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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. यदि जीव बाह्य से भी आकिञ्चन धारण कर लेते हैं, भले अंदर के कर्म नहीं छूट पाते तो भी वे स्वर्ग में अंतिम ग्रैवेयक तक जा सकता है और कोई उपाय से नहीं जा सकते। परिग्रह से रहित आत्मा उर्ध्वगामी होती है। प्रतिभासम्पन्न वही होता है जो दूसरे पर आधारित नहीं होता। पर द्रव्य का आश्रय जितना कम करोगे उतने स्वस्थ्य होते जाओगे। स्थान के प्रति मोह भाव परिग्रह का रूप धारण कर लेता है। जिससे विकल्प हो रहा हो, उसे छोड़ दो। ~~~ उत्तम आकिंचन धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 22 Sat. 13:20 @ J
  2. ? Thank U! For Sharing.? धीरे धीरे परिग्रह को त्याग करते जाना ही आकिंचन धर्म की तरफ आरूढ़ होना माँना गया है। मछली को जल से बाहर निकलते ही बह तड़पने लगती है क्योंकि बहार आक्सिजन ज्यादा होती और पानी में कम होती है जो उसके अनुकूल होती है। ऐंसे ही धन को ज्यादा मात्रा में रखने से बह भार बन जाता है इसलिए समय समय पर उसे सदुपयोग में लगाकर परिग्रह के भार से मुक्त हो जाना चाहिए। ~~~ उत्तम आकिंचन धर्मांगाय नमो नमः। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत। 2018 Sept. 22 Sat. 13.02 @ J
  3. अपने आप के पास आना ही त्याग है। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। जिन वस्तुओं के द्वारा दुख का अनुभव हो रहा है उनको छोड़ना ही सुख की प्राप्ति है। आपको किसी ने भी नहीं पकड़ा है, बल्कि आपने ही अन्य को पकड़ रखा है। त्याग में शांति, सुख है। यह भी एक माध्यम है जिसके द्वारा सुख शांति तक पहुँचा जा सकता है। त्याग में आकुलताएँ नहीं होनी चाहिए। अगर त्याग में आकुलताएँ हैं तो वह त्याग नहीं आग है। वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो। उसके उपरीत ज्ञान का भी प्रत्याख्यान आचार्यों ने बताया है। जिस ज्ञान को लेकर भी विकार पैदा हो रहा है, उनको भी छोड़ना है। छोड़ा, शरीर के प्रति ममता भी छोड़ी, पर मुक्ति को भी तृण के समान समझ कर भूलना है। ‘निष्पृहस्य शिवमपि तृणम्' तभी वास्तविक त्याग है। इसमें आगे कोई सुख ही नहीं है। सुख की लिप्सा का भी त्याग करना होगा। ज्ञान तो पर्याय को लेकर होता, पूर्णता को लेकर नहीं। क्षयोपशम ज्ञान को लक्ष्य मत रखो, वह भी मद ही होता है। उसका भी त्याग करने पर ही रास्ता प्रशस्त बन सकेगा। जीव का वास्तविक लक्षण तो केवल ज्ञान है। क्षयोपशमज्ञान, वास्तविक स्वभाव, लक्षण नहीं है। इच्छा को छोड़ देना ही वास्तविक त्याग है, वही रत्नत्रय को धारण करता है, योग को धारण करता है (?)। रत्नत्रय धर्म वह है जिसमें किसी प्रकार का विकार न हो, चिन्ता न हो। त्याग एक ऐसा सरोवर है कि जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठंडी बन जाती है। ~~~ उत्तम त्याग धर्मांगाय नमो नमः। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 21 Fri.: 18:33 @ J
  4. सम्यग्दृष्टि में वह पाषाण की मूर्ति नहीं रही। उसके इर्द-गिर्द परिसर में जाते ही उसके परिणामों में भगवद्रुप के ही परिणाम हो जाते हैं। यद्वा-तद्वा वहाँ बोल नहीं सकता, पूंछ नहीं सकता, ठहर नहीं सकता, बैठ नहीं सकता। भगवान् के सामने मौन संकल्प लेकर के बैठ जाता है। त्याग ख्याति, पूजा व लाभ के लिए नहीं किया जाता, वरन् आत्मोन्नति के लिए, कर्म निर्जरा के लिए किया जाता है। जो राग करता है, वह बंध को प्राप्त होता है। राग से मुक्त वह होता है, जो वीतराग होता है। जहाँ कहीं भी चले जाओ, सभी जगह विषय मिलते रहते हैं। धन्य हैं वे, जिन्होंने इस रहस्य को समझा। उत्तम त्याग वहीं है, जहाँ किसी के प्रति राग नहीं रहता। शरीर को काम में लो (साधना आदि काम में), लेकिन उसके प्रति ममत्व का त्याग करो। सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है। और जिस समय उसको ज्ञात हो जाता है, कि यह तो मेरा था ही नहीं, होगा भी नहीं और है भी नहीं। फिर उसका क्या किया जाय ? इसी को अध्यात्म बोलते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी तप करके अभिमान इसलिए नहीं करते। यह तप कहाँ? शरीर को तपाना तप नहीं है, किन्तु ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान की निर्जरा है, ज्ञान ही रत्नत्रय है, ज्ञान ही संवर है, ज्ञान ही सर्वस्व है। अपना हो, तो राग करो। अपना है ही नहीं, तो किसके ऊपर आप राग कर रहे हैं ? धन्य हैं वे, जिनके आँख के ऊपर केवल एक शुद्ध निश्चयनय का चश्मा लगा है, वे सब ही जीवों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। जहाँ एक समान देखा, कि रागद्वेष नहीं रहे। जहाँ भेद हुआ नहीं, कि रागद्वेष प्रारम्भ हुआ। विकल्प पैदा हो गये। ~~~ उत्तम त्याग धर्मांगाय नमो नमः। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उतम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 21 Fri. 12:46 @ J
  5. जो प्रतिदिन दो-दो, तीन-तीन घण्टे सामायिक और ध्यान में लीन रहने का अभ्यास करते हैं, उनकी विशुद्धि हमेशा बढ़ती ही जाती है। इधर-उधर के कामों में उनका मन नहीं भटकता और वे एकाग्र होकर अपने में लगे रहते हैं। शेष जीवन न जाने किसका कितना रहा? अगर चाहें तो कम समय में भी पूरी की पूरी कर्म-निर्जरा अपने आत्म-पुरुषार्थ और आत्मबल के द्वारा कर सकते हैं। धार्मिक, आध्यात्मिक कार्य में लगे रहने का कार्यक्रम हमेशा चलता रहना चाहिए। तब कहीं जाकर आत्मा में पवित्रता आना प्रारम्भ होगी। जितना समय इसमें देंगे उतना ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। विशुद्धि के साथ किया गया तप ही कार्यकारी होता है। रत्नत्रय के साथ बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति सम्पादन कर सकता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है। हमारा दुख में ही सुख का आभास करने का संस्कार दृढ़ होता गया है। तप में दुख जैसा प्रतीत होता है और इन्द्रिय विषयों में सुख जैसा लगता है। पर वास्तव में देखा जाए तो सच्चा सुख तो तप में ही है। इन्द्रियसुख तो मात्र सुखाभास है। आत्मा की शक्ति अनन्त है। इस श्रद्धान के साथ जो व्यक्ति अपने इस जीवन को अविनश्वर सुख की खोज में लगा देता है उसका जीवन सार्थक हो। दुनियाँदारी की चर्चा में अपना समय व्यतीत नहीं करना चाहिए, उससे कोई भी लाभ मिलने वाला नहीं है। सही वस्तु का आलोढ़न करने से ही उपलब्धि होती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी। विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जी समय-समय पर आत्मा की आराधना में लगा रहता है, उसे ही मोक्षपद प्राप्त होता है। ~~~ उत्तम तप धर्मांगाय नमः। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 20 Thu. 13:18 @ J
  6. संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतन्त्र और स्वावलम्बी हो जाता है। सारे बंधनों से मुक्त होकर, सभी कुछ छोड़कर एक मात्र सच्चे देव-गुरु-शास्त्र से बंधना होता है, तभी जीवन में स्वतन्त्रता आती है। जिसके भीतर संयम के प्रति रुचि है वह तो संयमी के दर्शन मात्र से ही अपने कल्याण के पथ को अंगीकार कर लेता है। जिसे अभी आत्मतत्व के बारे में जिज्ञासा ही नहीं हुई कि हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? ऐसे कब से हैं? और ऐसे ही क्यों हैं? हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है? वह मोक्षमार्ग पर कैसे कदम बढ़ायेगा। जिसके मन में ऐसी जिज्ञासा होती है, वही संयम के प्रति और संयमी के प्रति भी आकृष्ट होता है। वह ही सच्चा मुमुक्षु है। अगर अपना आत्मकल्याण करना हो तो संयम कदम-कदम पर अपेक्षित है। लेकिन ध्यान रखना, संयम के माध्यम से किसी लौकिक चीज की अपेक्षा मत रखना। अन्यथा वह बाह्य तप या अकामनिजरा की कोटि में ही आयेगा। संयम तो दर्शन की वस्तु है, उसे प्रदर्शन की वस्तु नहीं बनाना। मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है, वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है। अपने में लीनता आना ही सरलता की ओर जाना है। संयमी ही वास्तव में ज्ञानी है। जिसे पूर्व में भोगे गये इन्द्रिय विषयों की स्मृति करना भी नहीं रुचता और आगे भोगोपभोग की सामग्री मिले, ऐसी लालसा भी मन में नहीं आती। वह तो विषयों को विष मानकर छोड़ देता है और निरन्तर हमें/संसारी प्राणियों को वैराग्य का पाठ सिखाता है। वैराग्य का पाठ सिखाने वाला संयमी के अलावा और कोई नहीं हो सकता। आप चाहो कि संयम के अभाव में मात्र सम्यग्दर्शन में यह काम हो जाये तो सम्भव नहीं है। जैसे उस लता के लिए लकड़ी आलम्बन और बंधन के रूप में उसके अपने विकास के लिए आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान को अपनी चरम सीमा अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाने वाला ही संयम का आलम्बन और बंधन है। उसका सहारा लेते समय ध्यान रखना कि जैसे योग्य खाद्य और पानी देना भी पौधों के लिए अनिवार्य है, अकेले सहारे या बंधन से काम नहीं चलेगा, वैसे ही संयम के साथ शुद्ध भाव करना भी अनिवार्य है। आज तक संयम के अभाव में ही इस संसारी-प्राणी ने अनेक दुख उठाये हैं। जो उत्तम संयम को अंगीकार कर लेता है, साक्षात् या परम्परा से वह मोक्ष अवश्य पा लेता है। आत्मा का विकास संयम के बिना सम्भव नहीं है। संयम वह सहारा है जिससे आत्मा उध्र्वगामी होती है। पुष्ट और सन्तुष्ट होती है। संयम को ग्रहण कर लेने वाले की दृष्टि में इन्द्रिय के विषय हेय मालूम पड़ने लगते हैं। लोग उसके संयमित जीवन को देखकर भले ही कुछ भी कह दें, पागल भी क्यों न कह दें, तो भी वह शान्त भाव से कह देता है कि आपको यदि खाने में सुख मिल रहा है तो मुझे खाने के त्याग में आनन्द आ रहा है। मैं क्या करूं? यह तो अपनी-अपनी दृष्टि की बात है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए वह सब कुछ छोड़कर भी आनन्दित होता है। जो भगवान् को अपने हृदय में स्थापित कर लेता है वह तो प्रतिक्षण उनके दर्शन करता ही रहता है। स्वयम्भूस्तोत्र में नमिनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि- हे नमि जिन! आप यहाँ हो तो ठीक और यहाँ नहीं हो तो भी ठीक। कुशल परिणामों के द्वारा की गयी आपकी स्तुति फलदायिनी हुए बिना रह नहीं सकती। आपके द्वारा बताया गया श्रेयस्कर मार्ग स्वाश्रित और सहज सुलभ है। इसी से तो विद्वान्-जन आपके चरणों में नतमस्तक होते हैं और आपकी ही स्तुति करते हैं। यह है संयमी की आस्था। आस्था के साथ संयमपूर्वक भक्ति की क्रिया चलती है। इसलिए तो संयमी को कहा कि तुम स्वयं चैत्य हो। तुम स्वयं तीर्थ हो। धर्म की मूर्ति भी तुम स्वयं हो। तुम्हें देखकर अनेक को दिशाबोध मिल जाता है। ... (महाव्रती अवस्था में श्री जी को साथ रखना जरूरी नहीं। यह आ. समन्तभद्र indirectly saying) अष्टपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने मुनियों के लिए भावपाहुड में लिखा है कि 'भावेण होई णग्गो'यानि भाव से नग्न हो। भाव से नग्नता ही जीवन को सुवासित करेगी, मात्र बाह्य नग्नता से काम नहीं चलेगा। साथ ही, यह भी कह दिया कि सकल संयम का धारी मुनि अपने आप में स्वयं तीर्थ है। उसे अन्य किसी तीर्थ पर जाना अनिवार्य नहीं है। लेकिन वह प्रमाद भी नहीं करता यानि तीर्थ के दर्शन मिलते हैं तो अवश्य करता है और नहीं मिलने पर अपने लिए जिनबिम्ब का निर्माण भी नहीं कराता। ~~~ उत्तम संयम धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत। 2018 Sept. 19 Wed.: 12:56 @ J
  7. ? Sweet n Short explanation of Satya! ~~~ उत्तम सत्य धर्म की जय! ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 18 Tue. 12:14 @ J
  8. इच्छाओं को रोकने से आत्मा की पवित्रता शुचिता बढती है। इच्छा निरोध तप यह हमेशा आचरण में लावे। बोलने की इच्छा होने उसका निरोध कर स्वयं को मौन रखना भी इच्छा निरोध तप होता है वैसे ही कुछ या किसी को देखने की इच्छा होनेपर भी उस इच्छा का निरोध कर वह नहीं देखना भी तप है आदि आदि प्रकारसे पंच-इन्द्रिय विषय इच्छा निरोध कर तप करते रहने से आत्मा की पवित्रता बढती है। राग-द्वेष रहित धर्म एवं शुक्ल ध्यान ही करने चाहिये। आपका अनुचिंतन शरीर की अशुचिता के बारे में न होकर शुचिता के बारे में है, साबुन, तैल, क्रीम, पाउडर इत्यादि से शुद्ध करने में है। आपको विचार करना है कि क्या हम इससे उसको शुद्ध बना सकते हैं? यह शरीर तो बिल्कुल अशुचि है, अपवित्र है। दुख रूप है, अनात्मक रूप है, ऐसा चिंतन करने से वैराग्य की प्राप्ति होती है। ... स्वभाव से अशुचि शरीर को शुचि बनाने के विचार-वचन-व्यवहार अशुचि है, हमें अपनी आत्मा को शुचि स्वभावी आत्मा को उसके वास्तविक पवित्र, शुचि स्वभावमें प्रतिष्ठापित करने केे विचार-वचन-व्यवहार करना चाहिये। ~~~ उत्तम शौच धर्मांगाय नमो नमः। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा। ~~~ जय भारत। 2018 Sept. 18 Tue. @ J
  9. हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो। जहाँ सत् है वहीं सत्य है। जहाँ सत्य है, वहाँ सभी सुख विद्यमान हैं। जहाँ सुख है, वहीं पर सत्य है। सत्य तीन भागों में विभक्त है उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और तीनों मिलकर सत् है। सुख बाहर से नहीं आता, वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। ज्ञानी जीव कर्म के उदय में आयी भोग सामग्री को भी हेय समझता है, पैरों से ठुकराता है। वह कभी भी पूर्व में भोगे हुए को स्मरण में नहीं लाता है, भावी की आकांक्षा भी नहीं करता। वह सोचता है जो आया है, वह जायेगा, जो गया है वह आएगा नहीं और जो आएगा उसका पता नहीं है। पर्याय में सुख नहीं है। पर्याय में जो उत्पत्ति हो रही है, उसमें सुख का अनुभव हो रहा है। प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है, जब असाता का उदय आता है। सत्य का मतलब वह जो सन्तोष दिलावे। सत्य इस मनुष्य का केन्द्र बनना चाहिए। ~~~ ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमो नमः। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept. 18 Tue. @ J
  10. कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है।
  11. भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादि-सान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है। यदि वर्तमान को विषय कर लें, तो स्मरण समाप्त हो जाता है। वर्तमान में स्मरण का मरण हो जाता है। अगर वर्तमान से खिसक जायें तो वर्धमान भी पकड़ में नहीं आयेंगे। हमेशा-हमेशा वर्तमान में जीने का प्रयास जो करता है, वह ऋजुसूत्र के विषय को धारण करता है। वह आर्जव धर्मी माना जाता है। आर्जव का कथन नहीं आर्जव का जतन होना चाहिए। वस्तुत: आर्जव होना निकट भव्यत्व का प्रतीक लगता है। परिग्रह अपने आप को टेढ़ा करने वाला पदार्थ है। सीधे सीझे शीत है, शरीर बिन जीवन्त। सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त॥ जो सीधे हो गये हैं, उनको मैं बार-बार नमन करता हूँ। जो सीधे नहीं हुए हैं वे सीधे हो जाएं, इस प्रकार की भावना करता हूँ। भावना तो करना ही चाहिए। क्योंकि उसमें मेरा भी नम्बर आ जाता है। मंजिल या मार्ग को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अनुभूत करना। जानना शब्दों के माध्यम से होता है। मानना आस्था के माध्यम से होता है और अनुभव करना चेतना के माध्यम से हुआ करता है।जिस समय अनुभव करते हैं, उस समय जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर कथन नहीं करते। सीधेपन का मनन-चिंतन! ~~~ उत्तम आर्जव धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept 16 Sun. 10:08 @ J
  12. मान पर विजय प्राप्त करने हेतु बारबार यह चिंतन करें: मार्दव मेरा धर्म है। मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ। मेरा यह स्वभाव नहीं है। आत्मा अपने पुरुषार्थ के बल से आत्म-स्वरूप के चिन्तन से मान कषाय के उदय में होने वाले परिणामों पर विजय प्राप्त कर सकता है। मान को जीत सकता है। हमारे लिये प्रतिकूलता उत्पन्न करने वाले के बारे में हम यह सोचकर चुप रह जायें कि यह अज्ञानी है। मुझसे हँसी कर रहा है या फिर सम्भव है कि मेरी सहनशीलता की परीक्षा कर रहा है। उसके साथ तो हमारा व्यवहार, माध्यस्थ भाव धारण करने का होना चाहिए। कोई वचन व्यवहार अनिवार्य नहीं है। जो विनयवान हो, ग्रहण करने की योग्यता रखता हो, हमारी बात समझने की पात्रता जिसमें हो, उससे ही वचन व्यवहार करना चाहिए। ऐसा आचार्यों ने कहा है। अन्यथा 'मौन सर्वत्र साधनम्'। मौन सर्वत्र/सदैव अच्छा साधन है। ~~~ उत्तम मार्दव धर्म की जय! ~~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत! 2018 Sept 15 Sat. 16:55 J
  13. सोलहवें स्वर्ग तक जाने के लिए सम्यकदर्शन सहित श्रावक के योग्य अणुव्रत तो धारण करना ही चाहिए। सभी स्थावर जीव शुभाशुभ कर्मफल के अनुभवन रूप कर्मफल चेतना का अनुभव करते हैं किन्तु त्रस-जीव उसी कर्मफल के अनुभव में विशेष रागद्वेष रूप कर्मचेतना का भी अनुभव करते हैं। यह कर्मचेतना तेरहवें गुणस्थान तक चलती है क्योंकि रागद्वेष का अभाव होने के बावजूद भी वहाँ अभी योग की प्रणाली चल रही है, कर्मों का सम्पादन हो रहा है। भले ही एक समय के लिए हो लेकिन कर्मबंध चल ही रहा है। चौदहवें गुणस्थान में यद्यपि अभी स्वभाव की पूर्णत: अभिव्यक्ति अर्थात् गुणस्थानातीत दशा की प्राप्ति नहीं हुई है तथापि तेरहवें गुणस्थान की अपेक्षा वह श्रेष्ठ है। वहाँ योग के अभाव में कर्म का सम्पादन नहीं हो रहा अपितु मात्र कर्मफल की अनुभूति अभी शेष है। इसके उपरान्त दस प्रकार के द्रव्य प्राणों से रहित सिद्ध भगवान् ही शुद्ध ज्ञान चेतना का अनुभव करते हैं। सिद्ध भगवान् के स्वरूप के समान हमारा भी स्वरूप है। 'शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, निरज्जनोऽहं, निर्विकार स्वरूपोऽहं' आदि-आदि भावों के साथ पर्यायबुद्धि को छोड़कर ध्यान में लीन होने का अभ्यास करें। ~~~ उत्तम क्षमा धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!? 2018 Sept. 14 Fri.
  14. *** जो निरपराध हैं, उनको यदि परेशानी या दुख दिया जा रहा है तो इस समय क्रोध करना भी क्षमा से कम नहीं। इस समय आप क्षमा छोड़ भी दोगे, तो क्षमा को एक बहुत विराट रूप मिल जाता है। सामने वाले व्यक्ति की कषाय को समाप्त करने के लिये यदि कषाय करें, तो इसमें कोई अधर्म नहीं। कषाय को मिटाने के लिये यदि कषाय की जाती है तो वह ठीक है। लेकिन ध्यान रखो, आज ऐसा धर्म बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है। पुष्पकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमं जपः । जप: कोटिसम ध्यान ध्यानकोटिसम क्षमा॥ इसी के माध्यम से व्याख्या प्रारम्भ कर दें, तो बहुत अच्छा हो। कोई भी कार्य करते हैं, तो हमारे आचार्यों ने यह ही कहा है, कि उसमें आरम्भ सारंभ कम हो और कार्य पूर्ण हो अर्थात् खर्चा कम और आमद ज्यादा, यह उन्नति का लक्षण है। इस कारिका में पूरा का पूरा यही भाव आया है। किसी पूज्य के चरणों में करोड़-करोड़ फूल चढ़ाने के उपरान्त जो फल मिलता है। वह एक बार पूज्य की स्तुति/स्तोत्र पाठ करने से प्राप्त होता है। हाँ महाराज। ऐसी ही कुछ बातें बताया करो, ताकि हमारा कुछ खर्च न हो और बढ़ता जरूर चला जाये। लेकिन इतना ध्यान रखना, मुक्ति की बात है यह। इससे भी आगे बढ़ना है। स्तोत्रकोटिसमं जप: जो करोड़ों बार स्तोत्र पाठ करता है और जो एक बार जप करता है, तो दोनों को ही समान फ़ल मिलता है। और करोड़ों जाप करने का जो फल हो वह एक बार ध्यान करने से मिलता है, करोडो बार ध्यान करने से जो फल मिलता है वह फल एक बार क्षमा कर देने से प्राप्त होता है। इसमें अहिंसा की धारा क्रमश: बढ़ती जा रही है। करोडो बार ध्यान करनेसे जो फल मिलता है वह फल एक बार क्षमा कर देनेसे प्राप्त होता है। ~~~ उत्तम क्षमा धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!
  15. ? दशलक्षण का उद्देश्य वीतरागता की ओर बढना विषयों का विमोचन करते हुए! दशलक्षण धर्म के माध्यम से हमें दुनियाँ की और कोई वस्तु प्राप्त नहीं करना है किन्तु जो पञ्चेन्द्रिय के विषय हैं, उनको छोड़ते जाना है। जिस रुचि के साथ ग्रहण किया है उसी के अनुरूप उसका विमोचन करना भी आवश्यक है। जिस प्रकार कचरे को व्यर्थ मानकर फेंक देते हैं उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय के विषयों को व्यर्थ मानकर उनका त्याग करना है। आत्मा को पहचानने और शरीर से पृथक् अवलोकन करने के लिये दश-लक्षण धर्म को सुनना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, उसे प्राप्त करना भी अनिवार्य है। जीवन का एक-एक क्षण उत्तम-क्षमा के साथ निकले। एक-एक क्षण मार्दव के साथ, विनय के साथ निकले। एक-एक श्वाँस हमारी वक्रता के अभाव में चले। ऋजुता और शुचिता के साथ चले। हमें कहने की आवश्यकता न पड़े और हमारा जीवन स्वयं ही उपदेश देने लगे, यही हमारा धर्म है। यही धर्म का माहात्म्य भी है। ~~~ दशलक्षण धर्म की जय! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!?
  16. बन्ध करना और बन्ध होना, दोनों अलग हैं। संवर निर्जरा को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम अपने आपको भूल कर प्रभु-चरणों में अपने आपको बिठायेगा। मन्दिर का आस्त्रव सम्यग्दर्शन के सम्मुख है और घर का आस्रव मिथ्यादर्शन के सम्मुख। दुख की सामग्री आस्त्रव और बन्ध है। और सुख की सामग्री संवर और निर्जरा है। इसको प्रयोग में लाने पर ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी। हमें अर्थ को चाहते हुए अनर्थ से बचते हुए अर्थ का त्याग करना है, इसमें घाटा नहीं है नाश नहीं है, दुख नहीं है, सुख का कारण है। वस्तु तत्व का चिंतन करने पर सुख अपने आप आने लगता है। ~~~ णमो आइरियाणं। ??? 2018 Sept 12 Wed. Eve J
  17. 2018 Sept 12 Wed.: निर्जरा तत्व के उपरान्त कोई पुरुषार्थ नहीं रह जाता। मोक्ष तत्व अंतिम नहीं है वह तो फल है। मोक्ष, मार्ग नहीं है मार्ग जो कोई भी है वह संवर और निर्जरा ही है। संवेदनशीलता, अनुभव करना आत्मा का लक्षण है। केवलज्ञान आत्मा का लक्षण नहीं वह तो आत्मा का स्वभाव है। वीतरागता आत्मा का स्वभावभूत गुण है उसके बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अलग-अलग है और सब स्वाधीन स्वतंत्र हैं। उस स्वाधीन अस्तित्व पर हमारा कोई अधिकार नहीं जम सकता। ~~~ णमो आइरियाणं। ???
  18. ??? तप के बिना रत्नत्रय उपयुक्त फलदायी नहीं। इस प्रवचन जी को साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!
  19. सत्य-धर्म का अत्यंत सुंदर परिचय! मौन का पालन करो। लेकिन विदाऊट इंडिकेशन यानी बिना संकेत दिये मौन का पालन करना चाहिए। मौन का पालन वही व्यक्ति कर सकता है जो अपनी भीतरी आकुलता को सहन करने वाला हो क्योंकि हम आकुलता के कारण ही बोलते हैं। ~~~ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!?
  20. ? मेरा गुणधर्म और मैं कौन हूँ, बस इतना परिचय काफी है, दुनिया के परिचय से कोई मतलब नहीं। स्वर्णमय जीवन को विषयों में लगा रहा है वह बर्तन साफ करने रत्नों की भस्म बना रहा है, पैर धोने अमृत खर्च कर रहा है, प्याज की खेती के लिए कपूर की बाड़ लगा रहा है। तीर्थ-क्षेत्र बंधन से मुक्ति और आत्मानुभव के लिए होते हैं यहाँ आकर यदि बंधन काटना है तो प्रबंध की बात छोड़ दो। (जिनायल आदि धर्म-क्षेत्र पर भी पंखा आदि प्रबंध नहीं कर्म-बंधन मुक्ति पर ध्यान देना जरूरी है।) मेरा गुणधर्म और मैं कौन हूँ, बस इतना परिचय काफी है, दुनिया के परिचय से कोई मतलब नहीं। एक आत्म तत्व का ज्ञान हो जाना पर्याप्त है उस का ज्ञान हो जाने पर तत्व का ज्ञान अपने आप हो जाता है। अपने स्वभाव के परिचय बिना हमने अनंत काल व्यतीत कर दिया, यह काम मोह ने किया है। मोह एक ऐसा पदार्थ है जो भिन्न वस्तुओं में ऐक्य स्थापित कर देता है। जो मोह को छोड़ देता है वह तीन लोक का पूज्य बन जाता है। जब मोह का बंधन टूट जाता है तब बाहरी बंधन कोई बाधा नहीं दे पाते। आत्मा अजर अमर, रूप-रस से रहित, स्वतंत्र, अनंत गुणों से युक्त और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। आत्मा प्रकाश है, प्रकाशित वस्तुएं ये शरीरादि हैं जब ये ज्ञात हो गया कि ये पर हैं, मेरा नहीं, फिर उसका संग्रह क्यों ? मैं ज्ञाता दृष्टा एक अखंड दिव्य तेजोमय चेतन स्वभाव वाला हूँ, यह कहना, मानना, समझना और तदनुरूप संवेदन करना सब जरूरी है। काल से कार्य नहीं होते, किन्तु काल में कार्य होते हैं, अत: कार्य करते चले जाओ काल की ओर मत देखो। काल में डायरेक्ट विध्न उपस्थित करने की क्षमता नहीं है जबकि उस काल रूपी विध्न में ही विध्न पैदा करने की शक्ति आत्मा में है। काल ही काल की चर्चा में आत्मा को लपेटो नहीं, कुछ काल निकालकर आत्मा की भी अर्चा करो। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!?
  21. ? आज ही सुबह इसी site पर आचार्यश्री जी का मार्गदर्शनपर विचार पढा: एकांत में शयनासन का अभ्यास करनेवाले निर्भीक हो समाधि कर सकते है तथा करा भी सकते है क्योंकि एकांत में बैठने से भय और निद्रा दोनों को जीता जा सकता है। मेरा अंतिम मरण समाधि जिनवर के चरणों में हो। महामंत्र णमोकार जी के श्रवण, स्मरण, चिंतन से हो। ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!
  22. *** लक्ष्य/मंजिल/प्राप्तव्य = वीतरागता! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!
  23. => क्रोध करना ही है तो क्रोध अपनी कषायों पर करो! ~~~ णमो आइरियाणं। ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! ~~~ जय भारत!
  24. स्व-हिंसा से बचे बिना अहिंसा का पालन संभव नहीं। कषाय = स्व-हिंसा। नमोस्तु आचार्य महाराज जी। जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा! जय भारत!
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