब कुछ सहनकर शरणागत को शरण प्रदान करते हैं।
    5. आत्म साधना के साथ-साथ संघ का प्रवर्तन एवं धर्मोपदेश आचार्यों का मुख्य काम है।
    6. साधुपद की साधना करते हुए शिष्यों का संग्रह और अनुग्रह आदि कुछ विशिष्ट गुणों के कारण ही वह आचार्य अपने गौरवशाली पद से सुशोभित होते हैं।
    7. शिष्य यदि आज्ञा में बंधे हैं तो आचार्य आगम से। बन्धन एक को ही नहीं सभी को स्वीकार करने पड़ते हैं।
    8. आचार्य, स्वसमय-परसमय के ज्ञाता और तात्कालिक उठे हुए विकल्प-विवादों के समाधानकर्ता होते हैं।
    9. दोषयुक्त शिष्य के लिये निर्विकल्प निर्दोष होने में आचार्य का उतना ही महत्व है जितना कि बेटे को निर्दोष साफ-सुथरा होने में माँ का।
    10. मेरु के समान अडिग, सागर के समान गंभीर एवं सिंह के समान निर्भीक आचार्यों को संघ, समाज, देश और धर्म-संस्कृति के संरक्षण का पूरा ध्यान रहता है।
    11. आचार्यों की करुणा और वत्सल भावना का ही यह परिणाम है कि उनकी छत्र छाया में रहकर अशत और अल्पज्ञानी शिष्य भी अपना कल्याण कर लेते हैं।
    12. तीर्थंकरों से प्राप्त उस श्रुतधारा को आचार्यों ने ही आगम साहित्य के रूप में प्रणयन कर संरक्षित किया है।
    13. भगवान की दिव्यध्वनि में क्या-क्या खिरा और गणधरों ने उसे किस रूप में पाया और प्रस्तुत किया यह सब जानकारी, यदि आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध श्रुत न होता तो हम कदापि न जान पाते।
    14. कुन्दकुन्द, समन्तभद्र और अकलंक जैसे महान्-महान् अनेकों आचार्यों ने जीवन में संघर्ष कर तप, त्याग और बुद्धि पराक्रम से इस संस्कृति परम्परा को अक्षुण्य बनाया है।
    15. समय-समय पर आचार्यों ने शासकों को अपनी तपस्या और ज्ञान गरिमा से प्रभावित कर जैनधर्म का विस्तार किया है।
    16. तीर्थंकर महावीर की आचार्य परम्परा ने भारतीय संस्कृति को दर्शन, साहित्य और सदाचार से संवृद्ध किया है।
    17. सर्वोदयी समाज निर्माण में आचार्यों का विशिष्ट महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
    18. व्यक्ति निर्माण के साथ-साथ समाज निर्माण के क्षेत्र में भी जैनाचार्यों ने अपना दायित्व निभाया है।

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