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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. क्रोध, कलह, क्रूरता और कटुता सींचे धारती धार्म की धरती में एक बीज बोया जाता है वह बीज मृदुमाटी का संसर्ग पाकर नम होता है। उसके भीतर से अंकुर फूटता है। फिर उसमें विकास होता है और क्रमश: वृक्ष का रूप धारण करता है। जो दशा एक बीज से वृक्ष की है वही दशा क्षमा से लेकर ब्रह्मचर्य तक की है। धरती का मतलब होता है क्षमा। जब हम अपने भीतर धर्म का बीज क्षमा की धरती पर डालते हैं तो हमारी चेतना का बीज अंकुरित होता है। मृदुमाटी के संसर्ग से मृदुता आना यानी मार्दव आना और उसके बाद उससे जो अंकुर फूटता है वह एकदम सीधा निकलता है। इसी का नाम सरलता या आर्जव है। फिर जैसे वह अंकुर उगकर बाहर आता है तो उसके साथ खरपतवार उग आते हैं जिनकी सफाई निहायत जरूरी है; इसी सफाई का नाम शौच है। तब जाकर वह सत्य के सूरज के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर पाता है। जब वह सूर्य के दर्शन करता है तो उसमें संयम के फूल खिलते हैं और जब वह धूप में तपता है तब उसमें फल लगते हैं। फल लगते हैं तो वह उन फलों को अपने पास नहीं रखता; सब फलों को त्याग देता है। जब पेड़ फलों को त्याग देता है तो उसका स्वरूप अकिञ्चन हो जाता है। यही ममत्व रहित अकिञ्चन स्वरूप ही तो हमारे परम ब्रह्म का स्वरूप है, यही ब्रह्मचर्य है। बीज से वृक्ष तक की यात्रा में ही दसलक्षण की यात्रा, क्षमा से ब्रह्मचर्य तक की यात्रा है। बड़ी अद्भुत घड़ी है ये। आज मुझे आप से दशलक्षण में पहले धर्म की चर्चा करनी है- क्षमाधर्म। क्षमा की महिमा हम सबने बहुत सुनी है। मैं सोचता हूँ किसकी बात करूं? जब कभी भी क्षमा की बात आती है तो मुझे आप लोग कई स्थितियों में क्षमा की प्रतिमूर्ति दिख जाते हो। देखिए आपके अंदर क्षमा कब-कब आती है। जब आपके साथ आपका कोई नियमित ग्राहक कटु वचन बोल देता है तो उस समय आप चेहरे पर बड़ी मुस्कराहट रखते हुए मीठी प्रतिक्रिया करते हो। दस तरह का आइटम दिखाया, एक घण्टे तक आइटम देखने के बाद एक भी पंसद नहीं किया और ये टिप्पणी भी कर दी कि आपकी दुकान में तो कुछ है भी नहीं। सब अच्छे से अच्छे आइटम वहाँ हैं फिर भी टिप्पणी कर रहा है। एक घण्टे का समय बर्बाद किया ग्राहक ने और कोई आइटम पसंद नहीं किया और कह दिया आपके यहाँ कोई आइटम नहीं है। क्या करते हो आप? कोई बात नहीं है, बहन जी! आप दो-चार दिन बाद आइए नया माल आने वाला है। क्या हो गया? एक ग्राहक अगर आपके यहाँ आकर ऐसा बोल रहा है। आप उसे बर्दाश्त कर रहे हैं क्षमा की मूर्ति बनकर। पर घरवाली यदि कटु वचन बोल दे तो आप बर्दाश्त कर पाते हो? उस समय क्या हो जाता है? ये क्षमा का एक रूप है। कभी-कभी किसी व्यक्ति का आपके प्रति दुव्र्यवहार होता है। मन में गुस्सा आता है लेकिन सामने वाले के स्टेटस (रुतबे) को देखते ही सोचते हैं- ये आदमी बहुत बड़ा है, इससे पंगा लेना ठीक नहीं है चुप रह जाते हैं, मन मसोस कर रह जाते हैं। क्षमा हुई न? ऐसी जगह भी क्षमा हो जाती है। कभी-कभी आप लोग किसी के ऊपर पूरी तरह से गुस्सा निकाल लेते हैं, खूब भड़ास निकाल लेते हैं और आखिरी में कहते हैं- जाओ, तुझे क्षमा किया। ये तीनों प्रकार की क्षमा की चर्चा आपसे आज नहीं की जाने वाली। पहले प्रकार की जो क्षमा है; वह लोभ प्रेरित क्षमा है। दूसरी प्रकार की क्षमा; क्षमा नहीं परिस्थिति से समझौता है, मजबूरी है।और तीसरे प्रकार की क्षमा भी क्षमा नहीं है; एक प्रकार की भडास निकलने के बाद की शांति है। ‘सत्यपि प्रतिकारसामथ्येऽपकारसहनं क्षमा'॥ किसी ने आपके प्रति कोई दुव्र्यवहार किया, दुर्वचन कहा और कोई गलत कार्य किया। सामथ्र्य होने पर भी उसके अपकार को समता भाव से सह लेना, प्रतिकार नहीं करना ये क्षमा है। जो बड़े-बड़े ज्ञानियों में होती है। मैं आपसे कहूँ कि तुमसे कोई कुछ बोल दे तो तुम क्षमा रखो। मालूम है, मेरी बात यहाँ तो मान लोगे लेकिन क्षमा करने में शायद फल हो जाओगे। मैं आज आपसे क्षमा धारण करने की बात नहीं करता। आप किसी को क्षमा मत करो। महाराज जी। एकदम उल्टा उपदेश दे रहे हो क्या हो गया आपको? नहीं. मुझे मालूम है कि क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी आप क्रोध न करो और क्षमा कर दो ऐसा आपके साथ संभव नहीं दिखता क्योंकि जो आदमी बिना वाद्य के नाचने का अभ्यासी हो वह वाद्य बजे और न नाचे ऐसा मुमकिन नहीं दिखता। बिना कारण गुस्सा करने का जिनका अभ्यास है; कारण पड़ने पर वह क्षमा रख ले बड़ा मुश्किल है। मैं आपसे वह बात नहीं कहता। आप प्रवचन रोज सुनते हो मेरी तो कुल चार बातें हैं। फसल बचायें इन कीड़ों से आज मैं आपसे चार बातों पर थोड़ा अवेयर (जागरूक) होने की बात करता हूँ। चार बाते हैं- क्रोध, कलह, क्रूरता और कटुता। सबसे पहले है क्रोध। क्रोध एक ऐसी दुर्बलता है, एक ऐसा आवेग है जो संसार के हर व्यक्ति को अपने आगोश में लिए हुए है। ऐसा एक भी व्यक्ति इस सभा में नहीं है जो ये कहे कि मुझे क्रोध नहीं आता अथवा किसी के गुस्से का शिकार नहीं बनना पड़ा। सबको क्रोध है। मैं आज आपसे क्रोध छोड़ने की बात नहीं करता। खूब क्रोध करो। महाराज! आज तो एकदम ही क्या बात हो गई? समझ में नहीं आ रहा अभी तक तो आप यही कहते थे कि ये मत करो आज कह रहे हो कि करो। हाँ,....होश में बोल रहा हूँ क्रोध करो पर बोध रखते हुए। मतलब क्रोध करते समय यदि मनुष्य को बोध हो कि मैं कौन हूँ? मैं किस पर क्रोध कर रहा हूँ? मैं किस वजह से क्रोध कर रहा हूँ? और मैं कहाँ क्रोध कर रहा हूँ? बस चार बातें। अगर चार बातों में (मैं कौन हूँ) मैं एक धर्मी हूँ, धर्मी हो कि नहीं हो? धर्मी हो कि पापी? एक बात कहता हूँ धर्मी हो तो पाप करना बंद कर दी। क्रोध पाप है कि धर्म? धर्मी हो तो एक धर्मी को क्रोध नहीं सुहाता, नहीं शोभता। क्रोध करना बंद कर दो। अपने आप को धमीं मानते हो तो आज से क्रोध बंद। नहीं महाराज! हम तो पापी हैं। पापी हो तो कोई दिक्कत नहीं। अगर धर्मी हो तो पाप करना बंद कर दो और अपने आपको पापी मानते हो, पापी हो तो धर्म करना शुरु कर दो। मतलब समझ में नहीं आ रहा है पापी जितना धर्म करेगा उसकी उतनी प्रगति होगी और धर्मी जितना पाप से बचेगा उसका उतना उत्थान होगा। तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, मेरी अवस्था क्या है? मैं धर्मी हूँ, क्रोध मेरे लिए नहीं शोभता। मैं घर का प्रमुख हूँ, मेरे ऊपर पूरे घर के संचालन की जिम्मेदारी है, मुझे सबको लेकर चलना है। छोटी-छोटी बातों पर मैं क्रोध करूंगा तो परिणाम खराब होगा; मुझे इस पर अंकुश रखना चाहिए। मैं अगर छोटा हूँ और बड़े पर क्रोध करता हूँ तो ये मेरे अनुकूल नहीं है। यदि व्यक्ति अपनी स्थिति का विचार करे तो क्रोध कभी नहीं आ सकता। पर क्या करें? जिस समय आदमी को गुस्सा आता है न वह सब भूल जाता है। कुछ पता नहीं चलता क्या है, क्या नहीं है। उसे अपनी स्थिति का भी भान नहीं रहता। अपने आप को समझो मैं कौन हूँ, इसे पहचानो। बस सूत्र लेकर जाना है आपसे बहुत ज्यादा बाते नहीं करूंगा, थोडी सी ही बातें करूंगा। मैं कौन हूँ इसे पहचानो फिर मैं क्रोध किस पर कर रहा हूँ उसका विचार करो। आप लोग क्रोध किस पर करते ही उसी पर जिसको साथ रहते हो। एक बार एक दम्पत्ति मेरे पास आए पत्नी ने पति की शिकायत की। बोली- महाराज जी! इनको समझाइए। बहुत क्रोध करते हैं। मैंने उसकी तरफ देखा। बोला- क्या करूं महाराज बस में नहीं रहता। तो पत्नी आगे बोली- महाराज जी! और बाकी सब तो ठीक है, और सबके साथ बहुत अच्छे रहते हैं। मेरे ऊपर ही ज्यादा क्रोध करते हैं। महाराज! कभी सीधे मुँह बात नहीं करते। ये तो आप सामने बैठे हैं तो मैं इतना बोलने की हिम्मत कर पा रही हूँ नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। मैंने कहा- क्यों भाई क्या बात है? क्रोध क्यों करते हो? वह बोला- महाराज! मैं इसके ऊपर इसलिए क्रोध कर लेता हूँ क्योंकि ये झेल लेती है दूसरा कोई झेलने वाला नहीं है। मैंने कहा अच्छा इसीलिए बैण्ड बाजा बजवाकर इसको लेकर आए थे क्या? किसलिए लेकर आए थे? किस पर क्रोध कर रहे हो ये तुम्हें विचार करना है। जिसके साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रहना चाहिए उसके साथ तुम क्रोध पूर्ण सम्बन्ध बना लेते हो। शत्रु पर आदमी को क्रोध कम आता है। अपनों से जब शत्रुता बढ़ती है तब क्रोध आता है। अपने पर जब क्रोध आता है तो शत्रुता बढ़ जाती है। कन्ट्रोल कीजिए। किस पर क्रोध कर रहे हैं; अगर व्यक्ति इस बात का विचार कर ले तो बहुत फर्क पड़ता है। आदमी विवेक खो देता है और परिणाम बहुत भयावह हो जाते हैं। एक आदमी ने मर्सडीज कार खरीदी। उसका चार साल का छोटा सा बच्चा था। गाडी लाकर खड़ी किए दो दिन ही हुए थे। छोटा बच्चा किसी चीज से उस कार की बोनट पर कुछ खरोंच सा रहा था। बाप को गुस्सा आ गया। और एक जोर का पत्थर उस चार साल के बच्चे के हाथ में मार दिया। उसकी दो उगलियाँ फट गई, खून की धार बहने लगी लेकिन उस बेटे ने उसी उगली से लिखा पापा 'आई लव यु"। जब बच्चे ने लिखा पापा 'आई लव यु" तो बाप के होश उड़ गए कि मैं कैसा मूर्ख हूँ जो एक छोटी सी गाड़ी के पीछे अपने प्राण-प्यारे बेटे के साथ ऐसा बदसलूक किया। बेटा क्या लिख रहा था मुझे पता ही नहीं, वह लिख भी नहीं पाया; शायद यही लिखता और मैंने उसे पत्थर मार दिया। काश! मुझे यह पता होता कि मेरा बच्चा अबोध है, अपनी अज्ञानता से यह कार्य कर रहा है तो मैं ऐसा कार्य कभी नहीं करता। बंधुओ! आप क्रोध किस पर कर रहे हो? यदि आपको ये पता हो कि मैं किस पर क्रोध कर रहा हूँ तो क्रोध प्रकट नहीं होगा। किस वजह से क्रोध कर हो? छोटी-छोटी वजह से क्रोध है। सुबह चाय पी रहे थे पता लगा चाय में शक्कर नहीं है, आपको गुस्सा आ गया; छोटी सी वजह। भोजन के लिए बैठे; भोजन में विलम्ब हो गया, थोड़ा सा टाइम लग गया; आपको गुस्सा आ गया। पति दफ्तर से आया और पत्नी से कहा- जल्दी थाली लगा बहुत जोर से भूख लग रही है। पत्नी ने कहा- दस मिनिट रुको; भोजन तैयार करती हूँ। पति बेसब्र हो रहा था। बोला- इतना समय मेरे पास नहीं है। तूने भोजन तैयार नहीं किया तो मैं बाहर जा रहा हूँ। पत्नी ने कहा- ठीक है; बाहर जाना है तो पाँच मिनट रुको, मैं भी साथ चलती हूँ, बाहर ही खाना है तो मैं भी साथ चलती हूँ। बात को सम्हाल लिया। थोड़ी-थोड़ी बातों से मन क्षुब्ध हो उठता है। अगर फिजूल की बातों पर क्रोध है तो उसे कन्ट्रोल करने का अभ्यास कीजिए। अगर इतना भी नहीं कर सकते तो जिस वजह से क्रोध है उस वजह की पूर्ति होने पर आप क्रोध बंद कर दीजिए। चाय में शक्कर कम थी; आपने गुस्सा किया, पत्नी की तरफ देखा, उसे डाँटा और पत्नी ने अगर चुपचाप आपकी चाय में शक्कर मिला दी तो आप के मुँह में मिठास आ जानी चाहिए, फिर तो कड़वाहट नहीं होनी चाहिए। लेकिन छोटी सी वजह होने पर भी व्यक्ति उससे बड़ा बवाल खड़ा कर लेता है। यदि आप क्रोध की वजहों पर विचार करना शुरु कर दो तो आपको ये लगेगा कि दिन भर में हमने जितना क्रोध किया; उनमें आधी से ज्यादा बातें तो ऐसी थीं जिन पर गुस्सा करने जैसा कुछ था ही नहीं। बेवजह गुस्सा कर लिया। अक्सर आपने गुस्सा करने वालों को गुस्सा करने के बाद यही प्रतिक्रिया करते हुए देखा होगा अरे यार! फालतू में दिमाग खराब कर लिया। बेवजह गुस्सा कर लिया। ऐसा वही लोग करते हैं जो वास्तविकता को नहीं जानते जो वास्तविकता को समझ लेते हैं अनके अंदर ऐसी प्रतिक्रिया करने की नौबत नहीं आती क्योंकि वे बिना वजह गुस्सा करते ही नहीं। जो वजह गुस्सा के लायक नहीं है उस वजह से गुस्सा मत करो। चौथी बात किस स्थान पर क्रोध कर रहे हो? कहाँ...? गुरु के सामने खड़े होकर, भगवान के दरबार में, चार जनों के सामने, अपने परिजनों के बीच, मेहमानों के सामने या अपने मित्रों के बीच? किसको सामने क्रोध कर रहे हो। जहाँ गुस्सा आ रहा है वहाँ देखो। ये स्थान गुस्सा करने लायक है क्या? मैं आपसे पूछता हूँ आपके अंदर बड़ा तेज गुस्सा आ रहा हो और उस समय कैमरा आपकी तरफ हो जाए तो क्या करोगे? लाइव (सीधा प्रसारण) प्रोग्राम हो, आपका ध्यान केमरे में चला गया। गुस्सा आ रहा है, लाइव प्रोग्राम है, चेहरा बिगड़ा हुआ है, और कैमरा आपके सामने है; अब क्या करोगे? स्माइल दोगे, अपने आपको सम्हालोगे, मुँह फेरोगे, क्या करोगे? महाराज! जैसे भी होगा, बचने की कोशिश करेंगे। क्योंकि कोई भी आदमी अपनी पोजीशन (छवि) खराब नहीं करना चाहता। ध्यान रखना। लोग तुम्हारी पोजीशन को नहीं बिगाड़ते हैं, तुम्हारा क्रोध तुम्हारी पोजीशन को बिगाड़ता है। इसलिए अपनी पोजीशन बनाकर रखना चाहते हो तो सदैव ये देखो मैं कहाँ खड़ा हूँ? और जहाँ खड़ा हूँ. वहाँ ऐसा व्यवहार करना उचित है या नहीं? यदि इसका विचार करोगे तो फिर क्रोध आप पर हावी नहीं हो सकेगा। तालमेल का घालमेल क्रोध के बारे में इतनी ही बातें। दूसरी बात कलह। क्रोध हो जाए हो जाने दो। यदि आप क्रोध को नहीं रोक सकते तो मत रोको। एक जगह फेल हो गए; चलेगा। गुस्सा आ गया ठीक है; उसको वहीं दफन करो। कलह का रूप मत लेने दो। क्रोध आया तो कलह मत होने दो। अगर चार बातें जिनकी चर्चा अभी मैने की; उन पर ध्यान रखेंगे तो क्रोध नहीं आएगा। लेकिन कदाचित उसमें फल हो गए; कोई चिंता नहीं, कलह मत करो। मामले को वहीं रफा-दफा करो। कैसे रफा-दफा करो? गुस्सा आए तो सामने वाले से क्षमा मांग लो। क्षमा कर ना सको तो क्षमा मांगने को रेडी(तैयार) रहो। तुम्हारा जीवन आगे बढ़ जाएगा। सामने वाले को क्षमा नही कर सको तो क्षमा माग लो। कहोभैया! मेरा दिमाग खराब हो गया था मैं अपने आप पर कन्ट्रोल नहीं कर पाया, भावुकता में मैंने आवेश में आकर तुमसे उल्टा - सीधा कुछ बोल दिया, माफ करना। भाई! मैने बाद में विचार किया तो लगा कि मैने जो किया वह गलत किया। इस चेप्टर (प्रकरण) को यहीं क्लोज (बन्द) करो। है इतना पराक्रम आपके पास? किसी से लड़ाई की हो और घण्टे भर बाद उससे क्षमा मांगने की हिम्मत अपने भीतर जगा सकते हो? अगर अपने जीवन को निर्मल, पवित्र और सरल बनाना चाहते हो और अपने जीवन का आनंद उठाना चाहते हो तो ये जरूर करना। भैया! होश खो दिया था अब मैं होश में हूँ, क्षमा करो। मेरे मन में तुम्हारे प्रति दुर्भाव नहीं थे लेकिन फिर भी ऐसा हो गया; मैं क्षमा चाहता हूँ, मुझे माफ कर दो। महाराज! हम क्षमा मांगें और सामने वाला माफ न करे तो? तुम क्षमा कर दो। तुम क्षमा तो मांगो सामने वाले की बात क्यों सोच रहे हो। पहले ही सामने वाले की बात करते हो। हृदय से क्षमा मांगने पर सामने वाला भी क्षमा करता है। प्रयास करो। फिर थोड़ा देखिए झगड़ा क्यों होता है, कलह क्यों होता है? कलह के कितने कारण हैं? चार कारण- रुचि -भेद, चिंतन-भेद, आग्रह और गलतफहमी। दो व्यक्तियों की अगर अलग-अलग रुचि है, एक कुछ सोचता है; दूसरा कुछ सोचता है और दोनों जब अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप एक दूसरे को चलाने पर आमादा हो जाते हैं तो झगड़ा हो जाता है। जैसी आपकी रुचि है वैसा आपको वातावरण मिले, वैसा आपका साथ हो तो आपको कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन रुचि अलग हो तो बड़ी दिक्कत होती है। मैं ऐसे दम्पती को जनता हू जिनकी दोनों की रूचि एकदम पूरब और पश्चिम की थी। पति धर्मात्मा था और पत्नी एकदम आधुनिक। पति ने विवाह केवल इसी ख्याल से किया था कि मैं नहीं हो सकता, मेरा शरीर अनुकूल नहीं है लेकिन एक अच्छी जीवनसंगिनी मिले तो मैं एक अच्छा गृहस्थ बनकर समाज में कोई आदर्श उपस्थित कर सकें। बहुत परेशान हुआ. उसको कोई लड़की उसके हिसाब की मिली नहीं। बाद में एक लड़की मिली उससे शादी हुई। मैं कहता हूँ जो लड़की मिली वह उसी के लायक थी। उसी के लायक थी। मतलब. उसी के लायक थी दूसरा कोई उसको झेल नहीं सकता था। एकदम तेज-तर्राट, विरुद्ध विचारधारा की। अब रुचि-भेद है। अगर चाहे तो रोज लड़ाई हो लेकिन पति बहुत समझदार था। रुचि-भेद की स्थिति में भी व्यक्ति यदि अपने चिंतन को व्यापक बना ले तो कई झगड़ों को समाप्त कर सकता है। अभी मैंने कलह के चार कारण कहे। और उस कलह के निवारण के भी चार साधन आपको साथ-साथ बोल देता हूँ ताकि सब चीजें एक साथ चलती जाएँ। रुचि-भेद, चिंतन-भेद, आग्रह और गलतफहमी ये चार कलह के कारण हैं। सकारात्मक सोच, समग्रता का चिंतन, सहिष्णुता का विकास और विनोद-प्रियता समझौते का आधार है। उसने दो-चार दिन देखा कि पत्नी का व्यवहार ऐसा है। उसने सोचा- इससे प्रतिकार करने से हम नहीं जीत सकते। इसका स्वभाव बड़ा क्रोधी, झगड़ालू है। उसने अपने आप को सरेंडर कर दिया। विचार एकदम विरुद्ध। उसने सोचा- मेरे कर्म का उदय है, अब लड़कर मैं कुछ नहीं पाऊँगा। अगर मुझे कुछ पाना है तो इसे जीतना पड़ेगा। इसे लड़ाई से तो मैं नहीं जीत सकता, अपने प्यार से इसे जीता जा सकता है और कोई दूसरा रास्ता नहीं। उसने पॉजिटिव रास्ता अपनाया। पत्नी और पति की विचाराधारा में इतना अंतर था कि यदि उसे आलू आदि जमीकद नहीं खाना तो उसकी थाली में वही परोसा जाए और पति परम समता वाला वह चुपचाप थाली में अन्य जो वस्तुएँ परोसी जाएँ वे खा ले और शेष को वहीं छोड़ दे। अपनी थाली भी अपने हाथ से उठाकर बाहर किसी जानवर को खिला दे। पत्नी कुछ भी बोले वह चुप्पी साध ले। वह जली-कटी सुनाए; सुन ले कोई प्रतिक्रिया नहीं। कई मौके तो ऐसे आए कि एक रोटी खाकर उठना पड़ा लेकिन चुपचाप सहता रहा। एक बार वह मेरे पास बैठा तत्व चर्चा कर रहा था, जिस दालान में बैठा था सामने एक हॉल था। उसकी दूध पीती बच्ची उसकी पत्नी की गोद में थी। इसी बीच बच्ची रोई। पत्नी ने वहीं से आँख दिखाई। मैं सब देख रहा था, ज्यादा डिस्टेंस (दूरी) नहीं थी, चालीस-पचास फीट का गैप था। पत्नी ने ऑख दिखाई, उसने तत्व चर्चा को एक तरफ छोड़कर कहा- महाराज! मैं अभी आया। वह गया पत्नी से बच्ची को लिया, अरे भगवान! पत्नी ने जो जली-कटी सुनाई मुझे भी बड़ा कष्ट हुआ। हे भगवान! ये कहाँ फंस गया। बहुत उल्टी सीधी सुनाई लेकिन वह बोला कुछ नहीं, चुपचाप बच्ची को लिया, बिना किसी प्रतिक्रिया के खिलाया, बच्ची शांत हुई। सात-आठ मिनट के बाद वह मेरे पास आया और बैठकर फिर तत्वचर्चा करना शुरु कर दिया। मैंने उससे पूछा- भैया! क्या कर रहे हो? उसने कहा- महाराज! निर्जरा कर रहा हूँ। निर्जरा कर रहे हो मतलब? पाप झड़ा रहा हूँ। और सच में उसने निर्जरा कर ली। पाँच-छह साल में पत्नी के ऊपर ऐसा असर पड़ा कि आज पत्नी की पूरी विचारधारा बदल गई। आज वह उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है। वह जीत गया। पत्नी को बदल दिया। रुचिभेद हो तो रुचि थोपिए मत। सामने वाले को अपनी रुचि से चलने दीजिए और आप अपनी रुचि से चलिए। अगर बाप बेटे पर अपनी मजीं थोपेगा और बेटा बाप पर थोपेगा, पत्नी पति पर मर्जी थोपेगी और पति पत्नी पर मर्जी थोपेगा, सास बहू पर थोपेगी और बहू सास पर थोपेगी तो झगड़े होते ही रहेंगे। अलग-अलग रुचि हो तो सबको अपनी-अपनी रुचि से काम करने दी। छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई होती है। सास ने कहा आज ये सब्जी ऐसी बनाना और बहू ने उसको नए तरीके से बना लिया। तूने ऐसी सब्जी क्यों बनाई मैंने तो ऐसे बोला था। रोज-मर्रा की बात मैंने ऐसे कहा था तुमने ऐसे क्यों कर लिया। बिना मतलब की बात। छोटी-छोटी बातें मनुष्य की जिंदगी को खोटी बना देती हैं। वहाँ बचिए। रुचि सबकी अपनी-अपनी है और सबको अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल जीने दीजिए। अपनी रुचि थोपेंगे तो जिंदगी का रस कभी नहीं ले सकेंगे। रुचिभेद हो तो झगड़ा खत्म करने के लिए थोड़ा सकारात्मक दृष्टि से सोची। रुचि किसी पर थोपना मत। चिंतन-भेद। विचारधारा का अंतर। किसी की विचारधारा अलग होती और किसी की विचारधारा अलग होती है। मामला गड़बड़ हो जाता है। बेटा डॉक्टर बनना चाहता था और पिताजी ने कहा आजकल मेडीकल की लाइन में बहुत ज्यादा लाभ नहीं है। मेडीकल में तुम डॉक्टरी के बाद भी जब तक पी.जी. (PG.) न करो सुपर स्पेशलिस्ट न हो जाओ तब तक कैरियर में कुछ नहीं होता। इसलिए बेटे तुम इंजीनियरिंग कर लो। बेटे की हार्दिक इच्छा थी डॉक्टर बनने की और शुरु से चाहता था कि मैं डॉक्टर बनूँगा लेकिन पिता ने बेटे की एक नहीं सुनी और कहा- तुम्हें इंजीनियरिंग करना होगा। बेटा प्रतिभावान था, पिता के कहने से इंजीनियरिंग किया लेकिन उसके मन में एक बात बैठ गई कि मेरे पिता ने मेरे कैरियर को चौपट कर दिया। दो साल तक तो उसने पढ़ाई की तीसरे साल से उसका मन पढ़ाई से उचट गया, उसके मन में एक गाँठ बन गई कि मेरे बाप ने मुझे डॉक्टर नहीं बनने दिया तो मैं अपने बाप को मिटाकर छोड़ेंगा। चिंतन-भेद से ऐसे परिणाम होते हैं। मैं कोई किस्सा नहीं बता रहा हूँ, घटित घटना बता रहा हूँ। मैं अपने पिता की सम्पति बर्बाद करूंगा। अब मैं सब चौपट करूंगा। किसी तरह का कॉपरेशन नहीं करूंगा। बड़ी मुश्किल होती है जब किसी पर बातें थोप दी जाती हैं तो सामने वाला विद्रोही बन जाता है। एक बार व्यक्ति विद्रोही बन गया तो उसके परिणाम बहुत भयावह होते हैं। उसका पढ़ाई से ही मन उचट गया। वह पिता से पैसे मंगाए और बर्बाद करे। ड्रग का एडक्शन चालू हो गया। बर्बादी शुरु। एक पैसे वाले बाप का बेटा ड्रग्स लेने का एडिक्ट हो गया। पिता को तरह-तरह से परेशान करना शुरु कर दिया। पैसे ऐंठने लगा। एक दिन उसके पिता ने मुझसे आकर कहा- महाराज जी! मेरे बेटे की ऐसी-ऐसी दशा है और सुना है- चार-पाँच महीने से वह ड्रग्स भी लेने लगा है, पढ़ाई बिल्कुल बंद है, घर आना पसंद नहीं करता। मुझे मालूम पड़ा है अपने दोस्तों से उसने कहा है कि मेरे पिता ने मेरी इच्छा, मेरे कैरियर को बर्बाद किया, मैं अपने बाप को बर्बाद करके छोड़ेंगा। उसने ऐसा बोल दिया है महाराज! कोई उपाय बताइए। उस बच्चे का क्या होगा? मैं उस बच्चे को जानता था। बच्चा जब तक बारहवीं में था, तब तक आता था। जब से उसको इंजीनियरिंग में दाखिल किया गया आना बंद कर दिया था। लेकिन उसके कुछ दोस्त आते थे। मैंने सोचा- इनसे बात करने से फायदा नहीं है मोटीवेशन इसके बेटे का मिलना चाहिए। मैंने उसके एक दोस्त से कहा कि अपने उस साथी को एक बार लेकर आओ। ये घटना भोपाल की है। बहुत पुरानी घटना है। वह अपने साथी को लेकर आया। पहले तो आना-कानी किया पर वह मुझसे जुड़ा था। उसके मन में एक बात बैठी हुई थी कि महाराज जी बड़ी प्रैक्टीकल बात करते हैं। इसलिए मेरे पास आ गया। मैंने पहले तो उसकी सारी बातें सुनीं। उसके अंदर का जो गुबार था वह निकला।मुझे लगा कि अपने पिता के प्रति एक बहुत बड़ी ग्रन्थि इसके मन में बैठी थी कि मेरे पिता ने मेरा कैरियर बिगाड़ दिया। जो मैं वर्षों से सोचता था उन्होंने एक झटके में सब खत्म कर दिया, उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। अब मेरे मन में मेरे पिता के प्रति श्रद्धा भी नहीं बची। कैसी गंभीर स्थिति बन जाती है। मैंने उस बच्चे को बहुत प्रेम से समझाया और उसको कहा भाई तेरा पिता; पिता है। तुझे जरूर ऐसा लग रहा है कि कैरियर को उन्होंने बिगाड़ दिया। मान लिया तू डॉक्टर बनना चाहता था, मेडीकल लाइन में जाना चाहता था और जैसा तू कह रहा है; उस हिसाब से उस दिशा में तू बहुत आगे भी बढ़ जाता पर तेरे पिता ने अगर तुझे इंजीनियरिंग लाईन में भेजा है तो इसलिए नहीं भेजा कि तू अपना कैरियर खत्म कर दी। उन्होंने तो इसलिए भेजा था कि जमी-जमाई इण्डस्ट्री है। तुम मैकेनिकल से इंजीनियरिंग करके लिए बना बनाया एक प्लेटफार्म मिलेगा और तू आगे बढ़ जाएगा। पिता ने तो तेरे हित के लिए ही सोचा था। तूने उसमें अपना अहित सोच लिया। काश! पिता की बातों को तू सकारात्मक तरीके से लेता तो ऐसा नहीं होता। पिता ने तुझे मेडीकल की जगह इंजीनियरिंग लाइन में भेज दिया और अपनी जिद से उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध मानकर जो अपना ली हैं इससे तो तुम अपना सब कुछ समाप्त कर रहे हो। पिता जी की जिंदगी कितने दिन की है? चार दिन की है। तुम्हारा तो सारा जीवन ही नष्ट हो रहा है। तुम डॉक्टर की जगह इंजीनियर बनते भी तो कुछ और बनते। तुम्हारी मेहनत कम होती और तुम्हें जमा-जमाया प्लेटफार्म मिलता, आगे बढ़ जाते लेकिन अभी तुम जिस लाइन पर चल रही हो उसमें तो तुम्हारा सर्वनाश ही हो रहा है। अपने जीवन का सत्यानाश कर रहे हो। तुम्हारा सब कुछ चौपट हो रहा है। सावधान हो जाओ......इसे क्यों बर्बाद कर रहे हो? इस तरह उसे समझाया, उसकी आँखों में आँसू आने लगे। बोला-महाराज! मुझे आज तक किसी ने प्रेम से नहीं समझाया। मैं विद्रोही बना तो किसी ने मेरी पीड़ा समझने की कोशिश नहीं की। सबने यही कहा कि ये जिद्दी है, बाप को अपनी ऊंगली पर नचाना चाहता है। महाराज! सब जगह मुझे तिरस्कार मिला, अपमान मिला; नतीजा मेरे भीतर का विद्रोह बढ़ता ही गया। आज आप के वचनों से मुझे बहुत शांति और प्रसन्ता की अनुभूति हो रही है। मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था। लेकिन महाराज! अब मैं कोशिश करूंगा। एक महीने तक वह बच्चा नियमित मेरे पास आया। उसका मन सम्हाला। उसने अपनी बुरी आदतों को त्याग दिया, नशा भी छोड़ दिया, सारी बुराईयाँ छोड़ दीं। अपने दो सेमेस्टर रोक रखे थे उनको भी पूरा किया और आज अपने पिता का वारिस बनकर उनकी पूरी इण्डस्ट्री सम्हाल रहा है। मैं आपसे कहता हूँ व्यक्ति के चिंतन को देखिए, उसकी अभिरुचि को देखिए और उसके अनुरूप बढ़ाने की कोशिश कीजिए। अगर आप चिंतन को बदलना चाहेंगे तो बड़ी गड़बड़ होगी। चिंतन बदलता है सही मार्गदर्शन से; थोपने से नहीं। यदि आप बड़े युक्तिसंगत तरीके से, प्रेम-आत्मीयता से भरे लहजे में समझाएँ तो हर व्यक्ति का चिंतन बदल सकता है। लेकिन यदि आप उस पर थोप देंगे तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। मैं कहना चाहता हूँ घर परिवार में चाहे आपके बच्चे हों, बहू हो उसकी रुचि को समझने की कोशिश करें, रुचि थोपिए मत; रुचि बदलने की कोशिश कीजिए। चिंतन थोपिए मत। चिंतन को बदलने की राह दिखाइए। यदि ऐसा हो जाए तो कभी किसी का जीवन खराब नहीं होगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो जीवन को बबाद होने से कोई नहीं बचा सकता। हठ के पहले थोड़ा ठहरें झगड़े का तीसरा कारण है आग्रह। आग्रह का मतलब निवेदन नहीं वह तो अनुरोध होता है। आग्रह का मतलब अड़ जाना, अडामेंट हो जाना। जो अपनी बात पर अड़ते हैं; वे लड़ते हैं। अड़ोगे तो लडोगे। कोई व्यक्ति अपनी बात पर जैसे ही अड़ेगा लड़ाई होगी, छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई होगी। आग्रह हुआ कि लड़ाई हुई। आज रोज लड़ाई हो रही है। आप देखिए आपके जीवन में जितनी भी लडाईयाँ हैं वे आग्रह के धरातल पर ही होती हैं। मैंने ऐसा कहा, तुमने ऐसा नहीं किया अब यही करना है। मैं ये नहीं करूंगा। सामने वाला बोल रहा तुम्हें ये करना, वह कह रहा हम ये नहीं करेंगे। पति-पत्नी अपनी भावी संतान के जीवन की रूपरेखा के ऊपर चचा कर रहे थे। भावी संतान के भविष्य की योजना बना रहे थे। पत्नी ने कहा- मैं अपने बेटे को डॉक्टर बनाऊँगी। पति का कहना था- हूँ. डॉक्टर तो आजकल गली-गली घूमते हैं; मैं अपने बेटे को वैज्ञानिक बनाऊँगा, विश्व भर में उसका नाम होगा। वाह! तुम्हारी चलेगी क्या? जब से मेरी शादी हुई मैंने तब से सोच रखा है कि मेरा बेटा होगा तो उसको डॉक्टर बनाऊँगी। तुम्हारे सोचने से होगा क्या? मेरा बेटा है। मैं अपने बेटे को वैज्ञानिक बनाऊँगा। मैंने भी ये कब से सोच रखा है मेरा बेटा वैज्ञानिक बनेगा। अब क्या था? पति कह रहा है बेटे को वैज्ञानिक बनाऊँगा और पत्नी कह रही है कुछ भी हो बेटे को डॉक्टर बनाकर रहूँगी। दोनों में खटपट बढ़ गई। मन मुटाव इतना बढ़ गया कि मामला डायवोर्स तक पहुँच गया। आजकल तो बड़ा सरल काम है। थोड़े-थोड़े में डायवोर्स हो जाता है। पत्नी बदलना तो अब ऐसे हो गया जैसे कपड़े बदलते हैं। बड़ी विचित्रता की बात है ये हमारी संस्कृति पर कलंक है। जब मामला डायवोर्स के लिए गया तो जज बहुत समझदार था, दोनों की दलीले सुनीं। एक कहती है डॉक्टर बनाऊँगी एक कहता है कि वैज्ञानिक बनाऊँगा। जज ने दोनों की दलील सुनने के बाद कहा ठीक है मैंने आप दोनों की बातें सुन लीं। आप अपने बेटे को डॉक्टर बनाना चाहती हो और आप वैज्ञानिक बनाना चाहते हो। ठीक है; इस विवाद से पहले बेटे की भी तो राय ली जाए कि वह क्या बनना चाहता है। बेटे को हाजिर किया जाए। जैसे ही सुना बेटे को हाजिर किया जाए.। बेटा. कौन बेटा? अभी तो वह पैदा ही नहीं हुआ, बेटा तो अभी पैदा ही नहीं हुआ है। और जो बेटा पैदा नहीं हुआ उसके आग्रह के पीछे ये लड़ाई है। इतनी खतरनाक स्थिति है। अपने आप को यहाँ बचाइए। जीवन तभी तरेगा, जीवन तभी धन्य होगा अन्यथा कोई रास्ता नहीं है। आप देखिए आपके जीवन में रोज जो लड़ाईयाँ होती हैं वे आग्रह के कारण ही तो होती हैं। एक बार पति-पत्नी दोनों बैठे थे, पास में बेटा था। पति ने कहा- बेटे को इंजीनियर बना दो और पत्नी ने कहा बेटे को डॉक्टर बना दो। दोनों में बातचीत चलती गई, चलते-चलते दोनों में तनातनी होने लगी तो फिर पास में बैठे चार साल के बेटे ने कहा- पापा-मम्मी! आप क्यों झगड़ते हो? मैंने तय कर लिया; मुझे क्या करना है। दोनों ने एक साथ पूँछा- अच्छा! बता तू क्या करेगा? बोला मैं वकील बनूँगा। बोले क्यों? क्योंकि आप के डायवोर्स का केस मैं ही सलटाऊँगा। कैसी दुर्दशा है। गलतफहमी। मिस कम्युनिकेशन (संवाद की कमी) से गलतफहमी होती है, अंडर स्टेडिंग (आपसी समझ) बिगड़ती है। लोग गलतफहमी का शिकार बनकर बड़े-बड़े झगड़े खड़े कर लेते हैं। ऐसा अपनों के बीच होता है। थोड़ा सा वहम हो गया किसी के बारे में और हमने उससे कटुतापूर्ण सम्बन्ध बना लिए, हमारा रिलेशन (रिश्ता) बिगड़ गया। किसी ने आकर आपको कुछ कहा, आपने कान में सुना आधी-अधूरी बात सुनकर उसको वहीं पकड़ लिया। बंधुओ! कभी जल्दी से किसी भी गलतफहमी का शिकार मत बनिए। किसी के प्रति अगर गलतफहमी है तो आप जाइए और उससे बोलिए कि भैया मैंने ऐसा सुना है, तुमने ऐसा कहा था क्या? सामने वाला कहेगा नहीं मेरा ऐसा आशय नहीं था। मामला खत्म। और आपको पता लगे कि किसी को मेरे प्रति गलतफहमी है तो जाकर सामने वाले से कहो कि भैया मैंने सुना है आपके मन में मेरे प्रति गलतफहमी है। देखिए आपके पास जो भी रिपोर्ट आई है वह गलत आई है, मेरा ऐसा आशय नहीं है, मेरे मन में आपके प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। मैं आपके सम्मान और प्रतिष्ठा का सदैव ध्यान रखता हूँ। ये बीच के लोग इधर की उधर और उधर की इधर करते हैं। आप मुझे क्षमा कीजिए। वस्तुस्थिति ये थी। सामने वाला जब पिटारा खोले तो आप किलेयरीफिकेशन (स्पष्टीकरण) दे दीजिए। कभी कम्युनिकेशन गेप नहीं बढ़ेगा और झगड़े नहीं होंगे। देखिए गलतफहमी से झगड़े कैसे होते हैं। दो मित्र थे। दोनों में बड़ी प्रगाढ़ मित्रता थी। मित्रता ऐसी कि दो देह एक प्राण। दोनों की मित्रता पूतना से सही नहीं गई। पूतना तो जानते ही हो. महाभारत में आपने देखा होगा। उसे किसी ने कहा कि इन दोनों की मित्रता तुम तोड़ पाओ तो हम जानें। वह बोली मेरे लिए तो यह चुटकियों का खेल है। पूतना ने एक षोडशी युवती का रूप धारण किया और दो में से एक को बुलाया। उसके कान में कुछ कहने का अभिनय करना शुरु कर दिया और इशारे से कहती जा रही कि सामने वाले को कुछ मत बोलना जो मैं बोल रही हूँ। करीब दो-तीन मिनट तक ये खेल चला और फिर वह वहाँ से चल दी, उसका काम खत्म। अब जो दूसरा व्यक्ति था बोला- क्यों भाई! क्या बात है? कौन थी वह? बोला- मुझे नहीं मालूम क्या बोल रही थी, कुछ नहीं बोली। झूठ बोलते हो मैंने अपनी आँखों से देखा। इतनी देर तक तुम्हारे कान में बोलती रही और तुम बोल रहे हो कुछ नहीं बोली, वह इशारा कर रही थी उसको मत बताना। पहले वाला बोला- भैया! कुछ बोली हो तब तो बताऊँ। मैंने आज तक तुमसे कभी झूठ नहीं बोला अब कैसे झूठ बोल्यूँ? मैं कैसे मान सकता हूँ ऐसा आँख से देखा झूठ होता है क्या? मैंने सब देखा है, सब कुछ तुम्हारे कान में बोली लगता है अब तुम उसके प्रेमी बन गए हो और सब कुछ अकेले-अकेले करना चाहते हो। करना है तो करो लेकिन मुझे जब तक नहीं बताओगे मेरी-तुम्हारी दोस्ती खत्म। अब सामने वाला क्या करे? कुछ बोली हो तब तो बताए। अब क्या करे? कोई उपाय नहीं, कोई रास्ता नहीं। क्या करे कुछ समझ में नहीं आ रहा। वह कह रहा है जो भी तुम्हें बताकर गई। मुझे बताओ। अब ये क्या बताए। क्या हुआ? दोनों की दोस्ती दुश्मनी में बदल गई। थोड़ी सी गलतफहमी ने एक मिस कम्युनिकेशन कर डाला। बीच में माया आ गई और मित्रता का सफाया कर गई। ऐसी स्थितियाँ बनती हैं। बंधुओ! किसी के प्रति गलतफहमी मत रखिए और किसी को गलतफहमी का शिकार मत बनने दीजिए। जीवन में कभी झगड़ा नहीं हो सकता। झगड़े से बचने के लिए सकारात्मक सोचिए, समग्रता से देखिए, एकांगी मत देखिए। आपको कोई बात कही जा रही है तो झगड़ा करने से पहले उसके आगे-पीछे का विचार कीजिए झगड़ा होगा ही नहीं। समग्र चिंतन का अभाव कलह को जन्म देता है। जैसे-आप दफ्तर से आए, आपकी माँ ने आपकी पत्नी की दस प्रकार की शिकायतें आपसे कर दीं। आपने सुना कि तुम्हारी बीबी ने ऐसा किया वैसा किया और आप सीधे जाकर अपनी बीबी पर बरस पड़े। मामला गड़बड़ हो गया। ये एक रूप है। और अगर आप में थोड़ी समझदारी हो तो आप माँ की सुनने के बाद पत्नी से पूछो क्या बात है? आज दिन में क्या हुआ? माँ से तुमने कुछ गडबड तो नहीं किया, कोई बदसलूकी तो नहीं की, माँ की उपेक्षा, अवमानना या तिरस्कार तो नहीं किया और फिर पत्नी की बात पूरी तरह से सुनो। जब आप पूरी बात सुनोगे तो आप पाओगे कि माँ जो बोल रही है उसमें सत्तर प्रतिशत बात तो नमक-मिर्च है, तीस प्रतिशत सच्चाई है। तो आपका गुस्सा रिड्यूज(कम) होगा। झगड़ा कम होगा। बंधुओ! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि कभी भी एक तरफा मत सोचो और न एक तरफा निर्णय लो। सामने वाले के पक्ष को भी ध्यान में रखो और मिलजुल करके निर्णय लो। समग्रता से चिंतन करोगे तो जीवन में आनन्द की अनुभूति कर सकोगे। देखिए असमग्र-चिंतन कैसे अशांति देता है। और समग्र चिंतन से कैसे शांति मिलती है। आपका कोई मित्र आपके गाँव आया आपने उसका बहुत अच्छा आतिथ्य किया। भविष्य में आपको दिल्ली जाने का मौका आया तो आपको उसकी याद आई। उसने आपसे कहा था जब भी दिल्ली आओ तो मुझे एक फोन करना मुझे बड़ी खुशी होगी, मेरे ही घर पर ठहरना और मैं तुम्हें खुद लेने के लिए आऊँगा। आपने फोन कर दिया। अब आप निश्चित हैं। दिल्ली जा रहा हूँ दो रोज रुकना है और अमुक के घर रुकेगा। अजीज है, दो दिन उसके साथ रहने का भी मौका मिलेगा और होटल आदि की चिंता -विकल्पों से भी मुक्त रहूँगा। सोचते हुए आप दिल्ली पहुँचे पर स्टेशन पर कोई नहीं मिला। क्या प्रतिक्रिया होगी? बड़ा मक्कार आदमी है जब यही सब करना था तो इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी। मैंने थोड़े ही बोला था कि मैं तेरे घर रुकेंगा, मेरे पास रुकने के ठिकानों की कमी है क्या? जाता हूँ किसी अच्छे होटल में। सौ प्रकार की मन में गालियाँ निकल जाएगी, पता नहीं कितना कोसोगे सामने वाले को। बाहर निकलकर टैक्सी-स्टैण्ड पर टैक्सी लेने जा रहे हो तभी उसकी गाड़ी आकर रुकी, उससे वह व्यक्ति बदहवास सी हालत में बाहर निकला साथ में उसके अस्सी वर्ष के पिता जी हैं उनको लेकर सीधे हॉस्पीटल में दाखिल करा रहा है। अब क्या सोचोगे? भाई गड़बड़ हो गई। आँख से आँख मिली पर वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है सीधे हॉस्पिटल में ले गया। इसके यहाँ जरूर कोई हादसा हुआ है मुझे यहीं रुकना चाहिए। सारा गुस्सा शान्त हो गया। आपने रुकने का मन बना लिया। वह कुछ देर बाद अस्पताल से बाहर आया, नजर से नजर मिली भैया! माफ करना, आज आपको बहुत परेशानी उठानी पड़ी, मैं आपको लेने नहीं आ पाया पर क्या करूं बड़ा मजबूर था। मैं तुम्हें लेने के लिए ही निकला था। ड्राइवर नहीं आया खुद गैरिज से कार निकाली, कार स्टार्ट ही किया था कि अचानक पिता जी को अटैक आ गया और मैं पापा को लेकर सीधे हॉस्पीटल आया हूँ। स्थिति इतनी गम्भीर थी कि मैं फोन भी नहीं कर पाया, तुम्हें बहुत कष्ट हुआ मुझे क्षमा करना। अब क्या प्रतिक्रिया करोगे। अरे! मैंने पहले ऐसा क्यों नहीं सोचा, बेकार में अपना मन खराब कर लिया। बंधुओ! मैं आपसे कहता हूँ जितने भी लोग मन खराब करते हैं न सब बेकार में ही करते हैं। यथार्थ में मन खराब करने लायक कुछ होता ही नहीं। बेमतलब मन खराब करने की आदत छोड़ी। समग्रता से विचार करो मन कभी खराब नहीं होगा और तभी जीवन धन्य होगा। जब ज्यादा गुस्सा आने लगे, झगडे की ज्यादा नौबत आने लगे तो थोड़ा विनोदी बनो। विनोदप्रियता.....गहरी बात को भी मजाक में लेना शुरु कर दो झगड़ा शांत हो जाएगा। पत्नी पति से नाराज हो गई और धमकाते हुए बोली- ज्यादा करोगे तो मैं मायके चली जाऊँगी। पति पत्नी के स्वभाव को जानता था कि ये जो बोल देती है सो करती है, उसने तुरंत पैतरा बदला और बात को सम्हाला। बोला ठीक है तुम मायके हो आओ, पप्पू भी इस बहाने ननिहाल ही आएगा और मैं भी इसी बहाने कुछ दिन ससुराल मे रह लूगा। मामला सुलट गया। हल्के में लिया, विनोद में लिया तो मामला सुलट गया। विनोदप्रिय बनें। अपने अंदर की सहनशीलता को बढ़ाने इाराडा खत्म हो जाएगा। मन, वचन और कर्म से भाव हो अक्रूर का क्रोध आ जाए तो कलह मत करो, कलह हो जाए तो क्रर मत बनी। क्रोध पर अपने आप को रोको, क्रोध पर नहीं रोक सकते जो कलह पर अपने आप को रोको, कलह पर नहीं रोक सकते तो कम से कम क्रूरता पर तो जरूर रोको। क्रूर मत बनो मतलब किसी से झगड़ा हो तो ऐसा झगड़ा मत करो कि मरने-मारने की बात आ जाए। हिंसक प्रतिशोध और प्रतिरोध की भावना मन में आना घोर अनर्थ है। मन में ऐसी क्रूरता नहीं आए कि अब तो में उसे सबक सिखाकर ही छोड़ेंगा। ये परिणति क्रूरता की परिणति होती है। ऐसा व्यक्ति हिंसक कुछ भी कर लेता है। क्रूरता कतई अनुकरणीय नहीं है। इसलिए कभी भी क्रूरता मन में मत आने दो और अगर क्रूरता के साथ ही कटुता आई है तो कटुता मतलब बैर की गांठ तुमने बाध ली जो भव-भवान्तरों तक साथ चलती रहती है। ऐसी गांठ मनुष्य के जीवन को जटिल बना देती है। इन सबसे आप बचेंगे तो निश्चित ही आपका जीवन सुखी होगा।आज क्षमा के दिन मैं आपसे क्रोध की बात नहीं करता आपसे कहता हूँ कलह से बचिए, क्रूरता से बचिए और कटुता से बचिए। यदि इतना भी आप अपना लेते हो तो आपका जीवन धन्य हो जाएगा। ये तय कर लीजिए मैं इस पूरे साल किसी से कलह नहीं करूंगा और यदि अतीत के दिनों में किसी से कलह हुई है तो आज क्षमाधर्म के दिन सबसे पहले उससे क्षमा मामूँगा। क्षमावाणी के दिन आप अपने मित्रों से क्षमा मांगते हो। मित्रों से जिनसे दुश्मनी नहीं उनसे क्षमा मांगने की क्या जरूरत है। किसी से कलह नहीं करूंगा, और यदि किसी के प्रति कोई कलहपूर्ण व्यहवहार हुआ है तो उसे समझौते में परिवर्तित करूंगा, क्षमा मांगूंगा। किसी के प्रति कटुता का भाव नहीं रखेंगा, कटुता यानी बैर की गाँठ अपने अंदर नहीं बांधूंगा और यदि कदाचित कोई बैर है भी तो उसे सीमित करने की कोशिश करूंगा, शान्त करूंगा लेकिन क्रूर नहीं बनूँगा। सम्पादक डा. सोनल कुमारी जैन, दिल्ली सिंघई जयकुमार जैन, सतना
  2. मान, सम्मान, बहुमान और अपमान मैंने देखा- एक अंगीठी सुलग रही थी। लाल-लाल अंगारे उसमें दमक रहे थे। इसी मध्य एक अंगार के मन में ख्याल आया कि जब मैं इतना कान्तिमान, इतना द्युतिमान हूँ। मुझमें इतनी आभा, प्रकाश और तेज है तो मैं इस अंगीठी में क्यों रहूँ? और इसी विचार से क्या था, थोड़ी ही देर में उस अंगारे की चमक, कान्ति फीकी पड़ने लगी। उसके ऊपर राख की परत जमने लगी। देखते ही देखते उसका दम घुट गया और मुँह काला हो गया। जो अभी तक अपनी कान्ति को बिखेर रहा था अब वह कालिमा से ग्रस्त हो गया। बंधुओं! आज के संदर्भ में ये बात बहुत उपयोगी है। जब तक वह अंगारा अगौटी में था तब तक उसमें चमक थी, दमक थी, कांति थी, प्रकाश था और आभा भी थी पर जैसे ही वह अंगीठी से अलग हुआ उसकी सारी शोभा, उसका सौंदर्य, उसकी चमक फीकी पड़ गई | सन्त कहते हैं यदि अपने जीवन की शोभा को बढ़ाना चाहते ही अपने जीवन की चमक को वृद्धिगत करना चाहते हो तो साथ रहने का अभ्यास करो। अकड़ने की कोशिश कभी मत करो। एक है समष्टि एक है व्यष्टि। अगर हम अपने आपकी ही सोचते हैं तो हम अपनी क्षमताओं को सीमित करना शुरु कर देते हैं और अपने साथ औरों के विषय में भी सोचने लगते हैं तो हमारी क्षमताएँ बडने लगती हैं। आज मार्दव धर्म का दिन है।मृदोभवि: मार्दवम्। मृदुता के भाव का नाम मार्दव है जो हमारे अंदर के अहं के विसर्जन के बाद प्रकट होता है। अहम् नहीं हम का भाव ये अहं क्या है। थोड़ा इसे समझे। जिस अहं के अभाव में हमारे भीतर की मृदुता प्रकट होती है वह अहं क्या है। अपने आप को सच्चा और अपने आप को अच्छा मानने की वृत्ति, अपने ही विषय में सोचने की वृत्ति, अपने ही आप को प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति ये सब अहं है। मनुष्य के मन में जब तक 'मैं' भरी रहेगी तब तक वह अपना उत्थान नहीं कर सकता। संत कहते हैं- जिस मनुष्य के हृदय में जो अपने अहं को विसर्जित कर लेता है उसकी चेतना का उत्थान होने लगता है। आज मैं आप से चार बाते कहना चाहता हूँ। वैसे देखा जाए तो दसलक्षण धमों में से प्रारम्भ के चार धर्म हमारी चार कषायों के अभाव में प्रकट होने वाले गुण के रूप में होते हैं। कल हमने क्षमा की चर्चा की थी जो क्रोध के अभाव में प्रकट होती है। आज मार्दव धर्म की चर्चा है जो मान के अभाव में प्रकट होता है। हम समझें ये मार्दव है क्या? चार बातें और उस संदर्भ में आज की उपयोगी चर्चा। मान, सम्मान, बहुमान और अपमान। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसके मन में मान न हो। हर व्यक्ति के भीतर मान है। बिना मान के कोई जीता नहीं। कर्म शास्त्र की भाषा में अगर हम बात करें तो मनुष्य के अंदर सबसे ज्यादा मान की बहुलता होती है। क्रोध मान माया लोभ ये चार कषाय हैं। इनमें से नारकियों में क्रोध की बहुलता होती है। मनुष्यों में मान की, तिर्यच्चों में माया की और देवों में लोभ की। मान है तो सबके अन्दर पर हीनाधि क रूप में हो सकता है। मान चाहते भी सब हैं पर मैं आप से कहता हूँ कि मान की एक सीमा बांधे कि मान क्या है? आप उसे कितना जिएँ और कितना त्यागें ये आज हमें समझना है। संत कहते हैं- मान से बचो। मान का मतलब है अपने अंदर अतिरिक्त समान की चाहत जिसे गर्व, घमण्ड और मद के रूप में जाना जाता है। ऐसा व्यक्ति जिसके मन में ऐसा विचार आता है अपने आप को श्रेष्ठ बनाने और बताने की जिसके अंदर प्रवृत्ति होती है वह मान का अविकसित रूप है। लोग आपका आदर करे, सत्कार करे, सम्मान करे, वहे अलग बात लेकिन लोग मुझे ही आदर दें, मुझे ही सम्मान दें, मेरा ही =त्कार करें -ये अलग बात। लोग आपको अच्छा मानें ये अलग बात पर मैं ही अच्छा हूँ ये अलग बात। लोग आपको श्रेष्ठ बताएँ अलग बात पर मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं ये अलग बात। आज बचना है मान के उस विकृत रूप से जो मनुष्य को सबसे अलग-थलग कर देता है। वह क्या है? अपने आप को ऊँचा मानने की प्रवृत्ति बाकी सबको ओछा साबित करने की दृष्टि -ये मान का एक बड़ा विकृत रूप है। अपने अंदर झाँककर देखो कि ऐसा कोई मान आपके भीतर जो नहीं है जिसे दूसरे शब्दों में गुमान भी कहा जाता है। मुझसे अच्छा इस दुनिया में कोई नहीं यदि ये परिणति है तो समझ लेना दुम धर्म को क्षेत्र से बहुत दूर हो। सन्त कहते है जो अपने आप को बड़ा मानता है परमार्थ की निगाह में वह सबसे छोटा होता है। बड़ा मानने से कोई बड़ा नहीं होता; बडप्पन के कार्य करने से ही इंसान बड़ा होता है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ये मत सोचो कि मैं सबसे बड़ा हूँ ऐसा कुछ करो कि दुनिया खुद तुम्हें बड़ा मानने को तैयार हो जाए। मानी (मान से युक्त) व्यक्ति की प्रवृत्ति कुछ अलग प्रकार की होती है। उसके मन में ऐसी लालसा और ललक होती है कि सारी दुनिया मुझे अपने सिर पर बैठाए। सन्त कहते है जो दुनिया के सिर पर बैठने की चाहत रखते हैं दुनिया उन्हें पाँव तले रौद डालती है। दुनिया के सिर पर बैठने की कोशिश करने की जगह ऐसे कर्म करो कि लोग तुम्हें सिर पर बैठाने के लिए लालायित हो उठे। किसी के सिर पर बैठने की कोशिश करोगे तो नियमत: दबा दिए जाओगे और उच्च आचरण करोगे तो दुनिया तुम्हें अपने आप सिर पर बैठा लेगी। जो अपने कार्य करता है दुनिया उसे कभी भूलती नहीं। अच्छा कर्म करो परिणाम अपने आप अच्छा मिलेगा। मान मत करो माननीय बनने का यत्न करो। तुम्हारे अंदर कितनी भी अच्छाई हो, कितने भी गुण हों, कितनी भी शक्ति और साधन हो कभी भी उनका मान मत करो क्योंकि तुम्हारी अच्छाईयाँ, तुम्हारे गुण, तुम्हारी शक्ति और तुम्हारे साधन मान करने लायक हैं ही नहीं। किनका मान करते हो आप? मेरे पास पैसा है इसका मान, मेरा रूप है इसका मान, मेरे पास शक्ति है इसका मान, मेरी प्रतिष्ठा है इसका मान, अगर साधक जीवन हो गया तो मैं बड़ा तपस्वी हूँ इसका मान, थोड़ा ज्ञान पा लिया तो मैं ज्ञानी हूँ इसका मान? यही न मान के रूप और आधार हैं? पैसे का मान करते हो? पैसा किसी के भी साथ स्थायी नहीं रहा। आज तक किसी की सम्पदा किसी के साथ स्थायी नहीं रही। चक्रवर्तियों को भी इस दुनिया से खाली हाथ जाना पड़ा। तुम किसका मान करते हो? ये तो कर्म के उदय से अनुकूल संयोग तुम्हें मिले हैं इसलिए ये सब तुम्हारे पास है। जब तक कर्म की अनुकूलता है जब तक ये सब चीजें हैं। जिस दिन कर्म करवट बदलेगा सब "क-दफा हो जाएगा। टायर के अंदर जब तक हवा भरी रहती है जब तक वह बजन उठाने में समर्थ होता है। 50-50 टन तक का वजन उठाने में ट्रक का टायर समर्थ रहता है। लेकिन कब तक? जब तक उसमें हवा हो। टायर वजन उठाते समय यह भ्रम पाल ने कि मैं कितना ताकतवर हूँ, इतना-इतना वजन उठाने की क्षमता = पास है तो इसे टायर का भ्रम ही कहा जाएगा क्योंकि वजन टायर अपने दम पर नहीं उठा पा रहा है वह तभी उठा रहा है जब तक कि उसमें हवा है। बंधुओं मैं भी आपसे कहता हूँ तुम्हारे ठाट-बाट तभी तक हैं जब तक अनुकूल संयोंगों की हवा है। हवा बदलते ही तुम्हारी हवा डिस्क जाएगी। कब किसके साथ क्या हो जाए इसका कोई भरोसा नही है जो इस सच्चाई को जानते हैं वे कभी मान नहीं करते हैं। मान करने योग्य है ही नहीं। किसका मान करूं? जिसका मैं मान करता हूँ वह मेरा है ही नहीं। ये सब कर्म के संयोग से प्राप्त परिणतियाँ हैं जो तुम्हें प्राप्त हुई; तुम उनका मान करते हो। ये मान करने योग्य ही नहीं है। इसमें किसी प्रकार का मान करना भी नहीं चाहिए | अहम से मान एक बार कागज का एक टुकड़ा हवा के वेग से उड़ा और चवत के शिखर पर जा पहुँचा। पर्वत ने उसका आत्मीय स्वागत किया और कहा- भाई! यहाँ कैसे पधारे? कागज ने कहा- अपने दन पर। जैसे ही कागज ने अकड़कर कहा अपने दम पर और तभी डवा का एक दूसरा झोंका आया और कागज को उड़ा ले गया। अगले ही पल वह कागज नाली में गिरकर गल-सड़ गया। बन्धुओं जो दशा एक कागज की है वही दशा तुम्हारी है। पुण्य की अनुकूल वायु का वेग आता है तो तुम्हें शिखर पर पहुँचा देता है और पाप का झोंका आता है तो रसातल पर पहुँचा देता है। किसका मान? किसका गुमान? संत कहते हैं जीवन की सच्चाई को समझो। संसार के सारे संयोग मेरे अधीन नहीं हैं। कर्म के अधीन हैं और कर्म कब केसा करवट बदल ले भरोसा नहीं। इसलिए कर्माधीन परिस्थितियों का मान केसा? मान अज्ञानता की पहचान है। जिसके हृदय में अज्ञान होता है वही मान करता है। जो वास्तविकता जानता है वह कहता है किसका मान करूं? राजा को रंक और रंक को राजा बनते, करोड़पति को रोड़पति और रोड़पति को करोड़पति बनते, पंडित को पागल और मूर्ख को पंडित बनते, रूपवान को कुरूप और कुरूप को रूपवान बनते देर नहीं लगती। ये दुनिया है, पल-पल बदलती है। कब किसके साथ क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। कब किसकी लॉटरी खुले और कब किसकी लुटिया डूबे कोई गारंटी नहीं। खेल है। चक्र है, चल रहा है। तुम किसका अभिमान करते ही दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो वैभव के शिखर पर पहुँचे पर फिर भी वह उनके साथ नहीं रहा। उन्हें अपने जीवन में दुर्दिनों का सामना करना पड़ा। जिन्होंने खूब अच्छा रूप पाया लेकिन वे भी विद्रुप हो गए। मानव के जीवन में बहुत सारी चीजें होती है। आज मुझे चार बाते करनी हैं। पहली बात जिन संयोंगों के कारण आप मान करते हो उनमें मान करने जैसा कुछ भी नहीं और जो आज स्वयं को बड़ा मान रहे हो कल छोटा बनने में देर नहीं लगेगी। जो आज तुम्हें छोटा दिखाई पड़ रहा है कल वह तुमसे भी उच्च बन सकता है। सड़क के किनारे एक पत्थर पड़ा था। पत्थर के बगल में गुलाब का फूल था, गुलाब का फूल हमेशा उस पत्थर का उपहास करता, मजाक करता- तुम्हारी भी क्या जिंदगी है, तुम्हें कोई पूछता भी नहीं। बस एक जगह ठहर कर ही रह गए हो। ज्यादा से ज्यादा लोग तुम पर आकर बैठ जाते हैं। इसके अलावा तुम्हारा कोई उपयोग नहीं। गुलाब की बात सुनकर पत्थर मन मसोसकर रह जाता। एक दिन एक राहगीर की नजर उस पत्थर पर पड़ी। वह राहगीर एक शिल्पी था। उसने उस पत्थर की सलीके से निकाला, अपने घर लाया और घर लाकर उसे तरासना शुरू कर दिया। तरासते-तरासते उसे सुंदर प्रतिमा का रूप प्रदान कर दिया। उस भव्य प्रतिमा में भगवान का रूप मानकर उसने अपने पूजा घर में उसे विराजमान किया। अगले दिन जब पूजा के लिए भगवान के चरणों में जो फूल-चढ़ाया गया वह वही फूल था जो कुछ दिन पहले तक उस पत्थर का उपहास कर रहा था। पत्थर की प्रतिमा ने उस फूल को देखा तो मुस्कुराकर रह गई। बंधुओं! यह कहानी, हर एक इंसान की कहानी है। जो आज एक अनाथ है नर-नाथ कल होता वही। जो आज उत्सव मग्न है कल शोक कर रोता वही। जितने भी संयोग हैं वे सभी नश्वर हैं। रूपवान कुरूप बन सकता है, धनवान निर्धन बन सकता है, और जिसका रसूख है, साख है, रुतबा है ऐसा नामचीन व्यक्ति भी गुमनामी का शिकार बन सकता है। यह सब कर्म का खेल है। किस पर भरोसा और किसका मद? ये तुम्हारे अज्ञानता की पहचान है। दो मित्र थे। एक बहुत गोरा और रूपवान था तथा दूसरा काला और कुरूप था। दोनो के स्वभाव में भी बड़ा अंतर था। जो सुंदर गोरा था वह बड़ा अभिमानी था और जो काला था वह बड़ा विनम्र था। गोरा जब भी काले से मिलता तो उसका उपहास करता, मजाक उड़ाता और कभी उसका वास्तविक नाम लेकर भी नहीं बुलाता। हमेशा कालिया-कालिया कहकर पुकारता। लेकिन काला गोरे की सब बातों को बहुत सहज भाव से स्वीकार कर लेता। दोनों में परस्पर विरुद्ध विचार होने के बाद भी दोनों की मित्रता चलती रही। इस मित्रता का मूल कारण काले की विनम्रता थी। लेकिन एक दिन गोरे ने काले से कहा कि तुम मेरे साथ मत रहा करो। बोला क्यों? क्योंकि तुम मेरे साथ रहते हो तो मेरा सौंदर्य प्रभावित हो जाता है। तुम बड़े कुरूप हो। मेरे साथ मत रहा करो। गोरे की बात सुनकर काले ने जो बात कही वह बहुत गम्भीर और महत्वपूर्ण है। उसने कहा- भाई ठीक कहते हो, यदि मेरे और तुम्हारे साथ रहने से तुम्हारा सौंदर्य प्रभावित होता है तो मैं ऐसा नहीं करूंगा। अब अलग रहा करूंगा। लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आती तुम कहते हो कि मैं तुम्हारे साथ रहता हूँ तो तुम्हारा सौंदर्य बिगड़ता है जबकि मेरी धारणा ये है कि मेरे तुम्हारे साथ रहने से तुम्हारा सौंदर्य और निखरता ही है। अपितु तुम मेरे साथ रहो तो मेरा सौंदर्य बिगड़ सकता है। गोरा तमतमा गया। ये क्या बकते हो? बदसूरत सी शकल और ऊपर से मुँह लड़ाते हो। शर्म नहीं आती। उसने कहा ऐसी बात नहीं है। दरअसल बात ये है कि तुम्हारे गोरे बदन पर मेरे शरीर का एक छोटा सा कण भी लग जाएगा तो तिल बनकर तुम्हारा सौंदर्य निखार देगा लेकिन तुम्हारे गोरे शरीर का एक कण मेरे काले शरीर में लग जाए तो कोढ़ बनकर मेरे सारे सौंदर्य को नष्ट कर देगा। बंधुओं बात बहुत सोचने की है। ये गोरा-काला चलता रहता है। किसका मद करना? कर्म के संयोग को समझने वाले व्यक्ति के मन में मान नहीं होता। दूसरी बात मान करने वाला सदैव अज्ञानी होता है। आप जिस किसी भी चीज का मान करते हो वह बाह्य संयोगों का मान है। ये अज्ञानता की ही तो पहचान है। ये तो ठीक वैसा है जैसे किसी व्यक्ति ने किसी से कहा कि भैया ये मेरा पस पकड़ी; मैं अभी पूजा में बैठ रहा हूँ जब आऊँगा तो वापिस लौटा बात मान लो उसने उसमें कुछ बहुमूल्य जेवर और कुछ रुपए रखे | दस-बीस लाख रुपए उस आदमी को सम्हालने के लिए मिले था किन्तु वह तो अपने आप को उसका मालिक मान बैठा और अभिमान करने लगा कि मेरे पास इतना माल है। उस आदमी को आप क्या कहोगे जो ऐसा सौच कर अभीमान करने लगे कि देखो मेरे पास इतना धन है, मेरे पास इतना पैसा है, मेरे था ये साधन हैं। उस व्यक्ति को आप पैसे वाला बोलोगे या मूर्ख बोलोगे | कहा है वह मुर्ख? वह मुर्ख कौन है? तुम्हारे पास जो भी दौलत है जितनी भी शोहरत है और तुम्हारी जो ये सेहत है किसने दी? या बाह तुम्हारी है? किसकी है? ईमानदारी से बोलो तो ये सब था कम की धरोहर है। किसी की धरोहर को अपना मानकर उस या वाचमान करना कौन सी बुद्धिमत्ता है? यह अज्ञानता का परिचय जो बुरा तो नहीं लगेगा? अपनी मुर्खता पर तनिक विचार करो। अपनी अज्ञानता के बारे बाचो इस नादानी पर सोचो। ये नादानी जिस मनुष्य के मन या बाइनो है वह कभी अपने जीवन का कल्याण नहीं कर सकता। याजक पदार्थ कर्म के संयोग हैं, पुण्य की धरोहर हैं और नश्वर ड को भी नष्ट हो जाने वाले हैं। संसार में देखें तो मुझसे भी बाड-बड़े लोग बैठे हैं, मैं तो बहुत छोटा हूँ यदि ये बात तुम्हारे या में आ जाए तो तुम्हारे मन में कभी मान प्रकट नहीं होगा। चार बातों से मान का शमन होता है। संसार के सभी संयोगों कर्मायत(कर्म को अधीन) मानो, संसार को सभी संयोगो कर्म को धरोहर मानो संसार के सारे संयोगों को नश्वर मानो और या ने पास जो है उसे अपने से अधिक वालों से मिलाकर देखो जी तो समझ में आएगा कि औरों के सामने तो मैं बहुत कम हूँ। मेरे पास कितना सा धन है? इस दुनिया में मुझसे बड़े-बड़े धनवान चक्रवर्ती जैसे आए और चले गए। मेरा क्या रूप है? मुझसे भी बड़े-बड़े रूपवान इस दुनिया में आकर चले गए और आज भी रहते हैं। मेरे पास ज्ञान का कितना सा अंश है? मुझसे भी बड़े-बडे ज्ञानवान इस दुनिया में हैं। मैं जितना मशहूर हूँ उससे भी ज्यादा प्रतिष्ठित लोग इस दुनिया में हैं। मेरा जितना नाम है उससे ज्यादा नामचीन लोग इस दुनिया में हैं। मुझे तो बहुत थोड़े लोग जानते हैं, दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनको सारे लोग जानते हैं पर दुनिया कितना भी जाने और कितना भी पहचाने कोई सदा के लिए टिकने वाला नहीं है। यदि चार बातों को ध्यान में रखोगे तो मन में कभी मान नहीं आएगा। बंधुओं! मान से बचिए। मान व्यक्ति के रग-रग में भरा हुआ है। मान का ही एक विरोधी पक्ष है जिसको बोलते है दीनता। मान और दीनता दोनों मन के विकार हैं। न मान करो, न अभिमान करो और न ही दीनता का भाव मन में आने दो। अभिमान मनुष्य की सोच को संकीर्ण बनाता है और दीनता के कारण मनुष्य के मन में हीन भावना आती है। अभिमानी व्यक्ति दूसरों का अनादर और तिरस्कार करता है तथा दीन-हीन व्यक्ति अपने आप में बहुत हीन-भावना से ग्रसित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में दो शब्द हैं- सुपीरियारिटी कॉम्प्लेक्स और इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स। ये कॉम्प्लेक्सही ग्रंथियाँ हैं। शाखा ग्रंथि और राघव ग्रंथि। सुपीरियारिटी का भाव ही अभिमान है और इन्फीरियारिटी का भाव ही दीनता है। दोनों खतरनाक हैं। तुम सोचो धन का मद उन्हें होता है जिनके पास धन है; तो निर्धन को मद रहित होना चाहिए। उनके अंदर मार्दव धर्म आ जाना चाहिए। ज्ञान का मद उन्हें होता है जिनके पास ज्ञान है तो फिर अज्ञानियों को मद होना ही नहीं चाहिए। ज्ञान का मद ज्ञान से होता है या अज्ञान से होता है? सच्चे अर्थों में ज्ञानी को मद नहीं होता अज्ञानी ही मद करता है। ये हीन भावना भी एक प्रकार की नकारात्मक विचारधारा है। जो मनुष्य को अंदर से कमजोर करती है। इससे भी अपने आप को बचाकर रखना चाहिए। व्यक्ति के पास दो आँखें होती हैं। किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं और किसी की आँखे ऐसी होती हैं जो केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। मैं समझता हूँ अभिमानी की आँखे पास का देखती हैं दूर का नहीं देख पातीं। वह खुद को देखता है और अपने आस-पास की दुनिया को नहीं देख पाता। जो आत्मविमुग्धता में जीता रहता है वह अभिमानी है। दीन व्यक्ति की आँखें केवल दूर का देखती हैं पास का नहीं देख पातीं। उसे दूसरे लोगों की चीज दिखती है, दूसरे लोगों की सफलताएँ दिखती हैं, अपने अतीत की बातें दिखती हैं, अपने भविष्य की बातें दिखती हैं, वर्तमान की नहीं दिखतीं इसलिए वह हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हो जाता है। मार्दव धर्म को प्राप्त करने का मतलब अपनी आँख में एक का भी दिखा सके और पास का भी दिखा सके। जब आत्मविमुग्ध ता की भावना आए तो औरों को देखकर विचार करो कि उनके आगे मैं बहुत छोटा हूँ और जब मन में हीनता की भावना आने लगे तो अपने भीतर के गुणों को देखो मैं तो अनंतगुणों का धाम हूँ पर मैं नश्वर हूँ। मुझमें कोई अंतर नहीं है तथा मैं समान हूँ। आपके अंदर की हीनता की ग्रंथि भी खत्म होगी और अभिमान भी नष्ट होगा। मान मत करो। जब-जब मान करोगे तो दुखी होगे। मानवजीवन के दु:ख का कारण मान ही है। मनुष्य अपने मान के कारण ज्यादा दुखी होता है। अब मैं आपसे कह रहा हूँ मान की सीमा कितनी बड़ी होती है। जो चार बातें अभी मैंने आपसे कहीं यदि आप उन्हें विचारपूर्वक अपने हृदय में स्थापित कर लोगे तो मन शांत होगा। फिर भी यदि आपके अंदर मान है तो मान को सीमित करो। मान के लिए एक शब्द चल पड़ा 'ईगो'(अह) हर बात में ईगो प्रॉब्लम्। सभी व्यक्तियों के बीच ईगो प्रॉब्लम् आ जाती है। सन्त कहते हैं ईगो प्रॉब्लम् नहीं, ईगो ही प्रॉब्लम् है। छोटी-छोटी बातों पर मन में जो प्रॉब्लम् आती है वह ईगो के कारण आती है। मैं आपको कुछ सीमा बाँधने के लिए कहता हूँ। जिस जगह आपके संबंध खराब होने लगें वहाँ अपने मान की तिलांजलि देना शुरु कर दी। संबंध खराब हों इससे अच्छा है आप अपने मान को तिलान्जलि दे दो। पिता–पुत्र की बात हो, पति-पत्नी की बात हो, भाई-भाई की बात हो और अड़ोसी-पड़ोसी की बात हो, समाज में किसी भी व्यक्ति की बात ही आप उसकी शांत करो। क्या करें? मनुष्य के मन की दुर्बलता है। कोई बात हो जाए तो हम कैसे कहें? हम नहीं कह सकते। व्यक्ति खोटा बनने को तैयार है पर छोटा बनना नहीं चाहता। मैं कैसे कहूँ ये बात छोड़ी। अगर कहीं कुछ गड़बड़ है तो तुरंत उसका समाधान निकाल लो, संबंध खराब मत करो। अपने थोड़े से मान की पुष्टि के पीछे अपने संबंध बिगाड़ रहे हो तो समझ लो अपने जीवन को बर्बाद कर रहे हो। जिनसे मेरे संबंध हैं उनके आगे मैं मान को आड़े नहीं आने दूँगा। यदि मुझे अपने मान को विसर्जित करना पड़े तो मैं विसर्जित करूंगा पर अपने संबंध बिगाड़ने की कोशिश नहीं करूंगा। महाराज! ऐसा करने में बड़ी तकलीफ होती है। एक पति-पत्नी थे। संयोग ऐसा कि पत्नी का पैकेज ज्यादा था पति का पैकेज कम। जब दोनों जॉब वाले, नौकरी पेशा वाले हों तो उन लोगों की हालत बड़ी खराब हो जाती है। पति-पत्नी का सम्बन्ध नितांन भावात्मक सम्बन्ध होना चाहिए। लेकिन वहाँ दोनों के बीच पैसा आ गया। पत्नी कुछ इगोइस्ट(घमण्डी) हो गई। कोई भी बात हो तो कहती मैं तुमसे कम थोड़ी हूँ। वह पत्नी हमेशा अपने पति को कमतर औाँकने की कोशिश करती पर पति ऐसा था कि वह अपने आपको कभी भी कम साबित नहीं होने देता, सदा पत्नी पर हावी रहने की कोशिश करता। एक बार किसी मुद्दे पर दोनों के बीच में बड़ी तकरार हो गई और तकरार ऐसी हुई कि दोनों की बातचीत तक बंद हो गई। दोनों धार्मिक थे। एक दिन पति ने एकांत में मुझसे कहा- महाराज जी! आप थोड़ा मेरी धर्मपत्नी को समझाओ कि पत्नी का धर्म क्या होता है। मैंने कहा- भैया! ये तेरा धर्म नहीं की तुम मुझसे अपनी पत्नी की शिकायत करो। तुम कहते हो पत्नी का धर्म क्या होता है। मैं तो तुम्हें अभी तुम्हारा धर्म समझाता हूँ कि पति का धर्म क्या होता है। पहला धर्म तो पति का यह है कि पत्नी की शिकायत किसी के पास न करे और तू मेरे पास आया है कि पत्नी का धर्म बताओ क्या बात है? महाराज! हर चीज में बहस करती है और जो मन में आए बोल देती है। कुछ दिनों से जब वह इस तरह की बातें ज्यादा करने लगी तो मैंने बात करना बंद कर दिया। मैंने कहा- भैया! समाध न करो, आपस में बात करो। पति-पत्नी हो, जिंदगी भर लड़ने के लिए थोड़ी न शादी किए हो, जीवन को अच्छे से जीने के लिए शादी किए हो, आपस में निभाओ। बोला- महाराज! मैं सोचता तो हूँ पर मन में ये बात आ जाती है कि मैं क्यों जाऊँ वह आ जाए। मैं बोला- अशांत तुम ज्यादा हो कि वह? बोला- महाराज! वह तो बड़ी मस्त दिखती है, अशांति मुझे होती है। महाराज! क्या करूं बहुत सारे काम ऐसे हैं जो उसके बिना होते ही नहीं हैं। मैंने कहातो जाकर बात कर ली। बोला महाराज! मैं क्यों जाऊँ उसके पास? हमने कहा- समाधान चाहिए तुझे और आए वह। ये कैसे होगा? मैंने उसे समझाया- एक बात बताओ यदि कोई जेबकतरा तुम्हारी जेब काट ले तो समाधान के लिए तुम जेबकतरे के पास जाओगे कि उल्टा जेबकतरा तुम्हारे पास आएगा। क्या करोगे आप? जेबकतरे के पास भागोगे कि जेबकतरा आपके पास आएगा। जिसे समाधान चाहिए उसे सामने वाले के पास जाना चाहिए। मैंने उसे समझाया और कहा- जाओ जाकर अपनी धर्म पत्नी से क्षमा माँगों और कही गुस्से में मैंने जो कुछ कह दिया सो कह दिया। ठीक है तुम्हारी सैलरी(तनख्वाह) अधिक है, तुम्हारा पैकेज अधिक है और तुम मेरा बहुत ध्यान भी रखती हो। मैं आज से तुम्हें श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ और अपनी लघुता को स्वीकार करता हूँ। काम हो सकता है पर बहुत कठिन है। अहंकार साधना के लिए तैयार हो जाएगा पर समर्पण के लिए तैयार नहीं होता। महाराज! आप कोई व्रत उपवास बता दी, कोई नियम दे दो वह हम निभा लेंगे लेकिन सामने वाले के आगे झुकेंगे नहीं। झुकना बहुत मुश्किल है। ध्यान रखना झुकोगे तो मजबूत बनोगे और अकड़ोगे तो टूट जाओगे। जहाँ संबंध खराब होने लगें वहाँ अपने अभिमान को गौण कर दो। लेकिन क्या करें 'मैं' तो आज कल बच्चे-बच्चे में भरा पड़ा है। छोटा सा बच्चा भी बड़ा इगोइस्ट(घमण्डी) होता है। उसके मन के विरुद्ध कुछ कर दो तो देखो बच्चा कैसे पैतरा बदलता है। एक बच्चा अचानक रोना शुरु कर दिया और रोया तो माँ ने पूछा- बेटा क्यों रो रहे हो? बोला मैं गिर गया था। कब गिरा था? 9 बजे। तो अभी क्यों रो रहे हो? बच्चा बोला- उस समय कोई देखने वाला नहीं था। बच्चा तभी रोता है जब कोई देखने वाला होता है। ये मान बहुत खतरनाक होता है। इससे अपने आप को बचाना चाहिए। जहाँ मन की शांति भंग होने लगे वहाँ अहंकार की पुष्टि मत करो। धर्म का कार्य जहाँ करना हो वहाँ अहंकार को पुष्ट मत करो। यदि सम्बन्धों में खलल आए तो अहकार को तिलांजलि दे दो, मन की शांति खण्डित होने लगे तो अहकार को तिलांजलि दे दी, धर्म कार्य में बाधा आने लगे तो अहकार को तिलांजलि दे दो। यदि इन तीन जगह में आप अपने अहम की पुष्टि बंद कर दोगे तो आपके जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन घटित हो सकता है। हम से सम्मान पहली बात कभी मान न करें। दूसरा है सम्मान। सम्मान मतलब आदर। क्या करें मार्दव धर्म कहता है औरों का सम्मान करो, खुद सम्मान की चाह मत करो। दूसरों का सम्मान करना मतलब आदर करना, विनय करना। यदि कोई तुमसे छोटा भी हो पर किसी तरह किसी गुण में तुमसे श्रेष्ठ है तो विनम्र बन जाओ, उसका सम्मान करो, उसका सत्कार करो, उसका आदर करो। जो महान लोग होते हैं वे खुद का कभी मान नहीं करते। चाहे कितने ऊँचे क्यों न हो जाएँ पर दूसरों का सदैव सम्मान करते हैं। सम्मान करना विनम्रता की पहचान है। जो एक अच्छे मनुष्य के भीतर अनिवार्यत: होती है। मान नहीं करना और सम्मान में पीछे नहीं हटना। खुद का सम्मान नहीं चाहना, औरों का सम्मान करना। ध्यान रखना सम्मान देने वाला खुद सम्मानित हो जाता है लेकिन सम्मान की चाह रखने वाले को कोई नहीं चाहता। अत: गुणवानों का सम्मान करो। किसी के अंदर कोई गुण है तो उसका आदर करो, उसका सत्कार करो, उसे प्रोत्साहित करो चाहे वह छोटा हो तो और बड़ा हो तो। दूसरों को श्रेय देने की आदत अपनाइए। दूसरों को क्रेडिट(श्रेय) देने का स्वभाव बनाइए। अहकारी व्यक्ति कभी किसी को श्रेय नहीं दे सकता। वह सारा श्रेय अपने ऊपर लेना चाहता है। कभी-कभी तो उसकी स्थिति बड़ी हास्यास्पद हो जाती है। अहम को पुष्ट करने के लिए तरह-तरह कर लेता है। एक पिता अपने बेटे के साथ माउंट आबू गया। दोनों सनसेट पॉइन्ट पर थे। सूरज डूबने ही वाला था। पिता बड़ा अभिमानी था उसने अपने चार साल के बेटे से कहा- बेटा! देख मेरी ताकत देखना चाहता है? बेटा बोला- दिखाइए न पापा। मेरी ताकत देखना चाहता है न? देख सामने सूरज है न, अभी मैं उससे कहूँगा डूब जाओ तो सूरज डूब जाएगा। बेटे को बड़ा अच्छा लगा मेरे पिता जी इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि सूरज को भी डुबा सकते हैं। वह बोला- पापा करके बताओ। सूरज डूबने वाला था, पिता ने दूर से कहा 'go dwon' और इतना कहते ही सूरज डूब गया। पिता ने बड़े अभिमान से अकड़ते हुए कहा- बेटा देख ली मेरी ताकत। बेटे ने कहा हाँ पापा बहोत अछि ताकत है Please ones again, Please Try ones again दुबारा करके बताओ। अब पिता क्या बताए? सब धरा रह गया। इसलिए कभी भी अभिमान मत करो और सम्मान में कभी चूक मत करो। छोटा बच्चा हो या बड़ा व्यक्ति यदि किसी में कोई गुण है तो उस गुण का मूल्यांकन करो, किसी के द्वारा कोई भी अच्छाई दिखती है तो उसका क्रेडिट उसको दो। क्रेडिट खुद मत लो हमेशा दूसरों को दी। श्रेय लेने वाले को कोई नहीं पूछता और श्रेय देने वाले के सब कायल हो जाते हैं। मैं एक स्थान पर था। वहाँ के एक प्रमुख कार्यकर्ता की एक बड़ी अच्छी विशेषता देखी कि वह छोटे से छोटे कार्यकर्ताओं को लेकर हमारे पास आते, परिचय कराते और कहते महाराज ये आदमी बहुत अच्छा काम करता है। प्रोत्साहन और श्रेय देते और कहते ये काम इसके द्वारा हुआ, ये काम इसके द्वारा हुआ और ये काम इसके द्वारा हुआ। यद्यपि सबको पता है कि सब कार्यों में केन्द्रीय भूमिका किसकी है लेकिन वह सारा क्रेडिट(श्रेय) औरों को बांटता। औरों को बांटने का नतीजा ये निकलता कि उन सबकी क्रेडिट इस अकेले को मिल जाती। जो बाँटता है वह पा जाता है और जो बटोरता है उसका सब लूट लिया जाता है। अत: क्रेडिट देना सीखिए घर परिवार से लेकर समाज तक। आपके परिवार में चार सदस्य हैं। मानता हूँ परिवार के संचालन में तुम्हारी केन्द्रीय भूमिका होगी लेकिन कितनी भी कोन्द्रीय भूमिका हो, कितनी भी बडी भूमिका क्यों न हो, उस भूमिका के मध्य भी आप इतने मतवाले मत बनिए कि जो कुछ हूँ सो मैं ही हूँ। जो कुछ हूँ सो मैं ही हूँ ये अज्ञान है। 'मैं' के साथ 'भी' लग जाए तो ज्ञान होगा। मैं नहीं तुम भी। मैं तो बहुत छोटा हूँ और लोग भी हैं, मुझे सबको देखना है और सबके साथ चलना है। ये परिणति अपने अंदर होनी चाहिए। यदि आप दूसरों को श्रेय बाँटोगे तो लोग आपके कायल बनेंगे, आपके प्रशंसक बनेंगे। और यदि सारा श्रेय खुद लूटने की कोशिश करोगे तो लोग कहेंगे बड़ा विचित्र आदमी है, करते हम हैं और माला खुद पहनते हैं। जीवन में ऐसा काम करो कि लोग तुम्हें माला पहनाने के लिए पागल हो जाएँ। ध्यान से सुनना जीवन में ऐसा काम करो कि लोग तुम्हें माला पहनाने के लिए पागल हो उठे पर ऐसा काम कभी मत करो कि लोग तुम्हें माला पहनाएँ। लोग मुझे माला पहनाएँ इस भाव से काम कभी मत करो ऐसा काम कर दो कि लोग पागल हो उठे माला पहनाने को। बहुत अंतर है। माला पहनने की चाह रखोगे तो लोग माला भी पहनाएँगे और गाली भी देंगे। दूसरों को श्रेय देने वाले को खुद श्रेय मिलता है और सारा श्रेय खुद ले लेने वाले लोग प्राय: आलोचना के पात्र बनते हैं। एक स्थान पर चातुर्मास चल रहा था। चातुर्मास में बहुत सारे कार्यकर्ताओं की जरूरत पड़ती है। यहाँ भी पूरी टीम लगी हुई है, सैकड़ों लोग लगे हुए हैं तब ये सारी व्यवस्था है। नजर में तो दो-चार लोग ही आ रहे हैं। ये मत सोचना कि जो दो चार लोग सामने नजर आ रहे हैं उनके बलबूते सारा काम हो रहा है। मार्गदर्शन उनका है, उनकी केन्द्रीय भूमिका है लेकिन बहुत सारे लोग मिलते हैं तब कोई कार्य सम्पन्न होता है। उस स्थान की चातुर्मास कमेटी के अध्यक्ष के मन में एक भावना जगी कि मुझे इस चातुर्मास में सम्मानित किया जाए। दरअसल वह किसी जगह गए थे तो वहाँ देखा कि वहाँ के मुख्य व्यक्ति ने बहुत अच्छा काम किया तो वहाँ की पूरी स्थानीय समाज ने मिलकर उनका बहुमान किया, सम्मान किया। उसे देखकर एक भावना उनके मन में आ गई कि मेरा भी सम्मान होना चाहिए। जिसको सम्मान की चाह है वह बहुत बड़ा मानी है। मानी की दो पहचान हैं- जो सम्मान की चाह करे वह मानी और जो थोड़ा भी अपमान बर्दाश्त न कर सके वह भी मानी। सम्मान की चाह रखने वाला मानी है। उनके मन में यह चाहत थी। अब वह चाहे कि यहाँ भी वैसा ही एक कार्यक्रम हो पर अपने मुँह से कैसे कहें? अपने एक साथी से कहा कि महाराज से कहो कि ऐसा कार्यक्रम यहाँ रखा जाए। मैं देखता था कि इस आदमी में क्या दुर्बलता है। इस कार्यक्रम की यहाँ आवश्यकता नहीं क्यों कि यह व्यक्ति उस लायक नहीं है इसलिए मैंने बात टाल दी। तीन-चार दिन बाद पिच्छी परिवर्तन का कार्यक्रम था। वह आदमी चाहता था कि उस आयोजन में मेरा सम्मान हो। अब तो उसने खुद ही आकर बोल दिया। मान में आदमी को शर्म नहीं लगती। जिसको मान की चाह होती है वह अपना अपमान खुद करवा लेता है। और बोलते-बोलते बोल दिया महाराज लोग मुझे बहुत चाहते हैं। आप अभी हमको जानते नहीं हैं। मैंने कहा- अभी तक तो नहीं जानता था पर आज जान गया। आपको कार्यक्रम कराने की इच्छा है करा लीजिए पर मेरा सोचना तो ये था कि आप आयोजक हैं; आपको पहले औरों को श्रेय देना चाहिए, औरों का सम्मान कराना चाहिए और फिर उस दिन इतना समय नहीं रहेगा इसलिए फिर किसी दिन ऐसा आयोजन करके अपने सारे कार्यकर्ताओं का सम्मान करो, तुम सम्मान दो; सम्मान लो मत। बात जैंची नहीं और उन्होंने येन-केन उपायेन अपना कार्यक्रम जुड़वा लिया। मैं भी न्यूट्रल (तटस्थ) हो गया। आप सुनकर ताजुब्ब करोगे दस हजार लोगों की उपस्थिति में उस व्यक्ति का सम्मान किया गया पर एक आदमी ने भी उस व्यक्ति के सम्मान में ताली नहीं बजाई। अब बताओ ये सम्मान था कि अपमान? सम्मान करोगे सम्मानित होओगे। सम्मान चाहोगे अपमानित होना पड़ेगा। सूत्र अपने जीवन में ले लो- श्रेय बाँटोगे तो तुम्हें भी श्रेय मिलेगा और सारा श्रेय खुद लेने का प्रयास करोगे तो सब चला जाएगा। सीख लो आज से चाहे समाज की बात हो या घर परिवार की परिवार में अगर कोई काम हो तो में कुछ नहीं करने वाला करने वाला तो ये है | चाहे तुम्हारे भाई बंदु हो, चाहे तुम्हारे बेटे हो, चाहे तुम्हारी बहु हो, चाहे तुम्हारी बेटी हो, चाहे कोई भी हो | इनने किया में तो बस पीछे रहा , श्रेय दुसरो को दो देखो कितना मजा आता है | सामने ओ का तुम्हारे प्रति द्रष्टिकोण ही बदल जायेगा और सब र लोगे तू वो लोग र्तुम्हारे सामने कुछ नहीं बोले पर पिट पीछे कोसने में चुकेंगे नहीं बन्दुओ मेने कहा मान कभी नहीं करना, सम्मान की अपेक्षा मत करना और ओरो के सम्मान में कभी पीछे नहीं रहेना | करी विनय बहुगुण बड़े जन की नम्बर तीन बहुमान। मान सम्मान बहुमान। बहुमान का मतलब उत्कृष्ट आदर, सर्वोच्च विनय। बहुमान किनका, गुरुजनों का, माता-पिता का और जिन्होंने जीवन में तुम्हें आश्रय दिया उनका। इन तीन का पूर्णत: बहुमान करो, सपने में भी इनका अनादर न हो ऐसी प्रतिज्ञा मन में रखो ये बहुमान है। क्योंकि उनका तुम्हारे जीवन पर बड़ा उपकार है। माँ-बाप नहीं होते तो आज तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी है वह होता? तुम चाहे कितने भी ऊँचे क्यों न बन जाओ माँ-बाप को कभी मत भूलना, सदैव उनका बहुमान करना क्योंकि बच्चा चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए माँ-बाप के सामने तो बच्चा ही है। उनका बहुमान करो, उन्हें कभी भूलों मत, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट मत होने दो और अपने जीवन में होने वाली बड़ी से बड़ी उपलब्धि को भी उनके चरणों में अर्पित करते हुए यह कहो- ये आपकी कृपा से मुझे मिला है। ये आपके आशीर्वाद का फल है। आप आशीर्वाद दें कि मैं ऐसे ही आपके नाम को रोशन करता चलें। ये बहुमान का भाव माँ-बाप के प्रति है। अपने अंदर भाव जगाओ जिसने तुम्हें आश्रय दिया, जिसके निमित से तुमने व्यापार किया, कारोबार किया, अपने परिवार को चलाने में सक्षम कितने भी बड़े क्यों न बन जाओ। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो आज अरबपतियों में शुमार हैं। एक दिन वह व्यक्ति एक व्यक्ति को मेरे पास लाए और कहामहाराज जी! मेरे पिता जी इनके पिता जी के यहाँ नौकरी करते थे, इनका बड़ा उपकार है हमारे परिवार। पर हम लोग देश से यहाँ आए; अगर इनका परिवार नहीं होता तो आज हमारे पास कुछ भी नहीं होता। आज अरबपति बना हुआ है और जिस व्यक्ति से मेरा परिचय करा रहा है उस व्यक्ति की साधारण सी हालत। आज वह खुद नोकरी कर रहा है लेकिन सामने वाला अपना बड़प्पन दिखाते हुए कहे रहा है की महाराज हमारे पिताजी ने इनके यहाँ नोकरी करते हुए अपने कैरियर की शुरुआत की थी। आज हम जो कुछ भी हैं इनकी बदौलत हैं। की बात तो जाने दो अगर तुम्हारा कोई सगा भी होगा और यदि वह कमजोर हो गया तो बहुमान करने की बात तो बहुत दूर है, पहचानने में भी तुम पीछे हट जाओगे। बहुमान करो उनका जिनका तुम्हारे जीवन के निर्माण में किचित भी योगदान है। ये हमारा धर्म है। ये हमारा कर्तव्य है। ऐसी भावना हृदय में विकसित होनी चाहिए। गुरुजनों का बहुमान। गुरुओं का बहुमान क्या है? उनकी जय-जयकार करो, उनकी पूजा करो, उनकी भक्ति करो, उनके आगे-पीछे फिरो? गुरु का ये बहुमान नहीं है। ये बड़ा उथला बहुमान है, ऊपरी बहुमान है। गुरु का सच्चा बहुमान ये है कि गुरु के द्वारा दिए गए निर्देशों के विरुद्ध कोई आचरण मत करो। ये है गुरु का सच्चा बहुमान। तुम्हारे मन में गुरु के प्रति बहुमान है तो हमेशा इस बात का मन में भाव होना चाहिए कि मैं कोई काम करूं और बात गुरु के पास पहुँचे तो उनको अच्छा न लगे ऐसा काम मैं नहीं करूंगा। मेरे किसी कृत्य से मेरे गुरु को कोई तकलीफ हो ऐसा कोई भी काम मैं नहीं करूंगा। ऐसा कोई काम नहीं करूंगा कि मेरे गुरु के पास जाकर किसी को कहना पड़े कि वह व्यक्ति आपका बहुत भक्त बनता है न, वह ऐसा काम कर रहा है। मैं एक स्थान पर था। दिन में शादी, दिन में भोज का कार्यक्रम घोषित किया गया। पूरी समाज ने दिन में शादी, दिन में भोज, सारे वैवाहिक कार्यक्रम दिन में सम्पन्न करने का निर्णय लिया। निर्णय के एक माह बाद मैं बगल के गाँव में था जिसकी अध्यक्षता में ये सारा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उसके पोते का जन्मदिन था और उसने रात्रि-भोज दिया। कार्ड बंट गए। मेरे पास एक युवक आया। उसने कहा- महाराज! आपने इतना अच्छा नियम बनवाया और पूरे समाज में इसको लेकर बहुत अच्छी प्रतिक्रिया है। लेकिन महाराज जी! शायद आपने सुना होगा, नहीं सुना हो तो ये कार्ड मैं आपको दिखा रहा हूँ देखिए ये अध्यक्ष जी आपके बड़े भक्त माने जाते हैं, उनके घर का कार्यक्रम है। वह अपने बेटे के जन्मदिन पर रात्रि में भोज दे रहे है। मैंने कार्ड पढ़ा। मुझे थोड़ा अचम्भा हुआ कि ऐसा होना तो नहीं चाहिए पर मैं देख रहा हूँ। संयोगत: थोड़ी देर बाद वह सज्जन मेरे पास आए। मैंने उस कार्ड को उनकी तरफ रखते हुए कहा- ये कार्ड तुमने छपवाए? जी महाराज छपवाए तो हैं। तो क्या तुम्हारे यहाँ ऐसा आयोजन है? दोनों हाथ जोड़कर बोले महाराज! आयोजन तो था पर अब नहीं होगा। मैंने पूछा- बात क्या है? बोले महाराज जी! बिल्कुल सही बात है। पोते के जन्मदिन का कार्यक्रम था और बेटा माना नहीं। उसने कार्ड छपा लिए मुझे तो बाद में मालूम पड़ा। पोते और बेटे, दोनों ने यही कहा कि विवाह के भोज के लिए प्रतिबंध है जन्मदिन के लिए थोड़ी है। इसलिए ये कार्य कर लेंगे। लेकिन महाराज जी! ये बात आप तक पहुँच जाएगी मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी। मैं आज आपके पास आया हूँ जिस कार्य से मेरे गुरु को तकलीफ हो वह कार्य मैं सपने में भी नहीं करूंगा। ये कार्ड निरस्त करता हूँ। पाँच दिन बाद कार्यक्रम था। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं प्रेस विज्ञप्ति जारी करके अखबारों में विज्ञापन देकर इस कार्यक्रम को चेंज करूंगा(बदलेंगा)। कार्यक्रमस्थल बदल दिया, उसका समय बदल दिया और सफलता पूर्वक उनका आयोजन सम्पन्न हो गया। ये होता है गुरु का बहुमान। मुझे कहना भी नहीं पड़ा केवल उन्हें कार्ड दिखाना पडा। मैंने केवल इतना ही कहा कि ये आपका कार्ड है और इस कार्ड को अभी एक युवा लेकर आया है। तुम सोच लो तुम्हें क्या करना है। पल में परिवर्तन कर दिया। गुरु के प्रति तुम्हारे मन में बहुमान होगा तो एक इशारे पर जान देने को तैयार हो जाओगे और गुरु के प्रति तुम्हारे मन में सच्चा बहुमान नहीं होगा तो इधर से सुनोगे उधर से निकाल दोगे। कर कुछ भी नहीं पाओगे। गुरु को मानो या न मानो पर गुरु की जरूर मानो, उनका सच्चा बहुमान करो। यही तुम्हारे जीवन के गौरव को बढ़ाने वाला है। मान बिल्कुल मत करो। सम्मान औरों को दो और बहुमान उनका करो जिन्होंने तुम्हारे जीवन का निर्माण किया। चाहे माता-पिता हों या जीविका–दाता हो या गुरु हो। महाभारत के वृक्ष उगे अपमान के छींटो से चौथी बात अपमान किसी का मत करो। जीवन में कभी किसी का अपमान मत करो। तुम किसी का सम्मान न कर सको, चलेगा लेकिन कभी किसी का अपमान मत करो क्योंकि कोई मनुष्य एक बार अपमानित हो जाता है तो गांठ बाँध लेता है बैर की, विरोध की और फिर प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावना से झुलस कर वह सर्वनाश करने पर उतारू हो जाता है। दुर्योधन थोड़ी देर के लिए अपमानित हुआ महाभारत मच गया। वह महाभारत तो कुरुक्षेत्र की भूमि में लड़ा गया। अठारह दिन में खत्म हो गया। उसका जो अंजाम था लोगों ने एक बार देख लिया और भोग लिया पर तुम अपने इस प्रकार के व्यवहार के कारण रोज अपने घर में कितनी बार महाभारत मचाते ही इसका कुछ अंदाज है। तय करो हम किसी को अपमानित नहीं करेंगे। किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे जिससे सामने वाला तिरस्कृत, अनादृत, उपेक्षित या अपमानित महसूस करे। मनुष्य कब अपने आप को अपमानित महसूस करता है। जब उसकी संवेदनाओं पर गहरा आघात पहुँचता है। बड़े पद पर हैं लेकिन उनकी प्रवृत्ति में विनम्रता झलकती है, ऐसे लोग नौकर-चाकरों से भी जी लगाकर बोलते हैं। बंधुओं भद्रपुरुष की पहचान यही होती है। जिसकी भाषा में नम्रता और व्यवहार में विनम्रता हो वह व्यक्ति भद्र व्यक्ति कहलाता है। वह व्यक्ति किसी का भी अपमान नहीं करता। और जो भी व्यक्ति मिलता है उसका सम्मान करता है। अपमान से बचो और सम्मान में लगी। ये तुम्हारे जीवन का सबसे अच्छा सूत्र है। कभी किसी का अपमान मत करो और यदि कोई तुम्हारा अपमान कर भी दे तो अपने आप को अपमानित महसूस मत करो। लेकिन लोग हैं जो अपने आप को बड़ा मानते हैं, दूसरे को अपमानित करने में ही स्वयं को गौरवान्वित समझते हैं। पिता अपने बेटे को पीट रहा था। गुस्से में गालियाँ देते हुए बोला- बेटा मैं तुझे इसलिए पीट रहा हूँ क्योंकि मेरे मन में तेरे प्रति प्रेम है। बेटे ने कहा अच्छा पापा आपके पिता जी ने भी आपको पीटा था? बोले हाँ तभी तो अच्छा हूँ। अच्छा पिता जी के पिताजी ने भी पीटा था? बोले हाँ और उनके पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी ने भी उनको पीटा था? बोले हाँ, उनने भी पीटा था। कहते-कहते सात पीढ़ी तक चला गया। बाद में पिता ने पूछा- बेटा इतने दूर तक जाने की क्या जरूरत पडी? बोले पापा मैं तो यह देखना चाहता हूँ कि हमारे खानदान में गुण्डागर्दी कब से चली आ रही है। बंधुओं! ये प्रवृत्ति बड़ी ओछी प्रवृत्ति है। इससे अपने आपको बचाना चाहिए। मानी व्यक्ति की एक बड़ी विचित्रता होती है। अपमान होने पर वह अपमानित महसूस न करे ये बहुत दूर की बात है, कोई उसे समुचित सम्मान न दे तो भी वह अपना अपमान मान लेता है। एक कार्यक्रम में चार व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाए और चार व्यक्तियों को सम्मान करते हुए तीन को माला पहना दी जाए और चौथे को केवल टीका लगाकर अलग कर दिया जाए तो उसे टीका करवाने की खुशी नहीं होती, मुझे माला नहीं पहनाई गई इसका कष्ट होता है। किसी के अपमान का कोई भाव नहीं है, हो सकता है व्यवस्था की कमी हो। व्यवस्था तीन की थी और आ गए चार। अब चौथी माला नहीं है। इरादतन आपके साथ ऐसा नहीं किया गया लेकिन फिर भी व्यक्ति उसे अपना अपमान मान लेता है। किसी को बुला लिया गया और बुलाने के बाद उससे कमतर व्यक्ति को पहले बुलाकर सम्मान कर दिया गया और उससे बड़े आदमी को बाद में बुलाया गया, वह उसको ही अपना अपमान मान लेता है। अरे मेरे को उसके बाद बुलाया। पहले तो बुलाया नहीं किसी ने ध्यान दिलाया तो बुलाया। एक जगह की बात है विमल जी संचालन कर रहे थे। बड़ा कार्यक्रम था। एक महानुभाव आए। देखो मानी को सदैव अपनी उपस्थिति का एहसास कराना पड़ता है। एक समाज के भारी भरकम तथाकथित बड़े आदमी आए। अच्छा आपके सामने मैं प्रश्न उपस्थित करूं आप बड़ा आदमी किसे मानते हो? बड़ा आदमी शब्द सुनते ही आपकी ऑखों के सामने एक ऐसे व्यक्ति की छवि उभरेगी जिसका बड़ा रुतबा है, जिसके पास खूब रुपया-पैसा है, बड़े ठाट-बाट हों, हाई प्रोफाईल(बड़े नाम वाले), शो कार्ड व्यक्ति को आप बड़े आदमी की निगाह से देखते हो। ठीक है न? मेरी दृष्टि में बड़ा आदमी वह नहीं है। बड़ा आदमी कौन? एक लाइन मैं बता दूँ बड़ा आदमी वह जिसके पास जाने के बाद सामने वाला अपने आप को छोटा महसूस न करे तो समझ लो वह बड़ा आदमी है। समझ में नहीं आया? जिसके पास खड़े होने के बाद तुम्हें ऐसा न लगे कि मैं छोटा हूँ समझ लो वह बड़ा आदमी है और जिसके पास जाने के बाद तुम्हें ऐसा लगे कि मैं छोटा आदमी हूँ तो समझ लेना वह रसूखदार व्यक्ति है पर उसके भीतर रस नहीं है क्योंकि बड़ा आदमी सबकी कद्र करना जानता है। छोटे को भी बड़प्पन देता है। छोटे का भी बहुमान करता है, सत्कार करता है। कार्यक्रम चल रहा था एक महाशय थोड़े लेट आए। लेट आने के बाद उन्होंने अपनी पूरी विरुदावली लिखकर एक पचीं भेजी कि मुझे बुलाया जाए। कार्यक्रम बहुत टाइट था। विमल जी पचीं लेकर मेरे पास आए, महाराज जी अमुक महानुभाव आए हैं क्या करना है? समय भी चाहते हैं। कार्यक्रम टाइट था मैंने कहा सीधे-सीध नाम लेकर बुलवा लो और कुछ नहीं करना। जैसे सब कर रहे हैं श्री फल चढ़ा लें। इन्होंने बुला लिया। अब विमल जी को तो मुझे फालो करना है(मेरी बात माननी है)। जो महाराज कहेंगे वही करना है। अब इस बात को सामने वाले ने अपनी इन्सल्ट(बेइज्जती) मान ली। अरे! हमको महत्व नहीं दिया गया। हमको सामान्य रूप से बुलाया गया जैसे और लोगों को बुलाया जाता है। क्या मैं कोई साधारण आदमी हूँ? क्या मुझे पहचानते नहीं हो? मैं कमरे में था विमल जी से बातचीत चल रही थी। मैं अन्दर आवाज सुन रहा था मैंने बुला लिया, अंदर आओ। आज तक मैं भी तुम्हें नहीं पहचानता था आज अच्छे से पहचान गया। क्या है ये? मान है। इससे अपने आपको बचाओ। तुम्हारा कहीं अपमान नहीं किया जा रहा है पर तुमने अपने मन में सम्मान की इतनी अधिक अपेक्षा पाल रखी है कि अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे हो। बड़ी गड़बड़ियाँ होती हैं ऐसे अभिमानियों के साथ। एक बड़ा अभिमानी आदमी था। एक जगह पंगत में गया। भोजन में पापड़ परोसने का नम्बर आया। पापड परोसते-परोसते जब उसकी थाल में पापड परोसने का नम्बर आया तब एक टूटा हुआ पापड बचा तो परोसने वाले ने वही परोस दिया। अगला (व्यक्ति) पापड़ परोसकर चला गया। इस आदमी ने इसे अपना अपमान मान लिया। हूँ. मुझे टूटा हुआ पापड़ परोसा और सबको साबुत। क्या समझता है मेरे को? मैं इस अपमान का बदला लेकर रहूँगा। वहाँ से चला गया। अब दिमाग लगाया कैसे इससे बदला लिया जाए। एक दिन उसने अपने घर में भोज दिया। तीस हजार रुपया कर्जा लेकर। कर्जा लिया, भोज दिया, भोज में सबको बुलाया। गाँव भर के लोग आए जब पापड़ परोसने की बारी आई तो खुद अपने हाथ से पापड़ परोसने लगा। पापड़ परोसते-परोसते जब उस आदमी का नम्बर आया तो उसको तोडकर पापड़ दे दिया। सामने वाला सहज भाव से पापड़ खाने लगा जब देखा इसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की तो कुछ क्षण रुककर कहा- बस आज हिसाब चुकता हो गया। तुमने मुझे टूटा पापड़ देकर मेरा अपमान किया था आज मैंने तुम्हें टूटा पापड़ देकर अपने अपमान का बदला ले लिया। उस व्यक्ति ने अपना सिर पकड़ लिया और बोला- भैया! मुझे तो पता ही नहीं कि मैंने तुम्हें कब टूटा पापड़ दिया लेकिन मेरे टूटे पापड़ से तुम्हारा अपमान हुआ मुझसे कह देते मैं उसी दिन क्षमा मांग लेता, इतनी सारी मशक्कत करने की क्या जरूरत थी। ये परिणति है मनुष्य की। अपने आपको ऐसी परिणतियों से बचाने की कोशिश कीजिए। अपमान किसी का कीजिए मत, अपने आपको कभी अपमानित मत होने दीजिए। कोई अपमान करे तो सहन करो और कदाचित उचित सम्मान न मिले तो भी इसे अपमान मत मानो क्योंकि ये प्रवृत्ति सिवाय अशांति के और कुछ भी नहीं देने वाली। आज मार्दव धर्म के संदर्भ में चार बातों को याद रखना है। मान करना नहीं। सम्मान औरों को देना। जिनका मेरे जीवन पर उपकार है, जिनका मेरे जीवन के निर्माण में योगदान है उनका बहुमान करना तथा अपमान किसी का नहीं करना और खुद को कभी अपमानित महसूस नहीं करना। यदि ये बातें जीवन में घटित हो गई तो समझ लेना आपका ये मार्दव धर्म सार्थक हो गया।
  3. कृत्रिमता, कुटिलता, जटिलता और कपट मैंने देखा एक साँप तेजी से लहराता हुआ चल रहा था और चलते-चलते जब अपने बिल में प्रवेश करने को हुआ तो एकदम सीधा हो गया और सीधे बिल में प्रवेश कर गया। मेरे मन में बात आई कि मनुष्य दुनिया में टेढ़े-मेढ़े तरीके से चल सकता है लेकिन भीतर वही प्रवेश करता है जो इकदम सीधा होता है। इसी सीध पन का नाम आर्जव है। सीधापन, सरलता बहुत कठिन है। देखा जाए तो आदमी डील-डोल से बहुत सीधा दिखता है लेकिन मनुष्य के भीतर बहुत टेढ़ापन है। किसी ने लिखा कि एक युग था जब लोग टेढ़े रास्तों पर भी सीधा चला करते थे और आज सीधे रास्तों पर भी लोग टेढ़े-मेढ़े चला करते हैं। ये टेढ़ापन क्या है? वक्रता, कुटिलता, मायाचारी हमारे जीवन का टेढ़ापन है। मैं अपनी बात गुरुदेव की एक बात से प्रारम्भ कर रहा हूँ। एक लुहार ने अपनी लौहशाला में प्रवेश किया और प्रवेश करते ही अपनी धोकनी को सुलगाने से पूर्व अर्गन को प्रणाम किया। धौंकनी सुलगाई और उसके बाद एक टेढ़े पड़े लोहे को उसमें डाला। लोहे की मोटी राड थी राड एकदम तप कर लाल हो गई। उसने उसे उठाया और उसके ऊपर घन का प्रहार करना शुरू कर दिया। जब उस लोहे पर और अर्गन पर घन का प्रहार हुआ तो अर्गन उचटकर उस लुहार से बोली कि ये क्या नाटक है थोडी देर पहले तो तुमने मुझे प्रणाम किया अब मुझ पर प्रहार हो रहा है, और जिस सेहन पर रखकर इस लोहे को पीटा जा रहा था लोहे ने कहा जब तुम आए तो सबसे पहले इस घन को और सेहन को प्रणाम किया, इससे ही तुम्हारी रोजी चलती है, जीविका चलती है तो आने पर तो मुझे प्रणाम किया था और अब मेरे ही ऊपर इतना प्रहार क्यों? तब शिल्पी ने कहा- अर्गन से लुहार ने कहा कि तुम्हें तो मैं अब भी प्रणाम करता हूँ लेकिन क्या करूं तुमने लोहे की संगति कर ली इसलिए तुम्हारी पिटाई होती है। शुद्ध अर्गन को तो मैं आज भी पूजता हूँ और लोहे को सम्बोधित करते हुए कहा कि मुझे तुम्हें पीटने का कोई चाव नहीं है लेकिन क्या करूं तुम सीधे होते तो बिल्कुल नहीं पीटता, टेढ़े हो इसलिए पिटाई हो रही है। तुम्हें सीधा करने के लिए मुझे पीटना पड़ रहा है। बंधुओं! बहुत गहरी बात है। समझने की है। जीवन को सीधा वही कर पाते हैं जो साधना के प्रहार को झेलने के लिए तत्पर रहते हैं। और सीधे का ही उपयोग होता है टेढ़े-मेढ़ों को कोई उपयोग नहीं होता। इसलिए जीवन में सीधापन आए टेढ़ापन मिटे ये प्रयास होना चाहिए। सीधापन का मतलब है सहजता और टेढ़ेपन का मतलब है कृत्रिमता। सहजता और कृत्रिमता जो मनुष्य समझ लेता है उसके जीवन में ही सीधापन या सरलता आती है। सहजता के लिए मनुष्य को कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करने की जरूरत नहीं होती। आपने अनुभव किया। आप कब ज्यादा खुश रहते हो? जब सहज रहते हो तब या जब किसी प्रकार की कृत्रिमता को ओढ़ लेते हो तब? इस समय आप बैठे हैं। साधारण व्यक्ति भी उसी ड्रेस में हैं और हाई प्रोफाइल कहलाने वाले लोग भी उसी ड्रेस में हैं। आप को कैसा लग रहा है? कुछ अंतर महसूस हो रहा है? क्या ऐसा लग रहा है कि मेरा स्टेटस(प्रतिष्ठा) क्या है, मैं सबके बराबर हूँ? ऐसा कुछ इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि इस घड़ी में आप सहजता को अपनाए हुए हो। लेकिन जब आप अपनों के सकिल में जाओ, तथाकथित बड़े लोगों के बीच में रहो और उस समय यदि आप के बीच में कोई दूसरा व्यक्ति आप से हीन स्टेटस(प्रतिष्ठा) वाला आए तो उस समय उसे क्या फीलिंग(अनुभूति) होगी और आप को क्या फीलिंग होती है? कदाचित कभी ऐसी स्थिति आ जाए कि ऐसे लोगों के बीच रहना पड़े और आपक पास ढंग की गाडी न हो, ढंग के कपड़े नहीं ढंग का चश्मा न हो तो आप अपने मन में क्या अनुभव करते ही इनफीरियारिटी (हीनभावना) की फीलिंग होती है। अरे! महाराज जी! कई बार ऐसा लगता है। कपड़े यदि ढंग से प्रेस नहीं हो पाया तो मन ऐसा होता है। क्यों तकलीफ क्यों? तन पर कपड़ा है, सब कुछ है, किसी प्रकार की कमी नहीं है, आप वही हो, आपके गुण वही हैं, आपका व्यवहार वही है और आपका जो वैभव है वह भी वहीं का वहीं हैं, कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी मन में तकलीफ होती है। एक बार प्रवचन चल रहा था। घडी नहीं थी। मैंने इशारा किया कि भाई घड़ी रखो। एक सज्जन ने घड़ी लाकर रख दी। प्रवचन खत्म हुआ मैं उठकर चला गया वह सज्जन मेरे पीछे-पीछे आ गए। पीछे-पीछे आने के बाद थोडी देर बाद उन्हें ख्याल आया कि घड़ी तो वहीं छूट गई। फौरन उठकर गए। संयोगत: घड़ी मिल गई। घड़ी लेकर आए, उन्होंने कहा महाराज घड़ी मिल गई। मैंने कहा- एक घड़ी गई, छोटी सी चीज गई तुम जैसे लोगों के लिए इतना विकल्प करने की क्या जरूरत? महाराज घडी में हीरे जड़े हुए हैं, ये साध |ारण घड़ी नहीं है, इसकी कीमत तीस लाख है। मैं बोला- तीस लाख की घड़ी कोई अलग समय बताती है क्या? बोले महाराज! सवाल उसका नहीं है। ये घडी हम समय देखने के लिए नहीं बांधते हैं; लोगों को अपना समय दिखाने के लिए बांधते हैं। इससे हमारा स्टेटस पता चलता है। उन्होंने अपना चश्मा दिखाया, बोले महाराज आप लोग तो जानते नहीं हो हम लोगों को बहुत कृत्रिमता ओढ़नी पड़ती है। ये जो मेरा चश्मा देख रहे हैं इसका फ्रेम तीन लाख का है। उस पर कोई ब्राण्ड का नाम लिखा था। बोले ये ब्राण्ड है। आम आदमी को इसका कोई पता नहीं लेकिन जब हम किसी बडी डील में बैठते हैं तो कई बार तो आदमी इसके आधार पर ही हमारे स्टेटस का पता लगाता है। मैंने कहा बहुत अच्छी बात कही। भैया! तुम तीन लाख का चश्मा और तीस लाख की घड़ी पहनते हो तो तुम्हारा स्टेटस है; मेरे पास कुछ भी नहीं है, तिल-तुष मात्र भी नहीं है। अब ये बताओ स्टेटस तुम्हारा बड़ा है कि मेरा? बोलो स्टेटस किसका बड़ा है? फिर तुमने ये धारणा क्यों बनाई कि बाहर के टिपटॉप से मेरा स्टेटस बढ़ता है। बात समझ में आ रही है? जो तुमने ओढ़ रखा है वह कृत्रिमता है। जहाँ कृत्रिमता है वहाँ जटिलता है, वहाँ कुटिलता है और वहाँ कपट है। आर्ट अपनायें आटोंफीसियल्टी भगायें कृत्रिमता, कुटिलता, जटिलता और कपट। आज की चार बातें। कृत्रिमता को तुम जितना ओढोगे तुम्हारे जीवन की सहजता नष्ट होगी, सरलता नष्ट होगी, सत्य खत्म होगा और शांति विनष्ट होगी। कृत्रिमता जीवन की सहजता को, सरलता को, सत्य निष्ठा को और शांति को लील लेती है। आज आदमी इसी कृत्रिमता के चक्कर में मरा जा रहा है। भैया! तुम स्टेटस की बात करते हो। आप कितने ही बड़े आदमी क्यों न हों, किसी के घर में चाहे जैसे घुस सकते हो क्या? नहीं घुस सकते और हम किसी के घर में जाएँ तो अहो भाग्य समझेंगे। समझोगे कि नहीं समझोगे? अगर मैं कहूँ कि ठीक है, आता हूँ चेहरे खिल जाएँगे। हमारे पास कुछ भी नहीं है फिर भी तुम स्वागत के लिए तैयार हो और कोई करोड़पति आदमी अननोन'(अनजान) है, तुम्हारे यहाँ आना चाह रहा है तुम उसके लिए तैयार नहीं क्यों? स्टेटस किसका बड़ा? स्टेटस जो नीचे बैठा है उसका या जो ऊपर बैठा है उसका? वस्तुत: जीवन की सहजता ही जीवन की सच्ची प्रतिष्ठा है। कृत्रिमता जीवन को उलझाती है। मन में द्वन्द्र क्यों होता है? क्योंकि है कुछ और दिखाना कुछ पड़ता है; इसी का नाम तो माया है। हो कुछ और दिखाओ कुछ ये माया जेजिंग का सफयाकत है। सारे गुणक नाटक हाल सन्त कहते हैं इस कृत्रिमता से बचो। कृत्रिमता से मन में द्वन्द्र कैसे होता है बताता हूँ। एक साहित्यकार प्रकृति का सामान्य व्यक्ति था। बीस वर्ष बाद अपने बचपन के मित्र से मिलने गया। उसका मित्र एक बड़ा उद्यमी और हाई प्रोफाइल व्यक्ति था। जैसे ही वह उसके घर पहुँचा वह कहीं जाने की तैयारी में था। बीस साल पुराने मित्र को देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, उसने उसे गले से लगाया, स्वागत किया और कहा भाई! अच्छा होता कि तुम आने से पहले नुझे सूचना देते तो मुझे बहुत अच्छा लगता। आगन्तुक मित्र ने कहा नहीं मैंने तुम्हें सूचना केवल इसलिए नहीं दी क्योंकि मैं तुम्हें सरप्राइज देना चाहता था। बोला बहुत अच्छा लगा तुम मिले लेकिन क्या करूं आज मुझे मेरी किसी जरूरी मीटिंग में जाना है। टाइम हो गया है और तुमसे मिलने की भी इच्छा है। एक काम करो तुम मेरे साथ मेरी गाड़ी में बैठो और मेरे साथ मीटिंग अटैण्ड करो। वह साधारण सा आदमी कुर्ता-पैजामा पहना हुआ और कुर्ता भी फटा मित्र बोला- मेरी सब मीटिंग्स फाइव स्टार होटल्स में हैं। तीन-तीन मीटिंग हैं। तुम ऐसे चलोगे तो थोड़ा गड़बड़ होगा। बोले क्या करूं? मैं तो कपड़े लेकर आया नहीं। कपड़े की कोई चिंता नहीं मेरे कपड़े पहन लो। उसने अपने कपड़े पहना दिए। रास्ते भर बातें करते हुए गए। पहली मीटिंग में जब वह व्यक्ति पहुँचा तो अपने मित्र का परिचय इस प्रकार से दिया ये मेरे बचपन के मित्र हैं, बहुत अच्छे साहित्यकार हैं, इनकी किताबें लोग बहुत रस लेकर ते हैं, बहुत अच्छा इनका व्यक्तित्व है, बहुत अच्छे वक्ता भी आज मुझसे बीस वर्ष बाद मिले हैं। आज मैं इनको लेकर आया बहुत अच्छे हैं इनके पास बहुत सारी अच्छाईयाँ हैं। सब चीजें पास हैं, बस ये जो कपड़े आप देख रहे हैं न वह मेरे हैं। वे कपड़े मेरे हैं एक वाक्य में धो डाला। सामने वाला बड़ा शर्मिदा हुआ और बोला भाई! अब मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा। बोले माफ इसलिए मैंने कह दिया कपड़े मेरे हैं। बोले इसकी क्या जरूरत थी? ठीक है, ठीक है अगली मीटिंग में ध्यान रखेंगा। दूसरी मीटिंग में , खूब प्रशंसा के पुल बांधे और बाद में कहा देख रहे हैं न ये इन्हीं के हैं। कपड़े इन्हीं के हैं अब क्या बोले भैया तुम फिर बाज नहीं आए। बोले मैंने क्या किया? मैंने तो यही बताया कि ये तुम्हारे हैं मेरे नहीं हैं। बोले इसकी भी कया ? बोला ठीक है अगली मीटिंग में मैं इसका भी ध्यान रखूँगा और तीसरी मीटिंग में गया। चर्चा पूरी कर लेने के बाद उसने कहा रहा सवाल कपड़ों का तो कपड़ो के बारे में कुछ नहीं कहूँगा इन्हीं से पूछ लो वे किसके हैं? ये क्या है? कृत्रिमताजन्य द्वन्द्र। आप सहज रहना सीखें, सरल बनें, सत्यनिष्ठ बनें तो जरूर शांति पाओगे। जहाँ कृत्रिमता को आप ओढ़ोगे जीवन में अशांति आएगी, कुटिलता आएगी, जटिलता आएगी, कपट आएगा। समाज में कई ऐसे लोग होते हैं जो होते कुछ हैं और दिखाना कुछ चाहते हैं। यहाँ बैठा हर कोई रोज दर्पण में अपना चेहरा देखता है किसलिए कि मैं अच्छा दिखें। मैं अच्छा दिखें इसकी चिंता हर कोई करता है पर मैं अच्छा बनूँ ऐसा प्रयास कोई नहीं करता। अच्छा दिखें ये सोच कृत्रिमता है और अच्छा बनूँ ये सोच सरलता है। अच्छा बनोगे दुनिया अपने आप अच्छा मानेगी और अच्छा दिखोगे या अच्छा दिखाने की कोशिश करोगे तो कोई गारंटी नहीं कि तुम अच्छा बन भी सके या नहीं। ऊपर से अच्छा बनने में कोई लाभ नहीं। भीतर से अच्छाई प्रकट करो सिवाय लाभ के और कुछ नहीं होगा। अपने भीतर अच्छाई की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। अच्छाई अपने गुणों से प्रकट होती है। तुम जैसे हो वैसे ही रहो। साधारण हो तो साधारण ही बने रहो। अगर कोई साधारण व्यक्ति साधारण रूप से भी प्रस्तुत होता है तो कभी-कभी उसका असाधारण असर पड़ जाता है और कोई सामान्य व्यक्ति अपने आप को विशिष्ट बनाने की कोशिश करता है तो कभी-कभी उसकी बड़ी हास्यापद स्थिति बन जाती है। देखो साधारण आदमी भी कई बार कितना असाधारण काम कर देता है। एक जगह किसी फैक्ट्री की एक लाइन जा रही थी। उस लाइन में तार डालने थे। पूरी की पूरी लाइन ऊपर-नीचे जिग-जेग आकार में थी। अब उसमें तार कैसे डाला जाए? बड़े-बड़े इंजीनियर दिमाग लगा रहे कि इसमें तार कैसे डालें? कौन सा उपकरण लगाएँ जिससे ये तार इस पार से उस पार चला जाए। लगभग सौ मीटर की तार उस के अंदर डालनी थी। सभी उधेड़बुन में लगे थे। एक गाय चराने वाला बच्चा वहीं बैठा हुआ बहुत देर से देख रहा था कि ये लोग कुछ मशक्कत कर रहे हैं। उसने कहा आप लोग कहें तो मैं दो मिनट में आपकी तार बाहर निकाल दूँगा। सब हँसे बोले तुम गँवार आदमी हम इतने बड़े-बड़े इंजीनियर फैल हो गए। तुम क्या निकालोगे? बोला मुझे नहीं मालूम आपकी इंजीनियरिंग क्या होती है लेकिन आप अगर मुझसे कहो तो मैं आपकी तार दो मिनट में बाहर निकाल दूँगा। बोले कैसे करोगे? बोला कर दूँगा। करके बताओ। उसने एक चूहा पकड़ा। उसकी पूंछ में कसकर तार बाँध दिया और चूहे को उसके अंदर घुसा दिया। चूहा इस पार से घुसा उस पार से निकल गया और उस पार से तार बाहर आ गया। सब हतप्रभ रह गए। सामान्य आदमी ने भी असमान्य काम कर दिया और विशिष्ट आदमी भी फल हो गए तब उन्हें लगा कि हमें गुरूर है अपनी इंजीनियरिंग का। लेकिन ये इंजीनियरिंग भी भीतरी प्रतिभा के आगे केल है। हम पाँच साल पढ़ने के बाद भी जो नहीं सीख पाए वह एक निरक्षर आदमी ने हमें एक पल में सिखा दिया। टैक्नोलॉजी जो काम नहीं करती; जुगाड़ से वह काम हो जाता है। बंधुओं! ये बात केवल समझने के लिए मैं आपसे कह रहा हैं कि जीवन में सहजता को अंगीकार करोगे तो समुन्नति होगी और कृत्रिमता के रास्ते को अपनाओगे तो सदैव दुखी होओगे। जीवन में कृत्रिमता मत लाओ। जो तुम्हारी हस्ती है, जो तुम्हारी हैसियत है उसी के अनुरूप जिओ। कृत्रिमता अशांति को उत्पन्न करती है। कई लोग होते हैं जो सामान्य हस्ती और हैसियत के होते हैं लेकिन बडे-बड़े करोड़पतियों से होड़ करते हैं। मैं वैसा बनूँ, उनकी तरह सब कुछ करूं। क्षमता तो है नहीं और दिखावा सब करना है। कृत्रिमता ही दिखावा करती है। घर में शादी है, शादी में लगाने की ताकत दस लाख की है पर समाज में एक अपना रेपुटेशन बनाना चाहता है। मेरे अगल-बगल, आस-पड़ोस के लोग इतना लगाए मैं उससे ज्यादा लगाऊँ। ये दिखावा है। दस की ताकत है पचास का खर्चा सिर पर उठा लिया, होगा क्या? परेशानी ही होगी। मैं एक स्थान पर था। चातुमास में सब तरह के लोग होते हैं। शुरु-शुरु में तो पहचान में आते नहीं, आदमियों को पहचानना बड़ा मुश्किल होता है। पल-पल में रूप बदलते हैं। हमारे पास तो सब बड़े अच्छे भक्त बनकर आते हैं। एक लड़का था, गले में मोटी चैन डाले, हाथ में अंगूठियाँ पहने डील-डौल से दिखता था कि ये लडका सम्पन्न घराने का होगा। कोई भी आए उनके साथ खर्चा करे, जी भरकर करे। दो-ढाई महीना चतुर्मास के बीते तो मालूम पड़ा कि उस आदमी के ऊपर बीस लाख का कर्जा है और कर्जा भी किससे लिया है मुझसे जुड़े हुए लोगों से। लोग देख रहे हैं महाराज का बड़ा भक्त है, अच्छा खर्चा कर रहा है। किसी से लाख लिया, किसी से पचास हजार, किसी से दो लाख, ढाई लाख अधिकतम लिया। आपको चार दिन बाद लौटा देंगे, आठ दिन बाद लौटा देंगे, मेरा बिल आने वाला है, मेरा पैमेण्ट आने वाला है, मैं चुका दूँगा। लोगों के बीच अपने आप को ऐसे प्रस्तुत करता था कि मैं एक बड़ा कान्ट्रेक्टर और सप्लायर हूँ और डीलडौल देखकर लोग विश्वास कर लेते। अब उसकी स्थिति ऐसी हो गई कि इतने रुपये की देनदारी चुका नहीं सकता क्योंकि उसकी व्यवस्था नहीं। बात मेरे कान तक आई। मैंने उसे बुलाया। हम बोले- भैया! तुमने इतना कर्जा क्यों लिया? बोला- महाराज! गलती हो गई। बोले गलती क्यों हो गई? बोला- एक सनक चढ़ गई। क्या सनक चढ़ी? बोलेमहाराज! मैंने सोचा आप आ रहे हो, आपका सान्निध्य मिले और समाज में मैं अपनी रेपुटेशन बनाऊँ, सबके बीच करोड़पतियों की तरह जाना जाऊ, इस सनक को चक्कर म' में खचा करता रहा। सोचता था कहीं न कहीं से कमा लूँगा और सबको चुका दूँगा। आज मेरी हालत ऐसी है। मैंने कहा- तू अपने आप को करोड़पति के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता था, तूने जो हरकत की उससे तू रोड़पति के रूप में समाज में जाहिर होने जा रहा है। अब सोच तरी ये हरकत ठीक थी या नहीं। मैंने उसे समझाया और कहा अब अपनी प्रतिभा का सदुपयोग करो, अपने व्यापार-व्यवसाय में अपना चित्त लगाओ और साथ में जितना बने धर्म ध्यान करो। पहला लक्ष्य बनाओ जिनका पैसा लिया है उनको लौटाना है। उस आदमी ने अपने जीवन को बदला, अपनी असलियत पर आया। आज उसकी स्थिति बहुत अच्छी है। जीवन को मोड़ने के बाद बहुत तरक्की की, सबका पैसा चुका दिया और ये तय कर लिया कि आज के बाद मैं अपनी क्षमता से आगे कभी नहीं बढूँगा। बंधुओं मैं आपको पहला सूत्र देता हूँ आज की तारीख में अगर अपने जीवन में सरलता, शांति, सत्यनिष्ठा और सहजता को प्रकट करना चाहते हो, जीवन का रस लेना चाहते हो तो कृत्रिमता को तिलांजलि दे दो। किसी प्रकार की कृत्रिमता को अपने ऊपर हावी मत होने दो। ये एक माया है। माया का निकृष्ट रूप जो तुम्हारे मन की शांति को लील लेता है। जितने हो, जैसे ही वैसे ही रही चिंता की बात नहीं। लेकिन कृत्रिमता को अपनाओगे तो सिवाय चिंता के और कुछ नहीं होगा। सीधी-सच्ची बात में मत रख टेढ़े अर्थ दूसरी बात है कुटिलता। जीवन में कुटिलता का मतलब चालबाजी। लोग बड़े चालबाज होते हैं। हर जगह चालबाजियाँ करते हैं और बड़ी चालाकी से करते हैं। कई लोग ऐसे होते हैं जो सोचते हैं कि मुझसे बड़ा चालबाज कोई है ही नहीं। पर कई बार ऐसे लोगों को मुँह की खानी पड़ती है। एक आदमी ने अपना खेत बेचा। खरीदने वाले ने खेत खरीद लिया। उसमें कुआँ भी था। अब कुआँ सहित खेत खरीदा। फसल बोई और कुएँ से पानी लेने के लिए गया तो सामने वाला आदमी बड़ा कुटिल था। उसने कहा- भैया! हमने खेत बेंचा है, कुआँ बेचा है पर पानी नहीं बेंचा। तुम पानी नहीं ले सकते। अगर तुम पानी लोगो तो उसका टैक्स देना पड़ेगा, पैसा देना पड़ेगा। सामने वाला बड़ी उलझन में कि कुएँ को देखकर मैंने फसल बोई और ये पानी लेने से इनकार करता है। अगर पानी नहीं दूँगा तो फसल नष्ट हो जाएगी। एक दिन का काम नहीं है। हमेशा फसल को पानी देना पड़ेगा और अगर एक बार मैंने पानी के पैसे देना स्वीकार लिया तो हर बार पैसे देने पड़ेंगे। पैसे किस बात के दें? जब मैंने कुआँ खरीदा है तो पानी भी मेरा ही होना चाहिए। लेकिन वह कहता है कुआँ बेचा है, पानी नहीं बेचा। कई बार शेर को सवा सेर मिल जाता है। वह अपने मित्र के पास गया, अपनी व्यथा सुनाई कि सामने वाला मुझे बहुत परेशान करता है कोई उपाय बताओ। वह बोला ठीक है। चलो मैं चलता हूँ। मित्र वकील था। उसके पास एक नोटिस लेकर गया और कहा कि भैया! आपने कुआँ बेच दिया है न? तो कुआँ हमारा हो गया। अब आप अपना पानी निकालइए। आप जितने दिन पानी रखोगे उतने दिन का हजार रुपये रोज के हिसाब से किराया लगेगा। और सुनो पानी निकालते समय ध्यान रखना एक बूंद पानी भी मेरे खेत में नहीं गिरना चाहिए और सारा पानी निकाली। उसको समझ में आ गया कि कुटिलता का क्या फल मिलता है। हाथ जोड़कर बोलाभैया! कुआँ भी तुम्हारा और पानी भी तुम्हारा, हमें मुक्ति दो। बंधुओं! इस तरह की कुटिलता, इस तरह की चालबाजियाँ कई तरह से लोग करते हैं। कुटिलता शब्द बहुत व्यापक है। कुटिलता में व्यक्ति जालसाजी करता है, कुटिलता से ग्रस्त व्यक्ति कई तरह के प्रपंच रचता है, कुटिलता से ग्रस्त व्यक्ति कई तरह के षडयंत्र रचता है और फरेब करता है। ये सब कुटिलता के अंतर्गत आते हैं। एक बात मन में धार लो मैं अपने जीवन में किसी के साथ इस तरह की कुटिलता नहीं करूंगा जिससे उसे कोई हानि उठानी पडे। चाहे आर्थिक हानि हो, चाहे सामाजिक हानि हो या अन्य किसी प्रकार की हानि उठानी पड़ती हो। मैं ऐसी कुटिलता अपने जीवन में कभी नहीं करूंगा जिससे किसी को हानि उठानी पड़े। कुटिलता क्या है इसको बताने की ज्यादा जरूरत नहीं है। सब जानते हैं। एक नीतिकार ने लिखा कुटिलमतिः कुटिलगतिः कुटिलशील-सम्पन्नः। सर्वमप्यस्यास्ति कुटिल कुटिलस्य कुटिलभावेन। जिसकी चाल कुटिल, जिसकी ढाल कुटिल, जिसकी मति कुटिल यानि जिसकी बुद्धि कुटिल, जिसकी प्रवृत्ति कुटिल जो सब जगह केवल कुटिल, कुटिल, कुटिल यानि टेढ़ी दृष्टि से देखे वह कुटिल है। कुटिल व्यक्ति हर चीज में अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। ऊपर से बड़ा अच्छा दिखता है लेकिन अंदर से बहुत कुटिल। सन्त कहते हैं किसी भी व्यक्ति के बाहरी आचरण से उसका अनुमान मत लगाना। वस्तुत: व्यक्ति का भीतरी अभिप्राय ही उसकी पहचान का आधार होता है। बाहर से मीठा आदमी अंदर से बहुत बड़ा धोखेबाज भी हो सकता है इसलिए उसे पहचानने की कोशिश करो और जब तक किसी को पूरी तरह पहचान न लो तब तक किसी पर भरोसा भी मत करो। पूरी तरह पहचानने के बाद ही किसी पर भरोसा करना चाहिए अन्यथा लोग कई बार धोखा खा जाते हैं। धोखा देने वाले लोग भी इस दुनिया में बहुत हैं और धोखा खाने वाले लोग भी इस दुनिया में बहुत हैं। इनसे अपने आपको बचाइए। जीवन में कभी किसी प्रकार की कुटिलता नहीं करें। कुटिलता का मतलब अगर किसी से कोई जमीन जायदाद आप खरीदना चाहते हो तो फर्जी दस्तावेज को आधार पर मत खरीदो। किसी की भूमि, भवन आदि पर अवैध कब्जा न करने का मन में संकल्प लो। किसी की संपत्ति हड़पने की कोशिश मत करो। किसी से नाजायज फायदा उठाने की कोशिश मत करो। ये कुटिलता है। व्यापार को व्यापार की नीति से करो। अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए जो मनुष्य जीता है उसके जीवन में कुटिलता कभी नहीं आती। और जिस मनुष्य के जीवन में कुटिलता होती है वह व्यक्ति कभी भी प्रामाणिक नहीं बन सकता इसलिए अपने आप को कुटिलता से बचाइए। अँधियारे चौराहे की खुद में उलझी गलियाँ तीसरी बात है जटिलता। जटिलता यानि जिसका जीवन उलझा हुआ है। जिस व्यक्ति को समझना बहुत कठिन हो। कुछ लोग होते हैं जिनका जीवन बहुत गूढ़ होता है उनके बारे में कुछ पहचानना ही मुश्किल होता है। वह क्या कह रहा है कोई पता नहीं। हम लोगों के सम्पक में भी बहुत से ऐसे लोग आते हैं जो सामने-सामने तो बहुत अच्छा बोलते हैं लेकिन उनके आशय को समझना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि उनके मन में क्या है। व्यक्ति के मन की जो जटिलता है, वह बड़ी ग्रंथि है जैसे बांस की जड़ होती है। बांस की जड़ एक दूसरे से घुली-मिली रहती है उसकी भाल लेना मुश्किल है। ऐसे ही कुछ व्यक्ति इस मिजाज के होते हैं जिनके अंतर्मन को पढ़ पाना बहुत कठिन होता है। बाहर से देखने में बहुत अच्छे लगते हैं, मृदुभाषी, विनम्र दिखते हैं लेकिन अंदर से उनकी स्थिति बड़ी जटिल होती है। जिसे पहचान पाना मुश्किल हो जाए उसका नाम है जटिलता। ऐसा व्यक्ति बाहर से हँसता हुआ दिखता है पर अंदर से उसकी आत्मा सदैव रोती रहती है। जीवन में कभी ऐसी जटिलता मत लाओ। मैं आपसे कहता हूँ कि ठीक है आप इतने सरल न बनो कि आपकी सब बाते प्रकट हो जाएँ और आप परेशानी में आ जाओ लेकिन इतने जटिल भी मत बनो कि आपको समझ पाना ही मुश्किल हो जाए कि ये आदमी क्या है और कैसा है। अपने अभिप्राय को ज्यादा गूढ़ बनाना एक प्रकार की अज्ञानता है। ऐसा व्यक्ति अक्सर आर्तध्यान में निमग्न होता है। इसलिए अपने अभिप्राय को ज्यादा गूढ़ मत बनाओ। अभिप्राय स्पष्ट रखो। एक शब्द आता है स्ट्रेटफार्वड, साफ-सुथरा। ऐसे आदमी की बात बिल्कुल ठीक लगती है। लेकिन कुछ लोग होते हैं जो बोलते कुछ हैं और करते कुछ हैं। एक कुम्हार था। उसका गधा बीमार था। उसको गधे की आवश्यकता पड़ी तो पड़ोसी के घर गया और बोला- भैया! मेरा गधा बीमार है, मुझे मिट्टी लेने जाना है तुम अपना गधा दे दो। उसने बड़ा प्रेम प्रकट करते हुए कहा- क्या बताऊँ गधा तो मैं तुम्हें दे देता लेकिन मेरा गधा चरने के लिए जंगल गया हुआ है। उसने अपना वाक्य पूरा ही नहीं किया कि घर के पिछवाड़े में बंधा हुआ गधा जोर-जोर से रेंकने लगा। जब गधा रेंकने लगा तो कुम्हार बोलाभाई! तुम कह रहे हो गधा नहीं है और गधा भीतर बंधा हुआ है। वह रैंक रहा है। बोला कैसी बात करते ही जी आदमी की बात पर भरोसा नहीं, जानवर की बात पर भरोसा करते हो। ये प्रवृत्ति ठीक नहीं है। लूकिंग लन्दन, टाकिंग टोक्यो बंधुओं! मैं आपसे कहना चाहता हूँ जटिल मत बनो। मन की गुत्थियाँ खोलो। कुटिलता और जटिलता दुनिया में कदाचित रखी तो रखो। पर चार जगह बिल्कुल मत रखो। कहाँ-कहाँ? माता-पिता के सामने कभी कुटिलता न लाओ। माँ-बाप के सामने कभी जटिल प्रति तुम्हें सारी जिंदगी कृतज्ञ रहना चाहिए। उनके सामने कुछ भी छिपाओ नहीं और उनसे कोई भी छल मत करो। आजकल ऐसे भी लोग हैं जो माता-पिता के सामने ही कुटिलता, जटिलता और कपटपूर्ण व्यवहार करते हैं। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। आज आप किसी भी बच्चे या बच्ची से उसका मोबाइल माँगों और मैसेज डिलीट किए बिना दे दे तो मुझे बताओ। सब अपना सिक्यूरिटी कोड डालकर (लगाकर) रखते हैं। आप उसके मोबाइल को खंगाल ही नहीं सकते। ये क्या है? किस बात का इन्डीकेशन (संकेत) है। ये जटिलता, ये कुटिलता तुम्हें कहाँ ले जाएगी? भटकाए बिना नहीं रहेगी। चार बाते मैंने कहीं। कृत्रिमता पूरे लोक में नहीं होनी चाहिए। कुटिलता से सब जगह बचना चाहिए। जटिलता जीवन में नहीं आने देनी चाहिए और कपट कभी नहीं करना चाहिए। जिन चार की बात मैं करने जा रहा हूँ इनके साथ तो कभी भी नहीं होनी चाहिए। माँ-बाप के साथ कुटिलता, उनके साथ छल.? आज दुनिया में ऐसे बहुत लोग हैं जो माता-पिता की सम्पति से उन्हें ही बेदखल कर देते हैं। फर्जी दस्तावेज बनाकर हड़प रहे हैं। जिनकी दृष्टि केवल सम्पत्ति पर होती है वे आत्मा को बेच देते हैं। उनकी अंतर-आत्मा मर चुकी होती है। वे किसी भी हद तक उतरने के लिए तैयार हो जाते हैं। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूँ जिन्होने माँ-बाप के साथ कुटिल व्यवहार करके उन्हें उनकी ही सम्पति से बेदखल कर दिया। मैं सम्मेद शिखर जी में था। देखो माँ क्या होती है? और आज की कलयुगी संतान की दशा क्या है। बड़ी मुश्किल से उसको अंदर आने का अवसर मिला। माँ ने मेरे कमरे में आकर मुझसे कहामहाराज जी! मैं आपसे दो बात करने के लिए आई हूँ। मैं रोज आपका शंका-समाधान सुनती हूँ और मेरी इच्छा है कि मैं गुणायतन में अपना कुछ योगदान दूँ। महाराज जी मैं ज्यादा तो नहीं दे सकती पर थोड़ी सी धनराशि देना चाहती हूँ। यदि गुणायतन में लग जाएगा तो मैं अपने आपको कृतार्थ समझेंगी। उसकी भाषा से मुझे लगा कि ये महिला पढ़ी लिखी है। उम्र सत्तर साल की थी। मैंने कहाठीक है, आपको जो देना है ऑफिस में दे दी। बोली नहीं महाराज! मैं अपने भाव आपके सामने निवेदन करना चाहती हूँ। मैं कुछ राशि अभी ढूँगी और बाकी राशि क्या दो-तीन साल में दे सकती हूँ? मैंने कहा- दान देना है तो दो। दान देने के लिए शर्त नहीं होती। तुम ऑफिस में जाकर सम्पर्क कर लो। उस महिला ने एक लाख की दान राशि बोली। उसके डीलडौल को देखकर लग रहा था कि बड़ी साधारण स्त्री है, इतनी राशि दे पाएगी या नहीं दे पाएगी। मैंने कहा- तुम क्या करती हो इतना पैसा कहाँ से दोगी? बोली कुछ नहीं महाराज मैं टीचर थी। मुझे पैशन मिलती है मैं इसे धीरे-धीरे चुका दूँगी। मैंने पूछा- तुम्हारे परिवार में और कौन है? बोली महाराज मेरे पति की मृत्यु हो गई और मेरी एक बेटी है। बेटी के पास रहती हूँ। तुम्हारा बेटा नहीं है क्या? बेटे की बात सुनते ही उसकी आँखों से आँसू आने लगे। मैंने केवल इतना पूछा तुम्हारा बेटा नहीं है और उसकी आँखों से आँसू आने लगे। मैंने पूछा क्यों क्या बात हो गई? बोली महाराज क्या बताऊँ? मेरे कर्म कैसे फूटे। एक बेटा है जब तक उसकी शादी नहीं हुई तब तक तो बहुत अच्छा था और सारे काम करता था। स्थान का नाम नहीं बता रहा हूँ उत्तरप्रदेश की घटना है। शादी से पहले सब कुछ अच्छा था पर महाराज बाद में उसने मेरी सारी सम्पत्ति पर अपना अधिकार जमा लिया, मुझे मेरे ही घर से निकाल दिया। पहले तो उसने यह कहकर मेरे खेत लिए कि मुझे दुकान में रुपयों की जरूरत है। मैंने खेत बेंच दिया। फिर उसने कहा मुझे मकान बैंक में रखकर अपनी सी.सी. लेना है। मैंने मकान भी उसको दे दिया। महाराज! उसके बाद मेरा उस घर में रहना भी उसे बहुत बुरा लगता था। धीरे-धीरे उसने मेरे साथ दुव्र्यवहार करना शुरु कर दिया, मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उससे कहा बेटे ऐसा क्यों करते हो तो उसने मुझे घर से निकल जाने के लिए कहा। मैं अपने बेटे से यह कहकर घर से निकल आई कि बेटा अगर मेरे घर से निकलने से तुझे खुशी मिलती है तो तेरी खुशी के लिए मैं घर छोड़ने के लिए भी तैयार हूँ और महाराज जी! मैं उस दिन घर से निकल गई अब मैं मेरी बेटी के पास रहती हूँ। एक कमरे में अपना गुजारा कर लेती हूँ। ये तो अच्छा है कि मैं टीचर थी, आज मुझे पैशन मिलती है। अगर ये पैशन नहीं मिलती तो शायद मैं दाने-दाने को मोहताज हो जाती। बंधुओं! ये कोई उदाहरण नहीं; एक माँ की वेदना है। माँ कहते हुए निकल रही है कि मेरे घर से निकलने में तुझे खुशी मिलती है तो इससे अच्छी बात नहीं, चल मैं घर से निकल जाती हूँ। मैंने उससे कहा कि तुम्हारे मन में तुम्हारे बेटे के प्रति कोई शिकायत नहीं? वह बोली- महाराज! मैं बहुत खुश हूँ। मैं तो यही चाहती हूँ कि आप उसको ऐसा आशीर्वाद दें कि वह खूब फले-फूले, आगे बढ़े। ये है माँ जो उस बच्चे के प्रति भी ऐसी सद्भावना रखती है जिसने उसका सब कुछ छीन लिया। क्या ये कुटिलता का निकृष्ट रूप नहीं है? हो सकता है इस सभा में भी ऐसे कुटिल व्यक्ति बैठे हों या ऐसे कोई व्यक्ति इस कार्यक्रम को सुन रहे हों। मन से कुटिलता को निकाल डाली। आज पर्युषण पर्व के अवसर पर तुम यहाँ आए हो, तुम्हारे हृदय में सरलता है तो तय करो माँ-बाप से कभी कुटिलता नहीं करूंगा। ध्यान रखना भौतिक संयोगों की प्राप्ति कुटिलता से नहीं पुण्योदय से होती है। तुम्हारा पुण्योदय होगा तो सारे संयोग अनुकूल हो जाएँगे और पापोदय होगा तो तुम कितने भी खटकर्म करो तुम्हें सफलता नहीं मिलेगी। जिसका पुण्योदय है उसे इस कुटिलता की जरूरत नहीं। अपने जीवन को कुटिलता से बचाओ, जटिलता से बचो। माँ-बाप से कुछ मत छिपाओ। ये बात मैं खासकर कम उम्र के बच्चे-बच्चियों से कहना चाहता हूँ जो प्राय: अपने माता-पिता से बातें छिपाकर रखना चाहते हैं। छिपाइए मत उन्हें बताईए। आज कल बच्चे-बच्चियों की बातें सबको पता होती हैं माँ-बाप को छोड़कर। जब तक माँ-बाप तक बात पहुँचती है तब तक पानी सिर से ऊपर हो चुका होता है। चक्रव्यूह में फस जाते हैं जिससे बाहर निकलने का कोई उपाय शेष नहीं रहता। मात–पिता से रक्खो मत पर्दा एक लड़की मेरे पास आई। उस लड़की को देखकर मेरे मन में आया कि जरूर इस लड़की के जीवन में कुछ गड़बड़ी है। मैंने बातचीत की तो पता चला लड़की सी.ए. कम्पलीट कर रही थी। उसका एक ग्रुप बचा था। दिल्ली में एक जगह पी. जी. में रहती थी। उस लड़की ने कहा महाराज जी! पाँच साल पहले मैं एक लड़के के चक्कर में फस गई और उस लड़के ने मुझे इस तरह फसाया कि हर तरह से ब्लैकमेल करता रहा। आज भी मुझे ब्लैकमेल कर रहा है। मैं उसके चुगल से बचना चाहती हूँ लेकिन मुझे कोई रास्ता नहीं दिखता, मैं किसे बताऊँ। उसने अपनी सारी बातें मुझे बताई। मैंने कहा- तुमने आपे माँ-बाप को क्यों नहीं बताया? बोली महाराज जी! माँ-बाप को बताने की हिम्मत नहीं। मैंने कहा- अपने भाई को बता देती। बोली भाई भी इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए नहीं बताया। माँ-बाप और भाई से छिपाने के चक्कर में सामने वाले ने जैसा कहा वैसा ही करती गई। पाँच साल तक उसका एक प्रकार से शोषण होता रहा। मैंने कहा ऐसा करोगी तो तुम्हारा जीवन ही नरक बन जाएगा। तुम्हें आगे आना चाहिए, तुम्हें ये सोचना चाहिए कि माता-पिता से बड़ा इस दुनिया में कोई नहीं होता। माँ-बाप, माँ-बाप होते हैं। उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, जीवन दिया, संस्कार दिए। जिस दिन पहली गलती तुमसे हुई अगर उसी दिन अपने माँ-बाप से बता देती तो आज तुम्हारी इतनी भयानक स्थिति नहीं होती। मैंने उसे समझाया। उसके माता-पिता मुझसे परिचित थे। वह कह रही थी महाराज आप मत बताइएगा। आप तो मुझे कोई रास्ता बताइए कि इस चक्रव्यूह से कैसे निकल सकू? मैंने कहा- मैं तुम्हें चक्रव्यूह से नहीं निकाल सकता। तुम्हें चक्रव्यूह से अगर कोई निकाल सकता है तो तुम्हारे माँ-बाप ही निकाल सकते हैं। महाराज जी! वे बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। उनको बड़ी तकलीफ होगी। मैंने कहा- तुम चिंता मत करो मैं तुम्हारे ही सामने अपनी तरह से तुम्हारी बातें उनको बताऊँगा। जितनी बातें मुझे बतानी हैं उतनी ही बताऊँगा। लेकिन तुम ये जान लो कि मैं तुम्हारे पिताजी को जानता हूँ, वे इतने क्षमतावान हैं कि तुम्हें सब प्रकार के दुश्चक्र से बाहर निकाल सकते हैं। मैंने लड़की के पिता को बुलाया। पहले तो उसे समझाया। बेटी में जो अच्छाइयाँ भी वे बताई और एक बात के लिए संकल्पित कराया कि जो बातें मैं तुम्हें बता रहा हूँ उसके बारे में अपनी बेटी से कोई भी सवाल नहीं करोगे। बेटी तुम्हें जितना बता दे उतना सुन लेना। तुम्हें अपनी बेटी को कोई सजा नहीं देना है, सीख देना है। इस बात का हमेशा ध्यान रखना है तुम बेटी के पिता हो पुलिस नहीं। तुम पिता की भूमिका निभाना और अगर तुम्हारी बेटी से कोई गलती हो गई हो तो उसे रास्ते पर लाना तुम्हारा पहला दायित्व है। इस भय के कारण कि पापा डाटेंगे, बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे इसलिए तुमसे छिपाया है। अगर उसके मन में यही बात बनी रहेगी तो बातें छिपाती रहेगी और बहुत गड़बड़ हो जाएगी। पिता ने अपनी बेटी को विश्वास दिलाया, बेटी ने अपने दिल की बात कही और उस पिता ने कुशलता से अपनी बेटी को पूरे चक्रव्यूह से बाहर निकाल लिया। आज खुशहाल जीवन जी रही है। मैं कहना चाहता हूँ चाहे लड़का हो या लड़की, कोई भी हो जीवन में कभी कोई गलती मत करो और अगर गलती हो जाए तो माँ-बाप से कभी मत छिपाओ। माता पिता को भी चाहिए कि बच्चे अगर कोई गलती करें तो वातावरण का प्रभाव मानकर उस गलती को माफ करो और उस बच्चे को साफ करने का रास्ता बताओ ताकि वह अपना शुद्ध जीवन जी सके, सार्थक जीवन जी सके। उसके हृदय में तुम्हारे प्रति भरोसा आ सके ये बहुत बड़ी जरूरत है। माँ-बाप के साथ कुटिलता मत रखो। माँ-बाप के साथ जटिलता मत रखो। माँ-बाप को साथ कपट मत करो। गुरु को सामने कुटिलता मत रखना। गुरु को समक्ष कुटिल बनोगे तो जीवन भर कुटिल ही बने रहोगे। गुरु के समक्ष सरल हृदय लेकर आओ। उनके सामने कुटिलता, जटिलता, कपट या कृत्रिमता लेकर जाओगे तो तुम धर्म से दूर हो जाओगे। कहावत है गुरु से झूठ मित्र से चोरी। के ही निर्धन के हो कोरी। जिनके चरणों में अपना शीश झुकाते हो, जिनको तुम अपने जीवन का आदर्श मानते हो, जिनकी पूजा करते हो, उनके पास भी अगर तुम किसी तरह का दुराव-छिपाव रखोगे, उनसे झूठ बोलोगे तो जीवन में कभी सफल नहीं हो सकोगे। वहाँ निश्छल मन से जाओ क्योंकि गुरु भी निश्छल होते हैं। निश्छल व्यक्ति के पास जब निश्छल मन से जाओगे तभी अपने जीवन में सफल हो पाओगे। वहाँ छल लेकर जाओगे तो दुनिया भर में छले जाओगे। ध्यान रखना दूसरों को छलने वाला खुद को छलता है। हम दूसरों को कितनी बार छलेगे? जैसे हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार। फिर न होवे कपट सों वर्षों मत कर बीती यार। जैसे काठ की हांडी दूसरी बार प्रयोग में नहीं आती वैसे ही छल-कपट किसी के साथ एक बार से दुबारा तो नहीं कर पाओगे। जिनके सम्मुख हम सरलता पाने के लिए जाते हैं अगर वहाँ भी कुटिलता करेंगे तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। माता-पिता, गुरु, कल्याण मित्र, जो तुम्हारे हित का आकांक्षी हो ऐसा मित्र, जो तुम्हारे जीवन को आगे बढ़ाना चाहता हो ऐसा मित्र, जो तुम्हारे आत्मा के उत्थान की बात सोचता हो ऐसे मित्र के साथ कभी कृत्रिमता, कुटिलता, जटिलता और कपट का व्यवहार मत करना नहीं तो जीवन बर्बाद हो जाएगा। उनके साथ बहुत सजग रहो। अपने दिल की बात खुलकर बोलो और सच्चाई के साथ प्रस्तुत हो। कई बार लोग अपने थोड़े से स्वार्थ के कारण इस तरह का आचरण कर लेते हैं और जीवन बर्बाद कर डालते हैं। ऐसी दुष्प्रवृत्तियों से अपने आप को बचाइए। कौन सा मित्र? कई तरह के मित्र होते हैं। एक मित्र होता है जो चौबीस घण्टे आपके साथ रहता है। एक मित्र होता है जो कभी-कभी आप के साथ होता है और कोई मित्र होता है जो वक्त पर बुलाने पर आता है। सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति में साथ देता हो, जो तुम्हें आगे बढ़ने और बढ़ाने की प्रेरणा देता हो। उस मित्र के साथ कभी धोखा नहीं करना चाहिए, उस मित्र के साथ कभी विश्वासघात नहीं होना चाहिए, उस मित्र के साथ कभी छल और फरेब नहीं होना चाहिए कम से कम इतना तो तुम सुनिश्चित कर ली। मुझे मालूम हैं। मेरे प्रवचन को सरलता से सुनोगे और जितनी सरलता से सुनोगे उतनी ही सरलता से भूल भी जाओगे। लेकिन जितना तुम कर सकते हो उतना तो तुम कर लो। कल्याण मित्र के साथ मैं ऐसा नहीं करूंगा। धर्मक्षेत्रे कृतं पापं, वज़लेपो भविष्यति नम्बर चार धर्म क्षेत्र में कृत्रिमता नहीं, धर्म क्षेत्र में कुटिलता नहीं, धर्म क्षेत्र में कपट नहीं और धर्म क्षेत्र में जटिलता नहीं इतना तय कर लो। धर्म क्षेत्र में भी लोग बहुत तरह की कुटिलता करते हैं। इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा यो आस्ते मनसा स्मरन्। उभयेषाम् इन्द्रियार्थानां मिथ्याचारः स निगद्यते॥ जिसने पाँच इन्द्रिय को विषयो को त्याग दिया हो लेकिन बार-बार मन में उन्हें याद करता हो तो ये एक प्रकार का मिथ्याचार है। ऐसा व्यक्ति दूसरों को धोखा नहीं देता स्वयं के साथ बहुत बड़ा धोखा करता है। स्वयं के साथ बहुत बड़ा छल करता है। ऐसे छल से अपने आप को बचाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि ये कोशिश जारी रही तो जीवन निश्चयत: उत्कर्ष की ओर जाएगा, जीवन ऊँचा उठेगा। आज आर्जव धर्म के दिन चार ही बातें मैंने आप से कहीं हैं कि जीवन को कृत्रिमता से बचाएँ, जीवन को कुटिलता से बचाएँ जीवन को जटिलता से बचाएँ और जीवन में कपट कभी न पनपने दें। किसी के साथ धोखा, किसी के साथ विश्वासघात, किसी के साथ छल-फरेब न करें। ये घोर अनैतिक कृत्य हैं। इस प्रकार के कुकृत्यों से अपने आप को बचाना चाहिए। इसमें भी चार स्थल पर तो पूरे जीवन भर सावधान होना चाहिए। धर्म क्षेत्र से अपने आप को बचा लिया तो समझ लो तुमने अपने जीवन में बहुत कुछ पा लिया और अगर यहाँ फैल हो गए तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मनुष्य की स्थिति बड़ी विचित्र हो रही है। एक प्रसंग याद आ गया। सुनाकर बात को विराम दे रहा हूँ। एक युवक था। पढ़ा-लिखा बेरोजगार था। कोई रोजगार नहीं मिला तो क्या करे? एक सर्कस वालों से सम्पक किया। उनके यहाँ विकेन्सी निकली कि हमें कुछ लोगों की जरूरत है। सर्कस वालों के यहाँ गया तो सर्कस वालों ने उससे कहा कि भाई हमारे यहाँ जो वनमानुष था वह मर गया है। अपने चिड़ियाघर में हमें वनमानुष रखना है। तुम्हें कुछ नहीं करना है बस, वनमानुष की खाल पहनकर वनमानुष जैसी हरकतें करना है। अपनी हरकतों से आने वाले दर्शको का मनोरंजन करोगे तो हम तुम्हें उसके ऐवज में कुछ इन्सेन्टिव(प्रोत्साहन राशि) देंगे। मरता क्या नहीं करता? उसने वनमानुष की खाल पहनकर एक्टिंग करना शुरु कर दिया। दर्शक आते, देखते साक्षात वनमानुष बैठा है। वह अलग-अलग तरह की हरकतें करके दर्शकों का मनोरंजन करता। दर्शक उसको कुछ खाने-पीने के लिए देते तो उसे खाने-पीने में भी मजा आता। जहाँ इसका बाड़ा था उसके बगल में शेर का बाड़ा था। एक रोज ये ऊपर बैठकर अपनी हरकतें कर रहा था। दर्शक इसे रिझा रहे थे। ये कुछ ज्यादा झुक गया तो सीधे शेर के बाड़े में गिर गया। शेर के बाड़े में गिरा तो शेर एकदम घुर्राता हुआ सामने आ गया। शेर को देखकर इसकी घिघ्घी बंध गई। दोनों हाथ जोड़कर शेर को सामने बोला– भैया! माफ करो, बाल–बच्चो का ख्याल करो। मैं वनमानुष नहीं, मानुष हूँ। मेरे बाल-बच्चे हैं, नौकरी करने के लिए आया हूँ, मुझे बख्श दो। बड़ी कृपा होगी। कम से कम मेरे बाल-बच्चों पर रहम खाओ। शेर ने उसकी एक न सुनी। नजदीक आता गया और नजदीक आकर बिल्कुल उसकी गर्दन के पास आया तो इसकी हालत एकदम पतली हो गई। फिर कहा- भैया! माफ कर दो, मैं आदमी हूँ वनमानुष नहीं। शेर ने कहा- गनीमत है कि मैं भी असली शेर नहीं हूँ, मैं भी आदमी हूँ। जाओ अपना काम करो। ये हाल है आजकल। बड़ी विचित्रता है। छोड़िए इस प्रकार की कुटिलता को, इस प्रकार की जटिलता को और इस तरह की कृत्रिमता को। अपने मन को कपट को दूर भगाइए तभी आर्जव ध म आपके जीवन में प्रकट होगा।
  4. आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति एक राजा ने किसी सन्त के चरणों में उपस्थित होकर उनसे अपने राजमहल में भिक्षा ग्रहण करने का निवेदन किया। सन्त ने राजा का निवेदन स्वीकार कर लिया और कहा- ठीक है, कल मैं तुम्हारे राजमहल में भिक्षा ग्रहण करूंगा। संत का आश्वासन पाकर राजा फूला न समाया, सन्त के स्वागत में उसने पलक-पाँवड़े बिछा दिए। निश्चित समय पर सन्त का आगमन हुआ। राजा ने उनसे भिक्षा ग्रहण करने का अनुरोध किया तो सन्त ने कहा- मैं अपनी भिक्षा में ज्यादा कुछ नहीं लेता, मेरे पास एक कटोरा है, मैं उस कटोरे भर भिक्षा ही लेता हूँ तुम कोई भी चीज मेरे कटोरे में डाल दो। राजा ने कहा- ठीक, जैसी आपकी आज्ञा। संत ने अपना कटोरा राजा की ओर बढ़ा दिया। राजा ने सन्त के भोजन के लिए खीर तैयार करवाई थी। कटोरा देखने में छोटा सा ही था। राजा ने उसमें पूरी खीर उड़ेल दी फिर भी कटोरा खाली ही रहा। दो चम्मच खीर से भरने लायक कटोरे को पूरी खीर उड़ेलने के बाद भी नहीं भरा जा सका तो राजा के मन में बड़ी उथल-पुथल मचने लगी। आखिर बात क्या है? द्वार पर आए। सन्त का सत्कार न हो सका, अभ्यागत अतिथि का सम्मान न कर सका तो मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा? इनकी एक छोटी सी रिक्वायरमेंट (आवश्यकता) भी मैं पूरी नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे लिए इससे बड़ी विडम्बना की बात और क्या होगी? राजा ने दोबारा खीर बनवाई, वह भी उस कटोरे में समा गई। तीसरी बार खीर बनवाई, वह भी उसमें समा गई। अब राजा से रहा नहीं गया। वह सन्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- गुरुदेव! क्षमा करो। ये कटोरा कब भरेगा? संत ने कहा- ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। संत की बात सुनकर राजा एकदम आश्चर्य में पड़ गया, आखिर ये कटोरा क्यों नहीं भरेगा? ये कटोरा किस धातु का बना है? सन्त ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा- राजन! किसी धातु से बना कटोरा भर सकता है पर ये कटोरा कभी नहीं भरेगा। क्यों नहीं भरेगा? दुनिया के सब कटोरे भर सकते हैं पर मानव के मन का कटोरा कभी नहीं भर सकता। वह हमेशा खाली का खाली ही रहता है, उसे जितना-जितना भरने का प्रयास किया जाता है वह उतना ही रिक्त होता जाता है। आज का शौच धर्म हमें यही प्रेरणा देता है। "प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृित्तिः शौचम्" उत्कृष्टता को प्राप्त लोभ की निवृत्ति का नाम शौच है। शौच का शाब्दिक अर्थ होता है पवित्रता। बाहर की पवित्रता का ध्यान हर कोई रखता है लेकिन यहाँ आतरिक पवित्रता से प्रयोजन है। आांतरिक पवित्रता तभी घटित होती है जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है। हमारे मन में पलने वाला लोभ ही हमारे मन में अपवित्रता उत्पन्न करता है। आचार्य कार्तिकेय स्वामी ने इस अपवित्रता के प्रक्षालन का उपदेश देते हुए कहा है - सम-संतोस-जलेण जो धोवदि तिव्वलोह-मलपुंजं | भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्च हवे विमल|| जो समता और संतोष के जल से लोभ रूपी तीव्र मल के पुंज का प्रक्षालन करता है उसके अन्तरंग में शौच धर्म प्रकट होता है। लोभ व्याकुलता को उत्पन्न करने वाला तत्व है तो संतोष के बल पर लोभ का शमन किया जा सकता है। आज मैं आपसे संतोष की बात करूंगा। एक बार मैं संतोष की चर्चा कर रहा था। एक युवक ने मुझसे कहा- महाराज! आप संतोष की बात तो करते हैं लेकिन आपको शायद दुनिया का पूरा अनुभव नहीं। यदि हम लोग संतोष धारण करके बैठ जाएँ तो जीना ही मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हमारा सम्पूर्ण जीवन धन-पैसे की बदौलत ही चलता है, बिना पैसे के हमारी गृहस्थी की गाड़ी एक कदम भी नहीं चल सकती, जीवन की सारी जरूरतों की पूर्ति हम पैसे से करते हैं, बिना पैसे के हमें कोई पूछता तक नहीं, पैसों से ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, हमारी पूछ-परख होती है, हमारी पहचान बनती है और आप कहते हो संतोष करके बैठ जाओ तो फिर बिना पैसे के जीवन में क्या होगा? मैं समझता हूँ ये प्रश्न कभी आपके मन में भी आया होगा या आता होगा। मैंने उस युवक को जो जवाब दिया आज मैं उसी को अपने प्रवचन का आधार बनाकर बात आगे बढ़ाता हूँ। मैंने कहा- जीवन में पैसे की आवश्यकता है, मैं उसे नकारता नहीं पर कुछ बातों पर विचार करो। पैसा तुम्हारे जीवन में आवश्यक है लेकिन क्या पैसे से ही सब कुछ उपलब्ध हो सकता है? पैसा जीवन में कितना आवश्यक है इसका विचार करो। इस बात का विचार करो कि जीवन के लिए पैसा है या पैसे के लिए जीवन? यदि जीवन के लिए पैसा है तो तुम्हारे मन में तीव्र लोभ और लिप्सा के भाव पैदा नहीं होंगे और यदि पैसे के लिए जीवन है तो तुम्हारी लोभ, लालच, लिप्सा का कभी अंत नहीं होगा। जरूरी नहीं सभी जरूरतें आज की चार बाते हैं- आवश्यकता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति। आवश्यकता.......हर प्राणी के जीवन के लिए कुछ आवश्यक साधन चाहिए, उनकी आवश्यकता है। आवश्यकता भी दो प्रकार की है- एक अनिवार्य आवश्यकता जिसके बिना आपका जीवन नहीं चल सकता। जीवन जीने के लिए श्वास की आवश्यकता है, प्राण वायु न हो तो जीवित नहीं रह सकोगे। पानी की आवश्यकता है, पानी न मिले तो जीवन न टिकेगा। भोजन की आवश्यकता है, भोजन न मिले तो तुम्हारा जीवन नहीं टिकेगा। रहने के लिए घर की आवश्यकता है, घर न मिले तो आप ठीक से जी नहीं सकते और पहनने के लिए वस्त्र की आवश्यकता है इसके बिना आपका जीवन नहीं गुजर सकता -ये अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। सन्त कहते हैं धर्म तुम्हें तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कतई मनाही नहीं करता। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। रहने के लिए घर चाहिए; एक घर बना लो, पहनने के लिए वस्त्र चाहिए; वस्त्र ले ली, खाने के लिए भोजन चाहिए; दो जून की रोटी की व्यवस्था कर लो, इसमें तुम्हें ज्यादा समय नहीं लगता, इसके लिए तुम्हें ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हें अपने रहने के मकान के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना पेट भरने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है, तुम्हें अपना तन ढकने के लिए कितने पैसों की आवश्यकता है? तय करो और उसकी पूर्ति कर लो। आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ज्यादा प्रयत्न करने की जरूरत नहीं होती। हर कोई अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है। एक है अनिवार्य आवश्यकता और दूसरी है विलासितापूर्ण आवश्यकता। महाराज! अब हम लोगों की लाइफ स्टाइल (जीवन शैली) थोड़ी अलग हो गई है, लग्जीरियस टाइप (सुविधावादी)। रहने के लिए घर चाहिए तो ऐसा-वैसा घर नहीं, शहर के किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, देखने में आकर्षक होना चाहिए, बढ़िया फर्नीचर होना चाहिए, ये सब हो तो घर, घर है। महाराज साधारण सा मकान तो साधारण ही होता है। ये बात और है कि जब तुम्हारा अपना घर नहीं था तब तुमने सोचा था कि कैसे भी हो, अपनी पक्की छत हो जाए। अब समर्थ हो गए, घर बन गया तो अब मन में विचार आता है कि किसी पॉश एरिया में घर होना चाहिए, बढ़िया घर, अच्छा फ्लैट होना चाहिए, उसका अच्छा फर्नीचर होना चाहिए -ये लग्जीरियस (सुविधावादी) में आ गया। भोजन की आवश्यकता है, दो वक्त की रोटी आप कभी भी खा सकते हो लेकिन नहीं, हमारा भोजन और अच्छा होना चाहिए, अच्छे से अच्छा भोजन होना चाहिए। चलो इसको भी मान लिया। कपड़े चाहिए लेकिन कपड़े भी ऐसे-वैसे नहीं होने चाहिए, ब्राण्डेड होने चाहिए, इसको भी मान लिया। ये आवश्यकता नहीं है, ये सब इच्छा से प्रेरित परिणति है। इच्छा से प्रेरित होने के कारण मनुष्य उसमें उलझ जाता है। संत कहते हैं इस पर भी यदि तुम एक जगह थम जाओ तो तुम्हारे जीवन में अशांति नहीं होगी लेकिन आप कभी थमते ही नहीं। आवश्यकताओं की पूर्ति करो पर कितनी आवश्यकता इसका विचार करो। कितनी भूख लगी है? भोजन की आवश्यकता है तो हो सकता है किसी का पेट दो रोटी में भर जाए और किसी का पेट बीस रोटी में भरे। पेट भर जाने के बाद अगर उस व्यक्ति से कुछ कहा जाए, चाहे आग्रह किया जाए, मनुहार किया जाए कि कुछ और खा लो तो वह साफ इन्कार कर देता है कि भाई! पेट भर गया, अब मैं रसगुल्ला भी स्वीकार नहीं कर सकता, मुझे इसकी जरूरत नहीं क्योंकि मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति हो गई। पेट भर जाने के बाद कोई भी व्यक्ति कुछ भी खाने को तैयार नहीं होता, भूख की एक आवश्यकता थी, पेट भर गया। बंधुओं! ये पेट तो आप फिर भी भर लेते हो पर मन का पेट कभी नहीं भरता। कितनी आवश्यकता है ये तय करो। मनुष्य तब का निर्धारण नहीं कर लेता। तय कीजिए मेरे जीवन में क्या आवश्यक है। पैसा कमाना आवश्यक है, कमाइए, कोई निषेध नहीं, पर कितना कमाना है? कितना जरूरी है? कितने में आपकी पूर्ति हो जाएगी? पैसे की कहानी बड़ी विचित्र है। किसी को आठ रोटी की भूख हो और उसे चार रोटी खाने को मिल जाएँ तो भूख आधी हो जाती है। आठ रोटी की भूख हो और चार खा लीं तो भूख आधी हो गई, किसी को दस लाख की चाहत हो और पाँच लाख मिल जाएँ तो क्या चाहत आधी होती है? क्या हो गया? आठ रोटी की चाहत में चार मिलने से भूख आधी हो जाती है तो दस लाख की चाहत में पाँच लाख मिलने पर भी तुम्हारी भूख आधी होनी चाहिए। महाराज! पाँच लाख मिलने के बाद दस लाख की चाहत बीस लाख में परिवर्तित हो जाती है, रोज का अनुभव है। आवश्यकता कितनी है इसे ध्यान में रखो। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्साहित कम होता है, आवश्यकताओं के साथ जुड़ी हुई इच्छाओं की परिपूर्णता में रात-दिन पीड़ित रहता है। जो अपनी आवश्यकताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएँ हावी हो जाती हैं वह कभी सुखी नहीं होता। आकांक्षा नहीं लोभ का विस्तार शौच धर्म कहता है- आवश्यकता और आकांक्षा के बीच की भेदक रेखा को समझकर चली। कितनी आवश्यकता है? कितने में तुम्हारा काम चल सकता है? कितने में अच्छे से जी सकते हो, मौजपूर्वक जी सकते हो? आदमी जब व्यापार की शुरुआत करता है तो ये सोचकर करता है कि ये मेरे कैरियर के लिए जरूरी है। पैसा कमाना शुरु करता है तो सोचता है कि जब मैं पैसा कमाऊँगा तभी अपने घर परिवार को चला पाऊँगा, ये मेरी जिम्मेदारी है। अपनी जिम्मेदारियों का पालन कर सकेंगा, अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकेगा। ठीक है, पैसा कमाना तो तुमने शुरु कर दिया लेकिन जिसके लिए पैसा कमाना शुरु किया था क्या वह कर पाए? पैसा कमाना आवश्यक है, मैं निषेध नहीं करता। आवश्यकता है क्योंकि मुझे परिवार को देखना है, अपने बच्चों के भविष्य को संवारना है, खुद की जिम्मेदारियों को पूरा करना है, अपने सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का भी धर्मपूर्ण अनुपालन करना है। आप पैसा कमाने के साथ इस बात का विचार करो कि जिस उद्देश्य से पैसा कमाने के लिए उत्साहित हुए थे, उस उद्देश्य की पूर्ति हो भी रही है या नहीं? रात-दिन पैसे के ही पीछे पागल हो जाना कतई समझदारी नहीं है। दुनिया में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पहले जरूरत के लिए ही पैसा कमाते थे, अब कमाने के लिए कमाते हैं। शुरुआत में पैसा उनकी जरूरत थी, अब पैसा कमाना एक नशा हो गया। ऐसा नशा जिसका कोई अंत नहीं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं। जहाँ से भी अवसर मिले दौड़ जाओ। एक बड़ा उद्यमी था। वह बहुत व्यस्त रहता था। अक्सर रात के ग्यारह बजे के पहले घर आना नहीं होता था और सुबह नौ बजे के आसपास उठता और नहा-धोकर सीधे अपने ऑफिस के काम में लग जाता। सुबह उठे तो बच्चे अपने स्कूल चले जाते और रात को आता तो बच्चे सो जाते। बच्चों के लिए कभी उसके पास टाइम ही नहीं रहता, समय ही नहीं निकाल पाता। बच्चे इस बात से बड़े आहत रहते थे कि पापा अपने बिजनिस (व्यापार) में ही इतने मग्न रहते हैं कि हम लोगों के लिए उनके पास कोई समय ही नहीं है। एक दिन उस उद्यमी के बच्चे ने उससे पूछा- पापा! आप एक घण्टे में कितना कमा लेते हो? पिता ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- बस यूँ ही पूछ रहा हूँ, आप बताइए न। उसने कहा- यूँ समझ लो कोई पाँच हजार। वह बच्चा तुरंत अपनी माँ के पास गया और बोला- माँ! क्या आप मुझे दो हजार रुपये दोगी? माँ ने पूछा क्यों? बच्चा बोला- आप दीजिए तो सही फिर बताता हूँ। माँ ने बच्चे को दो हजार रुपये दे दिए, उसकी गुल्लक में तीन हजार थे, कुल मिलाकर पाँच हजार हो गए। बच्चे ने रुपये अपने पिता के आगे रखते हुए कहा- पापा। ये लो पूरे पाँच हजार रुपये और प्लीज हमें एक घण्टे का समय देने की कृपा करो। कितना बड़ा प्रहार है? सोचो! पैसे हैं पर समय नहीं है। क्या ये लोभ की पराकाष्ठा नहीं है? आसक्ति का चरम नहीं है? विचार करने की आवश्यकता है कि हम क्या कर रहे हैं? क्या हो रहा है इस पर गम्भीरता से विचार कीजिए। सोचिए आवश्यकता की सीमा क्या और कितनी है? रात-दिन दौड़ते ही रहना अगर तुम्हारे जीवन की जरूरत बन गई है तो दौड़ते रहो। एक युवक ने अल्प उम्र में बहुत अच्छा कारोबार बढ़ाया, पैसा कमाया, सेल्फ मेड व्यक्ति था। आज उसकी उम्र 38-40 साल के बीच है। एक दिन उसकी धर्मपत्नी ने उसके सामने मुझसे शिकायत की कि महाराज जी! इनको समझाओ, केवल पैसा कमाना ही जीवन नहीं है, जीवन में और भी बातों का ध्यान रखें। परिवार के लिए सोचें, पत्नी के लिए सोचें, बच्चों के लिए सोचें, धर्म के लिए सोचें, खुद के लिए सोचें। मैंने उसकी तरफ देखा कि भाई! क्या बात है? वह बोला- महाराज! बस थोड़े ही दिन की बात और है, मैं सोच रहा हूँ कि थोड़े दिन और कमा लें फिर आप लोगों के रास्ते पर लगूँगा। मैंने पूछा- थोड़े दिन और क्यों कमाना चाहते हो? उसने कहा- महाराज! बस इतना हो जाए कि कल हमारे बच्चों को शिकायत न हो, पर्याप्त हो जाए। मैंने कहा- पर्याप्त की कोई सीमा होती है क्या? पर्याप्त किसे बोलते हैं? है किसी के पास पर्याप्त की सीमा? कितने को तुम पर्याप्त कहोगे बताओ? कई बार लोग सोचते हैं कि इतना मेरे लिए सफिसिएण्ट (पर्याप्त) है। उतना आते ही वह इनसफिसिएण्ट (अपर्याप्त) हो जाता है। जब तक नहीं है तब तक सफिसिएण्ट (पर्याप्त) और उतना मिल गया तो और पाने की चाहत होती है, पर्याप्त कभी होता ही नहीं है। पर्याप्त कभी नहीं होगा। आज जग जाओ तो पर्याप्त है। तुम बताओ आज जो तुम्हारे पास है, क्या वह तुम्हारे जीवन-निर्वाह के लिए कम है? तुम्हें कितना चाहिए? अपने बच्चों के लिए तुमने जो जोड़कर रखा है क्या वह कम है? आज तुम सारा काम बन्द कर दो तो क्या तुम अपनी हुकोचता ह सक्ते महाज से ते आक आदिसे बहुत है। मैंने पूछा- फिर क्या बात है? महाराज! थोड़ा समय और चाहिए। पत्नी ने शिकायत की इनका बीडी के पत्तों का काम है, जगलों में फिरते रहते हैं, महीनों घर से बाहर रहते हैं, इनको बोली इसकी जरूरत क्या है? हमें ऐसा पैसा नहीं चाहिए। हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें अपना पति चाहिए। बच्चे कहते हैं हमें अपने पिता चाहिए और ये कहते हैं अभी कमाने दो। अब बताओ इस स्तर से पैसा कमाना जरूरत है या पागलपन? मैंने उसे समझाया- भाई! तुमने इतनी हाय-हाय क्यों लगा रखी है? तुम्हारे पिता जी ने तुम्हें जो सम्पति दी थी, तुमने उसका क्या किया? उसको घटाया या बढ़ाया? महाराज! पिता जी ने जो सम्पति दी थी, मैंने उसे कई गुना बढ़ाया। मैंने कहा- मतलब तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति तुम्हारे काम नहीं आई? बोला- हाँ महाराज! मैं उसे भोग नहीं सका। तब मैंने उससे कहा कि जब तुम्हारे पिता की सम्पति तुम्हारे काम नहीं आई तो तय मानना तुम्हारी सम्पत्ति भी तुम्हारे बेटे के काम में नहीं आने वाली, अगर बेटे में हुनर होगा तो जो तुम छोड़ोगे, उससे कई गुना बढ़ा लेगा और अगर तुम्हारा बेटा हुनरशून्य होगा तो तुम कितना भी छोड़ जाना, वह सब मटियामेट कर देगा, सत्यानाश कर देगा। किसके लिए जी रहे हो? रुको, थमो, सोचो कितनी आवश्यकता है? आकाक्षा का कोई अन्त नहीं है। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) को पूरा किया जा सकता है, लग्जीरियस रिक्वयॉरमेण्ट (सुविधाभोगी जरूरत) भी पूरी की जा सकती है लेकिन डिजायर (इच्छा) ऐण्डलेस (अन्तहीन) है। भईया! कहीं तो ऐण्ड (अन्त) करो। रिक्वयॉरमेण्ट (जरूरत) का ऐण्ड (अन्त) है लेकिन डिजायर एण्ड (और) वाली है। इस एण्ड -एण्ड((और-और-और) के चक्कर में तुम्हारी साडी जिन्दगी बैण्ड हो गई है | सम्हालो अपने आपको | इच्छाओं का कोई अंत नहीं है | 'जहा लाहो तहा लोहो लोहो लाहेन वड्ढड़।' जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। लोभ लाभ से बनता है। इच्छा को आकाश के समान अनन्त माना है। अनन्त आकाश को देखते हैं तो दूर क्षितिज पर ऐसा नजर आता है कि दो, चार, दस मील चलेंगे तो क्षितिज को छू लेंगे। वहाँ पर धरती आकाश मिलकर एक हो गए हैं। लेकिन दुनिया के किसी कोने में ऐसा छोर नहीं जहाँ धरती और आकाश मिलकर एक होते हों। हम दो-चार कदम चलते हैं; क्षितिज भी हमसे उतना ही दूर भागता रहता है। मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा इस भाव से प्रकट होती है कि इसके बाद ये हो जाएगा तो काम खत्म लेकिन वह काम होते ही मन में दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। दूसरी के बाद तीसरी उत्पन्न हो जाती है। उनका अन्त कभी नहीं होता। भगवान महावीर ने कहा है- सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि इच्छा हुआगाससमा अणन्तिया। सोने चाँदी के कैलाश की तरह असंख्यात पर्वत हो जाएँ तो भी लुब्ध मनुष्य को संतोष नहीं हो सकता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। बन्धुओं! आवश्यकता-मूलक जीवन जिएँ, आकांक्षा-मूलक जीवन मत जियो। अपने मन में अतिरिक्त आकांक्षा को पनपने मत दीजिए, ये तुम्हारे जीवन की शान्ति को खण्डित करने वाली है। जिसके मन में आकांक्षाएँ होती हैं वह जिन्दगी भर दौड़ता रहता है। ये आकांक्षाएँ दौड़ाती हैं। एक आचार्य ने लिखा - आशा नाम मनुष्याणा काचिदाश्चर्य-श्रृंखला। यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुवत्॥ सामान्यत: कोई व्यक्ति किसी के बन्धन में बंध जाए तो वहीं ठहर जाता है लेकिन ये आशा-आकांक्षा का बंधन, एक ऐसा बंधन है जिससे बंधने वाला मनुष्य सारी जिन्दगी दौड़ता रहता है और उससे जो मुक्त हो जाता है वह पंगु(लंगड़े व्यक्ति) की तरह कीलित हो जाता है। तुम्हारे मन की इच्छाएँ तुम्हें दौड़ाती हैं। इच्छा कई प्रकार की होती हैं- धन की आकांक्षा, यश की आकांक्षा, काम की आकांक्षा, सत्ता की आकांक्षा -ये सारी आकांक्षाएँ मनुष्य को बर्बाद करती हैं, इन पर अंकुश होना चाहिए। धनाकांक्षा पर अंकुश, यश-आकांक्षा पर अंकुश, सत्ता की आकांक्षा पर अंकुश और काम की आकांक्षा पर अंकुश इन चार बातों को ध्यान में रखी। मुझे कितना धन चाहिए इस पर भी नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है। यदि मनुष्य यहाँ नहीं जगता तो वह मनुष्य अन्धा ही बना रहता है, वह दौड़ता ही रहता है। सम्राट सिकन्दर विश्वविजयी बनने का सपना लेकर भारत आया। सत्ताईस वर्ष की उम्र में उसने सारी दुनिया पर फतह पाने की शोहरत पाई लेकिन जब वह भारत से यूनान लौट रहा था तब अपने जीवन के अंतिम दिनों में गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसकी उस बीमार दशा में वैद्यों ने तरह-तरह के उपचार किए लेकिन कोई भी उपचार उस पर असर नहीं छोड़ सका तब सिकन्दर ने कहा कि मैं तुम लोगों से एक ही निवेदन करता हूँ, मेरी एक छोटी सी गुजारिश है कि किसी भी तरह मुझे मेरी माँ तक पहुँचा दो। मैं अपनी माँ से बहुत मोहब्बत करता हूँ। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आपके शरीर की स्थिति ऐसी नहीं है कि आपको आपकी माँ तक पहुँचाया जा सके। सिकन्दर ने कहा- मुझे मेरी माँ तक नहीं ले जा सकते तो कोई बात नहीं, मेरी माँ के यहाँ आने तक मुझे बचा लो, मैं तुम्हें अपना आधा साम्राज्य दे दूँगा। परिचारकों ने कहा- सम्राट! आधा क्या आप पूरा साम्राज्य भी दे दें तो भी हम इस बात की गारंटी नहीं ले सकते कि आपकी माँ के यहाँ आने तक आपको बचाया जा सके।तब सिकन्दर ने कहा- धिक्कार है उस साम्राज्य और उस सम्पदा को सब को दाँव पर लगाने के बाद भी वह मुझे एक साँस के लिए बचाने में असमर्थ है। अब मैं चाहूँ भी तो रुक सकता नहीं दोस्त, कारण मंजिल ही खुद ढिंग बढ़ती आती है। मैं जितना पाँव जमाने की कोशिश करता हूँ, उतनी ही माटी और धसकती जाती है। मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला, नयनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है। है राम नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ, बस यही ध्वनि कानों से आ टकराती है। सिकन्दर ने कहा- मेरे मरने के बाद जब तुम लोग मेरा जनाजा उठाओ तो मेरे दोनों हाथ जनाजे से बाहर निकाल देना। परिचारकों ने कहा- जनाजे से हाथ निकालना तो कायदे के खिलाफ होगा। तब सिकन्दर बोला- हाँ, सिकन्दर का जनाजा उठेगा और कायदे के विरुद्ध ही उठेगा ताकि दुनिया के लोग इस बात को जान सक कि सारे कायदों का उल्लंघन करके विश्वविजेता बनने वाला सिकन्दर भी दुनिया से खाली हाथ ही जा रहा है। बन्धुओं! सिकन्दर को तो जीवन की आखिरी घड़ी में याद आ गया कि राम नाम सत्य है बाकी सब असत्य है। आप को कब याद आएगा? लोगों का राम नाम सत्य भी हो जाता तब भी "राम नाम सत्य है" याद नहीं आता। लोग मुदों को 'राम नाम सत्य है' सुनाते हैं, अरे जीते जी सुनो। अगर जीते जी 'राम नाम सत्य है' इस बात को समझ गए तो तुम्हारा राम नाम सत्य होने से पहले जीवन को सत्य को प्राप्त कर लोगे। आसक्ति खुद को खा लेगी आकांक्षाओं से अपने आपको बचाओ। आसक्ति से बचो। आवश्यकता के ऊपर जब आकांक्षा हावी होती है तो मनुष्य बहुत कुछ उपार्जित और संग्रहीत करने के पीछे लग जाता है। संग्रह करते-करते उसके प्रति आसक्ति इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि न तो वह उसका उपभोग कर पाता है और न ही उसका उपयोग कर पाता है। संग्रहीत करके रखता जाता है। ये आसक्ति बड़ी खतरनाक है। ऐसा आदमी पैसे का कीड़ा बन जाता है। सन्त कहते हैं आवश्यकता के अनुरुप संग्रह करो। अपनी आकांक्षाओं को सीमित करने की कोशिश करो और जो तुम्हारे पास संग्रहीत है उसमें आसक्त मत हो, अनासक्त भाव रखो, उसका सदुपयोग करो, उसे अच्छे कार्य में लगाने की कोशिश करो, गलत रास्ते में अपने पैसे को कभी मत लगाओ। ये दृष्टि और भावना तुम्हारे हृदय में विकसित हो गई तो जीवन में कभी गड़बड़ नहीं होगी। कबीर ने कहा - बेड़ा दीनो खेत को बेड़ा खेती खाय। तीन लोक संशय पड़ा काहो करे समझाय। हमारी संस्कृति कहती है कि तुम्हारे जीवन में धन पैसे की वैसी ही भूमिका है जैसे खेत में फसल की सुरक्षा के लिए चारों तरफ लगाई जाने वाली बाड। बाड़ लगाने से खेत की फसल सुरक्षित होती है। बाड़ केवल इस ख्याल से लगाया जाता है कि बाड़ न होने पर मवेशी चरकर उस फसल को नष्ट कर सकते हैं इसलिए बाड़ लगाओ। बाड़ बाहर होती है। बाड़ अगर खेत में प्रवेश कर जाए तो खेती कहाँ करोगे? ये धन पैसा तुम्हारे जीवन के निर्वाह के लिए साधन है, साध्य नहीं है। ये बाड़ है, उससे मूल्यवान जीवन है। जीवन के लिए पैसा है, पैसे के लिए जीवन नहीं है। आप किसके लिए जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाते हो या पैसे के लिए जीवन जीते हो? जीवन के लिए पैसा कमाना बुरा नहीं है, साथ जीना और पैसे के लिए जीना, दोनों में बहुत अंतर है। हमारे पास शरीर है, हम शरीर के लिए नहीं जीते, शरीर साथ जीते हैं, शरीर का उपयोग अपनी साधना के लिए करते हैं आप पैसे वाले हो, किसके लिए जीते हो? पैसे के लिए जीते हो या पैसे के साथ जीते हो? तय करो। पैसे के लिए जीते हो तो जीवन का दुरुपयोग कर रहे हो और यदि पैसे के साथ जीते हो तो फिर भी उपयोग हो सकता है। पैसे के साथ जीने वाला मौके पर पैसे का सदुपयोग करता है और पैसे के लिए जीने वाला सारी जिन्दगी उससे चिपककर रहता है, छूटता ही नहीं, अगाढ़ आसक्ति होती है। मरणासन्न स्थिति में भी उसके हाथ से पैसा निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसे लोभी आसक्त मनुष्य कृपण-कजूस बन जाते हैं, उनके हाथ से कुछ भी निकलता नहीं। एक कजूस सेट मरणासन्न था। बार-बार उसके मुख से ब, ब, ब निकल रहा था। उसके बेटे उसकी सेवा में लगे थे। उन्होंने सोचाब, ब क्यों बोल रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा। कहीं कुछ बक्से-अक्से की बात तो नहीं है, कहीं रखा हो तो माल-वाल मिल जाए। बेटों ने डॉक्टर से कहा- डॉक्टर साहब! कुछ ऐसा उपाय करो जिससे ये कुछ बोलें। डॉक्टर ने कहा- देखो भईया! एक इंजेक्शन तो कुछ बात बन सकती है। पचास हजार वाला इंजेक्शन देने से एक-दो वाक्य बोल सकते हैं। बेटों ने सोचा- बूढ़ा मर रहा है अगर एकाध बक्सा बता देगा तो पचास लाख की जुगाड़ हो जाएगी। ऐसा थोड़ी ताकत आई तो बोला- ब, ब बछड़ा कितनी देर से झाडू खाए जा रहा है, उसको तो बचाओ। कब्र में पाँव लटके हैं पर आसक्ति झाडू पर है। इस खतरनाक आसक्ति से बचो। मैं ऐसे कई लोगों को बढ़ाते जाते हैं। अक्सर सूदखोर न खा पाता है और न खिला पाता है। बुंदेलखण्ड की बात है। मेरा विहार चल रहा था। जंगलों में विहार था। वहाँ हर जगह गाँव मिलते हैं। सर्दी का समय, शाम को पहुँचते-पहुँचते रात हो जाए, मेरे साथ के लड़के कुछ खा नहीं पाते। जगलों में होटल वगैरह तो मिलता नहीं। तीन दिन से बेचारे एक समय खाकर काम चला रहे थे, शाम को तो भोजन मिलता ही नहीं था। चौथे दिन एक गाँव में पहुँचा, उस गाँव के प्रमुख व्यक्ति के घर उनका निमंत्रण हुआ। लड़कों ने सोचा कोई अच्छी व्यवस्था होगी। रोज तीस-पैतीस किलोमीटर चल रहे थे, ढंग से भोजन-पानी भी नहीं हो पा रहा था। मैं आहार करके आया तब उन बच्चों को भोजन का निमन्त्रण मिला। लड़के भोजन करने गए और तुरंत ही लौटकर आ गए। मैंने पूछा- तुम लोग जल्दी क्यों लौट आए? लड़कों ने कहा- कोई बात नहीं, भोजन हो गया। उनमें से एक लड़का बड़ा मजाकिया था। वह बोला- महाराज! दूसरे कपड़े लेकर नहीं गए थे नहीं तो दाल में डुबकी लगा लेते। घुटनों तक दाल में पानी था और उबली हुई लौकी उठाकर दे दी, हमने तो सोचा था कि आज सिंघई जी के घर भोजन है तो अच्छा होगा लेकिन वह तो और गया बीता निकला। मैंने पूछा- ये आदमी ब्याज-बट्टे का तो काम नहीं करता? पता चला ब्याज-बट्टे का काम करता है तो मैंने कहा- वह न खा पाएगा, न खिला पाएगा, वह पैसे का आसक्त ही बना रहेगा। है अपार वैभव लेकिन भोग नहीं करता। आसक्ति मनुष्य को भोगने बनी। आसक्त रहोगे तो धनांध बनोगे और यदि तुम्हारे अंदर अनासक्ति होगी तो उदारता आएगी। आज का शौच धर्म कहता है आसक्त नहीं, अनासक्त बनो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके एक शहर के हर प्रमुख चौराहे पर एक मकान है। हर प्रमुख चौराहे पर मकान है और वह आदमी खुद दो कमरे के टूटे से मकान में रहता है। उस आदमी का काम है हर महीने की पहली तारीख को साइकिल लेकर किराया वसूलना और साइकिल भी कौन सी? हरक्यूलिस का पहला संस्करण। दूर से ही आवाज आ जाए, घंटी बजाने की भी जरूरत न पड़े। वह आदमी केवल पैसा इकट्ठा करने में लगा है, आज भी इस दुनिया में है। ये क्या है? ये आसक्ति है। ऐसी आसक्ति को अपने जीवन में हावी मत होने दो, उपयोग करो, उपभोग करो, गलत उपयोग मत करो, सही उपयोग करो, जितना आवश्यक है उतना खर्च करो, व्यर्थ के कायों में लगाने की वजह परमार्थ के कार्य में लगाओ तभी जीवन में उन्नति होगी। मैंने आप लोगों से पहले कहा था धनाढ्य बनना बुरा नहीं है, धनान्ध बनना बुरा है। आज का शौच धर्म तुम्हें धनाढ्यता की ओर ले जाने की बात करता है, धनान्ध बनने की प्रेरणा नहीं देता। अतृप्ति के अन्तहीन मरुस्थल आसक्ति पर अंकुश रखना परम आवश्यक है। आसक्ति पर अंकुश नहीं रखोगे तो अतृप्त बने रहोगे। अतृप्ति मतलब प्यास, पीड़ा आतुरता, परेशानी। जो मनुष्य गाढ़ आसक्त होता है वह अतृप्त भी होता है, उसे तसल्ली नहीं मिलती। चाहे कितना भी हो जाए, तृप्त नहीं होगा, उसके मन में कुछ न कुछ कमी लगी ही रहेगी कि ये और हो जाता तो अच्छा था। अरे भईया! ये और, और, और कब तक चलेगा? कभी-कभी इस और-और के चक्कर में आदमी को मुँह की खानी पड़ती है। एक आदमी अमेरिका गया। पैसे जुगाड़ करके अमेरिका गया था। अमेरिका में खाने की बात आई तो सोचा यहाँ अमेरिका में तो बहुत महँगाई है, क्या किया जाए? वह इण्डियन मार्केट (भारतीय बाजार) में गया। इण्डियन माकट (भारतीय बाजार) में एक रेस्टोरेंट में गया तो देखा वहाँ पर दो अलग-अलग केबिन थे। एक तरफ वेज(शाकाहारी) और एक तरफ नॉनवेज(मांसाहारी) था। वह वेज वाले केबिन में घुसा तो फिर दो कबिन मिले। उनमें से एक पर लिखा था देसी और एक पर लिखा था डालडा। उसने सोचा देसी मंहगा होगा, डालडा में घुस गया। फिर दो केबिन मिले, एक पर लिखा था ताजा, एक पर लिखा था बासी। उसने सोचा ताजा स्वभाविक रूप से मंहगा होगा, वह बासी में घुस गया। वह जब और आगे गया तो फिर दो केबिन मिले, जिनको देखकर उसकी वांछे खिल गई। एक पर लिखा था नगद और एक पर लिखा था उधार। अमेरिका में उधार मिल जाए तो इससे अच्छी बात और क्या होगी? वह उधार वाले केबिन में घुसा तो देखता है कि वह सड़क पर आ गया। बंधुओं! इस अन्तहीन लालसा से प्रेरित होने वाला मनुष्य एक दिन सड़क पर आ जाता है। अतृप्ति से बचना चाहते हो तो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करो। ये सब तभी होगा जब आवश्यकता-मूलक जीवन हो, आकांक्षाएँ हावी न हों, आसक्ति को मंद करो, अतृप्ति से बचो। कहते हैं सारी नदियों के जल से भी सागर कभी तृप्त नहीं होता, अनगिनत शवों से शमशान कभी तृप्त नहीं होता। इसी तरह मनुष्य के मन की इच्छापूर्ति से इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। इच्छाओं का नियंत्रण ही इच्छाओं की तृप्ति का साधन है। इच्छाओं का नियंत्रण कैसे करें? अपने अंदर संतोष के से धारण करें? यथार्थ को अपनी आँखों के सामने रखी। जीवन का यथार्थ क्या है इस पर हमेशा दृष्टि रखो। मैं कितना भी जोड़ लुं, एक दिन सब का सब छोड़कर चला जाऊँगा -ये जीवन का यथार्थ है। दुनिया में आज तक एक भी आदमी ऐसा हुआ जो अपने साथ अपना एक भी कण ले जा सका हो? नहीं. तुम जीवन में कितना भी जोड़ो एक दिन सब छोड़कर जाना है, इसका भरोसा है? विश्वास है? अभी मुँह से कह रहे हो, अंदर से कही। जब लेकर नहीं जाना है तो जोड़ क्यों रहे हो? भार कम : मज़ा ज्यादा एक बात और बोलता हूँ- आप लोगों को जब यात्रा करनी होती है तो जितना अच्छा साधन होता है आप उतना लगेज(सामान) कम रखते हो। ट्रक से जाना हो तो भरपूर लगेज, कार में जाना हो तो दो-चार अटेची और प्लेन में जाना हो तो एक बैग। जितना लगेज साथ में रखते हो उतनी परेशानी होती है। अगर पूरा ट्रक लेकर जाओ तो उसे उतरवाना भी पड़ता है, उसकी बिल्टी मिलानी पड़ती है, सब देखना पडता है। यदि आप दो-चार अटेची लेकर जाते हैं तो उसको भी उठवाना पड़ता है, कुली ढूंढ़ना पड़ता है और यदि आपके पास पड़ता है, आप आनंद से आगे बढ़ जाते हैं। बंधुओं! जीवन के इस सफर(यात्रा) में आनंद की अनुभूति तो परेशान हो जाओगे। ये जीवन की सच्चाई है जितना अपने पास भार जोडोगे जाते वक्त उतने परेशान होगे। दिमाग को निर्भार रखो,अपनी आसक्ति को मंद करो, जीवन का पथ तभी और केवल तभी प्रशस्त होगा, नहीं तो क्या भरोसा कहाँ ब्रेनस्टोक हो जाए, कोमा में चले जाओ, पैरालिसिस का अटैक हो जाए, बिस्तर पर सड़ते रहो और न जाने क्या-क्या परेशानियाँ तुम पर हावी हो जाएँ। आसक्ति-मुक्त जीवन जियो। कर्म का कब कैसा उदय आ जाए, पता नहीं। न लेकर आए हो, न लेकर जाओगे ये यथार्थ है। जीवन में जो मेरे कर्म के अनुकूल होगा वही संयोग मुझे मिलेगा, ये जीवन का यथार्थ है। मैं अपने बाल-बच्चों की बात सोर्चे तो आज मैं अपने पुण्य का खाता हूँ, मेरे बच्चे भी अपने पुण्य का खाएँगे। मैं किसके लिए परेशान हूँ? पूत सपूत तो का धन संचय। पूत कपूत तो का घन संचय। यदि ये बात तुम्हारे मन में बैठ गई तो सन्तोष स्वभावत: प्रकट होगा। दूसरी बात भावोन्मुखी दृष्टि रखो। भावोन्मुखी दृष्टि यानि जो तुम्हारे पास है बस तुम उसे देखो, जो नहीं है उसे मत देखो। सुखी होने का एक ही रास्ता है- जो है उसे पसंद करो और दुखी होने का एक ही रास्ता है जो नहीं है उसकी देख लो। तुम्हारे पास जो है यदि तुम उसे देखना शुरु कर दो तो मन में असंतोष नहीं आएगा और जो नहीं है उसे देखोगे तो मन में कभी सन्तोष नहीं आएगा। अगर तुम्हारे पास लाख हैं और तुम्हारे लिए सामने वाले का दस लाख दिखता है। दस लाख पाने की आकांक्षा में वह एक लाख का सुख भोगने की जगह नौ लाख के अभाव का दुख भोगना शुरु कर देता है। अभाव को मत देखो, भाव को देखो। जो तुम्हारे पास है उसे देखो। भावोन्मुखी दृष्टि होते ही संतोष की सृष्टि होगी और अभावोन्मुखी दृष्टि में दुःख आता है, असंतोष आता है | सन्त कहते हैं तुम सड़क पर नंगे पाव चल रहे हो और कोई दूसरा व्यक्ति जूता पहनकर गुजर रहा है तो सामने वाले के जूतों को देखकर अपने मन में मलिनता मत लाओ, उस व्यक्ति को देखी जो बिना पाँव के चल रहा है और अपने आपको भाग्यशाली मानो कि मेरे पास जूते नहीं है तो क्या, मेरे पास पाँव तो हैं, मेरे पाँव अच्छे हैं। लेकिन मनुष्य की स्थिति ये है कि उसे अपने पाँवों का मूल्य और महत्व समझ में नहीं आता वह हमेशा दूसरे के जूतों पर नजर गडाये रखता है। ध्यान रखना। जूतों पर नजर गड़ाये रखने वाले जूते ही खाएँगे। दुखों के जूते खा रहे हो, अपनी अज्ञानता के कारण खा रहे हो। सम्हलो, यहीं थमकर चिंतन करने की आवश्यकता है, विचार करने की आवश्यकता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य आखिर है क्या? जो मेरे पास है वह सफिसिएण्ट(पर्याप्त) है। पर्याप्त की तो कोई परिभाषा है ही नहीं। अगर आपकी दृष्टि भावोन्मुखी बनेगी तो मन कभी इधर-उधर नहीं डगमगाएगा और यदि भावोन्मुखी दृष्टि नहीं होगी तो जीवन कभी सही रास्ते पर नहीं आएगा। लेकिन क्या करें? आज के लोग बस अभाव को देख-देखकर दुखी होते हैं। एक बार कोयल के बच्चे ने मोर को देखा और मचल उठा। उसने अपनी माँ से कहा- माँ मेरे ये काले-काले पंख बड़े खराब लगते हैं, मुझे मोर जैसे सुन्दर-सुन्दर पंख चाहिए। कोयल ने अपने बेटे से कहा- बेटा! अपने पंख अच्छे हैं। उसने अपनी माँ से कहानहीं माँ! मुझे तो मोर जैसे ही पंख चाहिए। बच्चा जो मचला सो मचला। बच्चे तो बच्चे होते हैं, जब एक बार मचलते हैं तो मचलते ही जाते हैं, उन्हें माँ-बाप की मजबूरी का कोई आभास ही नहीं होता। बच्चे के मचल जाने पर कोयल मोर के पास गई और मोर से बोली- मोर भाई! ये तुम्हारे पंख बहुत सुंदर हैं, मेरा बच्चा तुम्हारे पंख के लिए मचल रहा है यदि तुम अपना एक पंख दे दोगे तो बड़ी कृपा होगी, मेरे बच्चे का मन रह जाएगा। कोयल की प्रार्थना सुनकर मोर ने अपने पंख झड़ा दिए। कोयल ने उनमें से एक पंख उठाया और अपने बच्चे के पंखों में लगा दिया। मोर का पंख पाकर कोयल का बच्चा हर्ष से कुकने लगा। जैसे ही कोयल की बच्चे ने मधुर कंक लगाई तो पास बैठा मोर का बच्चा रोने लगा, उसने अपनी माँ से कहा- माँ! मेरी आवाज बड़ी भौड़ी है, मुझे कोयल जैसी मधुर आवाज चाहिए। बंधुओं! क्या कहें? कोयल का बच्चा मोर के पंख के पीछे परेशान है और मोर का बच्चा कोयल की आवाज के पीछे परेशान है। जब तक इधर-उधर देखते रहोगे, तुम्हारे जीवन की यही दशा होगी। रवीन्द्रनाथ टेगौर की ये पंक्तियाँ बहुत सार्थक हैं छोड़कर नि:श्वास कहता है नदी का यह किनारा उस पार ही क्यों बह रहा है जगत भर का हर्ष सारा। किन्तु लम्बी श्वास लेकर वह किनारा कह रहा है हाय ये हर एक सुख उस पार ही क्यों बह रहा है। इस पार वाले को उस पार अच्छा लगता है और उस पार वाले को इस पार अच्छा लगता है इसलिए दोनों मझधार में हैं। जो तुम्हारे पास है उसे देखने की कोशिश करो, तुम्हारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आएगा। नम्बर तीन संयमी प्रवृत्ति अपनाओ, जीवन में संयम रखो, संयमः से ही संतोष आता है। जीवन में संयम आना चाहिए, संयम संतोष का जन्मदाता है। संयम को अपनाओगे; अपने आप सब कुछ ठीक हो जाएगा। चौथी बात आप अपने जीवन को स्वाभाविक तरीके से जीना शुरु करें, कृत्रितमता को न अपनाएँ। स्वाभाविकता और कृत्रिमता में क्या अन्तर है? जब व्यक्ति स्वाभाविक जीवन जीता है तो उसकी दृष्टि अपनी आवश्यकता पर होती है और जब उसके जीवन में कृत्रिमता आती है तो दूसरों को देखकर चलना शुरु कर देता है, उसके हिसाब से अपना जीवन जीना शुरु कर देता है। कपड़ा चाहिए, ये आपकी एक आवश्यकता है। स्वाभाविक जीवन जीने वाला कोई भी कपड़ा पहन लेगा लेकिन जब कृत्रिमता उस पर हावी का कपड़ा चाहिए। मेरी आवश्यकता है ये स्वाभाविक है लेकिन जब उसमें कृत्रिमता आती है तो अमुक चीज चाहिए। ये कन्ज्यूमरिज्म (उपभोक्तावाद) का युग है, इसमें मनुष्य के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो रही है, कृत्रिमता हावी हो रही है। इसी कृत्रिमता के हावी होने के कारण मनुष्य का आंतरिक जीवन तहस-नहस हो रहा है। स्वाभाविकता को अपनाइए।
  5. पहचान, निष्ठा, आचरण और उपलब्धि बात सत्य की है। उस सत्य की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्य अकथ्य है पर अलभ्य नहीं। सच के बारे में कहा नहीं जा सकता पर अनुभव जरूर किया जा सकता है। भारतीय परम्परा में सत्य को परम सत्ता कहा है। सत्य की परमेश्वर कहा है। हमारे तीर्थकर भगवन्तों ने भी कहा है कि सत्य ही परमेश्वर है, सत्य ही भगवान है। हर व्यक्ति के भीतर वह सत्य है। उस सत्य के विषय में क्या कहा जाए। सत्य को पहचानने की जरूरत है। जो मनुष्य सत्य को पहचानता है वही सत्य को प्राप्त कर पाता है। सत्य को पहचानें, सत्य पर निष्ठावान बनें और फिर सत्य का आचरण करें। तब हम परम सत्य को उपलब्ध कर सकेंगे। आज मैं आपसे सत्य की कोई बात नहीं करूंगा क्योंकि उसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकेगा। जो कुछ भी बात है वह सत्याचरण की है। सत्य की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण सत्याचरण है। हमारे कदम सत्याचरण की ओर बढ़ने चाहिए। वस्तुत: जिसके हृदय में सत्य के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा होती है वही सत्याचरणी होता है। जो सत्याचरणी होता है वही अपने जीवन का वास्तविक अर्थ में कल्याण कर सकता है। जीवन में सत्य का आचरण सत्य की निष्ठा के बाद ही संभव है। सोना नहीं सोने जैसी चमक बंधुओं! आज की चार बातें हैं- नम्बर 1- सत्य की पहचान। नम्बर 2– सत्य की निष्ठा, सत्यनिष्ठा। नम्बर 3– सत्य आचरण और नम्बर 4- सत्य की उपलब्धि। सबसे पहले जीवन में सच क्या है इसे पहचानो। सच की पहचान क्या है? आपको पता है सच क्या है? मैं आपसे सवाल करता हूँ- दो और दो कितने होते हैं? 2 और 2 चार ये सच है, और हाँ बाईस 22 ये भी सच है। 2 और 2 चार, 2 और 2, 22 और 2 और 2 जीरो। क्या हो गया? 2 माइनस 2 बराबर जीरो हुआ न? फिर सच क्या है? सच को पहचानना बहुत कठिन है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि जो सामने दिखता है वह उसे ही सच मानता है। पर सन्त कहते है जो दिखता है वह सच नहीं वह तो सच का प्रतिबिम्ब मात्र है, असली सच तो अंदर है जो अदृश्य बना हुआ है। उसे पहचानो। तुम्हारी दृष्टि में सच क्या है? ये रूप-रंग, ये धन-वैभव, ये भोग-विलासता के साधन क्या यही सच है? यदि ये सच है, तुम्हें यही सच दिखता है तो समझना अभी तुमने सच को पहचाना नहीं। ये सब तो सपना है। सपने को सच मानने वाला अज्ञानी है। पर मुश्किल ये है कि जब तक मनुष्य नींद में रहता है तब तक उसे सपना ही सच दिखता है। नींद खुलने पर पता लगता है, अरे! ये तो सपना था, व्यर्थ का सपना था। नींद खुलने पर तुम्हें पता लगता है कि ये सपना था। सच तो अब जो सामने दिख रहा है; वह है। अभी तक मैं जिस दुनिया में था वह सब कुछ सपना था। बंधुओ! एक सपना आप नींद में देखते हैं जो घण्टे-आधघण्टे का होता है और एक सपना वह है जो सारी जिंदगी देखते हैं। जीवन पर्यन्त चलने वाला सपना तब टूटेगा जब तुम्हारे भीतर की नींद खुलेगी। नींद टूटेगी, तुम्हारी अंतर-आत्मा जागेगी तब तुम्हें सच की पहचान होगी। जो दिख रहा है वह सच नहीं है। अच्छा बताओ बाप बड़ा कि बेटा? कौन बड़ा है? बाप; पहले बाप पैदा हुआ बाद में बेटा। बेटा होने के पहले वह आदमी बाप था क्या? बोलो गणेश जी! कौन बड़ा? बेटे ने बाप को जन्म दिया कि बाप ने बेटे को? सोच कर बोलना। बेटे ने बाप को जन्म दिया और बाप ने बेटे को जन्म दिया इसलिए जो कुछ भी समझना सापेक्ष ढंग से समझना। बेटा नहीं होता तो बाप नहीं होता और बाप नहीं होता तो बेटा नहीं होता; ये जीवन की सच्चाई है। जीवन की सच्चाई को समझो। सच को जानने का मतलब है जीवन के यथार्थ को पहचानना। जब तक तुम्हारे अंतरंग में सत्य का ज्ञान नहीं होगा तब तक कल्याण नहीं हो सकता। सत्य क्या है इसको पहचानो। जो दिख रहा है वह सच नहीं। तुम कहते हो बाप बड़ा है झूठ, तुम कहते हो 2 और 2 चार झूठ, तुम्हें जो दिख रहा है सब झूठ। ये सारा संसार झूठ का पुलिन्दा है। सब झूठ है। महाराज! बात समझ में नहीं आ रही। अभी आ जाएगी। थोड़ी देर में आएगी। सच इतनी जल्दी समझ में आ जाए तो बात ही क्या है। अभी तक तो कल्याण हो गया होता। समझी जो दिख रहा है वह सच नहीं; जो देख रहा है वह सच है। कौन देख रहा है? आँखे। नहीं.आत्मा देख रहा है। बस उसे पहचान ली; सत्य का ज्ञान हो गया। सत्य का ज्ञान हो गया तो कल्याण हो गया। सम्यग्दर्शन : यथार्थ की अनुभूति इस सत्य के ज्ञान का नाम ही सम्यग्दर्शन है। अभी तुम्हें क्या सच लगता है? ईमानदारी से बोलो। जो तुमने जोड़ रखा है वह सच लगता है, तुम्हें पैसा सच दिखता है, पत्नी सच दिखती है, पुत्र सच दिखता है, परिवार सच दिखता है। यही सब सच दिखता है। पर परमात्मा का सच कभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा। पैसा, पत्नी, पुत्र, परिवार और पाप ये तुम्हें सच दिखते हैं जो संसार में लुभाने वाले और भ्रमाने वाले हैं। तुम्हारे भीतर के परमात्मा का तुम्हें बोध ही नहीं, भान ही नहीं। जो तुम्हें संसार से पार लगाने वाला है उसे तो पहचानी। असत्य को सत्य मानना अज्ञान है। ये सब सच इसलिए नहीं हैं क्योंकि कोई भी टिकाऊ नहीं है। सच वह है जो शाश्वत हो, सच वह है जो स्थिर हो, सच वह है जो स्थायी हो। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जिसे स्थायी माना जा सके, बोलो है कुछ भी? कोई एक वस्तु बता दो जो तुम्हारे पास हो और तुम गारंटी पूर्वक कह सको कि ये मेरी अनन्यनिधि है, शाश्वत है, कभी भी न छूटने वाली है। है एक भी चीज? तुमने जो भी जोड़ा है वह सब भंगुर है। बस जो तुम हो वह स्थायी हो। पर मुश्किल ये है कि भंगुर के व्यामोह में रात-दिन पागल होते हो और शाश्वत की तुम्हे पहचान ही नहीं। जब तक अपने भीतर के शाश्वत तत्व को नहीं पहचान लेते तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। सत्य की बात करते हो, सत्य केवल बोलने तक सीमित नहीं है। जिस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा कि मेरे जीवन का सत्य क्या है, असत्य का व्यामोह छूट जाएगा। असत्य का व्यामोह छूटते ही तुम्हारे आचार, विचार और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा। जब आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन होगा तो तुम्हारे जीवन का आनंद ही कुछ और हो जाएगा। सत्य को पहचानना पहली बात है। बस! मैं सत्य हूँ, मेरे भीतर का तत्व सत्य है, मेरा स्वरूप सत्य है। वह सत्य है और बाकी सब कुछ असत्य है। जो स्थायी है वह सत्य, जो मिट जाए वह असत्य है। जो साथ रहे वह सत्य, जो छूट जाए वह असत्य है। जिसका स्वरूप निखरे वह सत्य, जिसका स्वरूप बिगड़े वह असत्य है। तुम क्या हो? सोचो! क्या तुम्हारा शरीर स्थायी है? तुमने जिसको सत्य मान रखा ये रूप असत्य है, स्वरूप सत्य है। स्वरूप को पहचानो। सत्य का ज्ञान होना, सत्य को पहचानना बड़ा कठिन है। मनुष्य के साथ एक बड़ी विडम्बना है उसे सारी दुनिया का ज्ञान है लेकिन खुद की पहचान नहीं। खुद की पहचान नहीं, खुद का ज्ञान नहीं, खुद से काफी दूर है। ये आँखें सारी दुनिया का दर्शन कराती हैं पर विडम्बना कुछ ऐसी है कि खुद को नहीं देख पातीं। देखो! हम लोग जो कुछ भी देखते हैं किस के बल पर देखते हैं? आँख के बल पर देखते हैं लेकिन हमारी आँखें खुद को नहीं देख पातीं। सारी दुनिया को देखने वाली आँखें खुद को देखने मे असमर्थ हैं। मनुष्य के पास सारी दुनिया की खबर है पर खुद की खबर नहीं। कुतुबमीनार में कितनी सीढ़ियाँ है ये उसे पता है पर मेरे घर में कितनी सीढ़ियाँ है शायद उसका पता नहीं। यही तो तुम्हारी अज्ञानता का उदाहरण है। सारी दुनिया में क्या है तुम्हें पता है पर तुम्हारे भीतर क्या है तुम्हें इसका पता नहीं। उसका पता करना ही सत्य की पहचान करना है। अपने भीतर के परम सत्य को पहचानो, अपने आप को जानो। मैं कौन हूँ और मेरा क्या है इसे पहचानोगे तभी अपने जीवन का कल्याण कर पाओगे। पहली बात सत्य का ज्ञान बहुत मुश्किल से होता है। आदमी की स्थिति सत्य के प्रति कैसी होती है। दो जुड़वाँ भाई थे। दोनों बिल्कुल एक जैसे दिखते। रूप, रंग, हाईट, हैल्थ सब कुछ एक जैसा। बोली भी एक जैसी। एक शरारती था और दूसरा सीधा था। मुश्किल ये कि शरारती लड़का उपद्रव करके भाग जाता और सीधे वाले की पिटाई हो जाती। ऊधम करता ऊधमी और पीटा जाता सीधा। अब रोज का क्रम बन गया। बेचारा परेशान रहता। बिना कुसूर उसकी पिटाई होती। एक दिन वह बहुत खुश दिख रहा था। बोला क्या बात है भाई। आज बहुत खुश हो। बोला आज हिसाब चुकता हो गया। पूछा क्या हिसाब चुकता हो गया? बोला आज तक मेरा भाई ऊधम करता था और पिटता मैं था। इसमें खुश होने की क्या बात? वह ऊधम करे और तुम्हें पीटा जाए तो इसमें खुश होने की बात क्या है? बोला भाई आज बात ऐसी हुई कि मरा मैं और दफना उसे दिया गया। 'मरा मैं और दफनाया उसे गया' क्या ये सत्य है? ये लोगों के भीतर की गहन सुषुप्ति की अभिव्यक्ति है। तुम्हें अपने जीवन में सच का कुछ ज्ञान नहीं। सच को पहचानो और अपने हृदय में अवधारित करो कि दुनिया में जितनी भी चीजें हैं, भोग-विलास के साधन हैं, मकान हैं, दुकान हैं, कार है, बंगला है, फैक्ट्री है, गाड़ी है, सवारी है, सब असत्य हैं। ये रूप भी असत्य, ये रंग भी असत्य, ये भोग भी असत्य, ये विलासता के साधन भी असत्य हैं। कुछ भी सत्य नहीं, सब छूटने वाले हैं। टिकाऊ नहीं हैं, नष्ट हो जाने वाले हैं। यदि सत्य कुछ है तो मेरे भीतर का परम तत्व है। एगो मे सास्सदो आदा णाणदसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा। मैं एक, शुद्ध, ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला शाश्वत आत्म तत्व हूँ इसके अलावा सब अशाश्वत हैं, भंगुर हैं। संयोग से मेरे साथ जुड़े हैं पर मेरे नहीं हैं जैसे आसमान के चाँद का प्रतिबिम्ब किसी सरोवर पर पड़े और उसको देखकर कोई बालक ये सोच बैठे कि आह! वाह! क्या अद्भुत घटना घटी है, आसमान का चाँद धरती पर उतर आया है। चलो मैं इस चाँद को पकड़ लैं। ऐसे बालक को आप क्या कहोगे? क्या बालक उस चाँद को कभी पकड़ सकता है? कभीनहीं पकड़ सकता। संभव ही नहीं है। कोई लाख कोशिश करे पर चाँद को पकड़ पाना नामुमकिन है। वस्तुत: जब चाँद है ही नहीं तो पकड़ोगे कहाँ से। वह तो प्रतिबिम्ब है। कोई भी समझदार व्यक्ति चाँद को पकड़ने की कोशिश नहीं करता क्योंकि सबको पता है चाँद आसमान में ही है, ये तो प्रतिबिम्ब है। बंधुओं! सरोवर में उभरने वाले चाँद को पकड़ने के प्रति तो तुम कभी उत्कठित नहीं होते पर सच्चाई ये है कि जो कुछ भी तुमने पकड़ रखा है वह सब चाँद का प्रतिबिम्ब ही है। चाँद की तरफ तुम्हारी दृष्टि ही नहीं। चाँद के प्रतिबिम्ब को पकड़ने के लिए तुम पागल हो उठे हो। सावधान हो जाओ। वह केवल रिफ्लेक्शन है जो तुम्हे सत्य दिख रहा है, वह सत्य नहीं। असत्य को सत्य मानने वाले की दशा को अभिव्यक्त करती ये पंक्तियाँ बड़ी सार्थक हैं नाम तो उसके कई हैं, पर मैं उसे प्यार से आदमी कहता हूँ। आजकल उसकी दिनचर्या कुछ इस प्रकार है, वह सुबह से सोने तक, गंगा की बहती धार में खूटे गाढ़ता है, कभी-कभी बाएँ हाथ से खूटे को पकड़ कर, दाएँ हाथ से उस पर मुंगरी से ठोकता है, कि खूटा नीचे उतर आता है, और वह सोचता है कि चलो एक तो ठुका, अब वह आगे बढ़े कि तभी देखता है उसका खूटा कुछ दूर उचक कर बहा जा रहा है उसकी ये चाह है कि इस अनंत प्रवाह में उसके खूटे थमें , और वह अपना तम्बू, उनके सहारे तान कर आराम से उसमें सोए सोए कि सोया ही रहे. बात समझ में आई कि नहीं? गंगा की बहती धार में खूंटा गाड़ने का कोई कितना भी प्रयास करे खूटा गड़ नहीं सकता। संसार के इस असत्य स्वरूप में तुम कुछ भी स्थायी बनाने का प्रयास करो स्थायी ही नहीं सकता, ये जीवन की सच्चाई है। दवा हाँथ में पर विश्वास नहीं फल का दूसरी बात सत्य की निष्ठा। सत्य का ज्ञान होना मात्र पर्याप्त नहीं है जब तक कि तुम्हारे हृदय में उसके प्रति निष्ठा न हो। दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें जीवन के सत्य का ज्ञान तथाकथित रूप से है। उनसे बोलो आत्मा परमात्मा की बड़ी गहरी चर्चा कर लेगें, बहुत अच्छा उपदेश दे देंगे, शास्त्रों का ज्ञान है, कई शास्त्रों को पढ़ लिया लेकिन आचरण शून्य है। निष्ठा ही नहीं है। ज्ञान है, वह जानकारी है। निष्ठा मतलब इसी में मेरा कल्याण है ऐसा श्रद्धान होना चाहिए। तुम्हारे हृदय में सत्य के प्रति निष्ठा है? ईमानदारी से बोलना सत्य के प्रति निष्ठा है कि असत्य के प्रति निष्ठा है। भरोसा किस पर है? टटोलो अपने मन की। टटोलकर देखो। तुम पर जब कुछ भी मुसीबत आती है तो तुम्हारा सबसे पहला भरोसा अपने पैसे पर होता है, अपने परिवार जन पर होता है, अपनी प्रतिष्ठा और ताकत पर होता है या अपने परमात्मा और अपनी आत्मा पर होता है। यथार्थ के ज्ञान के बाद यथार्थ के प्रति निष्ठा नहीं हुई तो सब व्यर्थ है। क्या तुम्हें ये पक्का विश्वास है कि मेरे आत्मा के अलावा संसार का एक परमाणु भी मेरा नहीं है। भरोसा शब्दों में नहीं हृदय में होना चाहिए। हृदय से आवाज निकलनी चाहिए कि संसार में जो कुछ है, एक संयोग है। ये परद्रव्य हैं, मेरा आत्म द्रव्य मेरा अपना है इसके अलावा एक परमाणु भी मेरा नहीं है। ये जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब मोह के प्रपंच हैं। जितने भी भोग-विलास के साधन हैं वे आत्मा के विनाश के कारण हैं। ये राग रंग जीवन का पतन कराने वाले हैं। बोलो क्या ऐसी निष्ठा है तुम्हारी? जिसकी झूठ पर निष्ठा हो वह झूठा है। अब तुम सच्चे हो कि झूठे स्वयं निर्णय करो। आज के सच्चे कैसे होते हैं; मैं बताता हूँ। एक लड़की के परिजन लड़का देखने के लिए गए। लड़के के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। लड़के के जीवन की बहुत सारी अच्छाईयाँ बता दी गई। अच्छाईयाँ बताने के बाद जब सब प्रभावित हो गए तो उन्होंने कहा- भाई! इनमें एक और विशेष गुण है। बोले क्या? बोले झूठ बोलने की आदत है। तुम कह रहे हो कि हम सच्चे हैं पर सच्चे अर्थों में यह भी झूठ है क्योंकि सच पर तुम्हारी निष्ठा अभी टिकी ही नहीं है। सत्यनिष्ठा की कसौटी है। सत्य पर निष्ठा होगी तो तुम फिर असत्य का आचरण नहीं कर सकते। निष्ठा सत्य में है तो आचरण असत्य क्यों है इस पर विचार करो। यदि सत्य पर निष्ठा है तो सत्य का आचरण होना चाहिए। सत्याचरण मतलब मन, वाणी और व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठा। मन, वाणी और व्यवहार में जब तक सत्य की प्रतिष्ठा न हो या जाए, जब तक व्यक्ति के अंत:करण में सत्य के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा न हो तब तक वह व्यक्ति सत्याचरणी नहीं कहला सकता। मन में होय सो वचन उचरिये बंधुओं! अपने मन में, अपनी वाणी में और अपने व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठित करने की कोशिश करें। असत्य के प्रति हमारा चित्त क्यों भागता है? केवल इस वजह से कि हमें सत्य की महिमा का भान नहीं है। झूठ का आश्रय मनुष्य क्यों लेता है इसलिए कि उसे सत्य की शक्ति का भान नहीं है। तुम्हें जिस दिन सत्य की शक्ति का भान हो जाएगा, सत्य की महिमा का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन तुम्हारे जीवन से असत्य दूर हो जाएगा। तुम्हें अभी भौतिक पदार्थ ही उपादेय दिखते हैं। झूठ, फरेब, भोगविलास, पाप, पाखण्ड, अनाचार, राग, द्वेष ये सारे विकार हैं जो अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। इन सबसे रहित जो भीतर की शुद्ध परिणति है उधर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है। जिस दिन तुम्हें ये लगने लगेगा कि ये सब हेय हैं, ये सब अकल्याणकारी हैं, ये सब जीवन की राह में रोडे हैं, अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं तो तुम्हारा चित्त उधर नहीं जाएगा। तुम उनके बारे में सोचोगे तक नहीं। इनसे तात्कालिक लाभ भले मिल जाए लेकिन दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होते। दीर्घकालिक नुकसान भोगना पड़ता है। ऐसा कार्य मुझे नहीं करना। मन के स्तर पर सत्य है, भवना के स्तर पर सत्य है। कहते हैं जिस व्यक्ति के मन में सत्य नहीं तो वह अपने जीवन में चाहे कितना धर्म-कर्म करे, सब व्यर्थ हैं। जिसके हृदय में सत्य का वास है उसका सारे संसार पर निवास है। कुरल काव्य में लिखा है- जिस मनुष्य के हृदय में सत्य रूपी प्रहरी का शासन होता है वह सारी जनता के हृदय पर शासन करने में समर्थ होता है। मन में सत्य हो तो सब पर तुम्हारा असर होगा। मन में सत्य का मतलब मन में विकार न हो, दुर्भावना न हो, ईष्य न हो, छल-प्रपंच न हो, निश्छलता हो। क्या आप इस बात को गारंटी के साथ कह सकते हो कि अपने मन के स्तर पर मैं कभी किसी के साथ छल भरा व्यवहार नहीं करूंगा? यदि सत्य के प्रति निष्ठा होगी तो तुम कभी ऐसा असत्य व्यवहार कर ही नहीं सकते। एक बात बताऊँ। यदि मन में सत्य हो तो हमारे वचनो से बोला गया सत्य सच होता है और तभी हमारा व्यवहार सच कहलाता है। आजकल उल्टा होता है। लोग वाणी में बड़ी मिठास रखते हैं, व्यवहार में विनम्रता और मन में कड़वाहट घोले रहते हैं। ये सब सत्य नहीं असत्य है। मन में भी मिठास होनी चाहिए। वाणी में मिठास हो, व्यवहार में मिठास हो और यदि मन में मिठास नहीं तो सब व्यर्थ है। महापुरुषों के जीवन चरित्र को पलटकर देखें। महाभारत का एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। महाभारत का युद्ध शुरु हुए कई दिन हो गए। एक दिन दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास पहुँचा और बोलाअबलाएँ विधवा हुई, अब क्या होगा? कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मैं अजेय हो जाऊँ द्रोणाचार्य ने कहा इसका उपाय अगर कोई बता सकता है तो केवल युधिष्ठिर। युधिष्ठिर के पास इसका उपाय है। दुर्योधन ने कहा युधिष्ठर मुझे अजेय होने का उपाय क्यों बताएगा? वह तो हमारा शत्रु है। बोले नहीं. तुम युधिष्ठिर को नहीं जानते। युधिष्ठिर के लिए शत्रु तुम केवल युद्ध के मैदान में हो, बाद में आज भी तुम उसके भाई हो। जाओ, तुम युधिष्ठिर से मिलो। वह युधिष्ठिर से मिलने के लिए गया। युद्ध विराम की घड़ी में जब युधिष्ठिर से मिला और कहा- युद्ध प्रारंभ हुए बहुत दिन बीत गए, मुझे बड़ी चिंता है कि कल क्या होगा। युधिष्ठिर बोला- कल युद्ध में तुम मारे जाओगे और युद्ध का अंत हो जाएगा। और क्या होगा। नहीं. नहीं. ये तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मैं अजेय बन जाऊँ) कहते हैं युधिष्ठिर ने कहा- उपाय है और तुम्हारे घर पर ही है। उसके लिए तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। उपाय है मेरे घर पर है उसके लिए मुझे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, क्या उपाय है? बोले तुम्हारी माँ शीलवती रही है, उसने आज तक कभी किसी पुरुष को अपनी आँखों से देखा नहीं। आँखों पर पट्टी बंधी है। अगर एक बार तुम्हारी माँ अपनी तेजोमय दृष्टि से तुम्हें नीचे से ऊपर तक देख लेगी तो तुम्हारा सारा शरीर वज़मय हो जाएगा पर इसके लिए तुम्हें अनावरित होकर माँ के पास जाना होगा। दुर्योधन बहुत खुश हुआ। बहुत अच्छा उपाय बता दिया। वह घर से रात के अंधेरे में निर्वस्त्र होकर निकला। रास्ते में श्रीकृष्ण मिल गए। उन्होंने दुर्योधन से पूछा- कहाँ जा रहे हो? दुर्योधन ने सारी कहानी सुना दी। श्रीकृष्ण ने सोचा- ये तो गड़बड़ हो गई। दुर्योधन अगर अजेय बन गया तो मामला ही गड़बड़ हो जाएगा, कुछ करना चाहिए। उन्होंने दुर्योधन से कहा- दुर्योधन! माँ के पास जा रहे हो, थोडी तो शर्म करो। इस तरह पूर्णतः नग्न होकर जाना अच्छा होगा। क्या? कम से कम अपने गुप्तांग को तो आच्छादित कर लो। दुर्योधन को लगा कि बात तो बिल्कुल सही है। कहते हैं तुरंत दुर्योधन ने कले के पते से अपना गुप्तांग ढका और माँ के पास गया। माँ से कहा- माँ! तूने आज तक मुझे नहीं देखा, मेरी भावना है कि एक बार मुझे आँखें खोलकर देख ले अन्यथा तू जिंदगी में कभी नहीं देख पाएगी। तू क्या मुझे कोई भी नहीं देख पाएगा। दुर्योधन के ऐसा कहने पर गान्धारी ने अपनी आँख की पट्टी पहली बार उतारी और ऊपर से नीचे तक दुर्योधन को देखा। उसका सम्पूर्ण शरीर वज़मय हो गया। बस गुप्तांग वाला भाग जो केले के पते से ढका था वह बच गया और भीम ने वहीं गदा का प्रहार किया जिससे दुर्योधन की मृत्यु हुई। ये कथा जैन पाण्डव पुराण की नहीं महाभारत की है। मैं कथा के विस्तार पर नहीं जाना चाहता। कथा का अपना-अपना अर्थ है लेकिन मैं केवल एक बात बताना चाहता हूँ कि भावना का सत्य क्या होता है। जो शत्रु के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करे वह भावना का सत्य है। मन में ऐसी पवित्रता हो तो सत्य हृदय में आए। वाणी का सत्य ही सबसे ज्यादा प्रचलित है। सच बोलने का मतलब सत्य नहीं है, सत्य अभिप्राय का मतलब सत्य है। कई बार लोग सच बोलते हैं पर अभिप्राय गलत होता है, वह असत्य है और कई जगह झूठ बोला जाता है पर आशय सही होता है तो वह सत्य है। सत्यं ब्रुयात्, प्रियं ब्रुयात् सत्यं प्रियं हितं चाहुः सुनृतं सुनृतव्रताः। तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत्॥ सत्य के व्रतियों ने उसे ही सत्य कहा है जिसमें सत्यता के साथ प्रियता और हित हो। जो अप्रिय और अहितकारी है वह सत्य होकर भी असत्य है। प्रिय और हितकारी होने पर असत्य भी सत्य है। बंधुओं! अपने मुख में मिठास रखो। मर्मघाती, ककश, कठोर और पापपूर्ण वचनों को अपने मुख से कभी मत निकालो। ये वाणी का असत्य है, इसे रोक, इस पर अंकुश रखें क्योंकि आप इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि शब्द का घाव शस्त्र के घाव से भी गहरा होता है। शस्त्र के आघात से उत्पन्न घाव तो कुछ दिनों में भर सकता है लेकिन शब्द के आघात से होने वाला घाव सारी जिंदगी रिसता रहता है, टीस मारता रहता है। अपने मुख से कभी किसी के दिल में घाव मत करो। वाणी ऐसी बोलिए मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे आपहुँ शीतल होय। वाचिक संयम, वाणीगत संयम। शब्द को बोलने से पहले तोलना। 'अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे आप जो बोलते हैं उसे आत्मसात करें। ऐसे शब्द अपने मुख से कभी उच्चारित मत करें। ये वाणी का संयम है। एक राजा था। उसकी एक ऑख थी। उसे अपना चित्र बनवाने की सनक चढ़ी। चित्र बनवाएँ कैसे? अपना चित्र बनवाने के क्रम में उसने तीन चित्रकारों को बुलवाया और कहा मेरा खूबसूरत चित्र बनना चाहिए। तीन चित्रकारों में पहले चित्रकार ने राजा जैसा था वैसा चित्र बना दिया। राजा ने चित्र देखा तो काणा चेहरा देखकर कुपित हो गया। बोला- ये कोई चित्र बनाया। चित्रकार को जेल में डाल दिया। दूसरे चित्रकार के चित्र को देखा तो उसने सोचा राजा काना है तो ये ठीक नहीं होगा। उसने उसकी दोनों आँखें बना दीं। राजा ने कहा ये चाटुकार है इसको भी हटाओ। पहला था स्पष्टवादी वह जेल चला गया। दूसरा चाटुकार निकला इसलिए वह भी काम का नहीं। तीसरे चित्रकार से बोला अपना चित्र दिखाओ। चित्रकार ने अपना चित्र दिखाया। उसने बहुत होशयारी से काम किया। उसने शिकारी मुद्रा में राजा का चित्र बनाया। एक तीर काणी आँख के पास लगा कर तान दिया। एक हाथ तीर पर और एक हाथ कमान पर इसप्रकार निशाना साधते हुए चित्र बनाया। राजा चित्र देखकर प्रमुदित हो गया। अपने गले का हार उसके गले में डाल दिया। बोला- तुम हो व्यवहार कुशल। अवसर के अनुरूप बात करने वाले। बंधुओं! पहला चित्र सत्य था पर प्रिय नहीं। दूसरा चित्र प्रिय था पर सत्य नहीं। पर तीसरा चित्र सत्य भी था और प्रिय भी था। बस जीवन व्यवहार में ऐसी सत्यता और प्रियता को प्रतिष्ठित करना चाहिए। वाणी का सत्य यानि कमिटमेंट का धनी। प्रामाणिकता जिसके वचनों की कीमत ही वह वाणी के सत्य का धारक होता है। आजकल लोगों के कमिटमेंट का कोई अता-पता नहीं। पल-पल। में व्यक्ति की जिह्वा के अर्थ बदल जाते हैं, भाषा बदल जाती है। अपनी कही बात से कब पलट जाए कोई पता नहीं। जैसे नेताओं के बयान रोज बदलते हैं वैसे ही लोगों के भी बदल जाते हैं। मनुष्य के जीवन में प्रामाणिकता होनी चाहिए। जो मैंने कह दिया सो कह दिया। अपने वचन को कभी काटो मत। यदि तुम वाणी के स्तर पर सत्य प्रतिष्ठापित करना चाहते ही तो जिस किसी को भी वचन मत देना। बहुत सारे लड़कियाँ और लड़के कहते हैं कि हमने अगले को कमिटमेंट कर दिया। भावुकता में किए गए कमिटमेंट बेकार होते हैं। ऐसे कमिटमेंट कभी मत करना। हर किसी के सामने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर मत करना। हर किसी को वचन मत देना नहीं तो ठगे जाओगे। योग्य व्यक्तियों को वचन दो। या तो वचन दो ही नहीं और यदि वचन दे दिया तो उसको दृढ़ता से निभाओ तब तुम्हारे जीवन में वाणी का सत्य प्रतिष्ठित हो सकेगा। ज्ञान की आत्मीयता आचरण का संग तीसरे नम्बर पर व्यवहार का सत्य। सत्याचरण की बात हो रही है। अपने जीवन व्यवहार में सत्य का आचरण करने का मतलब है छल, फरेब, धोखा, विश्वासघात, एवं चोरी के कार्य से अपने आप को बचाओ। अपने आप को इन सब चीजों से बचाओगे तब तुम्हारे व्यवहार के स्तर पर सत्य होगा। जो व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी बातों में अपना ईमान बेच दे वह व्यवहार में सच्चा नहीं कहला सकता। जो थोड़ी-थोड़ी सी बातों में बेईमान बन जाए वह व्यवहार में सत्याचरणी नहीं है। वह सच्चे अर्थों में धर्मात्मा ही नहीं है। धर्मात्मा होने का मतलब है सत्य का आचरणी होना। सत्य का आचरणी वही हो सकता है जो जीवन की सच्चाई को जानते हुए असत्य आचरण से विमुख होता है। ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें कभी अपमानित होना पड़े, ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें लोक-निंदा का पात्र बनना पड़े, ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हारी प्रतिष्ठा धूमिल होती हो और ऐसा कोई कार्य मत करो जिससे तुम्हें या किसी और को किसी संकट में फसना पड़े। सत्य आचरणी अपने जीवन में सदैव इन बातों का ध्यान रखता है। बंधुओं! मैंने देखा है, आजकल बड़े-बड़े लोग भी छोटी-छोटी सी बातों पर अपना ईमान बेच देते हैं। लेकिन सत्य के प्रति निष्ठावान रहने वाले साधारण व्यक्तियों में भी बड़े-बड़े सत्याचरण के उदाहरण प्रकट हो जाते हैं। एक व्यक्ति दिल्ली गया। फाइवस्टार होटल में ठहरा। सुबह उसने एक टैक्सी ली। सुबह से शाम तक कई लोगों से मिला, कई मीटिंग्स थीं, कई दफ्तरों में गया। दिन भर घूमने के बाद शाम को होटल वापस आया। रूम में आने के पन्द्रह मिनट बाद उसे ख्याल आया कि मैं अपना बैग तो गाड़ी में ही छोड़ आया। बैग में पूरे पाँच लाख रूपये थे। बैग गाड़ी में छोड़ आया अब क्या करे? टैक्सी का नम्बर पता नहीं, टैक्सी ड्राईवर का नाम पता मालूम नहीं। इधर टैक्सी ड्राईवर सुबह से शाम तक काफी घूमा था। उसने टैक्सी स्टैण्ड पर अपनी गाड़ी खड़ी की और थोड़ा सुस्ताने के लिहाज से जैसे ही गाड़ी के अंदर गया तो उसकी निगाह पीछे पड़े बैग पर पड़ी। उसने बैग खोला तो उसमें रूपये थे। उसने वापस बंद किया और तय कर लिया हो न हो ये सेठ जी का है क्योंकि उनके अलावा और कोई आज गाड़ी में बैठा ही नहीं। सेठ जी को खोजा जाए। सेठ जी को खोजने के लिए होटल पहुँचा तो पता चला सेठ जी नहीं है। सेठ जी तो टैक्सी ड्राईवर को खोजने के लिए गए हुए जी को खोज रहा है। दो घण्टे तक परेशान होकर सेठ जी वापस होटल आए। इधर भूल-भटक कर जब ड्राईवर वापस होटल आया तो उसकी नजर सेठ जी पर पड़ी। सेठ जी को देखा तो उनकी तरफ बैग बढ़ाते हुए कहा- लो सेठ साहब! सम्हालो अपनी धरोहर। खूब परेशान किया आपने। दो घण्टे से मैं आपको खोज रहा हूँ। सेठ जी को तो ऐसा लगा जैसे कोई सपना देख रहे हों। तत्परता से बैग को अपने हाथ में लेकर रूम में गया। रूम बंद किया और बैग खोलकर देखा तो रूपये पूरे थे। अपना पूरा पैसा सुरक्षित देखकर पाँच हजार रूपया ड्राईवर को इनाम देना चाहा तो उसने कहा- नहीं. मैं गरीब जरूर हूँ पर बेईमान नहीं हूँ। मैंने आपको सुबह से शाम तक अपनी टैक्सी में घुमाया, आपने उसका पूरा पैसा हमको दे दिया। मैं जिसका हकदार था, मैंने लिया। आपकी धरोहर मेरी गाड़ी में छूट गई थी। आपकी धरोहर आप तक पहुँचाना मेरा कर्तव्य था। मैंने आपका पैसा आपको दे दिया। पैसे ही लेने होते तो पूरे पैसे ही क्यों न रख लेता। आप मुझे कहाँ खोजते फिरते? लेकिन मैं हराम का खाना पसंद नहीं करता। सदैव मेहनत का खाता हूँ इसलिए मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं। आप ये पैसे रख लें। मैं बहुत खुश हूँ कि मैंने आपकी धरोहर आपको लौटा दी। नहीं तो मैं तो आज सो नहीं पाता। आप सम्हाली मैं चलता हूँ। सेठ जी उसका चेहरा देखते रह गए और मन ही मन कहने लगे कि जिस आदमी को हम गरीब मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं उस व्यक्ति के भीतर तो हम जैसे सेठों से भी बड़ा पराक्रम और क्षमता है। उपलब्धि का आनन्द बंधुओं! जिसके अंतरंग में सत्य के प्रति निष्ठा होती है उसके भीतर ऐसा ही पराक्रम प्रकट होता है। बंधुओं सत्य का ज्ञान, सत्य की निष्ठा और सत्य का आचरण तीन स्तर पर करना है- भावना के स्तर पर, वाणी के स्तर पर और व्यवहार के स्तर पर। जो कुछ भी हमारा धर्म आचरण है सब सत्य का आचरण है। जब सत्य का आचरण करोगे तभी सत्य की अनुभूति होगी। कुछ लोग असत्य का आचरण करके सत्य की अनुभूति करना चाहते हैं। असत्य का आचरण करके सत्य की अनुभूति आज तक किसी को हुई है क्या? न भूतो न भविष्यति। सत्य की अनुभूति केवल वही और वही कर सकते हैं जो सत्य का आचरण करते हों। इसलिए सत्य का आचरण करना शुरु कीजिए, धर्मनिष्ठ बनना शुरू कीजिए। लोग बड़ी-बड़ी बातें कर देते हैं लेकिन आचरण के क्षेत्र में प्राय: पिछड़ जाते हैं। आप कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लें, वह व्यर्थ है, आचरण के क्षेत्र में सम्हलने की कोशिश कीजिए। जब तक आचरण नहीं तब तक कल्याण नहीं। आत्मा के गीत गाने मात्र से आत्मा की अनुभूति नहीं होगी। आत्मा की अनुभूति तो उन्हें ही होती है जो अध्यात्म के सरोवर में डुबकी लगाते हैं। बंधुओं! सत्य का अनुभव तभी होगा जब सत्य का आचरण होगा। एक व्यक्ति तैरना सीखना चाहता था। वह तैराक के साथ नदी पर गया। तैराक ने पानी में पाँव रखा और उस व्यक्ति से कहाआओ भाई! तुम भी पानी में आओ और सीखी। वह सकपकाने लगा, पानी में पाँव कैसे रखें? हिम्मत न हो सकी। तैराक द्वारा प्रेरित करने पर उसने हिम्मत की और पानी की ओर जाने लगा। पहला कदम रखते ही वह फिसल गया और किनारे पर ही गिर गया। उठा और पाँव पटकते हुए बोला- भगवान कसम जब तक मैं तैरना न सीख लें तब तक क्या मजाल कि मैं भूलकर भी पानी में पाँव रखें। उसका तैराक मित्र तब तक पानी में काफी आगे निकल चुका था। उसने कहा- क्या बोल रहे हो? बोले बस! अब, जब मैं तैरना सीख जाऊँगा तभी पानी में पाँव रखेंगा। उसने कहा ठीक है, समझ में आ गया। तुम रेत में तैरना सीखकर पानी में उतरोगे क्या? दरा दरिया की तह तक तू पहुँच जाने की हिम्मत कर। तो फिर से डूबने वाले, किनारा ही किनारा है। बंधुओं! तैराक वही बन पाया है जिसने पानी में पाँव डाला है। पानी में पाँव डाले बिना न तो आज तक कोई तैर पाया है और न तैर पाएगा। जीवन की सच्चाई को समझिए और पानी में पाँव डालने के लिए तैयार हो जाइए। सत्य का आचरण कीजिएगा तभी सत्य की अनुभूति होगी। वही अनुभूति जीवन की परम अनुभूति है, वही अनुभूति जीवन की शाश्वत अनुभूति है, वही सार है बाकी सब असार है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं - एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए। बंधकहा एयते तेण विसंवादिनी होई। उस एकत्व विभक्त जीवन के परम सत्य का अनुभव जिसने कर लिया फिर उसे किसी अनुभूति की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह परम अनुभूति है, वह चरम अनुभूति है। उस अनुभूति का आनंद लेने का प्रयास करें तब आज के सत्य धर्म की आराधना सार्थक होगी। बातें तो बहुत कर लेते हैं लेकिन रहते हैं जहाँ के तहाँ। कई बार तो इन बातों के चक्कर में बड़ी गड़बड़ हो जाती है। 100वीं मंजिल पर एक ऑफिस था। अॉफिस के सारे ऑफिसर आए, उसका डायरेक्टर भी आया। पर संयोगत: लिफ्ट खराब हो गई। दो लिफ्ट थीं दोनों की दोनों लिफ्ट खराब। अब क्या करें? डायरेक्टर ने कहाभाई। लिफ्ट ठीक होने में दो घण्टे से कम नहीं लगेंगे तब तक हमारा बहुत समय चला जाएगा। चलो एक काम करते हैं हम लोग ऊपर चलते हैं और कुछ कहानियाँ कहते-कहते चलेंगे। एक दूसरे को कहानी सुनाएँगे और 100 मंजिलें चढ़ जाएँगे। सभी ने कहानियाँ कहते-सुनते चढ़ना शुरु किया। साथ में चपरासी भी था। तीस-चालीस मंजिल चढ़ने के बाद चपरासी ने कहा मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। अरे! तुम बीच में मत बोलो अभी तुम्हारी नहीं सुनेंगे। थोड़ा आगे बढ़े तो चपरासी फिर बोला- मेरी भी कुछ सुन ली। बोले तुम्हारी कुछ नहीं सुनेंगे अभी बीच में मत बोलो। चढ़ते-चढ़ते जब सौवीं मंजिल पर पहुँचे तो चपरासी फिर बोला- अब तो मेरी सुन ली। बोले क्या बोल रहे हो बोलो। सब लोग तो यहाँ आ गए पर चाबी तो नीचे ही पडी हुई है। बस यही हाल कई बार हो जाता है। बातें करते-करते जीवन बर्बाद हो जाता है। चाबी हाथ में होनी चाहिए। जब तक चाबी तुम्हारे पास नहीं होगी तब तक तुम अपने जीवन की गुत्थियों के ताले नहीं खोल पाओगे, तब तक अपने चिन्मयी वैभव का दर्शन नहीं कर पाओगे। जीवन को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।
  6. आसक्ति, आतुरता, अतृप्ति और अधीरता पर्वत के शिखर से नदी बहती है। अपने दोनों तटों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर जब वह प्रवाहित होती है तब विशाल सागर का रूप धारण कर लेती है। नदी जब अपने कूल-किनारों के मध्य नियंत्रित वेग और निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होती है तो सागर में समाहित होती है और जब अपने कूल-किनारों का उल्लंघन कर देती है, उन्हें छोड़ देती है तो मरुस्थल में भटककर खो जाती है। नदी; सागर में सिमटकर भी मिटती है और मरुस्थल में भटककर भी मिटती है। नदी का सागर में सिमट जाना अपने क्षुद्र अस्तित्व को विराट रूप प्रदान करना है और मरुस्थल में भटक जाना अपने अस्तित्व को विनष्ट कर डालना है। नदी सागर में तभी जा पाएगी जब उसकी दिशा सही और नियंत्रित हो |बस इसी और नियंत्रित के निर्धारण का नाम संयम है | सन्त कहते हैं अपने जीवन की धारा को तुम शांति के सागर तक पहुँचाना चाहते हो तो उसे सही दिशा और नियंत्रित वेग में प्रवाहित करो। यदि तुम्हारे जीवन में सही दिशा और नियंत्रण होगा तो तुम शाति के सागर तक पहुँच पाओगे अन्यथा विषयों के मरुस्थल में भटककर नष्ट-भ्रष्ट हो जाओगे। ऊर्जा तुम्हारे पास है; उसका उपयोग कैसे करना है इस विषय में आज के लिए चार बाते हैं- दिशा, दशा, दृष्टि और सृष्टि। सबसे महत्वपूर्ण बात है दिशा की। दिशा मतलब डायरेक्शन। संयम कहता है अपनी विषयगामी इन्द्रियों और मन को सही दिशा देना। अभी तुम्हारी चेतना किस दिशा में जा रही है? जिनकी चेतना इन्द्रियों और विषयों की तरफ भागती है, समझ लेना उनके जीवन की दिशा गलत है। ये रॉग (गलत) डायरेक्शन है। राँग (गलत) डायरेक्शन में चलने वाले व्यक्ति की जिंदगी की दशा बहुत खराब होती है। आज तुम्हारी दिशा क्या है? किधर बढ़ रहे हो? पाँच इन्द्रियाँ और मन; ये हमारी चेतना को भटकाने वाले तत्व हैं। सही दिशा में चलने वाला व्यक्ति धीमी गति से चलकर भी अपने गन्तव्य तक पहुँच जाता है और गलत दिशा में तेज गति से दौड़ने वाला भी भटकता रहता है। अपने मन को टटोलकर देखो, क्या स्थिति है? सही दिशा में चलने वाले हो या दिशाहीन बनकर दौड़ने वालों में शामिल हो? कहाँ हो? यदि सही दिशा में चलने वाले होगे तो नियमत: अपने लक्ष्य के नजदीक पहुँचोगे और दिशाहीन होकर दौड़ोगे तो भटकते ही रह जाओगे। आज तक का इतिहास तो यही बताता है कि मनुष्य दौड़ रहा है, बड़ी तेज गति से दौड़ रहा है। केवल दौड़ना-दौड़ना-दौड़ना ही उसके जीवन में जुड़ा हुआ है। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं; नहीं। मुम्बई जाना हो और कलकत्ता की गाड़ी में बैठोगे तो कहाँ पहुँचोगे? कलकत्ते की गाड़ी में बैठने वाला व्यक्ति कभी मुम्बई नहीं पहुँच सकता। मुम्बई पहुँचने के लिए मुम्बई की गाड़ी में ही बैठना हांग। तुम चाहते हो सुख, शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता। तुम्हारी जो दिशा है क्या वह सुख की ओर जाती है? क्या वह शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता की ओर जाती है? अनुभव करो, जाँचों, परखो और देखो। केसे माने कि मेरी दिशा सही है? कैसे जानें कि मैं गलत दिशा में तो नहीं चल रहा हूँ? क्या इष्ट है तुम्हारा? तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है? सुख, शांति, संतुष्टि और प्रसन्नता चाहते हो पर तुमने कभी इस बात का आकलन करने की कोशिश की कि जिस रास्ते पर मैं चल रहा हूँ उस रास्ते पर चलकर आज तक किचित भी सुख, शांति और संतुष्टि पाई या रंच मात्र भी प्रसन्नता हमें मिली। जो प्राप्त हुआ उसकी समीक्षा करके देखो। यदि ये चीजें प्राप्त कर लीं तो समझ लेना आप राइट डायरेक्शन में हो, सही दिशा में हो और यदि नहीं पा सके तो आपको अपनी दिशा बदलने की जरूरत है। क्या हमने भोगों को भोगा? अपने मन को पलटकर देखो, आपके मन में सुख-शांति कब आती है? जब मनोवांछित पदाथों को पाते हो तब या अपने मन को नियंत्रण में रखते हो तब? मन के नियंत्रण में सुख-शांति मिलती है अथवा मनोवांछित की प्राप्ति में? मनोवांछित मिलने पर तो सुख-शांति मिल जाती है लेकिन जब मनोवांछित नही मिलता है तब क्या होता है? तकलीफ होती है। ईमानदारी से बोली मनोवांछित पाने के बाद तुम्हें कितनी देर के लिए शांति मिलती है और मन को नियंत्रण करने पर क्या होता है? तकलीफ होती है। मन को नियंत्रित कर लिया, मन को रोक लिया, मन को समझा लिया, मन मार लिया तब क्या होता है? एक व्यक्ति है जिसके मन मे मिठाई खाने की इच्छा है और मिठाई खाने के लिए लालायित है। चार प्रकार की मिठाईयाँ उसकी थाली में हैं लेकिन उनमें उसकी मनपसंद मिठाई नहीं है। चार प्रकार की मिठाईयाँ होने पर भी अधिक की चाह है। एक दूसरा व्यक्ति है जिसने मीठे का त्याग किया हुआ है उससे कहा जा रहा है मिठाई खाओ। वह कहेगा नहीं आज मेरा मीठे का त्याग है; मैं नहीं खाऊँगा। अब बताओ कौन ज्यादा सुखी है? जिसका त्याग है वह सुखी है और जो भोग रहा है वह सुखी नहीं है। सूत्र लीजिए सुखी होने की दिशा है नियंत्रण। मन पर नियंत्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण और इच्छाओं पर नियंत्रण। जितना नियंत्रण होगा तुम उतने सुखी रहोगे और जितना उनका भोग करोगे उतना दुखी रहोगे। तय करो किस दिशा में जा रहे हो? नियंत्रण की दिशा में या भोगों की प्राप्ति की दिशा में। मन को शांति कहाँ मिलती है? नहीं, भोगों ने हमको भोगा है संत कहते है मन की शांति भोग में नहीं नियंत्रण में है क्योंकि मन कभी भी शांत नहीं होता। जैसे ईधन से अग्नि को बुझाया नहीं जा सकता वैसे ही विषयों से मन को कभी तृप्त नहीं किया जा सकता। इच्छाओं की पूर्ति तृप्ति का साधन नहीं बनती। इच्छाओं के नियंत्रण से ही इच्छाएँ तृप्त होती हैं। अनुभव करने की कोशिश करो। बताओ भूखा कौन है? किसी व्यक्ति की थाली में दो लड्डू हैं; अपने लड्डू खाकर पड़ोसी की थाली के दो लड्डुओं पर जिसकी नजर है वह अथवा जिसे भूख जिसे खाने की इच्छा नहीं है वह सुखी है। ध्यान रखना! भोगों की ओर जितना अधिक भागोगे उतनी अधिक व्याकुलता होगी और भोगों से जितना विरक्त होगे उतनी ही निराकुलता होगी। अभी तुम्हारी एक ही सोच है इन्द्रिय विषयों का जितना भोग करूंगा मैं उतना सुखी होऊँगा। इसलिए भोग करने के लिए साधन चाहते हो और साधन मिलने के बाद उनसे सुख पाना चाहते हो। सुख; साधन और सामग्री से नहीं मिला करता; सुख अंतर की एक परिणति है। मेरे कहने मात्र से मत स्वीकारो। अपने अनुभव को टटोलकर देखो। आज तक पाँच इन्द्रिय के विषयों का भोग करने के बाद तुम्हारा अनुभव क्या है? विषयों को भोगने के बाद क्या आज तक किसी भी इन्द्रिय विषयक स्थायी तृप्ति की अनुभूति हुई? नहीं हुई तो फिर अपना डायरेक्शन चैन्ज (दिशा बदलते) क्यों नहीं करते? डायरेक्शन चेन्ज करो। अपने जीवन की दिशा बदली। महाराज! दिशा बदलने की बात मत करो। आप तो ऐसा कोई उपाय बता दो जिससे जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उसी रास्ते से काम हो जाए।न भूतो न भविष्यति: न आज तक कभी हुआ है और न आगे कभी होगा। एक युवक ट्रेन में सवार था। वह अपने घुटनों पर सिर रखकर जोर-जोर से रोए जा रहा था। ट्रेन में ज्यादा भीड़ नहीं थी, सामने की सीट पर एक बूढ़ी अम्मा बैठी थी और पूरा कम्पार्टमेंट खाली था, ये दो ही थे। उस वृद्धा को युवक का रोना अच्छा नहीं लगा। उसने पहले तो सोचा कि शायद परिजनों का वियोग-विछोह सहा नहीं जा रहा होगा इसलिए रो रहा है। लेकिन जब वह काफी देर तक रोता रहा तो उस अम्मा से रहा नहीं गया। उसने उस युवक को पुचकारकर पूछा- बेटे। क्यों रो रहे हो? उधर से कोई जबाब नहीं मिला तो वह विकल हो उठी। बेटे! बता तो सही तू रो क्यों रहा है? फिर भी कोई जबाब नहीं। बुढ़िया अपने स्थान से उठी, उसके बालों को सहलाते हुए प्यार से पूछा- बेटे बता तो सही तू क्यों रो रहा है? तू मुझे अपनी माँ समझ। युवक ने धीरे से आँखें खोली, ऊपर देखा और वापस घुटनों पर सिर रखकर और जोर-जोर से रोने लगा। अब तो उसके साथ-साथ बुढ़िया भी रोने लगी। उसने युवक को झकझोर कर हिलाया और बोली बेटे! तुझे मेरी कसम; बता तू क्यों रो रहा है? तू मुझे अपनी माँ समझ; मैं तेरी हर संभव मदद करूंगी। मुझसे तेरा रोना देखा नहीं जा रहा। उस युवक ने कहा क्या बताऊँ माँ मैं गलत गाड़ी में बैठ गया हूँ। अम्मा ने कहा बेटे। गलत गाड़ी में बैठने पर रोने से क्या फायदा? अगले स्टेशन पर उतर कर गाड़ी बदल लेना, मामला ठीक हो जाएगा। उसने कहा- अम्मा! मैं भी यही सोच रहा हूँ पर क्या बताऊँ रिजर्वेशन है नहीं, यहाँ कम्पार्टमेंट खाली है, पता नहीं दूसरी गाड़ी में सीट मिलेगी या नहीं मिलेगी। बंधुओं! ऐसे लोगों में कहीं तुम भी तो शामिल नहीं हो। सब रो रहे हैं और रोने का कारण भी पता है। गलत गाड़ी में बैठे हैं। सन्त कहते हैं। भैया! गाड़ी बदल लो। महाराज! बदल तो लें पर ये लगेज ढेर सारा है उसका व्यामोह मनुष्य को व्याकुल करता है।ध्यान रखो जब तक आप अपने जीवन की दिशा को सुनिश्चित नहीं करोगे संयम प्रकट नहीं होगा। राँग डायरेक्शन (गलत दिशा) से राइट डायरेक्शन (सही दिशा) में आइए। अपनी दिशा को बदलिए। आसक्ति की खुजलाहट : खुजलाहट की आसक्ति पाँच इन्द्रियों के विषयों ने आज तक कभी किसी को तृप्त नहीं किया। जैसे कोई खाज खुजाकर अपनी खाज मिटाना चाहता है तो क्या खुजाने से आज तक किसी की खाज मिटी है? खुजाने से खाज नहीं मिटती। खुजाते वक्त थोड़ी देर की राहत जरूर महसूस होती है लेकिन बाद में उतनी ही तीव्र जलन होती है। ये अभ्यस्त विषय है इसलिए जब भी खाज उठती है तो कोई भी समझदार व्यक्ति खाज खुजाता नहीं उस पर कोई लोशन या मरहम लगा लेता है ताकि खाज खत्म हो जाए। सन्त कहते हैं ध्यान रखो पंच इन्द्रिय-विषयों की खाज जब भी उठे उसे खुजाकर शांत नहीं किया जा सकता। उस खाज से मुक्त होना चाहते हो तो उस पर भेद-विज्ञान की मरहम लगा दो, वैराग्य का लोशन चढ़ा दो, खाज मिट जाएगी। आज तक का इतिहास है इन्द्रिय विषयों की दिशा में जो भी गया है वह भटका है। बड़े-बड़े विद्वानों ने भी इन पंच-इन्द्रियों के विषयों के चक्कर में फसकर अपना सर्वनाश किया है, सत्यानाश किया है। इसलिए अपने आप को सम्हालो और इस गलत डायरेक्शन (दिशा) से अपने आपको बचाने की कोशिश करो तब कहीं जाकर तुम अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकोगे। इन्द्रिय चेतना हमारे चित्त को बहिर्मुखी बनाती है। बहिर्मुखी दृष्टि हमें विषयों में आसक्त बना देती है और ये आसक्ति हमें आतुर बनाती है। आसक्ति, आतुरता, अतृप्ति और अधीरता -ये ही पंच-इन्द्रिय विषयों की निष्पत्तियाँ हैं। किसी भी विषय पर एक बार व्यक्ति का मन आसक्त हो जाए फिर वह उसे प्राप्त करने के लिए एकदम आतुर हो जाता है। और प्राप्त कर ले तो उसे भोगने के लिए अंदर में अधीरता, एकदम उतावलापन आता है और फिर कभी उसे तृप्ति नहीं होती। अच्छे-अच्छे ज्ञानियों के साथ भी ऐसा घटित हुआ। भागवत का एक प्रसंग है, वेद व्यास के संदर्भ में आता है व्यास जी को अध्ययन करते-करते एक सूत्र मिला “बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वासमपि कर्षति" इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है जो ज्ञानियों को भी दुख देता है। व्यास जी को ये सूत्र ठीक नहीं लगा। उन्होंने कहा- नहीं; विद्वानों को इन्द्रिय विषय प्रभावित नहीं करते, अविद्वान ही इन्द्रिय-विषयों से प्रभावित होता है। ये चूक हो गई है इसलिए उन्होंने इसकी सन्धि करके इसमें न-खण्डाकार जोड़कर उसका उच्चारण इस तरह से किया- ‘बलवानिन्द्रियग्रामोऽविद्वांसमपि कर्षति' इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है ये अविद्वानों को दुखी करता है। लिख दिया। सब कुछ सामान्य चल रहा था। एक दिन वे नदी पार कर रहे थे। पैदल नदी पार करने का एक संकरा पुल था। एक छोर से ये आ रहे थे और सामने की दिशा से एक षोडशी युवती आ रही थी। उस युवती ने दूर से ही आवाज लगाते हुए कहा कि व्यास जी आप वहीं रुक जाइए, पुल सकरा है मुझे निकल जाने दो फिर आप निकल जाना। व्यास जी ने कहा- ऐसी कोई बात नहीं है, पुल में इतनी चौड़ाई है मैं एक ओर हो जाऊँगा तुम निकल जाना। युवती ने कहा- नहीं मैं चाहती हूँ कि पहले आप निकल जाओ फिर मैं निकल जाऊँगी। व्यास जी बोले- कोई बात नहीं मैं आ रहा हूँ तुम एक साइड से निकल जाना। उस युवती ने देखा कि व्यास जी वापिस नहीं हो रहे हैं तो वह स्वयं वापिस हो गई। व्यास जी की ओर पीठ करके पीछे की ओर चलना शुरू कर दिया। युवती जैसे ही पीछे की ओर गई व्यास जी की चाल तेज हो गई। उन्होंने अपने कदम तेज कर दिए ताकि उस युवती तक पहुँचा जा सके। जैसे ही व्यास जी के कदम तेज हुए कि आकाश से ध्वनि आई - 'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति' ये शब्द सुनकर व्यास जी चौक पड़े। देखते हैं सामने जो युवती थी कहाँ विलीन हो गई पता नहीं। लेकिन ये शब्द उनके कानों में गूंजने लगे- 'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति' ये इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान है जो अच्छे-अच्छे विद्वानों को व्यास जैसे विद्वानों को भी प्रभावित कर देता है। कहते हैं वह युवती कोई और नहीं स्वयं सरस्वती थी जो व्यास जी के भ्रम को मिटाने के लिए प्रकट हुई थी। उन्हें बोध हो गया अपनी अज्ञानता का और सूत्र में किया गया संशोधन उन्होंने वापस ले लिया। अच्छे-अच्छे ज्ञानियों को भी इन्द्रियासक्ति भटका देती है। इसलिए अपनी इस दिशा को बदलिए आपकी दशा बदल जाएगी। जो इन्द्रिय विषयों की दिशा में बढ़ते गए हैं वे भटके हैं और दुखी हुए हैं तथा जिन्होंने इन्द्रियों को सही दिशा दी, मन को सही दिशा दी वे सम्हले हैं और सुखी हुए हैं। क्या चाहते ही भटकना और दुखी होना अथवा सम्हलना और सुखी होना। सम्हलना और सुखी होना चाहते हो तो आज से डायरेक्शन चैन्ज कर दो (दिशा बदल दो) और ये तय कर लो कि मैं अब इन्द्रिय-विषयों का रास्ता स्वीकार नहीं करूंगा। न तुम दिशा बदलना चाहते हो और न दशा सुधारना चाहते हो। तुम तो बस अपनी दशा पर रोना जरूर जानते हो। दिशा बदलना नहीं चाहते, दशा सुधारना नहीं चाहते बस रात दिन अपनी दशा का रोना रोते हो। हे महाराज! आशीर्वाद दे दो बहुत दुखी हूँ। किसी के आशीर्वाद से कोई भी सुखी नहीं होता। सुखी होने के लिए तुम्हें खुद अपनी आत्मा को जगाना होगा। आत्मा को जगाओ, आध्यात्मिक दिशा में बढ़ना शुरु करो तब कहीं जाकर अपने जीवन में कुछ सार्थक उपलब्धि घटित कर सकोगे। विषयों का चक्कर इन्द्रिय-विषयों की स्थिति बहुत भयानक है। शास्त्रकारों ने कहा कि हाथी जैसा बलशाली प्राणी भी अपनी स्पर्शन-इन्द्रिय के व्यामोह में अपना सर्वनाश कर लेता है, मछली रसना इन्द्रिय की चाहत में अपना सत्यानाश कराती है, भौंरा प्राण इन्द्रिय की चाह में अपना विनाश करता है, पतंगा या चमरी गाय अपनी नेत्र इन्द्रिय की चाह में; रूप की चाह में अपना सर्वनाश करती है और हिरन कर्ण इन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर अपना विनाश करता है। ये पाँचों प्राणी एक-एक इन्द्रिय के विषय के कारण अपना विनाश करते है तो जो पाँचों इन्द्रियों का दास है उसका क्या हाल होगा विचार करो। जो अपनी इन्द्रिय को सही दिशा में आगे बढ़ाते हैं, इन्द्रियों पर नियंत्रण करते हैं उनके जीवन की दशा परम सुखमय हो जाती है और जो इन्द्रिय विषयों के दास बन जाते हैं उनकी दशा दुर्दशा कहलाती है। एक बार कुछ लोग मेरे पास बैठे थे। उनमें से एक आदमी ने बात करते-करते ऐसी बात कह दी जो सामने बैठे हुए व्यक्तियों के लिए उस समय कहना उपयुक्त नहीं थी। कहते-कहते कह दिया कि भैया तुम आदमी हो कि घनचक्कर? लोग तो चले गए पर ये घनचक्कर शब्द मेरे दिमाग में चक्कर लगाता रहा। घनचक्कर शब्द ने जब मेरे दिमाग मे चक्कर लगाया तो कुछ पंक्तियाँ बनीं आदमी के साथ है जीभ, जीभ के साथ है खान-पान, नये-नये स्वाद, मधुर-मिष्ठान्न का चक्कर। आदमी के पास है स्पर्श, स्पर्श के साथ है, मृदुल-मृदुल वस्तुओं के स्पर्श का चक्कर। आदमी के साथ हैं कान, कान के साथ है गीत-संगीत, मधुर लय-ताल के श्रवण का चक्कर। आदमी के पास है अाँख, अाँख के साथ है, रूप-लावण्य के दर्शन का चक्कर। आदमी के पास है शब्द; वचन की है शक्ति, कहीं भी कुछ भी बकता है, बुराई करते नहीं थकता है, वचन के साथ है अथकन का चक्कर। आदमी के पास है मन, मन के साथ लगा है राग-द्वेष भोग-विलास का चक्कर। आदमी के पास हैं प्राण, प्राणों के साथ लगा है। सघन चक्कर। और इन चक्करों के बीच चकराते-चकराते, आदमी का नाम हो गया है 'घनचक्कर'। ये चीजें समझना चाहिए। इस घनचक्करपने को खत्म करो। जब तक घनचक्कर बने रहोगे संसार में चक्कर खाते रहोगे इसलिए अब घनचक्कर नहीं बनना है। अपने जीवन को समझना है। जीवन को समझकर उसी अनुरूप अपने आप को आगे बढ़ाने की कोशिश करना है। यदि अपने जीवन की दशा को बदलना चाहते हो तो दिशा को बदली। आज से तय करो कि अभी तक मैं इन्द्रिय विषयों की तरफ अपनी दृष्टि रखता था अब मैं त्याग की और दृष्टि रखेंगा। अभी तक मेरी दृष्टि भोगवादी थी अब मैं अपने भीतर आध्यात्मिक दृष्टि जगाऊँगा। जो मनुष्य अपने जीवन की दिशा बदलते हैं उनकी दशा बदल जाती है और दशा बदलने से दृष्टि बदलती है। अपनी अंतर्दृष्टि को बदले बिना मनुष्य जीवन में कुछ भी नहीं पा सकता। किसी व्यक्ति से मैं कितने भी नियम-संयम लेने की बात करूं लेकिन उस पर तब तक असर नहीं पड़ता जब तक उसकी दृष्टि नहीं बदलती। कोई व्यक्ति गुटखा मसाला खाता है; उसे लाख समझाओ कि गुटखा मसाला नहीं खाओ लेकिन वह छोड़ने को राजी नहीं होता क्योंकि अभी उसमें उसकी उपादेय बुद्धि है, उसकी दृष्टि में अभी वह हेय नहीं बना इसलिए वह उसे मजा देता है। उसे पता नहीं इस मजा में जिंदगी की कितनी बड़ी सजा है। अभी उसका मन इस बात को स्वीकारने के लिए राजी नहीं है। जब तक किसी वस्तु में, किसी विषय-सामग्री में उपादेय बुद्धि है, तुम्हारी दृष्टि में वह अच्छी है तब तक कोई उसे कितना भी समझाए वह उसे छोड़ नहीं सकता। जिस दिन तुम्हारी दृष्टि में ये बात आ जाएगी कि ये चीज ठीक नहीं, ये मेरे लिए हानिकारक है, उपादेय नहीं है, ये तो छोड़ने योग्य है, इसे मुझे छोड़ना है तब एक पल में छूट जाएगी। फिर आपको उपदेश देने की जरूरत नहीं पडेगी। दिशा बदलोगे, दशा सुधारेगी बन्धुओं! दृष्टि बदलिए, अंतर्दृष्टि जगाइए, आध्यात्मिक दृष्टि जगाइए। ऐसे अन्धे बनकर तो अनन्त जन्म गाँवा दिए। ये जन्म भी व्यर्थ न चला जाए। सम्हलो, अपने भीतर की अंतर्दृष्टि जगाओ, स्वयं का अन्तर्विश्लेषण करके देखो कि अभी तक जिस रास्ते मैं चला, जिस दिशा में मैं चला उसका नतीजा क्या निकला। अगर तुम अपनी दिशा की समीक्षा करोगे तो तुम्हारी दृष्टि बदलेगी और दृष्टि बदलेगी तो तुम्हारी सृष्टि बदल जाएगी। आप लोक में हमेशा ऐसा प्रयोग करते हैं। कभी आपकी गाड़ी गलत ट्रेक (रास्ते) पर चली जाती है तो क्या आप उसी ट्रेक पर चलाते हैं कि रिवर्स में (वापस) लाते हो? क्यों लाते हो रिवर्स में? सही ट्रेक पर आने की क्या जरूरत है? गाड़ी में बैठे हो; गाड़ी चल भी रही है कहीं भी चले जाओ। नहीं महाराज! मंजिल को पाने के लिए सही ट्रेक पर आना जरूरी है। सही बोल रहे हो आप मंजिल तक पहुँचने के लिए सही ट्रेक पर आना जरूरी है। ये बात मुँह से बोल रहे हो कि अंदर से? यदि तुम अपने अंतर्मन से बोल रहे हो तो भैया सही ट्रेक पर आने में देरी क्यों? इसलिए कि अभी तुमने अपनी मंजिल ही तय नहीं की है। ये जीवन की हकीकत है। मैं पूछना चाहता हूँ आप लोगों से आपके जीवन की मंजिल क्या है? पता ही नहीं। एक दिन हमने पूछा भैया! जिंदगी का क्या उद्देश्य है, क्यों जी रहे हो तो सभा में से एक व्यक्ति ने कहा महाराज जी! इसलिए जी रहे हैं क्योंकि अभी मरे नहीं हैं। ऐसा आदमी जीते जी मरे हुए के समान है। अपने जीवन की मंजिल तय करो और मंजिल तय करने के बाद देखो कि मैं अपनी मंजिल की दिशा में जा रहा हूँ या उसके विरुद्ध जा रहा हूँ। जब तक तुम अपनी मंजिल तय नहीं करोगे तब तक तुम्हारा उद्धार नहीं होगा। खुद पता होता नहीं जिनको अपनी मंजिल का। मील के पत्थर उन्हें कभी रास्ता नहीं देते। तुम्हें अपनी मंजिल का पता होना चाहिए। नहीं तो; न तुम्हारे गुरु तुम्हारा उद्धार कर पाएँगे, न धर्म उद्धार कर पाएगा और न ही शास्त्र उद्धार कर पाएँगे क्योंकि तुम्हारी मंजिल ही तय नहीं है। क्या है तुम्हारी मंजिल? क्या चाहते हो? किसको अपनी मंजिल मानते हो? अभी सोचा ही नहीं है महाराज! कब सोचोगे जब परलोक जाओगे तब। आज तय करो कि मेरी मंजिल क्या है, मेरा लक्ष्य क्या है? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मेरे जीने का मकसद क्या है? क्या चाहते हो? सुख चाहते हो कि नहीं? महाराज! सुख चाहते हैं| इसलिए तो आए हैं। अच्छा ये बताओ अभी सुन रहे हो तो सुख मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है? ऐसा तो नहीं लग रहा कि आज तो महाराज लपेट रहे हैं। सुख क्यों मिल रहा है क्योंकि यहाँ जो बातें बताई जा रही हैं वे बातें तुम्हारे मन को अच्छी लगती हैं। तुम्हारे मन को अच्छी लगने वाली एक भी बात नहीं है। ध्यान रखना। संतो का उपदेश व्यक्ति के मन को खुश करने के लिए नहीं होता; संतो का उपदेश व्यक्ति की आत्मा को प्रसन्न करने के लिए होता है। मैं वह बात नहीं कहना चाहता हूँ जो तुम्हारे मन को अच्छी लगे। मैं सदैव वह बात कहना चाहता हूँ जिससे तुम्हारा जीवन अच्छा बने। मन को अच्छी लगने वाली बातें तो तुम आज तक संसार में सुनते रहे हो; जीवन को अच्छा बनाने वाली बात जिस दिन सुन लोगे, जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन को अच्छा बनाओ। जीवन अच्छा तभी बनता है जब मनुष्य अपनी दिशा ठीक करता है, विषयों की लालसा को नियंत्रित करता है, भोगों की आसक्ति को मंद करता है और अपने जीवन में संयम तथा वैराग्य का रास्ता अपनाता है, जीवन अच्छा बनाता है। जीवन को अच्छा बनाना तो चाहते हो पर त्याग-संयम अच्छा नहीं लगता, भोग विलास अच्छा लगता है। तो फिर क्या होगा? फिर विनाश ही तो होगा और अभी तक हुआ भी विनाश ही है। मैं आपसे कह रहा था लोक जीवन में आप जब कभी भी कोई डायरेक्शन चैन्ज करते (दिशा बदलते) हो। जैसे कोई आदमी बीमार हो; बीमार होते ही डॉक्टर के पास जाते हो, डॉक्टर को दिखाते हो वह प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) लिखकर देता है। आप वह दवाई खाते हो। दो-चार दिन तक दवाई खाने के बाद आराम नहीं मिलता तो क्या करते हो? डॉक्टर के पास दोबारा जाते हो, उससे प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) चैन्ज कराते (बदलवाते) हो। डॉक्टर प्रिसक्रिप्शन (दवाईयाँ) बदलकर देता है। आप वह दवाई लेते हो; वह दवाई भी सूट (असर) नहीं करे तो डॉक्टर बदलते हो। अब किसी सुपर स्पेशलिस्ट के पास चले और अगर वहाँ भी काम नहीं बना तो फिर आप किसी बड़े हास्पिटल में जाना चाहते हो। हॉस्पिटल बदलते हो और जब अच्छे हॉस्पिटल में जाने के बाद भी लाभ नहीं मिला तो कहते हैं अब जयपुर से काम नहीं चलेगा; मुम्बई चली। आपने शहर बदल दिया और वहाँ जाने के बाद भी यदि आपको आराम न मिले तो फिर क्या करते हो। फिर सोचते हो भैया आजकल एलोपेथिक (अंग्रेजी दवाईयाँ) ठीक नहीं है चलो किसी होम्योपैथी वाले को दिखाते हैं। होम्योपैथी से भी फायदा नहीं मिले तो फिर किसी वैद्य-हकीम के पास अपनी नाड़ी पकड़वाते हो। वहाँ भी काम नहीं बने तो फिर आप नैचुरोपैथी में जाते हो। सौ रोगों की एक दवा मिट्टी, पानी और हवा महाराज! हम तो चाह रहे थे आप ऐसा आशीर्वाद दोगे कि कोई बीमारी न हो। आपने तो हमें ऐसा बीमार बना दिया कि सारी पैथियाँ फैल हो गई। भगवान न करे ऐसा हो। लेकिन यदि किसी के साथ ऐसा होता है तो आखिरी क्षण तक परिवर्तन और प्रयोग करता रहता है। और जब सारी पैथियाँ फैल हो जाती हैं तो सिम्पैथी (सहानुभूति) से काम चलाते हो। पहले आप ने दवाई बदली, फिर डॉक्टर बदला, फिर हॉस्पिटल बदला, फिर पैथी (विधि) बदली। ये सब क्यों बदला क्योंकि आरोग्य चाहिए। ये रोज का अनुभव है। जब कभी भी ऐसा होता है तो परिवर्तन करते रहते हो। अपने जीवन में तुमने अपने भीतर का इलाज कराने में पैथी (विधि या तरीका) क्यों नहीं बदली? तुम जिस पैथी (विधि या तरीके) से अपना ट्रीटमेन्ट (इलाज) करा रहे हो वह तुम्हारी बीमारी को बढ़ाने वाला है। तुम्हारी बीमारी का ट्रीटमेन्ट (इलाज) हम लोगों के पास है। आ जाओ; रोग जड़ से चला जाएगा। संयमवटी खाओ, संतोष का रसायन पिओ, जीवन आनन्द से कटेगा लेकिन वह तुम्हें पसंद ही नहीं। ध्यान रखना। इलाज तो एक ही है; आज करो तो आज और सौ जन्म बाद करो तो सौ जन्म बाद। आरोग्य की अनुभूति उन्हें ही मिलती है जो संयम-साधना के रास्ते पर चलते हैं। भोग और विलासिता में रचे-पचे लोग अंदर से अस्वस्थ रहते हैं। अपितु यूँ कहें अस्वस्थ व्यक्ति ही भोग और विलासिता की ओर भागते हैं, स्वस्थ व्यक्ति तो योग और साधना में ही अपने आप को लीन करते हैं। भोगवादी दृष्टि को बदलो। अध्यात्ममूलक दृष्टि को उद्घाटित करने की कोशिश करो | लेकिन क्या करे अच्छे - अच्छे लोगों की दृष्टि नहीं सुधरती। अगर पंचइन्द्रिय के विषयों में कोई युवा आगे आए तो बात अलग है, अच्छे-अच्छे बूढ़े लोग भी ऐसी गड़बड़ कर देते हैं। जब जागोगे तभी सबेरा मैं एक स्थान पर था। समाज के प्रधान अस्सी वर्ष के थे उन्होंने कहा- महाराज! रात के बारह बजे दो मिस्सी-पराटें न खाऊँ तो मुझे नींद नहीं आती। अस्सी वर्ष के बुजुर्ग, समाज के प्रधान कह रहे हैं कि रात के बारह बजे दो मिस्सी-पराठे न खाऊँ तो मुझे नींद नहीं आती। वहीं उनका पोता बैठा था जो रात में पानी भी नहीं पीता था। मैंने कहा इसको देखकर कुछ तो शर्म खाओ। वह बोले- महाराज! दोष हमारा नहीं; आपका है। गल्ती हमारी नहीं आपकी है। मैंने कहा मेरी क्या गलती? बोले- इसकी उम्र में आप हमको नहीं मिले। सम्हलो, जब सम्हल सको तभी सम्हलो। जब जागो तभी सबेरा। सम्हलो; अपनी लालसा को ठीक करो। अक्सर होता ये है कि -जैसे अवस्था ढलान की ओर बढ़ती है अंदर की आसक्ति प्रबल होती जाती है। अपनी बढ़ती हुई आसक्ति को शांत करना चाहते हो तो अध्यात्म को आत्मसात करो। अध्यात्ममूलक दृष्टि तुम्हारे भीतर विरक्ति का संस्कार जगाती है। जिस मनुष्य के अंतर्मन में विरक्ति के संस्कार जाग जाते हैं वह कभी गलत रास्ते पर नहीं चलता। दृष्टि में अध्यात्म लाओ। अध्यात्मदृष्टि कहती है कि आत्मा का सुख तुम्हारे भीतर है बाहर नहीं। बाहर के साधन तुम्हें सुविधा दे सकते हैं सुख नहीं। ध्यान रखना सुविधाएँ साधनों से जुटाई जा सकती हैं लेकिन सुख तो भीतर से अर्जित होता है जो अन्त:करण की तृप्ति से प्रकट होता है। ऐसी तप्ति इच्छाओं के नियंत्रण में होती है। पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोको। इन्हें दुखदायी समझो। जिस मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक-दृष्टि जाग जाती है वह इस बात को समझता है कि ये एक मृगमरीचिका है। मृगमरीचिका क्या होती है? रेगिस्तान में रेत के कणों पर सूर्य की किरणें जब पड़ती हैं तो रिफ्लेक्शन (चमक) आता है और दूर से ऐसा लगता है कि कोई सरोवर लहलहा रहा है। वहाँ रहने वाला मृग (हिरण) जिसे प्यास लगती है वह सोचता है कि थोड़ी ही दूरी पर सरोवर है। मैं वहाँ पहुँचूँगा और जीभर पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लूँगा। बस दस-बीस कदम और, दस-बीस कदम और। दस-बीस कदम सोचते-सोचते हिरण जितना दौड़ता जाता है सरोवर उससे उतना ही दूर होता जाता है। बंधुओं! इस सच्चाई को समझने की कोशिश कीजिए। तुम्हारे मन में जब कभी किसी भी चीज के विषय में बात आती है तो बस थोड़ा सा और, थोड़ा सा और, थोडा सा और। उस और-और-और का अंतिम छोर कहीं नहीं होता। बस और है छोर नहीं। आज तक का अनुभव है यदि तुम भागते रहोगे तो अपने प्राण गंवा दोगे। संत कहते हैं जिसे तुम तृप्ति का आधार मानकर चल रहे हो वह तो अतृप्ति का केन्द्र है। उससे तृप्ति कभी नहीं मिलने वाली। न भूतो न भविष्यति। इसलिए दौड़ो मत, यहीं सम्हलो। प्यास बुझाने की अंतहीन चाह में दौड़ने की अपेक्षा प्यासे रहकर थम जाना अच्छा है। दौड़ते रहने से कुछ नहीं मिलने वाला। आज तक का अनुभव हमें यही बताता है- यहाँ जो सावधान हो जाते हैं उनके जीवन में कभी भटकाव नहीं आता और जो यहाँ नहीं सम्हल पाते उनके जीवन में कभी ठहराव नहीं आता। भटक रहे हो, भाग रहे हो, कब तक भागोगे। जिस अवस्था में ही उसी अवस्था में अपने आपको सम्हालो। अध्यात्ममूलक दृष्टि रखो। यावत्स्वस्थोऽयं देहः यावत् मृत्युश्च दूरतः। तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यसि॥ जब तक तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, जब तक मृत्यु तुम्हारे नजदीक नहीं आती तब तक अपनी आत्मा का हित कर ली, जब प्राण निकल जाएँगे तो क्या करोगे? तुम सोचो कि मेरी उम्र पूरी हो जाए, उम्र पक जाए तब मैं करूंगा। पकने के बाद टपकने के सिवाय कुछ नहीं होगा। पकने के बाद तो टपकना है; टपक जाओगे। इससे पहले कि तुम पको और तुम्हें टपकना पड़े; अपने आपको सम्हाल लो, सबक सीख लो। यदि प्रारम्भ से ही अध्यात्मदृष्टि मनुष्य के अंदर जाग जाती है तो वह कभी भटकता नहीं है। बड़ी अच्छी प्रेरणा दी है इस कवित्व में जौ लों देह तेरी कोनी रोग से न घेरी जौ लों जरा नाही नेरी जासों पराधीन परिहैं जौ लों जम नामा बैरी देय न दमामा जौ लों माने कान रामा बुद्धि जाय न बिगारि है तौ लों मित्र मेरे निज कारज सम्हार ले रे पौरुष थकेंगे फिर पाछे काहे करिहैं आग के लगाय जब झोपरी जरनि लागी कुआँ के खुदाय पाछे कौन काम सरिहैं। बड़ी मार्मिक प्रेरणा है अपनी दृष्टि को बदलने और सृष्टि को सुधारने की। हे! मित्र जब तक तुम्हारा ये शरीर किसी रोग से ग्रस्त नहीं होता, जब तक बुढ़ापा नजदीक नहीं आता जिससे तुम पराधीन हो जाओ। बुढ़ापे को क्या बोलते हैं? अर्धमृतक सम बूढ़ापनो। बुढ़ापे को अर्धमृतक यानी अधमरा क्यों कहते है पता है? बूढ़े को अर्धमृतक अधमरा इसलिए कहते हैं क्योंकि मुर्दे को चार उठाते हैं और बूढ़े को दो उठाते हैं। मुर्दे को चार उठाएँगे अभी दो उठा रहे हैं अर्धमृतक हो गए। बुढ़ापे में तुम्हारे ऊपर पराधीनता हावी होगी ये उम्र का असर है। जब तक मृत्यु रूप शत्रु का विगुल नहीं बजता, जब तक तुम्हारे मन और बुद्धि तुम्हारे हाथ में हैं, तब तक मेरे मित्र! अपनी करनी को सुधार लो, जब तुम्हारा शरीर ही सत्वहीन हो जाएगा तो फिर क्या करोगे। कितना सुंदर उदाहरण दिया। अरे भैया! ‘आग की लगाय जब झोपरी जरनि लागी' कहीं आग लग जाए और झोपड़ी जलने लगे तो तुम उसे बुझाने के लिए उसी समय कुआँ खोदोगे तो तुम्हें कितना बड़ा विद्वान कहा जाएगा। आग लगने के समय कोई कुआँ खोदे कि झोपड़ी को बुझाना है तो समझ लेना बड़ी गड़बड़ है। एक आदमी एक लुहार के यहाँ गया और उसकी सबसे बड़ी साईज (आकार) की बाल्टी पसंद करने के बाद बोला इसको घर भेज दो। पैमेन्ट (पैसा) भी दे दिया। चार कदम जाकर लौटा और बोला- सुनो इसको थोड़ा जल्दी भेजना क्योंकि मेरे मकान में आग लगी है। जब आग लगी उस समय तुम बाल्टी खरीद रहे हो। ध्यान रखो आग लगने की सम्भावना तो पल-पल है उससे घबराने से कोई फायदा नहीं होगा। पर आग लगे उससे पहले अग्निशामक की व्यवस्था कर ली। आप लोगों ने आग लगे इससे पहले ही फायर इन्सटिग्विन्सर (अग्निशामक) यंत्र लगा रखा है; क्यों? ताकि यदि आग लगे तो हमें कुछ सोचना न पड़े। आजकल कहीं भी कुछ भी कार्यक्रम होता है तो शॉर्टसकिट से बचने के लिए आप लोग एम. सी.वी. लगाते हैं, फायर सेन्सर लगाते हो, क्योंकि आप चौकस रहते हैं कि कहीं भी किसी प्रकार की दुर्घटना न घटे। बंधुओं! मैं भी आपसे कहना चाहता हूँ शार्टसकिट कभी भी हो सकती है, एम.सी.वी. लगा लो। एम.सी.वी. और फायर सेन्सर दो चीजे हैं। एम.सी.वी. है तुम्हारे जीवन का संयम। संयम का संकल्प एम.सी.वी. है। संयम जब भी तुम्हारे जीवन में होगा तुम्हारी आत्मा में कभी शॉर्टसकिट नहीं होगा। थोड़ा सा किसी का पावर बढ़ा, वोल्टेज बढ़ा तो अपने आप कट हो जाएगा, आग लग ही नहीं पाएगी। सम्हल जाओगे, संयम उसे काट डालेगा। ये फायर सेन्सर क्या है? फायर सेन्सर है तुम्हारे अंदर की साधना। थोड़ा सा भी कुछ हुआ तो तुम्हें अवेयर (सचेत) कर देगा। तुम्हारा संकल्प तुम्हें जगा देगा। जाग जाओ, सम्हल जाओ, अब आग लगने वाली है। इस सीमा का उल्लघंन तुम्हें नहीं करना है। तुम्हारे जीवन का सुरक्षा कवच बन जाएगा। एक बात और बताऊँ सामान्यत: ये शॉर्टसकिट दो कारणों से होती है या तो पावर जरूरत से ज्यादा हो जाए तो अथवा दो तार अपनी धारा को छोड़कर एक दूसरे से टकरा जाएँ तो। इसके अलावा तीसरा कोई कारण नहीं होता। पावर ओवर (ज्यादा) हो जाए तो और दो तार एक दूसरे से टकरा जाएँ तो शॉर्टसकिट होती है। आपको एक एम.सी.वी. की व्यवस्था की गई है। पावर ओवर (ज्यादा) होता है तो एम.सी.वी. फ्यूज उड़ा देती है और लाईट कट हो जाती है ठीक इसी प्रकार ये संयम भी एक तरह की एम.सी.वी. है जो तुम्हारे अंदर एक प्रकार का नियंत्रण देता है। नियंत्रण देने से ओवर (ज्यादा) पावर कन्ज्यूम करने (खपाने) की शक्ति तुम्हारे भीतर आ जाती है जिससे कहीं भी शॉर्टसर्किट नहीं होता। दो तार कब टकराते हैं? नंगी तार टकराने से शॉर्टसकिट होता है इसलिए इन्सुलेटिड वायर रखो। एक ही पाइप में कितने भी हो जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इन्सुलेशन चढ़ा है। बस मैं आपसे इतना ही कहना चाहता हूँ यदि तुम्हारी जिंदगी की तार नंगी है तो उस पर नियम-संयम का इन्सुलेशन चढ़ा लो कभी शॉर्टसर्किट नहीं होगा। जिनके जीवन में संयम का इन्सुलेशन चढ़ा है उनके जीवन में कभी शॉर्टसकिट नहीं होता। तुम्हारी तार थोड़ी विचित्र प्रकार की है, न तो नंगी है न सुरक्षित है। तुम्हारी तार पुरानी है, जर-जर है, सैंकड़ों जगह कट लगे हुए हैं। हम कहतें हैं वायरिंग चैन्ज कर (बदल) लो; सो चैन्ज करने (बदलने) के दाम तुम्हारे पास नहीं हैं। मैं कहता हूँ चलो वायरिंग चैन्ज नहीं करते हो तो एक काम करो जहाँ-जहाँ कट शॉक से बच जाओगे इसलिए टैप लगाओ। ये टैप क्या है? छोटे-छोटे नियमों का टैप अपनी जिदगी की तार पर चढ़ा लोगे तो शॉर्टसर्किट से बच जाओगे। बहुत सारे टैप हैं महाराज जी के पास। मेरे पास संकल्प नाम की एक डायरी है; ले लेना उसमें सब छोटे-छोटे टैप हैं; सब ले लेना। आज की तारीख में, संयम की तिथि में एक न एक संयम जरूर लेना जो तुम्हारे जीवन के लिए कल्याणकारी है। संयम ही हमारे जीवन का सुरक्षा कवच है। कुरल काव्य में लिखा है- जो व्यक्ति अपने जीवन में संयम रखते हैं वे आगामी जन्मों के लिए अनन्त शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं। संयम को अपने जीवन के सबसे बड़े खजाने की तरह सुरक्षित रखना चाहिए। जैसे कछुआ अपने हाथ-पैर को सिकोड़कर सुरक्षित रखता है वैसे ही अपनी इन्द्रिय-तप्तियों को भी संयमित और संकुचित बनाकर चलना चाहिए। यदि ऐसा संयम आपके जीवन में आएगा तभी आपका जीवन धन्य हो सकेगा। इसलिए आज की चारों बातों को ध्यान में रखना है- दिशा, दशा, दृष्टि और सृष्टि। मुझे विश्वास है आप अपनी दिशा बदलोगे, आपकी दशा सुधरेगी, आध्यात्मिक दृष्टि को पकड़ोगे और अपने जीवन में सुख की सृष्टि करोगे।
  7. आचार्य संघ मे होने वाले पंचकल्याणक महोत्सव के माता-पिता बनने का महासौभाग्य श्री सुशील जैन तारादेही वालो को प्राप्त हुआ.!! भगवान के माता पिता बनाने का सौभाग्य श्रेष्टि श्री सुशील सिंघई श्री मति कविता सिंघई तारादेही वालो को मिला बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के धनपति कुबेर बनने का महासौभाग्य श्रीमान अनिल जी जैन नैनधरा वालो को प्राप्त हुआ ☀आचार्य श्रीजी ससंघ☀ के सानिध्य मे होने वाले पंचकल्याणक महामहोत्सव के सौधर्म इंद्र बनने का महासौभाग्य श्री अजय जी पारस सागर (देवरी वालों) को प्राप्त हुआ.!! बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के महायज्ञनायक बनने का महासौभाग्य श्रीमान विमल जी जैन सेठ परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के राजा श्रेयांश बनने का महासौभाग्य श्रीमान अनिल कुमार जी कुतपुरा परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के राजा सोम बनने का महासौभाग्य श्रीमान प्रमोद जी कोठारी परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ
  8. शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या नदी के किनारे एक चट्टान थी। धोबी उस पर बैठकर कपड़े धोया करते थे, सैलानी उस पर बैठते और लहरों के साथ अठखेलियाँ खेला करते थे। पत्थर कई दिनों से नदी के किनारे था। जो भी वहाँ आता अपने-अपने हिसाब से उसका उपयोग करता। एक दिन किसी शिल्पी की नजर उस पत्थर पर पड़ी। शिल्पी ने उस पत्थर को वहाँ से निकाला, अपनी वकशाप पर लाया और उसे तरासना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में उसमें एक सुंदर प्रतिमा का आकार प्रकट हो गया। कल तक साधारण पत्थर अब प्रतिमा का रूप धारण कर चुका था, पाषाण ने भगवान का रूप ले लिया था। बन्धुओं! इसी तरह पाषाण से भगवान की अभिव्यक्ति हमारी संस्कृति है। आज तप धर्म की बात है। शक्ति के रूप में हर प्राणी के अन्दर अनन्त सम्भावनाएँ हैं। जैसे हर पत्थर में प्रतिमा है वैसे हर आत्मा में परमात्मा है। 'अप्पा सो परमप्पा' ये जैनदर्शन का उद्घोष है। हर आत्मा परमात्मा है। आत्मा ही परमात्मा है। तुम्हारे भीतर वह शक्ति है पर तुम्हें उसका पता नहीं। जब तक हमें शक्ति की जानकारी नहीं होगी, हम उसका लाभ नहीं ले सकगे। तप धर्म के संदर्भ में चार बातें आप से कहना चाहूँगा। तुम अनन्त शक्ति के स्रोत आज की चार बातें- शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या। शक्ति. तुम्हारे पास जो शक्ति है पहले उसे पहचानो। जो प्राणी अपनी अन्तर्निहित शक्तियों की पहचानता है वही सच्चे अथों में अपना कल्याण कर सकता है। जानो तुम क्या हो। तुम्हारे पास अनन्त सम्भावनाएँ हैं। सच्चे अर्थों में देखा जाए तो तुम अनन्त शक्तियों के पुंज हो पर मुश्किल ये है कि इसका तुम्हें पता ही नहीं है। तुम क्या हो, तुम्हें पता नहीं है। ऊपर से देखने में हाड़-माँस का पुतला दिखता है लेकिन इसके भीतर जो आत्म-तत्व है वह अनन्त शक्तियों का पुंज है, उस शक्ति को पहचानो। जो उसे पहचानता है वही आगे जाकर अपने जीवन का कल्याण कर पाता है। पाषाणेषु यथा हेम दुग्धमध्ये यथा घृतम् | तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिव: || स्वर्णपाषाण में जैसे सोना होता है, दूध के भीतर जैसे घी है. तिल के भीतर जैसे तेल व्याप्त होता है वैसे ही देह के भीतर तुम्हारा परमात्मा है जो अनन्त शक्तियों का भण्डार है, धाम है, निधान है। कभी उस शक्ति को पहचाना? स्वर्ण पाषाण में सोना है ऐसा हर कोई नहीं जान पाता, जिसे उसकी परख होती है वही जानता है और जानने के बाद जब प्रयत्न करता है तब उसमें से उस सोने की अभिव्यक्ति होती है। शक्ति की अभिव्यक्ति : तपस्या का बल पहले शक्ति को पहचानो फिर उसके बाद उसे पाने के लिए, उसकी अभिव्यवक्ति के लिए पुरुषार्थ करो। पहचान के बाद पुरुषार्थ होता है। शक्ति को जानने वाला ही अभिव्यक्ति कर पाता है। इस स्वर्ण पाषाण में सोना है, इसे जो जानता है वह उसे तपाता है, गलाता है, जिससे उसकी किट्ट-कालिमा नष्ट होती है, उसके अन्दर की शुं समाप्त होता हैं तथा उसे भीतर का शुद्ध स्वर्ण प्रकट होता है। सन्त कहते हैं इस शक्ति को तुम पहचानो। तुम्हारे भीतर सोना है पर अभी तुम सोने के पाषाण की भांति हो। सोने के पाषाण से सोने की अभिव्यक्ति करना ही हमारे जीवन का मूल लक्ष्य और ध्येय है। सच्चे अर्थों में यही साधना है, यही आराधना है। उस अभिव्यक्ति का साधन है तपस्या। जैसे सोने के ओर(स्वर्णपाषाण) को तपने पर उसके भतार का शुद्ध सोना निकलता है | वेसे ही तपस्या हमारी आत्मा की कुन्दन बना देती है, तपस्या से ही आत्मा परमात्मा बन पाता है। शक्ति को पहचानो। दूध में घी है, पर घी की अभिव्यक्ति कब होती है? अपने आप..? पता है दूध की बूंद-बूंद में घी समाहित है लेकिन दूध में रहने वाले घी की अभिव्यक्ति तब होती है जब दूध को जमाया जाता है, उसका मंथन किया जाता है, नवनीत निकाला जाता है और उसे तपाया जाता है तब कहीं जाकर दूध से घी निकलता है। तुम्हारे भीतर वह परमात्म तत्व है, देह के भीतर वह परमात्मा है पर उस परमात्मा की अभिव्यक्ति कब होगी? जब तुम साधना करोगे, साधना के बल पर अपनी आत्मा का अंथन-मंथन करोगे। उस अंथन-मंथन से जो नवनीत निकलेगा, उस अनुभूति के नवनीत को तपस्या की आंच में तपाओगे तब अपनी आत्मा को परमात्मा बना पाओगे। ये अभिव्यक्ति है। जैसे दूध से घृत की अभिव्यक्ति उसकी प्रोसेस(प्रक्रिया) से होती है, सोने के ओर(स्वर्णपाषाण) से सोने की अभिव्यक्ति उसकी प्रक्रिया से होती है, तिल को घानी में पेलने से तेल निकलता है वैसे ही जब आत्मा साधना और आराधना के रास्ते पर चलता है तब उसके अंदर का परमात्मा प्रकट होता है। तुम परमात्मा हो लेकिन उसकी तुम्हें पहचान नहीं है। परमात्मा हो लेकिन भिखारी बनकर जी रहे हो, तुम्हें उसका पता नहीं। तुम्हारे भीतर की शक्ति क्या है, तुम्हें पता नहीं। शक्ति को पहचानो। एक सेठ का बेटा पिता की मृत्यु को बाद गलत संगति का शिकार हो गया। व्यसन-बुराईयों में लिप्त होकर उसने अपनी सारी सम्पति का नाश कर दिया। सब कुछ खो दिया और स्थिति ऐसी हो गई कि वह दाने-दाने की मोहताज हो गया। एक दिन हारकर वह अपने पिता के मित्र के पास पहुँचा और कहा- मुझे कोई छोटी सी नौकरी दिला दें, अब जिन्दगी जीना मुहाल हो गया है, दाने-दाने के लिए मोहताज हो गया हूँ। उसने कहा- तुझे नौकरी करने की जरूरत नहीं है, तू आज भी करोड़पति है। अरे! चाचा! मजाक क्यों करते हो? सुबह खा लूँ तो शाम की जुगाड़ नहीं, शाम खा लें तो सुबह की जुगाड़ नहीं और आप कह रहे हो कि मैं आज भी करोड़पति हूँ। बेटे मैं तुझसे मजाक नहीं कर रहा हूँ, यथार्थ बता रहा हूँ। लड़का बोला- मुझे आप की बात समझ में नहीं आ रही। चाचा ने कहाये तेरे गले में क्या है, उसके गले में तांबे का एक ताबीज था। तुमने यह ताबीज कब से पहना है, तुझे पता है? लड़का बोला- बचपन से पहना हुआ है, मुझे याद है एक दिन मेरे पिता ने मुझे पहनाया था। बोले बस, मैं तुझसे कहता हूँ अब तू इसको खोल दे। मोटा सा ताबीज था, पहले ताँबे का एक कवर निकला, ताँबे का कवर निकलने के बाद उसमें चाँदी का कवर निकला। बोला- इसको भी खोल फिर उसके ऊपर सोने का कवर था, बोला- इसकी भी खोल और जैसे ही सोने का कवर खोला तो उसके भीतर एक बेशकीमती हीरा पड़ा था। बोला- देख तेरे पिता ने तेरे गले में कितना मंहगा हीरा डाल रखा है और तू भिखारी बना हुआ है। पहचान तेरे पास क्या है। वह निहाल हो गया। सन्त कहते हैं आज जितने लोग भी भिखारी बने हुए हैं और जो अपने दुखों का रोना होते हैं, जो अपने कष्टों का रोना रोते हैं, उन सब को समझने की जरूरत है कि तुम्हारे भीतर भी वह अनन्त उसका पता नहीं है, तुम्हें उसका ज्ञान नहीं है, उस पर अज्ञान का आवरण चढ़ा हुआ है, उस पर मिथ्यात्व का आवरण चढ़ा हुआ है, उस पर आसक्ति का आवरण चढ़ा हुआ है। ये आवरण जब तक नहीं हटाओगे तुम्हारे भीतर के उस तत्व की पहचान नहीं होगी। शक्ति को पहचानो, जो मनुष्य अपनी शक्ति को नहीं पहचानता वह कभी उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाता। तुम्हारे पास कितनी शक्ति है, इसका उदाहरण बताऊँ। अभी यहाँ इस शिविर में बैठने वाले साठ-सत्तर लोग दस उपवास कर रहे हैं, दस दिन तक निराहार रहेंगे, कुछ लोग बत्तीस दिन तक भी निराहार उपवास कर रहे हैं। उनमें कुछ ऐसे भी लोग शुमार हैं जो एक घण्टे भी भूखे नहीं रह सकते। एक घंटे भूखा न रहने वाला व्यक्ति भी दस दिन तक और बत्तीस दिन तक निराहार रह सकता है। कहाँ से आई ये शक्ति? क्या हुआ, कहीं ऊपर से तो नहीं टपक रही? महाराज! आपके आशीर्वाद से शक्ति मिल गई। अगर मेरे आशीर्वाद से शक्ति मिले तो मैं तो एक-एक को पकड़ कर शक्तिपात कर दूँ। किसी के आशीर्वाद से शक्ति नहीं मिलती, शक्ति तो तुम्हारे भीतर छुपी थी पर तुम्हें उसकी पहचान नहीं थी, तुम्हारा आत्मविश्वास कमजोर था, तुम्हें पता ही नहीं था कि मैं क्या कर सकता हूँ। तुम्हें उसकी पहचान हुई, आत्मविश्वास जागा, तुम तपस्या में निरत हो गए और अब उस शक्ति की अभिव्यक्ति हो रही है। सब कुछ सामान्य चल रहा है बल्कि आम दिनों से ज्यादा उत्साह और जोश है, सुबह तीन बजे से लेकर रात के नौ बजे तक की ये अलविया का पाल कनेक शतकों से आई गुन्दे कहते हैं तन मिला तुम तप करो करो कर्म का नाश | रवि शशि से भी अधिक है तुममें दिव्य प्रकाश || ये तन मिला है, इसके भीतर की शक्ति को पहचानो, इन्द्रियों का नियन्त्रण करो। ये तन तुम्हें भोगों का नाश करने के लिए मिला है, भोगों में रत रहने के लिए नहीं, कर्म का नाश करो। शक्ति को पहचानोगे, उसकी अभिव्यक्ति में लगोगे तो जीवन में कोई समस्या नहीं रहेगी और तपस्या बहुत सहज हो जाएगी, फिर कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। एक व्यक्ति है जो तन को रात-दिन पीसने में लगा है, जो ये कहता है- मुझसे कुछ किया नहीं जाता, मुझसे कुछ ही नहीं सकता, मैं कुछ कर नहीं सकता, न भूख सहन हो सकती, न प्यास सहन हो सकती, न सदीं सहन कर सकता, न गर्मी सहन कर सकता, मैं कोई तपस्या-वपस्या नहीं कर सकता और एक व्यक्ति वह है जो शरीर को पाकर कठोर तपस्या करते हुए भी चौबीस घण्टे प्रसन्न है। आपके शिविर में एक माताजी आई हैं ललितपुर से, पाँच-छ: हजार उपवास कर चुकी हैं, उनके खाने के दिन कम और उपवास के दिन ज्यादा है। माता एक बार खड़े हो जाओ, तुम्हारे दर्शन करके लोग धन्य हो जाएँ। ये माता हैं इनको देखो, इनके चेहरे का तेज देखो, एक बार अभिनंदन तो करो। सत्तर-बहत्तर साल की उम्र और अपने जीवन में लगातार दो दिन भोजन नहीं करतीं, दो दिन उपवास हो जाता है। कल्पना कर सकते हैं? अभी बारह-तेरह उपवास के बाद पारणा करेंगी और वह भी अपने हाथ से बनाकर, दूसरों के हाथ से नहीं। हाड़-माँस तो वही है, जो हमारा-तुम्हारा है, सबका एक है लेकिन फिर भी इतनी शक्ति। शक्ति को पहचानो, आसक्ति को छोड़ो तब तुम उसकी अभिव्यक्ति के लिए तपस्या कर सकोगे। कुछ लोग हैं जिनको अपनी शक्ति की पहचान नहीं होती। जिन्हें शक्ति की पहचान नहीं होती वे कुछ कर नहीं सकते। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें शक्ति की पहचान तो होती है पर आसक्ति इतनी होती है कि कुछ कर नहीं सकते। जब तक शरीर में आसक्ति होगी, तपस्या के नाम पर कपकपी आएगी, साधना कर ही नहीं सकते। आसक्ति मनुष्य को रोकती है, अवरोध पैदा करती है। उस शक्ति पर आसक्ति ने आवरण डाल रखा है, कुछ कर ही नहीं सकते, कैसे करेंगे? आसक्ति क्षीण होगी, विरक्ति का भाव होगा, विकृति का शोधन करोगे तब आत्मा की प्रकृति को प्राप्त कर सकोगे। प्रकृति की प्राप्ति : देहालय में मस्ती की स्थापना आज के चार शब्द साथ-साथ जोड़ लो। आसक्ति, विरक्ति, विकृति और प्रकृति। आसक्ति रोकती है, अवरोध पैदा करती है, विरक्ति प्रोत्साहित करती है, आगे बढ़ाती है। जब मनुष्य अपनी आसक्ति को मंद करता है तो भीतर में विरक्ति के संस्कार जगते हैं, विरक्ति के भाव बढ़ते हैं, आसक्ति मंद होती है और ऐसा व्यक्ति अपनी विकृतियों के शोधन में तत्पर हो जाता है, तब अपनी स्वाभाविक प्रकृति को प्राप्त कर पाता है। आसक्ति रोकती है, शक्ति के ऊपर आसक्ति हावी होने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता। सुकुमाल मुनि का जीवन याद करो, जिन्हें सरसों का दाना भी चुभता था। सरसों का दाना जिन्हें चुभा करता था उन्हें श्यालिनी के दंश नहीं चुभे। तीन दिनों तक श्यालिनी अपने दो बच्चों के साथ जिन्हें खाती रही, कमर तक खा लिया लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं किया। क्या शरीर बदल गया? सहनन बदल गया? क्या बदला? जब तक देह के प्रति आसक्ति थी तो सरसों का दाना भी चुभन पैदा करता था और देह से विरक्ति हो गई तो श्यालिनी के दंश तक नहीं चुभ सके, इतनी स्थिरता आ गई। बन्धुओं! मैं आप से भी कहता हूँ जब तक आसक्ति में जिओगे, रोते रहोगे और जब विरक्ति आएगी तो हँसना सीख जाओगे। ये शरीर है। शरीर को पाकर एक व्यक्ति अपने शरीर के पोषण में लगा रहता है, उसी में रत रहकर अपने संसार को बढ़ाता है और एक व्यक्ति उसी शरीर के माध्यम से संसार को पार कर लेता है, दृष्टि का खेल है। आसक्ति होगी तो संसार में घूमोगे, विरक्ति होगी तो संसार से पार हो जाओगे। येनैव देहेन विवेकहीनाः संसारबीज परिपोषयन्ति। तेनैव देहेन विवेकभाजः संसारबीजं परिशोषयन्ति॥ विवेकहीन व्यक्ति जिस काया को पाकर संस्कार को बीज का संसार के बीज का शोषण करते हैं। एक संसार को पुष्ट करता है और एक संसार को सुखा डालता है। दृष्टि क्या है? विवेक जगाओ। काना पौड़ा पड़ा हाथ यह चूसे तो रोवै | फलै अनन्त जु धर्मध्यान की भूमि विषै बोवै || इस शरीर को पौड़े की उपमा दी है। पौड़ा बोलते हैं गन्ने को। गन्ने में एक काना पौड़ा होता है जिसमें कोई रस नहीं होता, रेसे होते हैं, उसको चूसो तो मसूड़े और छिल जाते है पर हासिल कुछ भी नहीं होता। यदि उसी पौड़े को जमीन में बो दिया जाए तो वह बीज का काम करता है, उससे सरस गन्ना प्रकट हो जाता है। कवि कहता है- ये शरीर काने पौड़े की तरह है, इसका भोग करोगे तो दुखी होने के सिवाय कुछ भी नहीं होगा, 'चूसे तो रोवै'- इस शरीर का जितना भोग करोगे उतना दुख होगा और 'फले अनंत जु धर्म ध्यान की भूमि विषै बोवै'- इस शरीर को धर्म ध्यान में लगा दोगे तो कैवल्य का आनंद फल प्राप्त कर लोगे। इसलिए बन्धुओ! इस शरीर का उपयोग करो, उपभोग नहीं। ये शरीर कड़वी तुम्बी के समान है। कड़वी तुम्बी को खाओगे तो फूड पॉइंजन(बीमारी) हो जाएगी और चाहो तो उसी तुम्बी के सहारे उफनती नदी को भी पार किया जा सकता है। इसी प्रकार इस शरीर का उपभोग करोगे तो मर जाओगे और उपयोग करोगे तो तर जाओगे। अपनी शक्ति की पहचानें, उसकी अभिव्यक्ति करें तो हमारा जीवन आगे बढ़ेगा। आसक्ति अभिव्यक्ति में बाधा बनती है। एक शहर में बहुत सुंदर मंदिर था। उस भव्य मंदिर में मूल प्रतिमा को ठीक सामने एक स्तम्भ(खम्भा) था। एक दिन दोपहर को समय जब मंदिर में कोई नहीं था तब मूल प्रतिमा के सामने खड़े स्तम्भ ने प्रतिमा से कहा- अरी बहिन! देखो न लोगों का पक्षपात, तेरी-मेरी जाति एक अंश एक, वंश एक, जहाँ तू पैदा हुई वहाँ मैं पैदा हुआ, जिस खान से मैं निकला उसी से तू निकली लेकिन फिर भी देख न लोगों का कैसा पक्षपात है, जो आता है तुझे शीश नवाता है, तेरी पूजा करता है, आरती उतारता है पर मुझे पूजा करने, प्रणाम करने, आरती करने की तो बात तो दूर, जो आता है वह मुझसे टिककर बैठ जाता है ये कैसा पक्षपात है। खम्भे की पीड़ा सुनकर प्रतिमा मुस्कुराई और उसने खम्भे को सम्बोधते हुए कहा- भईया! तुम्हारी इस उपेक्षा से मुझे भी अच्छा नहीं लगता, तुम्हारे प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है लेकिन मैं एक बात निवेदन करना चाहती हूँ। बोले क्या? इसमें कसूर तुम्हारा है, किसी का पक्षपात नहीं। प्रतिमा की बात सुनकर खम्भा तिलमिला गया। इसमें मेरा क्या कसूर? ये सरासर पक्षपात नहीं तो क्या है? प्रतिमा ने कहा- भईया! इतने आवेश में मत आओ। तुम्हें ये दिखता है कि लोग मेरी पूजा करते हैं, आरती उतारते हैं, वन्दना करते हैं पर क्या तुम्हें ये पता है कि यहाँ तक पहुँचने के पीछे मैंने क्या-क्या सहा है? तुम उस दिन को भूल गए जिस दिन शिल्पी आया था और हमें अपने परिजनों से अलग करने की चेष्टा की थी। कितने हथौड़ों और घनों का प्रहार किया था याद है? एक बारगी तो मैं भी काँप गई थी पर तभी मैंने शिल्पी की आँखों में देखा तो मुझे लगा कि उसकी आँखों में बहुत प्यार है, वह मेरे भीतर कुछ अलग तैयार करना चाहता है, मैंने अपने आप को समर्पित कर दिया। उसने मुझे वहाँ से उठाकर अपनी कार्यशाला मे पटक दिया, मुझे लगा- हे भगवान! अब क्या होगा? फिर उसने मेरी छाती पर चढ़कर मेरे ऊपर छेनी और हथौड़ियों का लगातार प्रहार करना शुरु कर दिया, मेरा जी घबराया, मैंने फिर शिल्पी की आँखों में देखा तो उसमें वही प्यार उमड़ रहा था। तब मुझे लगा कि नहीं, ये शिल्पी मेरे भीतर कुछ घटित करना चाहता है, मुझे कोई सुन्दर आकार देना चाहता है। मैंने अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया। शिल्पी ने मुझे तरासना शुरु किया, मेरे अंदर के अवांछित और गलत तत्वों को उसने तरासकर अलग करना शुरु कर दिया और ज्यों ही उसने मुझे तरासना शुरु किया मेरे भीतर आकार बनना शुरु हो गया। तरासते-तरासते जब मेरे भीतर का अन्तिम अवांछित तत्व भी हट गया तो मेरे भीतर इस प्रतिमा का आकार बन गया। और अधिक मैं क्या कहूँ, जैसे ही मैं इस रूप में प्रकट हुई सबसे पहले उसी शिल्पी ने मुझे प्रणाम किया। पर उस दिन तुमने चलने से इंकार दिया। काश! तुम मेरे साथ आते तो तुम भी मेरी जगह समान स्थान पाते लेकिन उस दिन तुम वहीं रह गए इसलिए आज तुम्हारी दुर्दशा हो रही है। बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ संसार में दो तरह के प्राणी हैं- एक वे जो प्रतिमा की तरह पूजे जाने योग्य होते हैं और दूसरे वे जो खम्भे की तरह हमेशा खड़े रहते हैं। अपने भीतर झांककर देखो, तुम्हारा जीवन खम्भे जैसा है या प्रतिमा जैसा है? खम्भे को प्रतिमा बनाना है तो उसके लिए तुम्हें तपस्या करनी होगी, साधना करनी होगी, आराधना करनी होगी। अपने आपको निखारो, अपने भीतर की विकृतियों का शोधन करो। तुम्हारे भीतर के विकारों का जितना शमन होगा, जीवन में उतना निखार आएगा। बंधुओं! शक्ति, आसक्ति, विकृति और प्रकृति को साथ-साथ लेकर चलो। अपने लक्ष्य, प्रकृति तक जाना है तो अपनी शक्ति को पहचानी और उसकी अभिव्यक्ति का प्रयत्न करो। अभिव्यक्ति के प्रयत्न में सबसे बड़ी समस्या है हमारे भीतर का अज्ञान, हमारे भीतर का मोह, हमारे भीतर पलने वाली आसक्ति जो कुछ करने नहीं देती, उसका निवारण हो तो जीवन में कहीं कोई कठिनाई नहीं। तपस्या करने के लिए आसक्ति समस्या है, अज्ञान समस्या है। इस अज्ञान और आसक्ति से अपने आप को मुक्त करोगे तो तुम्हारा चित्त तप से निरत हो जाएगा। अपने जीवन को मोड़ सकते हो, उधर से मोड़ो। अपने अंदर की विकृति का शमन करना चाहते हो तो तपस्या करो, अपने भीतर के विकारों का शमन करना चाहते हो तो तपस्या करो और जीवन की समस्याओं का समाधान पाना चाहते हो तो तपस्या करो। आज मैं आप से कौन-सी तपस्या की बात करूं? उपवास करने की, ऊनोदर करने की, रस छोड़कर भोजन करने की, विविक्त शैय्यासन की, एकान्त में ध्यान लगाने की, शारीरिक कष्टों को सहन करने की? कौन सी तपस्या की बात करूं? अगर इस तरह की तपस्या की बात करूं तो कहोगे महाराज! हमारे वश में नहीं है। ये मुँह से कहते हो, तुम्हारे वश में क्या है तुम्हें पता नहीं। तुम्हारे वश में क्या है, इस बात का अंदाजा तो केवल इससे लगाया जा सकता है कि आधा किलोमीटर चलने में असमर्थ व्यक्ति जब सम्मेद शिखर जाता है तो सताईस कि.मी. की यात्रा कैसे कर लेता है? नौ किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ते हो, नौ कि.मी. की वंदना करते हो फिर नौ कि.मी. उतरते हो, कहाँ से आती है शक्ति? वह वंदना कौन कराता है तुम्हारे पैर? पैर नहीं इरादे, तुम्हारी आस्था, तुम्हारी श्रद्धा। जिस दिन तुम्हारे मन में ये बात आ जाएगी उस दिन बड़ी से बड़ी तपस्या तुम्हारे लिए अति सामान्य बन जाएगी। चलिए आज मैं आप से उस तपस्या की बात नहीं करता जिसमें आप को कुछ छोड़ना पड़े। मैं आपको एक बहुत अच्छी तपस्या बताता हूँ जिसमें आपको कुछ नहीं छोड़ना पड़ेगा, खा-पीकर तपस्या करो। ऐसी कौन सी तपस्या है जो खा-पीकर की जाती है? समस्या ही समाधान है, समाधान का रास्ता है तपस्या सन्त कहते हैं जब भी जीवन को समस्या से ग्रसित पाओ, तपस्या करो। सच्चे अर्थों में समस्या का समाधान ही तपस्या है। क्या कह रहा हूँ? समस्या का समाधान ही तपस्या है। चलिए पहले समस्या देखें फिर उसका समाधान देखें, तपस्या अपने आप समझ में आ जाएगी। यदि आपके जीवन में कोई समस्या है तो आज सबका समाधान कर दूँगा। तप का दिन है, बोलो किसको क्या समस्या है? तुम्हारी समस्या कैसी भी हो हमसे ट्रीटमेन्ट(इलाज) लोगे तो समाधान लेकर ही जाओगे। बताओ क्या समस्या है? चलो अब तुम्हारी समस्या भी मैं ही बता देता हूँ। तुम लोग तो सब सामने वालों से ही कराना चाहते हो, खुद नहीं करना चाहते। समस्या है- मन में उद्वेग, आवेग, अशान्ति। मन में कभी उद्वेग आए, आवेग आए, अशान्ति आए तो मन खिन्न हो उठता है, समस्याग्रस्त हो जाता है। ये उद्वेग, आवेग, अशान्ति क्यों आती है? जीवन में कभी अनुकूल संयोग होते हैं, कभी प्रतिकूल संयोग होते हैं। अनुकूल संयोग होते हैं तो मन खुश रहता है, प्रतिकूल संयोग होते हैं तो मन खिन्न हो जाता है। कभी विषयों की लालसा मन में जागती हैं, उसे पा लेते हैं तो कुछ देर के लिए थोड़ी खुशी होती है और जब नहीं पा पाते हैं तो मन खिन्न हो उठता है। जो हम चाहते है वह मिल जाता है तो मन प्रसन्न होता है, नहीं मिलता है तो मन खिन्न होता है। संयोगो की अनुकूलता का न बन पाना एक बड़ी समस्या है, प्रतिकूल संयोगों का आ जाना एक बड़ी समस्या है, मन पर तनाव का हावी हो जाना एक बड़ी समस्या है और चित्त में चिंता का हावी हो जाना एक बड़ी समस्या है। सारी समस्याएँ इनमें समाहित हैं। अनुकूल संयोगों का अभाव होना, प्रतिकूल संयोगों का जुड़ जाना, मन में तनाव आ जाना, चित्त में चिन्ता का आना आपकी समस्या है। समस्याएँ दो प्रकार की हैं- शारीरिक समस्याएँ और मानसिक समस्याएँ। शारीरिक समस्या, समस्या नहीं है; असली समस्या मानसिक समस्या है। मैं आपसे कहता हूँ इस सारी समस्या का समाधान तपस्या है। कैसे? हमारे यहाँ तीन प्रकार के तप बताए हैं। महराज! हमने तो बारह तप सुने हैं। बारह तप भी हैं; मैं आपसे इन तपों से भिन्न बात करना चाहता हूँ। तप तीन प्रकार के हैं- 1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप और 3. मानसिक तप। व्रत करना, त्याग करना, उपवास करना तपस्या करना आदि ये सब शारीरिक तप है। मैंने आपको छुट्टी दी तुमसे शारीरिक तप नहीं बनता तो मत करो। वाचिक तप करो। वाचिक तप मतलब वाक-संयम। तुमसे कोई अपशब्द बोले तो उस समय मौन रख ली; तपस्या हुई कि नहीं हुई? आप उपवास तो कर सकते ही पर किसी की बात की बरदाश्त (सहन) नहीं कर सकते। भोजन छोड़ना सरल है पर किसी के दुर्वचन को सहना बहुत कठिन है। सन्त कहते हैं ये तपस्या है। इस तपस्या से समस्या का समाधान है क्योंकि किसी ने आपसे अपशब्द कहा, उस अपशब्द ने आपके दिमाग में चक्कर काटना शुरु कर दिया, सौ प्रकार के विकल्प आने लगे, टेंशन हो गया, उसने मुझे ऐसा बोल दिया। उसने मुझे अपमानित कर दिया, वह मुझे नीचा दिखाने की सोचता है, देखता हूँ, बड़ी औकात बढ़ गई है उसकी। अच्छा! उसने मुझे गधा कह दिया, मुझे गधा कहता है, बहुत भाव बढ़ गए हैं, एक दिन में धूल चटा दूँगा। ऐसी पटकनी दूँगा कि उठ नहीं पाएगा; मुझे गधा कहता है। सामने वाले ने एक बार गधा कहा और तुमने खुद को कितनी बार गधा बना दिया? जैसे शान्त सरोवर में किसी ने एक ककड़ फेंका और वह ककड़ वलय दर वलय बनाते-बनाते पूरे सरोवर को घेर लेता है। तुम्हारे कान में एक शब्द पड़ा, तुम उसे पकड़कर बैठ गए और उसने तुम्हें नीचे से ऊपर तक हिला दिया। अशान्त बना दिया, उद्विग्न बना दिया, खिन्न बना दिया। यदि तुमने उस समय ये सोच लिया कि मुझे वाचिक तप करना है, कोई मुझे कुछ भी बोल दे लेकिन मुझे कोई भी उल्टी प्रतिक्रिया नहीं करना है, हँसकर टालना है। बोलो! इसमें कोई कठिनाई है। आज से नियम ले लो, अब मुझे कोई गाली भी देगा तो मैं कुछ नहीं बोलूँगा। कितने लोग इस सभा में हैं जो ये नियम लेने के लिए तैयार है? ये तपस्या के लिए एक अवसर है। ध्यान रखो! एकदिन गुरुदेव ने बहुत अच्छी बात कही थी– “प्रतिकूल प्रसंगो को समता से सहना बहुत बड़ी तपस्या है।” ध्यान से सुनो- "प्रतिकूल प्रसंगों को समता से सहना बहुत बड़ी तपस्या है।” सच्चे अर्थों में समता ही सबसे बड़ी तपस्या है। गुरुदेव ने लिखा- मासोपवास करना, तन को सुखाना, आतापनादि तपना, तन को तपाना। सिदद्वान्त का मनन, चिन्तन औ मौन धरना ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य पाना। तुम्हारे मन में समता नहीं तो तुम कितना कायक्लेश करो, कितना व्रत-उपवास करो, कितना अध्ययन करो, कितना मौन करो, ये सब व्यर्थ हैं यदि समता नहीं है। समता मूल है। एक बार की बात; हम लोग विहार कर रहे थे। विहार के क्रम में कई बार कच्चे रास्तों से जाना होता है। कई बार लोग गलत सूचनाएँ भी दे देते हैं। अठारह मील का अठारह किलोमीटर बता दिया, और उस पर भी दो पहाड़ी चढ़नी थी। एक पहाड़ी चढ़ो, उतरो, फिर दूसरी पहाड़ी चढ़ो, उतरो फिर उसके बाद चलना था, सड़क भी बहुत खराब, चुभने वाली। अब क्या हुआ? इतनी थकानभरी यात्रा में पैदल चलना। सब लोगों ने उस व्यक्ति को कोसना शुरु कर दिया जिसने रास्ता बताया था। उनमें हम लोग भी शामिल थे। अरे! कैसा रास्ता बता दिया, कितनी परेशानी हुई। उस दिन पूरा संघ तितर-बितर हो गया। सात स्थानों पर पहुँचा, तय स्थान तक कोई नहीं पहुँच पाया। हम सात साधु आचार्य महाराज को साथ; जिस जगह पहुँचना था वहाँ से तीन किलोमीटर पहले एक स्कूल में रुके। शाम हो गई थी, फरवरी का महीना था, शीतलहर तेज चल रही थी। सरकारी स्कूल था, खप्पर वाला, चौड़े वाले खप्पर (इंग्लिश खप्पर) लगे हुए थे जिनमें से पाँच-सात खप्पर गोल थे (नहीं थे)। खिड़की, रोशनदान वगैरह में भी बन्द करने के साधन नहीं लगे हुए थे, दरवाजे भी सरकारी ही थे। सांय-सांय हवा आ रही थी। सभी सात साधु बिना चटाई वाले और ऐसे ही रात काटनी थी। ठण्ड भी बहुत लग रही थी। हमारे साथ के एक-दो साधुओं ने कहा- आज तो परेड हो गई, खूब चलवा दिया, कैसा रास्ता बताया आदि-आदि उसको कोस रहे थे। आचार्य महाराज ने कहा- उसको कोसो मत; उसको धन्यवाद दो कि उसने तुम्हें तपस्या करने की अनुकूलता प्रदान कर दी, कर्म-निर्जरा का अवसर दे दिया। है इतना माद्दा तुम्हारे भीतर कि कोई तुम्हें गलत कहे और तुम उसे अच्छी नजर से देख सको वाचिक संयम लाओ। कह दिया, चलो कह दिया, ये मेरी कर्म निर्जरा का कारण हो गया। बरदाश्त कर ली, तपस्या हो गई। ऐसी तपस्या यदि तुम लोग कर लोगे तो तुम्हारे घर में कोई समस्या ही नहीं होगी। मन का संयम : प्रसन्नता का सूर्योदय रोज घरों में महाभारत क्यों छिड़ता है? इसी कारण से। वाणी के असंयम के कारण, एक दूसरे के वचनों को बरदाश्त न करने के कारण। बड़ी समस्या बन जाती है। मैं आपसे कह रहा हूँ छोटी सी तपस्या कर ली, सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। बोली समाधान का नुस्खा जाँचा कि नहीं जैंचा? अच्छा लगा हो तो एक बार ताली तो बजा दो (तालियों की गड़गड़ाहट)। अरे! इतनी बड़ी समस्या का समाधान बता दिया और तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं। अरे! हमसे संवाद तो जुड़ा रहना चाहिए। महाराज! हम तो सुनते हैं जितनी देर आप सुना दो, यहाँ से जाने के बाद सब मामला साफ। वाणी के संयम में कुछ नहीं लगना है खा-पीकर तपस्या करना है। मन का संयम। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता -इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप है। मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते। मन को प्रसन्न रखना, मन को खिन्न नहीं होने देना। कितनी ही प्रतिकूलता आए, मन में समता। अनुकूल संयोग न रहें, मन में समता रख सकते हैं आप? कुछ भी प्रतिकूल हो, दस मिनट आपका पंखा बन्द हो जाए, बरदाश्त कर पाते हो? यहाँ तो कर लेते हैं, घर में नहीं होता। प्रतिकूल संयोग को सहन करो। कैसे? तत्वज्ञान के माध्यम से। क्या भावना रखो? क्या धारणा रखो? संसार के सारे संयोग मेरे अधीन नहीं, मेरे कमों के अधीन हैं। ये हकीकत है कि नहीं बोलो? तुम्हारी तिजोरी की चाबी तुम्हारे पास है पर तुम्हारी किस्मत की कुछ पता नहीं। किस्मत कब खुलेगी और कब बन्द हो जाएगी पता नहीं। कब तुम्हारे साथ अनुकूल संयोग घटेंगे और कब प्रतिकूल संयोग बन जाएँगे; तुम्हें इसका कोई पता नहीं। ये सच्चाई है जीवन की। तो फिर परेशान क्यों होते हो? खुल जाए तो भी आनन्द और बन्द हो जाए तो भी आनन्द। तपस्या है ये। कर्म-सिद्धान्त पर भरोसा रखो। अनुकूल का भी स्वागत करो, प्रतिकूल का भी स्वागत करो। अच्छे का भी साथ दो, बुरे को भी स्वीकार करो। कर सकते हो? महाराज! अच्छे में तो बहुत अच्छा लगता है पर बुरा आता है तो बुरा लगने लगता है। आप तो कुछ ऐसा बताओ कि बुरा आए ही नहीं। ध्यान रखो! सन्त कहते हैं बुरा न आए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं, लेकिन बुरा भी तुम्हें अच्छा लगने लगे, ऐसी व्यवस्था है। बुरे को टालने की ताकत धर्म के पास नहीं पर बुरे को अच्छा बनाने की सामथ्र्य धर्म के पास है। यदि अपना चिन्तन बदल लो तो बुरा भी अच्छा लगेगा। एक उदाहरण देता हूँ। आपके घर में कई मेहमान आते हैं, आप सबका स्वागत करते हो। उदाहरण के लिए बताऊँ घर में जमाई (दामाद) आता है, और घर में चाचा भी आते हैं। जिस दिन जमाई आता है उस दिन टेंशन आता है कि नहीं आता? आता है। जिस दिन जमाई आता है उस दिन आपको अतिरिक्त तैयारी करनी पड़ती है। चार प्रकार की मिठाईयाँ बनानी पड़ती हैं, पाँच प्रकार की सब्जियाँ बनानी पड़ती हैं, उसके स्वागत-सत्कार की व्यवस्था करनी पड़ती है और जाते समय टीका लगाकर कुछ भेंट भी देना पड़ता है। जमाई है ही ऐसा। जमाई के लिए एक कवि ने लिखा सदा वक्रः सदा क्र्कूरः सदा मानधनापहः। कन्याराशिस्थितो नित्यं जामाता दशमो ग्रहः॥ नौ ग्रहों का नाम तो आपने सुना है। दसवाँ ग्रह है जमाई। उसका स्वभाव भी समझ लो। हमेशा वक्री रहता है, हमेशा क्रूर रहता है, हमेशा मान और धन को हरने वाला होता है और हमेशा कन्या राशि में बैठा रहता है। जमाई आता है तो आप इस प्रकार उसका स्वागत करते हो और घर में चाचा आएँ तो चाचा के आने पर आपको कुछ करना पड़ता है? कुछ नहीं। घर की जो सामान्य प्रक्रिया है वही खिला दो-पिला दी। चाचा एडजस्ट हो गए, आराम से चले जाते हैं और जाते समय कुछ देकर जाते हैं। जमाई लेकर जाता है और चाचा देकर जाते हैं। स्वागत दोनों का आप करते हैं। मैं आपसे यही कहता हूँ जब दु:ख आए तो समझ लो जमाई आया और जब सुख आए तो समझ लो चाचा आए। स्वागत करो। सबका स्वागत करो। मन में खेद-खिन्नता आएगी ही नहीं। यही तपस्या है। सन्त कहते हैं जो मनुष्य अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं वह कभी सुखी नहीं हो सकता और जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट है वह कभी दु:खी नहीं हो सकता। कोई भी समस्या शेष नहीं रहेगी। समाधान ही समाधान है। ये तपस्या है। व्रत-उपवास कर लेना सहज है पर ऐसे समय में अपने मन को समाधान देना बहुत कठिन है। यदि तुमने ऐसा कर लिया तो सब हो गया। तपस्या का फल : तनाव मुक्त जीवन तपस्या उसे कहते हैं जिससे कर्म की निर्जरा हो। तपस्या को कर्म की निर्जरा का साधन कहा। ‘तपसा कम्मं णिरज्जड़'। तपस्या से कर्म झड़ता है। आपने कभी कर्म को झड़ते हुए देखा? बोलो! उपवास करने वालों! कितने कर्म झड़ाए? निश्चित कर्म झड़ते हैं लेकिन कर्म झड़े इसकी पहचान क्या? मेरी भावदशा में अन्तर। जब भी कोई अशुभ संयोग आए सोचो मेरी कर्मनिर्जरा का समय आ गया। समता भाव रखेंगा तो कर्म झड़ जाएँगे, ये परिस्थितियाँ अपने आप बदल जाएँगी। मेरी मन:स्थिति शान्त हो जाएगी जीवन धन्य हो जाएगा। कर्म निर्जरा हो गई। समता से कमों की निर्जरा होती है। और जिससे निर्जरा होती है उसी का नाम तपस्या है। समस्या का निवारण किसमें है? तपस्या में है। आज से समस्या की बात करोगे कि तपस्या की बात करोगे? आज से तपस्या करना शुरु कर दो। कोई भी प्रतिकूल प्रसंग आएगा उसको समता से मैं सहूँगा। जीवन में कैसी भी विषमता आए समता से स्वीकार करो। जो तत्वज्ञानी होता है वह सहज भाव से स्वीकार कर लेता है। कितने भी उतार-चढ़ाव आ जाएँ लेकिन विचलित नहीं होता। देखो! धर्मात्माओं के जीवन में कैसी भी विपत्ति आई लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे, हटेंगे नहीं ये धर्मात्मा की पहचान है। बात आप समझ रहे हैं तो अपने जीवन में कितना भी बड़ा झंझावात आ जाए कभी हिर.ना नही, घबराना नहीं। कर्म का उदय है स्वीकार करेंगे। प्रतिकूल संयोग मिलने पर समता, अनुकूल संयोग मिटने पर समता। अनिष्ट के संयोग में समता, इष्ट के वियोग में समता। चक्र है, चल रहा है, चलने दो मैं तो उसका एक पार्ट (हिस्सा/भाग) हूँ। यह मेरे हाथ में नहीं। मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ - आप किसी के घर गए। उसके घर में कुछ चीजें आपको अव्यवस्थित दिखीं। किसी के घर में अव्यवस्थित चीजें देखकर आपके मन में कुछ होता है क्या? ऐसा व्यक्ति है जिसकी चीजें अव्यवस्थित हैं उससे आपको क्या करना है। जीवन में भी ऐसे ही चलना चाहिए। एक परिवार की बात मैं बता रहा हूँ। एक सज्जन ने मुझे बताया- उनके घर में एक एम.बी. ए. पढ़ा हुआ लड़का था लेकिन उसका कमरा एकदम अव्यवस्थित। अच्छा पैकेज पाने वाले, एक बड़ी कम्पनी में बड़े पद पर काम करने वाले युवा का कमरा एकदम अव्यवस्थित। इस कारण कोई लड़की वाले आएँ तो उसे पसन्द न करें। वह सज्जन उनके परिचित थे उन्होंने कहा भाई! उसे कुछ समझाओ, लड़का माने तो कुछ रास्ता निकले। लड़के के कमरे में गए तो वहाँ हर चीज अव्यवस्थित देखकर लड़के से कहा- भैया! हर चीज व्यवस्थित होना चाहिए, व्यवस्थित जिन्दगी जीना चाहिए। उन्होंने कहा महाराज जी! उस लड़के ने मुझे बहुत बड़ा बोध दे दिया। उसने दरवाजा खोला और दरवाजे के पीछे तरफ ओट में लिखा हुआ था दिस इज माय रूम, यू लव इट और लीव इट (यह मेरा कमरा है आप चाहें तो इसे प्यार करें चाहें तो इसे छोड़ दें)। यह मेरा कमरा है आप इसे प्यार करो या छोड़ो, मैं जैसे चाहूँगा वैसे रहूँगा। वह सज्जन वापिस आ गए कि इसके कमरे पर मेरा कोई नियन्त्रण नहीं यह जैसे चाहेगा वैसे रहेगा। यह कर्म का संसार है, इसमें मेरा कोई रोल (भूमिका) नहीं, वह जैसा चाहे रहे, जैसा चाहे रखे। ऐसी दृष्टि अपने भीतर विकसित कर लो। तुम्हारे हाथ में कुछ है ही नहीं। तुम जिस चीज को जैसा मैन्टेन करना (बनाए रखना) चाहो, वैसा हो ही नहीं सकता। कर्म जैसे करोगे फल भी वैसे ही मिलेंगे और कर्म जैसा चाहेगा तुम्हें वैसा नचाएगा। जिस दिन इस बात पर विश्वास हो जाएगा जीवन धन्य हो जाएगा। मन में तनाव और चिन्ता, इससे अपने आपको मुक्त कर लेना एक तपस्या है। तनाव क्यों आता है? आजकल तो तनाव, टेंशन एक बहुत बड़ी समस्या है। महामारी बन गई है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक। आठ साल का बच्चा हो या साठ साल का वृद्ध; सबको टेंशन है। बच्चों को शुरु से अपने पेपर के माक्र्स (अंको) की टेंशन हो जाती है, बड़ी को अपनी नौकरी-पेशे, व्यापार का टेंशन, बच्चों के विवाह का टेंशन और बूढ़ों को अपने बुढ़ापे का टेंशन। आदमी टेंशन में जन्मता है, टेंशन में ही मरता है और जितने दिन जीता है उतने दिन टेंशन में ही रहता है। ये तनाव क्यों आता है? कभी आपने विचार किया? परिस्थिति और मन:स्थिति के बीच जब असन्तुलन होता है तभी तनाव आता है। परिस्थितियाँ कुछ होती हैं, मन:स्थिति कुछ होती है, हम चाहते कुछ हैं और होता कुछ है, तो तनाव हो जाता है। मन के विरुद्ध हुआ, मन कुछ सोच रहा है, मन कुछ चाह रहा है और हो कुछ रहा है तो तनाव हो रहा है। सन्त कहते हैं अपने मन को प्रसन्न रखो क्योंकि मन के अनुकूल होगा ही नहीं। मनोऽनुकूल सब कुछ घटे ये शक्ति तुम्हारे पास नहीं है पर जो कुछ भी घटे उसे मनोऽनुकूल बना लेने की शक्ति तुम्हारे पास है। जो घट जाए, मन को उसके अनुकूल बना ली, उसे स्वीकार कर ली कर्म के उदय के रूप में। कर्म सिद्धान्त के ऊपर विश्वास करके। तुम्हारे जीवन की बड़ी तपस्या हो जाएगी। यदि ऐसी तपस्या करोगे तो न तनाव होगा, न चिन्ता होगी, नकारात्मक कुछ भी नहीं होगा। बस जीवन में निश्चिन्तता और आनन्द की अनुभूति होगी। ये एक ऐसी तपस्या है जिसमें कोई समस्या नहीं है। बन्धुओ! अपने मन को प्रसन्न रखें, सौम्य भाव रखें, पवित्रता को अपने हृदय में विकसित करें, इन्द्रियों का निग्रह करें, अपनी विषयों की आसक्ति को नियन्त्रित करें, इच्छाओं का शमन करें -ये सब तपस्या है। ऐसी तपस्या सबके जीवन में प्रकट हो तो फिर कोई समस्या शेष नहीं रहेगी, हमारे जीवन का निश्चयत: उद्धार होगा। आज तप धर्म के दिन ये नई तपस्या जो आप सबको बताई है, मुझे विश्वास है कि ये आप सबको पसन्द आएगी और आज से आप सबके जीवन में घटित हो जाएगी।
  9. संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह एक बार धरती ने वृक्ष से कहा कि मैं तुम्हें अपना रस पिलाती हूँ और तुम अपने फल-फूल औरों को लुटा देते हो; ऐसा करना तुम बंद करो। पेड़ ने धरती से विनम्रता से कहा- नहीं माता: मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मेरा तो जन्म ही औरों के उपकार के लिए हुआ है। पेड़ के इस उत्तर से धरती रूठ गई। पतझड़ आया, पेड़ का एक-एक पता झड़ गया। कल तक हरा-भरा दिखाई देने वाला पेड़ आज सूखे लूठ के रूप में परिवर्तित हो गया। धरती ने कहा अब भी चेत जाओ। पेड़ ने कहा नहीं मैं तो चाहता हूँ कि इस घड़ी में भी मेरी सूखी लकड़ियाँ भी किसी के काम में आ जाएँ तो मैं अपने जीवन को सार्थक समझेंगा। पेड़ के इस व्यवहार से धरती का हृदय पसीज गया। बसंत आया और पेड़ पहले से सौ गुना ज्यादा वैभव-सम्पन्न हो गया। एक रोज हिमालय ने गंगा से कहा कि तुम नीचे क्यों उतरती हो? तुम यहीं रहो; अपना पानी यूँ न लुटाओ। गंगा ने हिमालय की बात को अनसुना कर नीचे बहना शुरु कर दिया। वह प्यासी धरती और सूखी खेती को हरा-भरा बनाते हुए लाखों-करोड़ों लोगों की व्याकुलता नष्ट कर प्रवाहित होने लगी। गंगा की इस वृत्ति से हिमालय द्रवीभूत हो उठा और उसने उसे जी भरकर पानी देना शुरु कर दिया। नतीजा: गंगा गंगोत्री में जितनी थी उससे हजार गुनी गंगासागर में बन गई। आज के संदर्भ में ये दोनों रूपक बहुत सार्थक हैं। जो निरंतर देता है वह निर्बाध पाता है। अगर हम सृष्टि के समस्त क्रम को देखें तो सारी सृष्टि ग्रहण और त्याग से जुड़ी है। हमारा सम्पूर्ण जीवन ग्रहण और त्याग से जुड़ा है। हम श्वास लें और नि:श्वास न हो,श्वास भीतर लें और बाहर न निकालें तो क्या होगा? घुटन होगी। भोजन करें और शौच न हो तो क्या होगा? पीड़ा होगी। भोजन करना जितना जरूरी है मल का विसर्जन भी उतना ही आवश्यक है। श्वास लेना जितना जरूरी है श्वास छोड़ना भी उतना ही जरूरी है। ये प्रकृति का नियम है। बहुत जरूरी जानना, त्याग/दान सम्बन्ध बादल समुद्र से पानी सोखते हैं और वर्षा के रूप में हमें लौटा देते हैं। समुद्र यदि बादल को पानी न दे तो नदियाँ समुद्र को पानी नहीं दे सकेंगी; ये एक क्रम है। पेड़ धरती से रस लेता है तो हमें फल, फूल और छाया प्रदान करता है। गाय घास खाती है तो हमें अमृतोपम दूध पिलाती है। ये प्रकृति की व्यवस्था है जहाँ ग्रहण है वहाँ त्याग जरूरी है। जीवन का संतुलन तभी बनेगा जब ग्रहण के साथ त्याग होगा। आज त्याग धर्म का दिन है। त्याग की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। मुनियों को केन्द्र बनाकर जब त्याग की बात की गई तो कहा गया-‘परिग्रहनिवृत्तिः त्यागः' परिग्रह की निवृत्ति का नाम त्याग है। अर्थात् मुनियों का जो त्याग है वह सर्वस्व का त्याग है। अपने सर्वस्व का त्याग ही परिग्रह की निवृत्ति है। गृहस्थों के लिए जब बात कही गई तो कहा गया- 'त्यागो दानम्' त्याग का मतलब दान। दान अंश का होता है त्याग सर्वस्व का होता है। गृहस्थ सर्वस्व को नहीं त्याग सकता। उसके पास जो है उसका एक अंश ही त्यागेगा। त्यागी का स्थान बहुत उच्च होता है। साधु सर्वस्व को त्यागता है, अपने पास कुछ भी नहीं रखता। तिल-तुष मात्र भी नहीं रखता। साधु त्याग की प्रतिमूर्ति होते हैं। गृहस्थ दानी अंश दान देता है। दान देने के लिए गृहस्थों को कहा गया है क्योंकि वह जो कुछ भी धन सम्पत्ति कमाता है उसमें पाप का उपार्जन होता है। बिना पाप के पैसा कमाना संभव नहीं है। अनीति के बिना पैसा कमाया जा सकता है पर बिना पाप के नहीं। क्योंकि धनार्जन में प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा षट्काय जीवों की विराधना होती है। अपने द्वारा अर्जित धन का कुछ अंश में भोग भी कर लेंगे और शेष एक दिन छोड़कर चले जाएँगे लेकिन उसके साथ जो उपार्जित पाप है वह कहाँ जाएगा। उस पाप को साफ करने के लिए गृहस्थों के लिए दान की प्रेरणा दी गई। सारा मत करो, अंश में दान करो, कुछ भाग दान करो जिससे वह पाप बैलेन्स (बराबर) हो जाए। बंधुओं! जब त्याग और दान की बात आती है तो दान की अपेक्षा त्याग का स्थान ऊँचा है क्योंकि दान अंश का और त्याग सर्वस्व का होता है इसलिए हमारे देश में त्यागी की पूजा होती है और दानी की प्रशंसा। जो सब त्याग दे वह पूज्य हो जाता है और जो अंश में त्यागे वह प्रशंसा का पात्र बनता है। आज तुम्हारे द्वारा दिया गया अंश-दान कल तुम्हारे कल्याण का कारण बनेगा। आज का ये दान कल तुम्हें त्यागी बनने का पुण्य प्रदान करेगा। जिससे त्याग के बल पर अपने सर्वस्व को प्राप्त कर सकी। संग्रह नहीं परिग्रह बुरा बंधुओं! दान के सन्दर्भ में आज की चार बातें- संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह। आप गृहस्थ हो; धन का संग्रह करते हो का संग्रह कतई बुरा नहीं है। कुछ लोग धनी-मानी लोगों को अलग दृष्टि से देखते है | ऐसी अवधारणा बनाकर रखते है कि जिनके पास पैसा है वे सब पापी ही है, अनाचारी ही है, पाखण्डी है, अनेतिकता से जीवन जीते है | ऐसा नहीं है; ग्रहस्थ जीवन में धन- संग्रह का उपदेश हमारे तीर्थकर भगवन्तो ने दिया है | वे कहते है - धन का संग्रह करो | संग्रह करो मतलब पैसा इकट्ठा करके रखो, जोड़ते जाओ और जोड़-जोड़कर रखते जाओ। नहीं; जोड़ना संग्रह है और जोड़कर उससे चिपक जाना परिग्रह है। क्या कहा? जोड़ना संग्रह है और जो जुड़ा है उससे चिपक जाना परिग्रह है। संग्रह से अनुग्रह होता है और परिग्रह से विग्रह। विग्रह यानि झगड़ा। तुमने संग्रह किया; अनुग्रह करो और संग्रह नहीं करोगे तो अनुग्रह नहीं कर सकोगे। लोकोपकार के जितने भी कार्य हैं बिना धन के संभव नहीं होते। धन कहाँ से आएगा? जब संग्रह करोगे, अर्जन करोगे तभी तो आएगा। इसलिए हमारी संस्कृति कहीं धन का निषेध नहीं करती। धन का संग्रह करो पर किसके लिए? अनुग्रह के लिए। अनुग्रह मतलब उपकार, परोपकार। स्व-पर के कल्याण के लिए धन का संग्रह करो। धन को जल की तरह कहा गया है। जल का स्वभाव होता है बहना। आज की भाषा में धन को लिक्वड (तरल पदार्थ) बोलते हैं। लिक्वड द्रव (तरल पदार्थ) है जल। जल जितना बहेगा उतना बढ़ेगा। लेकिन पानी कहाँ बहता है नीचे की ओर बहता है। जहाँ उसकी आवश्यकता है वहाँ पानी को बहाओ। पर पानी को बेवजह मत बहाओ। जब जरूरत है तब बहाओ, जहाँ जरूरत है वहाँ बहाओ। स्टोरेज (संग्रहण) की व्यवस्था करो। संग्रह करो ताकि आवश्यकता पर काम आए। जरूरत मंदों के काम आए, देश, संस्कृति, समाज और मानवता के कल्याण में काम आए। संग्रह करना मतलब नदी में बाँध बनाना | नदी में बाँध क्यों बनाते हैं? पानी को रोकने के लिए। पानी को रोकोगे नहीं तो सारा पानी समुद्र में जाकर वेस्ट (बर्बाद) हो जाएगा। वेस्ट (बर्बाद) होगा तो काम कैसे होगा? बारिश तो चार महीने ही होनी है और चार महीने भी सब जगह हो ही यह भी कोई जरूरी नहीं। कहीं कम, कहीं अधिक और कहीं बिल्कुल भी नहीं। इसलिए एक व्यवस्था बनाई कि पानी को रोको, बाँध बनाकर रखो। पानी को रोकने को लिए बाँध बनाते हैं पर बाँध बनाने के बाद पानी रोके ही रखो तो खतरनाक हो जाएगा। बाँध टूटेगा, जल-प्रलय आ जाएगा, बाढ़ की विभीषिका में परिवर्तित हो जाएगा। सबका सत्यानाश कर देगा। बाँध तो आप लोगों ने देखा होगा। राजस्थान में भी बाँध हैं। बाँध में गेट बनाए जाते हैं। गेट कब खोले जाते हैं? जब जरूरत होती है। कितना खोलते हैं? जितनी आवश्यकता होती है। नदी पर बाँध बनाते हैं, बाँध में गेट लगाते हैं और गेट लगाने के बाद जब आवश्यकता प्रतीत होती है तो उसे खोलते हैं, गेट खोलने के बाद उस पानी को जहाँ उसकी आवश्यकता होती है वहाँ पहुँचाते हैं। बाँध बनने के बाद नहरों और नालों के माध्यम से उस पानी को वहाँ पहुँचाया जा सकता है जहाँ सूखा मचा हुआ है। बाँध के पानी से सूखी धरती में भी हरियाली फैलाई जा सकती है इसलिए बाँध बनाते हैं। बाँध नहीं बनाएँ तो क्या ऐसा हो सकता है? कभी भी नहीं हो सकता। गेट कब खोलते हैं? जब पानी का फ्लो बढ़ जाता है तब। पानी का जितना फ्लो आता है उतना ही बहाया जाता है। सन्त कहते हैं धन का संग्रह करना भी समाज के कल्याण के लिए बाँध का निर्माण करने के समान है। बिना धन संग्रह के समाज-कल्याण नहीं होता। महाराज हम तो सोचे थे आज आप दान करने की बात करोगे; आपने तो संग्रह की बात कर दी। हमको ऐसा पता होता तो बाल-बच्चों को लेकर आते। बिल्कुल, मैं अपनी बात को दुहरा रहा हूँ। धन को संग्रह को बिना समाज का कल्याण नहीं होगा, संस्कृति की रक्षा नहीं होगी, देश का उत्थान नहीं होगा, पिवता की सेवा न हो। इसकल धनाक सहजताते बाँध बनाओ लेकिन ध्यान रखो बाँध बनाते समय सर्वे होता है कितना पानी ये इोल सकेगा, कितने पानी को रोकने की क्षमता है और इस पानी को कन्ज्यूम (उपयोग) करके कितनी धरती को हम सिंचित कर सकेंगे। ये पूरा सर्वे होता है फिर उसी हिसाब से पानी को वहाँ रखा जाता है। ये तय किया जाता है किस माह में हमें कितना पानी रखना है और कितना पानी छोड़ना है। जितना क्यूसेक (पानी की मात्रा को मापने की इकाई) पानी आता जाता है उसी हिसाब से छोड़ते भी जाते हैं। डेट्स (तारीख) फिक्स (निश्चित) रहती है। जितना पानी आया उतना खाली करो नहीं तो बाँध टूट जाएगा। मैं आपसे कहता हूँ धन का संग्रह करो, पर बाँध की भाँति करो। जितना पैसा आए उतना बहाते भी जाओ। जीवन में सदैव कल्याण बना रहेगा। जिस अनुपात से कमाओ उसी अनुपात से खर्च करो। संग्रह करो लेकिन अनुग्रह के लिए। इसी अनुग्रह का नाम दान है। आचार्य उमास्वामी ने दान के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखा "अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम्" स्व-पर के अनुग्रह के लिए अपने ‘स्व' यानि धन का अतिसर्ग अर्थात् त्याग करना; दान है। अनुग्रह के लिए धन का त्याग करना दान है। तुमने धन संग्रह किया अब उसका क्या करना है? अनुग्रह करना है। किसका अनुग्रह? स्व का और पर का। धन के त्याग से स्व का अनुग्रह। धन का त्याग करने से पहले स्व का अनुग्रह होगा। धन की आसक्ति कम होगी, अभिमान घटेगा, तुम्हारे अन्दर उदारता आएगी, करुणा आएगी और पाप का प्रक्षालन होगा। ये स्व का अनुग्रह है। तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी ये स्व का अनुग्रह है, कीर्ति बढ़ेगी ये स्व का अनुग्रह है। समाजवाद का विरोधी है, परिग्रह जो धनवान व्यक्ति कजूस होता है दुनिया उसको गाली देती है और जो धन-सम्पन्नता के साथ उदारता अपनाता है दुनिया उसे अपने हृदय में विराजती है। क्या चाहते हो स्व का अनुग्रह और पर का अनुग्रह? तुम्हारे द्वारा जोड़े गए धन से समाज का कल्याण हो, धर्म की प्रभावना हो, संस्कृति की रक्षा हो, राष्ट्र का उत्थान हो और मानवता की सेवा हो। ये पर का अनुग्रह किससे हुआ? संग्रह से अनुग्रह। अगर संग्रह किया है तो अनुग्रह करो। अगर संग्रह ही करके रख लोगे तो वह परिग्रह बन जाएगा। परिग्रह क्या है? पाप। पाप ही नहीं ‘परिग्रहो विग्रहहेतु:"। परिग्रह सारे झगड़ों का मूल है, जड़ है। जहाँ परिग्रह है वहाँ झगड़ा है, झंझट है, अशांति है, दु:ख है, उद्वेग है, पीड़ा है और परिताप है। तुम जितना परिग्रही बनोगे तुम्हारे जीवन में उतनी जटिलता और अशांति आएगी। मैं एक बात कहता हूँ संग्रह के साथ जहाँ वितरण है वहाँ आनन्द है और जहाँ केवल संग्रह है वहाँ बहुत गड़बड़ है। आप देखो नदियों का पानी मीठा होता है और सागर का पानी खारा। आखिर ऐसा क्यों कभी आपने विचार किया? नदियों का पानी मीठा और सागर का पानी खारा केवल इसलिए होता है क्योंकि नदियाँ अपने पास कुछ भी संग्रहित करके नहीं रखतीं, सब बाँट देती हैं और सागर सब कुछ अपने पास संग्रहित करके रखता है। मैं एक सूत्र देता हूँ जहाँ केवल संग्रह है वहाँ खारापन है और जहाँ वितरण है वहाँ मिठास है। जीवन में मिठास लाना चाहते हो तो संग्रह के साथ वितरण करना प्रारम्भ करो नहीं तो परिग्रह बनकर विग्रह हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति न भोग पाता है न किसी को दे पाता है। बंधुओं! मेरे सामने अनेक संग्रही भी हैं और अनेक परिग्रही भी हैं। मैंने संग्रह करने वालों की उदारता और अनुग्रह को भी देखा है और परिग्रह का संचय करके विग्रह में उलझकर अपने जीवन को बर्बादी के कगार पर पहुँचाने वालों को भी देखा है। धन-सम्पति के प्रति मनुष्य के मन में बहुत मोह होता है, लगाव होता है। कहावत है "चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय"। दान जैसे सत्कृत्य के प्रति हर किसी के मन में भाव नहीं जगता। जिसका भवितव्य अच्छा होता है वही अपने द्रव्य का सही उपयोग कर पाता है। आचार्य गुरुदेव ने एक बार कहा कि सम्पत्ति का मिलना तो कदाचित पुण्य का उदय हो सकता है पर उसका सदुपयोग तो तप का फल समझना चाहिए। पिछले जीवन में तुमने कोई अच्छा कर्म किया होगा जिससे तुम्हें आज ऐसी सम्पति मिली कि सम्पत्ति पाकर उसका सदुपयोग करने का भाव मिला। धन को संग्रहित करने वाले कजूस लोग और धन-संग्रह के बाद सुरा-सुंदरी में बहाने वाले लोग दुनिया में बहुतायत में और सरलता से मिल जाएँगे लेकिन धन के संग्रह के बाद उससे अनुग्रह करने वाले लोग बहुत कठनाई से और बहुत कम मिलते हैं। लक्ष्मी के चार रूप आज की चार बातें लीजिए- भाग्यलक्ष्मी, पुण्यलक्ष्मी, पापलक्ष्मी और अभिशप्तलक्ष्मी। यहाँ लक्ष्मी का मतलब सम्पदा से है। लोक में लक्ष्मी को सम्पदा कहा जाता है। यहाँ लक्ष्मी से तात्पर्य सम्पदा-सम्पति से लेना। सम्पति कभी किसी की नहीं रही। कहा जाता है कि कीर्ति कुंवारी है और लक्ष्मी यानि सम्पत्ति को वेश्या के समान कहा है। यहाँ किसी देवी की बात नहीं; धन-पैसे को लेना। सम्पदा को वेश्या और कीर्ति को कुंवारी कहा गया क्योंकि जो कीर्ति को चाहते हैं कीर्ति उसे नहीं चाहती, इसलिए उसका ब्याह ही नहीं हो पाया और जो सम्पदा को चाहते हैं सम्पदा उसको नहीं चाहती; सम्पदा रोज अपना पति बदलती है, अपना स्वामी बदलती है इसलिए सम्पदा की वेश्या बताया गया। वह किसी एक की नहीं होती इसलिए वेश्या है और कीर्ति किसी को चाहती नहीं इसलिए वह कुंवारी है। ये जीवन की स्थिति है। चार प्रकार की सम्पदा में सबसे पहली भाग्यलक्ष्मी। भाग्यलक्ष्मी का मतलब ऐसे लोगों की सम्पदा जिन्हें बिना प्रयास के सारी सम्पति मिल गई। एक बच्चे ने किसी करोड़पति के घर में जन्म लिया उसको भाग्यलक्ष्मी विरासत में मिल गई। उसके लिए उसे कोई प्रयास-पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं हुई। जिस दिन जन्म लिया उसी दिन वह करोड़ों का स्वामी बन गया। ये है भाग्यलक्ष्मी। एक बालक भिखारी के घर पैदा हुआ। उसी दिन से भिखारी हो गया। ये उसके दुर्भाग्य की सम्पदा है। दुर्भाग्य व्यक्ति को भिखारी बनाता है तो सौभाग्य व्यक्ति को करोड़पति, अरबपति, राजा भी बना देता है। जो लक्ष्मी तुम भाग्य में लेकर आए वह भाग्यलक्ष्मी है। निश्चित रूप से तुम सब लोग भाग्यशाली हो क्योंकि तुम में से कोई भी भिखारी के घर पैदा नहीं हुआ। भाग्य की सराहना करो। बहुत ऊँचा भाग्य है तुम्हारा, कुछ न कुछ लेकर ही आए हो, ये भाग्यलक्ष्मी है दूसरे क्रम पर है पुण्यलक्ष्मी। पुण्यलक्ष्मी का मतलब जिस लक्ष्मी को तुमने पुण्य के कार्य में लगा दिया, जिस सम्पदा को तुमने पुण्य के कार्य में लगा दिया, जिस सम्पत्ति को तुमने सत्कार्य में लगा दिया वह भाग्यलक्ष्मी पुण्यलक्ष्मी में परिवर्तित हो जाती है। तुमने अपार दौलत पाई। उस दौलत का उपयोग किसमें किया? जितना तुमने पुण्य में लगाया वह है पुण्यलक्ष्मी। अर्थात् सम्पत्ति का जो पुण्य में वियोजन है वह भाग्य को पुण्य लक्ष्मी में परिवर्तित करने की कला है। इतना ही नहीं विरासत में तुमने सम्पत्ति पाई, कुछ पुण्य भी लेकर आए; उस पुण्य ने तुमको अनुकूल संयोग दिया, उस पुण्य की बैकिग में तुमने जो पैसा कमाया (अच्छा कार्य करके, बुरा कार्य करके नहीं) वह भी पुण्यलक्ष्मी है। सत्कर्म में लगाया गया द्रव्य पुण्यलक्ष्मी और सत्कर्म करके कमाई गई सम्पति भी पुण्यलक्ष्मी। अनैतिकता, अप्रामाणिकता और गलत हथकण्डे अपनाकर पैसा कमाने वाले अलग लोग हैं लेकिन दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो सही रास्ते पर चलकर पैसा कमाते हैं और उसे सही रास्ते पर ही लगाते हैं। सही रास्ते से पैसा कमाना और सही रास्ते पर पैसा लगाना दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं। ऐसा कौन करते हैं जो पुण्यलक्ष्मी के धनी होते हैं। आपके पास पुण्य है; भाग्य लेकर आए और पुण्य भी साथ में है। अब क्या कर रहे हो? पुण्य से कमा रहे हो या पुण्य कमा रहे हो? दोनों चीजें है पुण्य से कमाओ और कमाने के बाद पुण्य कमाओ। ये पुण्यलक्ष्मी का प्रतीक है। मतलब समझ में नहीं आया। अभी समझ में आ जाएगा। पुण्य से कमाओ यानि अच्छा कार्य करको कमाओ, बुरा कार्य करको मत कमाओ। अनैतिकता, अप्रमाणिकता, हिंसा, शोषण आदि के रास्ते से पैसा कभी मत कमाओ। क्रूर कर्म करके पैसा कभी अर्जित न करो। अनैतिक कृत्य करको पैसा कभी अर्जित न करो। पुण्य से कमाओ और बिना पुण्य के कमा भी नहीं सकोगे। एक ग्लास दूध में आपने एक चम्मच चीनी डाली; दूध मीठा हो जाएगा क्या? नहीं; दूध को मीठा करने के लिए चीनी डालना मात्र पर्याप्त नहीं है। आपने चीनी डाली और तुरंत पी लिया तो दूध फीका ही लगेगा। चीनी डालने के साथ चम्मच से उसको घोलना भी पड़ेगा तब कहीं जाकर दूध मीठा होगा। बंधुओं दूध को मीठा करने के लिए चीनी डालना जितना जरूरी है उसको घोलना भी उतना ही जरूरी है। अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हो उसके लिए तुम्हारा पुरुषार्थ भी जरूरी है और साथ में पुण्य भी जरूरी है। खाली दूध में चम्मच घुमाओगे तो क्या हाथ आएगा। हाथ आएगा कुछ बिना पुण्य के? बिना चीनी डाले चम्मच घुमाने से दूध मीठा नहीं होगा। मानते हो कि नहीं? खाली दूध में चम्मच घुमाते हो कभी? महाराज! इतना बेवकूफ समझ रखा है क्या हम जयपुर वालों को, हम इतने बेवकूफ नहीं हैं। खाली दूध में कोई चम्मच नहीं घुमाता, दूध में चीनी डाली जाती है तब चम्मच घुमाते हैं तब उसमें मिठास आती है। ध्यान रखना! कोरे पुरुषार्थ से जीवन में कभी सफलता नहीं मिलती। सफलता तभी मिलती है जब पुण्य की बैंकिग होती है। यदि तुम्हारे पल्ले पुण्य होगा और सारी दुनिया तुम्हारे खिलाफ होगी तो भी तुम्हारी बुद्धि इतनी निर्मल और कुशल होगी कि तुम अपना रास्ता निकाल लोगे और आगे बढ़ते जाओगे, तुम्हें कोई रोक नहीं पाएगा। इसलिए पुण्य से कमाओ और पुण्य से कमाने के बाद पुण्य कमाओ। मैं आपसे एक बात पूछता हूँ रामलाल का पैसा आप रामलाल को दोगे कि श्यामलाल को? (श्रोताओं के जबाब की आवाज आती है)हाँ.....मुझे सुनाई नहीं पड़ा जोर से बोलो। रामलाल का पैसा रामलाल को ही देते हो, कभी भूलकर भी श्यामलाल को दिए क्या? हाँ अगर कहीं धोखे से श्यामलाल के पास चला गया तो? धोखे से चला जाता है तो क्या करते हो? महाराज! बहुत तकलीफ होती है, सोचते हैं कैसे इसकी भरपाई करूं। आप सब रामलाल का पैसा रामलाल को ही देते ही श्यामलाल को देना कभी नहीं चाहते। यदि तुम समझदार हो तो मैं तुमसे कहता हूँ पुण्य का पैसा भी पुण्य को दो, पाप में न देने का संकल्प ले लो। पुण्य का पैसा है तो उसको पुण्य में लगाओ पाप में क्यों लगाते हो? बोलो रामलाल का पैसा श्यामलाल को दोगे तो रामलाल नाराज होगा कि नहीं होगा? टीक है श्यामलाल को तुमने ऑवलाईज कर लिया (मना लिया) लेकिन वह धोखेबाज है, अंगूठा दिखा देगा तो रामलाल नाराज हो जाएगा और तुमको नुकसान पहुँचा देगा और हो सकता है कि तुम्हारे ऊपर मुकदमा भी कर दे क्योंकि उससे ऐग्रीमेन्ट (वायदा) किया हुआ है। रामलाल को नाराज करोगे तो तुम परेशान हो जाओगे। बंधुओ! मैं आपसे कहता हूँ पुण्य का पैसा अगर पाप में लगाओगे तो तुम्हारा पुण्य नाराज हो जाएगा और तुम पर पाप हावी हो जाएगा। पुण्य है इसलिए सुरक्षित हो। इसलिए पुण्य से उपार्जित धन को पुण्य में लगाओ, पाप में मत लगाओ। संकल्प लो आज के त्याग धर्म के दिन कि मैं अपनी सम्पदा का सही उपयोग, सही विनियोजन करूंगा। मैंने जो पैसा कमाया है उसमें कुछ न कुछ पाप जरूर हुआ है तो उस पैसे को भोगने में पाप न करूं, पैसे को परमार्थ में लगाकर कुछ पुण्य कमाऊँ। पुण्य से कमाओ और कमाने के बाद पुण्य कमाओ। देखो आपको कमाई की बात कितनी अच्छी लगी। मैं दान की बात तो करता नहीं, आप लोग बहुत कजूस हो। आपके पास इतनी कमाई का ऑफर है, आपको समझ में ही नहीं आ रहा। ऑफर दे रहा हूँ कि नहीं दे रहा हूँ? ऐसे लोक में कोई थोड़ा सा ऑफर देता है तो तुरंत मुँह में पानी आ जाता है। अभी तो आपके मुँह सूखे दिख रहे हैं, ये कमाई का अवसर है पुण्य कमाओ, पाप नहीं। बंधुओं! थोड़ा विचार करो, धन सम्पति का अंत क्या है? पैसा कमाओगे उसके बाद क्या होगा? तुमने पैसा कमाया, जिंदगी भर जोड़ा, उसके बाद एक दिन छोड़कर जाओगे। है और कोई उपाय? या तो देकर जाओगे या छोड़कर जाओगे, लेकर जाने की कोई व्यवस्था तो है नहीं। भैया! छोड़कर जाने से अच्छा है देकर जाना। किसको देना है? अपने बाल-बच्चों को दोगे जो जिंदगी भर गाली दिए, जिन्होंने तुम्हें कोसा, जिन्होंने तुम्हारी उपेक्षा की; उनको दोगे? यदि देकर जाना है तो अच्छे कार्य में लगाकर जाओ। अच्छा! ईमानदारी से बोलना, आप लोगों से एक सवाल करता हूँ- आप अपने बाल बच्चों को अपनी सम्पति देते हो; ये आपकी भावना है या मजबूरी? क्या हो गया? अपनी संतान को आप अपनी सम्पत्ति सौंपते हो, ये तुम्हारी भावना है या मजबूरी? कुछ लोग बोल रहे भावना, कुछ लोग बोल रहे मजबूरी। जिनकी भावना है तो अच्छी बात है। जो लोग भावना बोल रहे हैं मैं उनसे पूछता हूँ अगर ऐसी कोई व्यवस्था हो कि सारी सम्पत्ति अपने साथ लेकर जा सको तो क्या करोगे? अपने बेटे को दोगे या खुद लेकर जाओगे? क्या हो गया? अगर ऐसा कोई सिस्टम(व्यवस्था) हो कि अपने साथ लेकर जाया जा सकता है तो एक आदमी भी अपने बच्चों को नहीं देगा, सब लेकर जाएँगे, जाएँगे कि नहीं जाएँगे? सब लेकर जाएँगे कि चलो परलोक में काम में आएगा। आप सबने अभी सहमति दी कि हम सारी सम्पति अपने साथ ले जाते तो पक्का बताओ अगर ले जाने की व्यवस्था ही तो आप लेकर जाओगे कि नहीं? हाथ उठाओ, नहीं लेकर जाओगे यहीं छोड़ जाओगे। गजब! तो छोड़ो फिर, अभी छोड़ दी, फिर आगे की बात क्या करना। आज आप लोगों को मजा नहीं आ रहा होगा। एक लड़के ने एक दिन कहा महाराज! आपके सारे प्रवचनों में मजा आता है लेकिन जिस दिन आप पैसे पर प्रवचन करते हैं न तो तकलीफ होती है, छुड़वा न दें, ये हजम नहीं होता। मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि ऐसी कोई व्यवस्था हो कि तुम्हारे द्वारा जोड़ी गई सारी सम्पत्ति तुम ले जा सकते हो तो ये बताओ कौन-2 है जो अपनी सम्पत्ति को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार है? हाथ उठाओ। कल्पना करो अभी थोड़ी देर के लिए मैं प्रावधान बनाता हूँ। अगर ऐसा प्रावधान हो तो हाथ उठाओ कौन-कौन लेकर जाएँगे? अपना हाथ उठाओ। बंधुओं मैं आपको अपनी सम्पति अपने साथ ले जाने की व्यवस्था देता हूँ, ले जाना चाहते हो? बहुत समझदार हो कोई हाथ नहीं उठा रहा है। आप अपनी सम्पति को अपने साथ ले जा सकते हो। बताओ भारत की करैन्सी (मुद्रा) अमेरिका में काम में आती है क्या? क्या करते हो उसके लिए? आपको रुपयों को डॉलर में एक्सचैन्ज करना (बदलना) होता है। करैन्सी को एक्सचैन्ज करते (बदलते) हैं तो यहाँ का पैसा वहाँ काम में आता है। मैं आपसे कहता हूँ तुम्हारी ये करैन्सी वहाँ काम में नहीं आएगी। यहाँ का पैसा वहाँ काम में नहीं आएगा उसके लिए करैन्सी चैन्ज करना (बदलना) होगी। करैन्सी को चैन्ज करने (बदलने) की प्रक्रिया का नाम ही दान है। तुम दान कर दो सब तुम्हारे साथ जाएगा। बात समझ में आई कि नहीं। अगर तुम लोग वहाँ फटे हाल जाओगे तो भूखों मरोगे। तुम लोग जब एक देश से दूसरे देश जाते हो तो उस देश की करेंसी लेकर जाते हो कि नहीं? सारी व्यवस्था करके जाते हो। एक-दो महीने के लिए देश से विदेश जाते हो तो पहले पासपोर्ट करते हो। ये तय है कि कुछ दिनों के लिए जाना है फिर भी उसके लिए इतनी तैयारी, पर भैया जो पक्की यात्रा है उसके लिए तुम्हारी झोली में क्या है? अन्टी में कुछ लेकर जाओगे तो वहाँ मालामाल रहोगे नहीं तो भिखारी बने रहोगे। अब बताओ क्या करना है पर लोक में भिखारी बनना है या यहाँ जैसा सेठ बनना है? क्या बनना है बोलो। बोलती बंद हो गई? अरे हम तुमको बनाना चाहते हैं सम्राट पर तुम्हारी मानसिकता इतनी खराब है कि सारे सपने ही मर चुके हैं। तुम भिखारी हो और सारी जिंदगी भिखारी बने रहना चाहते हो। भीतर के साम्राज्य को वे ही अभिव्यक्त कर पाते हैं जो अपने भीतर की उदारता को प्रकट करते हैं। जिनकी विचारधारा उदार होती है वे सम्राट होते हैं और जिनके विचारों में कृपणता होती है वे भिखारी बने रहते हैं। वैचारिक द्ररिद्रता ही भिखारीपन है। अपने हृदय को उदार बनाओ। पुण्यलक्ष्मी को जुटाओ, वह कहाँ से आएगी? दान से आएगी। आज धरती पर तुम्हें जितने भिखारी दिखाई पड़ते हैं वे भिखारी क्यों बने और तुम सेठ क्यों बने कभी विचार किया? वे भिखारी बने तुम सम्पन्न बने क्यों? एक कवि ने लिखा शिक्षन्ते न हि याचन्ते भिक्षाचरा: गृहे गृहे। दीयतां दीयतां नित्यम् अदातुः गतिः ईदृशी॥ तुम्हारे दरवाजे पर आने वाला भिखारी तुमसे भीख नहीं माँगता, सीख देता है कि भैया! दान दो-दान दो, मैंने दान नहीं दिया इसलिए मेरा ये हाल हो गया। तुम अपने हाल का ख्याल करो, ये सीख है। ये सीख लो, नहीं तो भीख माँगनी पड़ेगी। अपनी अन्टी भरकर, अपनी झोली भरकर जाओ। अपनी सारी करैन्सी एक्सचैन्ज कर ली अभी व्यवस्था है। जिंदगी भर जितना बदलते जाओगे, वह सब निहाल करेगा। अन्यायोपार्जितं वित्तं स्व जीवनं विनश्यति तीसरी है पापलक्ष्मी। पाप और अनाचार करके जो सम्पति कमाई जाती है वह पापलक्ष्मी कहलाती है। गलत कार्य करके, अनैतिकतापूर्ण आचरण करके, हिंसा और हत्या का रास्ता अपनाकर, शोषण करके या अन्य तरह के पापमय रास्ते से जो पैसा कमाते हैं वह पापलक्ष्मी कहलाती है। वह लक्ष्मी इस जीवन में भी दुखी बनाती है और भावी जीवन को भी दुर्गति का पात्र बना देती है। पापलक्ष्मी कभी अनुकरणीय नहीं है। सट्टा, जुआ के माध्यम से, तस्करी के माध्यम से, अन्य प्रकार के अनाचारों से, हिंसा के रास्ते को अपनाकर, और जीव हत्या के माध्यम से कमाया गया पैसा; ये सब पापलक्ष्मी है। जीवन में निर्धनता को स्वीकार कर लेना लेकिन पाप से पैसे का उपार्जन करने की कोशिश कभी मत करना। यहाँ पाप से अभिप्राय है अनैतिकता। नैतिकता से धन सम्पन्नता हो सकती है; ऐसा जरूरी नहीं कि आपको अनैतिकता का ही रास्ता अपनाना पड़े। अनैतिकता के रास्तों को अपनाने वालों की सम्पत्ति पापलक्ष्मी होती है। पापलक्ष्मी कमाने वालों को जब भण्डाफोड़ होता है तो वे कहीं के नहीं रहते। आदमी के साथ बड़ी मुश्किल है। आदमी को पैसा बहुत अच्छा लगता है। एक बार लक्ष्मी और द्ररिद्रता के बीच एक दूसरे से श्रेष्ठता साबित करने की होड़ हो गई। लक्ष्मी कहे कि मैं पावरफुल(ताकतवर) और द्ररिद्रता कहे मैं पावरफुल। लक्ष्मी ने कहा- मैं जहाँ रहती हूँ सब लोग उसकी पूजा करते हैं और द्ररिद्रता कहे कि सारी दुनिया पर मेरा साम्राज्य है। दोनों में बहस छिड़ गई। तय हुआ कि चलो नगरसेठ से पूछा जाए, वह तय करेगा कि दोनों में कौन सही है, कौन ज्यादा बलशाली है। लक्ष्मी और द्ररिद्रता दोनों सेठ के पास पहुँचीं और पूछा- ये बताओ हम दोनों में किसका बल अधिक है? सेठ ने सोचा बड़ा विचित्र मामला है, एक का पक्ष लिया तो दूसरा नाराज। किसी से भी पंगा लेना ठीक नहीं। उसने बनिया-बुद्धि लगाई और कहाठीक है, मैं निर्णय देता हूँ। सामने जो पेड़ है दोनों उसे छूकर आओ फिर मैं बताऊँगा कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। दोनों पेड़ छूने के लिए गई और दोनों ने एक साथ पेड़ को छू लिया। जब दोनों लौटकर आई तो सेठ ने कहा- तुम दोनों अच्छी हो, तुम दोनों सुंदर हो। उन्होंने पूछा कैसे? तो सेठ ने लक्ष्मी से कहा- लक्ष्मी! जब तुम आती हो तो सुंदर लगती हो और द्ररिद्रता से कहा- तुम जब जाती ही तो सुंदर दिखती हो। लक्ष्मी आती हुई सुंदर दिखती है और द्ररिद्रता जाती हुई सुंदर दिखती है। बंधुओं! गलत रास्ते से धन उपार्जित करने का कभी मत सोची, ये पापलक्ष्मी है। इसे पास मत फटकने दो। चौथी है अभिशप्तलक्ष्मी। अभिशप्तलक्ष्मी मतलब वह लक्ष्मी जो केवल संग्रहित होकर पड़ी है, जिसका न भोग है न त्याग; बस जोड़-जोड़कर रखी हुई है। ऐसे लोग महाकजूस होते हैं। उनसे धर्मकार्य के लिए एक पैसा भी नहीं निकलता। वे पैसे को परमार्थ के कार्य में लगाना ही नहीं जानते। बड़ी सार्थक पंक्तियाँ हैं - कजूस बाप को मरता हुआ देखकर, बेटे ने बनवा लिया दोगुना बड़ा कप्फन, सोचा- मेरे पिता ने ठीक से न कुछ खाया, न पहना, कम से कम मैं उढ़ा तो सक्यूंगा दोगुना बड़ा कफन। देखते ही बाप जी चिल्लाया (अभी मरा नहीं था) और कहा बेटे! ठीक नहीं है तेरी मजी, क्यों करता है फिजूलखची? कपड़ा; आखिर कपड़ा है, बेकार नहीं जाएगा आधा मुझे उढ़ा दे, आधा तेरे काम आ जाएगा। ये अभिशप्तलक्ष्मी है जो किसी के काम की नहीं। ऐसी लक्ष्मी से अपने आपको बचाओ। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो आज दुनिया में नहीं हैं। मध्य प्रदेश के गंजबासौदा शहर में एक घटना घटी। घटना लगभग 25-30 वर्ष पुरानी है। वहाँ एक पंजाबी दम्पती थे। 'मुन्ना पंजाबी' उनका नाम था। घर में तीसरा कोई नहीं था; नि:संतान थे। ब्याज-बट्टे का काम था। पैसा अपार था। तीन दिन तक उनके घर का दरवाजा नहीं खुला। लोगों ने सोचा- कहीं बाहर गए होंगे। लेकिन देखा तो घर अंदर से बंद है, दरवाजा खुला नहीं। तीन दिन में बदबू आने लगी। लोगों को संशय हुआ। प्रशासन की उपस्थिति में दरवाजा तोड़ा गया। अंदर गए.....। देखते क्या हैं.....दोनों बूढ़ा-बूढ़ी अपनी सारी सम्पत्ति को फैलाए हुए हैं और दोनों छाती पर हाथ रखकर बैठे हैं। दोनों के प्राण एक साथ निकल गए। अपार सम्पत्ति......। उनको घर की सामग्री को हटाने में, उठाने में नगर पालिका को सात दिन लग गए। जिस आदमी ने जिन्दगी भर केवल पैसा जोड़ा, खाया भी नहीं; खिलाया भी नहीं; एक दिन सब छोड़ कर चला गया। ये है अभिशप्तलक्ष्मी। जिस सम्पत्ति को उन्होंने जीवन भर जोड़ा उसी के पास बैठकर वे चल दिए। ये अभिशप्तलक्ष्मी है जिसका वे भोग नहीं कर सके। वह इतना धनलोलुपी था कि बैण्डवालों का एक बैण्ड भी रख ले, अगर कोई एक जूता भी गिरवी रखना चाहे तो रख ले, इस स्तर का आदमी, सम्पत्ति को भोगे बिना ही मर गया। यदि तुमने धन-सम्पति जोडी और जोड़कर रख ली, उसको स्व-पर के कल्याण में नहीं लगाया तो वह अभिशप्त लक्ष्मी है, वह पैसा तुम्हारे लिए अभिशाप है, तुम्हारे जीवन को बर्बादी के कगार पर पहुँचा देगा। इसलिए पुण्यलक्ष्मी को भागी बनो। भाग्यलक्ष्मी तो जो आ गया सो आ गया वह तुम्हारे हाथ में नहीं, पुण्यलक्ष्मी तुम्हारे हाथ में है। पुण्य से पैसा कमाना और कमाए हुए पैसे को पुण्य में लगाना ये तुम्हारे हाथ में है। तुम जोड़-जोड़ कर रखोगे तो कोई काम नहीं होगा। आचार्य कुमारस्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में बहुत अच्छी बात लिखी, पहले के जमाने में लोग पैसा जमीन के अंदर गाड़कर रखा करते थे। उन्होंने लिखा- जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण-समाणियं कुणदि। जो धन-सम्पति को संगृहीत करके धरती के नीचे गाड़कर रखते हैं वे अपनी सम्पत्ति को पाषाण बना देते हैं। हम लोग कहानियाँ सुनते हैं कि किसी व्यक्ति ने सम्पत्ति कमाकर धरती के अंदर गाडुकर रखा और जरूरत पडने पर निकालना चाहा तो पता चला कि सम्पत्ति वहाँ से कहाँ खिसक गई, कोई पता नहीं। अथवा वह सम्पति कोयला बन गई, कोई पता ही नहीं। अभिशप्तलक्ष्मी के भागी मत बनो। सम्पत्ति पाई है तो उसका लाभ लो। अपनी सम्पदा को अपने जीवन का वरदान बनाओ अभिशाप नहीं। जो अपनी सम्पदा को परमार्थ में लगाते हैं उनकी सम्पदा वरदान बन जाती है और जो सम्पत्ति को संग्रहित करके रख लेते हैं उनकी सम्पति अभिशाप बन जाती है। हमारे यहाँ परिग्रह को पाप कहा है। आपकी जेब में सौ का नोट पड़ा है; जब तक जेब में है तब तक क्या है? परिग्रह है। जेब में पड़ा सौ या दो हजार का नोट परिग्रह है, पैसा जब तक जेब मे पड़ा है तब तक परिग्रह है। परिग्रह क्या है? परिग्रह पाप है। अंदर से बोल रहे हो कि हमको बोलने के लिए बोल रहे हो? महाराज ! बोल नहीं रहे है, बोलना पड़ रहा है, मज़बूरी है सामने बैठे हैं। परिग्रह पाप है, कोई दो मत तो नहीं? अगर उसी पैसे को निकालकर मंदिर की गुल्लक में डाल दिया तो वही पैसा क्या हो गया? दान हो गया। समझ में आया? जोड़कर रखना पाप है और ध म में लगा देना पुण्य है। बस आपकी करैन्सी चैन्ज करने का यही उपाय है। यहाँ से उठाकर यहाँ डाल दो करैन्सी चैन्ज हो जाएगी। पाप को पुण्य में बदल डालने की क्षमता तुम्हारे पास है पर तुम लोग बड़े कजूस हो, पुण्य की बात करते हो और पाप से प्यार करते हो, ये गड़बड़ी है। इस गड़बड़ी से अपने आप को मुक्त कर लो। एक दिन तो दुनिया से जाना ही है। दो धनपति के बेटे आपस में बात कर रहे थे। एक ने कहा मेरा पिता अपने पीछे दस करोड़ छोड़ गया दूसरे ने कहा मेरे पिता ने मरते समय बीस करोड़ छोड़े। दो भिखारी के बच्चे उनकी बात सुन रहे थे दोनों ने आपस में बात करते हुए कहा- दोनों उल्लू के पट्ठे हैं एक कह रहा है दस करोड़ छोड़ गया दूसरा कह रहा है बीस करोड़ छोड़ गया। 'ये दोनों उल्लू के पट्ठे हैं" ये बात दोनों सेठपुत्रों ने सुन ली, दोनों को बुरा लगा। उन्होंने भिखारी के बेटों से पूछा- ये क्या बोल रहे हो? बोले कुछ नहीं। कैसे कुछ नहीं, हम लोगों को उल्लू का पट्ठा बोला है। बोला- मैंनें कोई गलत नहीं बोला। बोले क्यों? तब बोले- आप में से एक कहता है कि मेरे पिता अपने पीछे दस करोड़ छोड़ कर गए और इनके पिता बीस करोड़ छोड़कर गए; अरे! हमको देखो, हमारे पिता तो अपने पीछे पूरी दुनिया छोड़कर गए हैं। दस-बीस करोड़ की बात तो मामूली है, पूरी दुनिया छोड़कर गए हैं। जीवन की ये सच्चाई जिस दिन समझ में आ जाएगी; उस दिन तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। दुनिया छोड़कर जाना है, दस-बीस करोड़ तो बहुत मामूली सी बात है। बंधुओं! आज मौका है करेंसी एक्सचैन्ज करने का। खुला ऑफर है अच्छी कमाई का। ऑफर का लाभ उठाकर भरपूर कमाओ और अपने जीवन को धन्य करो। अपनी सम्पत्ति परमार्थ के कार्य में लगाओ। जो लगाओगे वही तुम्हारा है बाकी तो सब व्यर्थ है। जो दे सके व्यर्थ को अर्थ। वही सिद्ध, वही समर्थ। व्यर्थ को अर्थ दो तब तुम सिद्ध बनोगे, तब तुम समर्थ बनोगे अन्यथा सब ऐसे ही चला जाएगा। आज की तिथि में अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ दान सबको करना है। हर व्यक्ति को दान करना है चाहे एक बच्चा भी क्यों न हो अपनी पॉकिट मनी से कुछ न कुछ दान जरूर करे। आप सब बहुत ध्यान से इस बात को सुनें, इसे हल्केपन में न लें। ये जीवन के निर्माण का सूत्र है। सूत्र लीजिए संग्रह; अनुग्रह के लिए, परिग्रह: विग्रह के लिए। भाग्यलक्ष्मी के साथ पुण्यलक्ष्मी को बढ़ाना है। पापलक्ष्मी के रास्ते पर कतई नहीं जाना है। अभिशप्तलक्ष्मी के अधिकारी तो हमें कभी बनना ही नहीं ये बात ध्यान में रखना है।
  10. खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन पुराने जमाने की बात है। एक श्रेष्ठीपुत्र पिता की आज्ञा से व्यापार के लिए परदेश गया। पिता ने व्यापार के लिए आवश्यक हिदायतें दी और जाते समय उसे कुछ खाली पीपे देते हुए कहा- बेटे तू व्यापार के लिए जा रहा है, पैसे कमाएगा, रास्ते में समुद्री मार्ग आएगा कुछ परेशानियाँ, व्यवधान आ सकते हैं इन पीपों को अपने साथ रखना। सारे पीपे ऊपर से सील्ड पर अंदर से खाली थे। वह व्यापार के लिए गया, काफी पैसा कमाया, खूब धन संग्रह करके जब वह अपने घर लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में भेंवर उठी, नाव का संतुलन बिगड़ने लगा। नाविक ने कहा कि नाव के भार को कम करो। युवक ने सोचा क्या करें? नाव को खाली करने की बात आई तो उसने जितने खाली पीपे थे सब फक दिए। भरे पीपे नाव में ही अपने पास रखे रहा। खाली पीपे फक दिए और भरे पीपे अपने पास ही रखने से नाव का भार बढ़ा और वह नाव डूब गई, उसका जीवन बबाद हो गया। काश उसने खाली पीपे रखे होते तो उनके माध्यम से वह समुद्र को पार भी कर सकता था। उसे इस रहस्य का पता बाद में चला कि खाली पीपे तो तैरते हैं और भरे पीपे डूब जाते हैं। काश! मैंने एक भी पीपा बचा रखा होता तो उसके सहारे इस पार से उस पार हो जाता। खालीपन यानी आकाश जैसी उन्मुक्तता बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि संसार से पार उतरना चाहते हो तो खाली पीपा बनी, पीपे को खाली रखी, खाली होना जरूरी है और इसी खालीपन का नाम है आकिञ्चन्य। आज के चार शब्द हैं- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। आकिञ्चन्य का मतलब है खाली हो जाना। खाली होने से अभिप्राय क्या है? जब सब कुछ त्याग दिया फिर उसके बाद बचा क्या? सर्वस्व त्यागने के बाद क्या बचा? निश्चित रूप से बाहर से त्यागने के बाद कुछ भी नहीं बचा लेकिन सब कुछ त्याग देने के बाद भी बहुत कुछ बचा रहता है। बाहर का त्याग पर्याप्त नहीं है। बाहर के त्याग के बाद भी हमारे भीतर बहुत कुछ भरा रह सकता है। जब तक हम अपने भीतर की खाली नहीं करते तब तक जीवन में आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं होती। सब त्यागने के बाद अब कुछ त्यागने की बात क्यों? आकिंचन्य बहोत उछ भूमिका की बात है मेने त्याग दिया लेकिन त्यागने के बाद भी मन में ये भाव आ सकता है कि मैंने हाथी छोड़े, रतन छोड़े, निधियाँ छोड़ीं, वैभव छोड़ा। तेरा था क्या जो तूने छोड़ा है? छोड़ने के बाद भी यदि तू कहता है कि मैंने छोड़ा यानि तू पकड़े हुए है, अभी खाली नहीं हुआ है। सब त्याग देने के बाद भी; और कुछ नहीं तो जिसे त्यागा है उस त्याग का ममत्व बना रहता है। त्याग के बाद त्याग के ममत्व के त्याग का नाम आकिञ्चन्य है। पूरी तरह खाली हो जाना। अध्यात्म की साधना का चरम रूप आकिञ्चन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है ये अनुभूति ही मेरे जीवन का यथार्थ है। जब मेरा कुछ है ही नहीं तो मैं छोड़ें कैसे? त्याग देने के बाद भी त्याग के प्रति राग हो सकता है या त्यागी के मन में राग हो सकता है। बाहर से कुछ नहीं है पर भीतर से सब भरा है। यहाँ सब धोती-दुपट्टे में हो, किसी की भी जेब नहीं है, अभी एक पैसा भी तुम्हारे पास नहीं है, जिनकी जेब है उसमें भी दो-चार-दस-बीस-पचास हजार होंगे, उससे ज्यादा नहीं। अगर देखी तो अभी कुछ भी नहीं है, क्यों गणेश जी अभी एक पैसा भी नहीं है पर करोड़पति हो कि नहीं? एक भी पैसा नहीं है लेकिन सभा में विराजमान करोड़पति अपने आप को करोड़पति मान रहा है क्योंकि मन तो जुड़ा हुआ है। मैं कौन हूँ, मेरा स्टेटस क्या है, मेरे पास कितनी सम्पति है, मेरा कितना वैभव है ये सब मन में है कि नहीं? ये सब बाते मन में बैठी हैं यानि बाहर से छोड़ने के बाद भी मन में बहुत कुछ है और जब तक मन में ये बात बैठी है तब तक आप भरे हो। जब तक भरे हो तब तक भारी हो। अपने मन को खाली करो। अकिचनत्व की अनुभूति वही कर सकता है जिसे अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है। त्याग बहुत उच्च साधना है। लोग त्याग भी दो प्रकार से करते हैं एक में पर को त्यागते हैं पर परवस्तु को अपना मानकर त्यागते हैं। मैंने त्यागा, मैंने दान दिया, मैंने अपना इतना रुपया इस कार्य में लगाया -ये तुमने कहा। आकिञ्चन्य धर्म भीतर तक का ऑपरेशन करता है। वह कहता है अपने शब्दों को सम्हाल कर बात करो, तुमने 'अपना" क्यों लगाया? तुमने अपना लगाया; तेरा था क्या, लेकर क्या आया था, इस दुनिया में जब आया था तो क्या लेकर आया था, ये बैंक बैलेन्स क्या तू साथ में लेकर आया था, ये धन-दौलत क्या तू साथ में लेकर आया था, क्या लेकर आया था? बोलो। कुछ भी लेकर नहीं आए थे, यहाँ से जाओगे तो क्या लेकर जाओगे? न कुछ लेकर आए हो न कुछ लेकर जाओगे। फिर भी कहते ही मैंने अपना रुपया लगाया; तेरा है क्या? ये शरीर तेरा नहीं तो ये सम्पति तेरी कैसे हो सकती है। गहराई में जाने की बात है। मेरा है क्या जो मैंने दिया? ये तो तेरा अज्ञान है, तेरा मिथ्या अहंकार है कि तू पराई वस्तु पर अपनी मालकियत थोप रहा है। कोई व्यक्ति दूसरों की सम्पति पर अपनी मालकियत थोपे तो उसको आप क्या कहोगे? महाराज! किसी कमजोर को सम्पत्ति पर मालकियत बलवान आदमी को सम्पत्ति हो तो? मान लीजिए कोई व्यक्ति प्राइम मिनिस्टर ऑफ इण्डिया(भारत के प्रधानमन्त्री) की सम्पति को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका गर्व करे तो आप क्या कहोगे? इसको आगरा भेजना पडेगा और क्या कहेंगे। पास में तो आगरा ही है। यही कहोगे न कि ये पागल है, प्राइम मिनिस्टर(प्रधानमन्त्री) की सम्पति है नहीं। ये इसका अज्ञान है, यही बोलोगे न कि उसको आगरा तुम जिस सम्पति को अपना मान रहे हो वह किसकी है? बोलो किसकी है? महाराज मेरी है। तुम्हारी हो कैसे गई? तुम्हारे पास है, पर तुम्हारी नहीं है इस सच्चाई को जानो। तुम्हारे पास है, तुम्हारी नहीं है, तुमने उसे अपनी मान रखा है। जिस दिन यथार्थ का ज्ञान होगा उस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा भैया ये मेरी नहीं है, मेरे पास है। कौन ऊँचा मालिक या मुख्तार मेरी सम्पत्ति और मेरे पास की सम्पत्ति में बड़ा अंतर है। फीलिंग (अनुभूति) में अन्तर है। मान लिया कि तुम्हारे पास जो सम्पति है वह तुम्हारी है तो उस सम्पत्ति को अपने हिसाब से मेनटेन रखो, दावा करो कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा ही होगा, ये सम्पति सदैव बनी रहेगी, स्थायी बनी रहेगी। है ऐसी सम्भावना? मेरी सम्पति मेरी बनी हुई है ऐसी आप मान्यता रख रहे हो, सच्चे अर्थों में तो तुम कह रहे हो कि ये सम्पत्ति मेरी है पर तुम्हारी नहीं है। महाराज! तो फिर किसकी है? ये सम्पत्ति कर्म की है। जब ये शरीर ही तुम्हारा नहीं तो सम्पत्ति की बात ही क्या? ये तुम्हारी नहीं है, कर्म की है। कर्म की मर्जी रहने तक तुम्हारे पास है, जिस दिन कर्म चाहेगा एक झटके में छीन लेगा। है तुम्हारे पास ताकत? है तुम्हारे पास सामथ्र्य कि कर्म की मर्जी के बिना एक क्षण भी उस सम्पत्ति को अपने पास रख सको। ये जीवन का यथार्थ है, इसे पहचानो। ध्यान रखो! सम्पति का त्याग दो तरह की मानसिकता से किया जाता है- एक व्यक्ति है जो सम्पति को अपनी मानकर त्यागता है और एक व्यक्ति है जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है। दोनों की मानसिकता में बहुत अन्तर होता है। जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है उसके मन में अभिमान भी आ सकता है, आता भी है लेकिन जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है उसके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं आता अपितु अपने आपको दायित्व-मुक्त और निर्भार महसूस करता है। एक उदाहरण देता हु आपके यहाँ कोई व्यक्ति आया पडोसी ही पानी पीने के लिए आया, आपने उसे पानी पिलाया और पानी पीते-पीते अचानक उसका ध्यान आपके जग पर गया, जग पर उसका नाम लिखा है और वह कह रहा है भाईसाहब! ये जग आपके यहाँ कैसे आ गया, ये जग तो मेरा है। अरे! आपका है, क्षमा करना, अभी भेजता हूँ। तुरंत रिटर्न(वापिस) करोगे क्योंकि देख लिया इसका नाम है, मेरा नाम नहीं है। आपकी दुकान पर कोई भूखा आदमी आया, आपने हजार रुपया उसको दिया तो मन में क्या भाव आएगा चलो आज मैंने अपने हजार रुपये एक आदमी के काम के लिए दे दिए, एक भूखे के काम में मेरे हजार रुपये आ गए। हजार का नोट दिया, वह भी त्याग किया और जग वापस किया ये भी त्याग किया पर दोनों में अन्तर है। हजार रुपया देते समय मन में गर्व है और जग लौटाते समय लज्जा है। अन्तर है क्योंकि नोट को अपना मानकर दिया और जग को पराई वस्तु मानकर छोड़ा। आचार्य कुंद कुंद कहेते है जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिण ति जाणिनुं मुयदि। तह सव्वे परभावे, णादूण विमुंचदे णाणी॥ जैसे कोई व्यक्ति पर द्रव्य को पर जानकर छोड़ देता है बस वही उसका वास्तविक प्रत्याख्यान होता है। पर को पर जानकर छोड़ा, मेरा कुछ है ही नहीं, ग्रहण करने की बात बहुत उथली है। ग्रहण करना और छोड़ना बहुत ऊपर की बाते हैं। गहरी बात तो है कि मेरा कुछ है ही नहीं, सब छोड़ दो। आकिञ्चन्य यानी भीतर-बाहर से खाली हो जाना। जब खाली हो जाओगे तो निश्चिन्त रहोगे। अभी आप सब यहाँ खाली होकर बैठे हो, खाली हो इसलिए खुले हुए भी बैठे हो, निश्चिन्त हो। जिस समय आपकी जेब में कुछ रकम हो उस समय इतने निश्चिन्त बैठ पाते हो? जेब में रकम हो और मोटी रकम; जितनी मोटी रकम उतनी ज्यादा चिन्ता होती है, ध्यान वहीं जाता है, यहीं तो जेबकतरों को संकेत मिल जाता है कि माल कहाँ है। बार-बार हाथ जा रहा है जरूर जेब भरी होगी। अभी आपके पास कुछ नहीं है इसलिए निश्चिन्त हो, कुछ भी हो जाए धोती-दुपट्टा कोई क्या ले जाएगा। जो जितना खाली होता है वह उतना खुला होता है और जो जितना भरा होता है उसका मन उतना भारी होता है। खाली करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व यदि कुछ है तो हमारे मन की आसक्ति अथवा ममता है। अंदर पलने वाली आसक्ति या ममता ही हमे इस संसार में रुलाती है, हमें उलझाती है, ये ही बंधन का कारण है। आचार्य कहते हैं बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् | तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् || ममत्व से बन्धान, निर्ममत्व से मुक्ति ये जीव ममता के कारण बंधन को प्राप्त होता है और निर्ममत्व से मुक्त होता है इसलिए यदि तुम्हारे मन में मुक्ति की अभिलाषा है तो सर्व-प्रयत्नों से निर्ममत्व की प्राप्त करो। ममता या आसक्ति चार चीजों से होती है- शरीर से, सम्पति से, सामग्री से और सम्बन्धी से। शरीर से ममत्व, सम्पति से ममत्व, सामग्री से ममत्व और सम्बन्धी से ममत्व। सबसे पहला राग शरीर का राग होता है, देह को व्यक्ति अपना मानता है। देहानुराग व्यक्ति को उसके प्रति आसक्त बना देता है। निज-पर देह के साथ आसक्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है, उसके कारण व्यक्ति बहुत दुखी होता है। इस देहासक्ति को देह की वास्तविकता के चिंतन से क्षीण किया जा सकता है। शरीर की अशुचिता का स्मरण करने वाला व्यक्ति देहासक्ति से बचता है इसलिए हमें अपनी देहासक्ति को मन्द करने का प्रयास करना चाहिए। पर क्या बताएँ शरीर के प्रति ऐसी आसक्ति होती है कि चौबीसों घण्टे व्यक्ति उसे ही सजाने-संवारने में लगा रहता है। संत कहते हैं- ठीक है; लग जाओ लेकिन इस देह की वास्तविकता का थोड़ा विचार तो करो, जिस देह के बारे में तुम सोच रहे हो, अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष पीछे मुड़कर देखो तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा नंग-धड़ग खेलता हुआ एक नन्हा सा शिशु, और पीछे जाओगे तो तुम्हें नजर आएगा माँ की कोख में उल्टा लटका हुआ एक विकासोन्मुखी भ्रूण और अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष आगे बढ़कर देखो तुम्हें तो तुम्हे दिखाई पड़ेगा लाठियों के सहारे चलता हुआ, हाँपता-काँपता एक वृद्ध और थोड़े आगे बढ़ोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगी एक सुलगती हुई चिता जिसमें तुम्हारा अपना ये सुंदर सलौना रूप धू-धू कर जलता हुआ प्रतीत होगा। यही है इस देह की कहानी, यही है इस काया की कथा और यही है जीवन की वास्तविकता। किस पर मुग्ध हो रहे हो? शरीर पर आसक्त मत हो, शरीर का उपयोग करो, ये शरीर मेरा नहीं है, ये मेरे साथ जाने वाला नहीं है, ये कभी भी विनष्ट हो जाने वाला है, इस पर आसक्ति मेरे अन्दर के अज्ञान की परिणति है। मुझे इस पर आसक्त नहीं होना है। शरीर का उपयोग करके अपने भीतर के अशरीरी तत्व को प्राप्त करना है। एक सम्यग्दृष्टि भी शरीर का उपयोग करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति भी शरीर का उपयोग करता है। सम्यग्दृष्टि अपने शरीर को मोक्ष का साधन मानकर उसका उपयोग करता है और मिथ्यादृष्टि अपने आपको ही शरीर रूप मानकर चौबीस घण्टे उसमें ही रमा रहता है। उसकी स्थिति घोड़े की तरह होती है। जो घोड़े पर सवार होता है, जो घोड़े की सवारी करता है उसको रईस बोला जाता है करने वाला होता है, चौबीस घण्टे उस घोड़े की सेवा में लगा रहता है उसे सईश कहते हैं। सईश घोड़े की चाकरी करने वाला और रईश घोड़े का उपयोग करने वाला। आप रईस बनना पसंद करते हो या सईश बनना पसंद करते हो? रईस बनो, सईशपने को छोड़ दो। देह का उपयोग करो। देह के इस घोड़े पर सवारी करो, इसकी सेवा मत करो। जिस दिन तुम इस शरीर को पर मान लोगे उसी दिन रईसों की श्रेणी में आ जाओगे। दुनिया में तथाकथित जितने रईश लोग हैं अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि में सब सईश हैं, सब चाकर हैं, गुलाम हैं। ऊपर से उनकी रईशी दिख रही है पर उनके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तत्व हमारे भीतर प्रकट होना चाहिए। उस तत्व को हम अपने भीतर प्रकट करें लेकिन क्या करें आखिरी-आखिरी समय तक लोगों की अपने शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहती है। 70-70, 80-80 साल की उम्र होने के बाद भी खिजाब लगाने की आदत नहीं छूटती। आप बने हैं, दाँत गिर गए हैं, गाल बिल्कुल धस गए है लेकिन फिर भी अन्दर की ममता और आसक्ति बड़ी विचित्र होती है | एक युवक रास्ते पर चला जा रहा था। जंगली रास्ता था, अचानक धोखे से वह एक कुएँ में गिर गया, कुआँ ज्यादा गहरा नहीं था, पानी भी ज्यादा नहीं था। घुटने से नीचे पानी था। अब वह नीचे गिर तो गया लेकिन किसी की सहायता के बिना बाहर निकल पाना संभव नहीं था। कुआँ करीब 10-12 फीट गहरा था, अब साढ़े 5 फीट का आदमी उसमें से कैसे निकले? एक वृद्ध वहाँ से गुजरा, उसने देखा कि कोई युवक कुएँ में गिरा हुआ है, उसने उसकी तरफ देखकर पूछा भाई! क्या बात है तुम कुएँ में कैसे गिर गए? युवक बोला मैं कुएँ में गिरा थोड़े न हूँ मैं तो कुएँ में उतरा हूँ, इस कुएँ में अमृत रसायन है। अमृत रसायन क्या होता है? बोला तुम्हें नहीं पता, इस कुएँ के जल मे जो डुबकी लगा लेता है वह चिर जवान होता है। बोले क्या बोलते हो? हाँ, मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा था मुझे जब इस कुएँ के रहस्य का पता लगा तो मैं कुद गया और देखो मैं कैसा जवान हो गया। बोले अच्छा, इस कुएँ में कुदने से आदमी जवान हो जाता है? बोले हाँ जवान हो जाता है। तो क्या मैं भी जवान हो जाऊँगा? युवक बोला- हाँ तुम भी जवान हो जाओगे विश्वास न हो तो ट्राई कर लो। वृद्ध ने आव देखा न ताव, धम्म से कुएँ में क्द गया। जब वृद्ध कुएँ में कुदा तो वह नवयुवक उसके ऊपर चढ़कर खुद तो कुएँ से बाहर निकल गया और वह बूढ़ा बेचारा वहीं ठिठुरता रह गया। बंधुओ! ये तो एक काल्पनिक कथा है लेकिन ये जीवन का एक बहुत बड़ा यथार्थ भी है। शरीर की आसक्ति में फंसे हुए लोग अपने जीवन की ऐसे ही दुर्गति कर डालते हैं। मोह के कैसे-कैसे पर्दे? दूसरा नम्बर सम्पत्ति। लोग मेरी सम्पत्ति, मेरी सम्पत्ति का भाव मन में पाले रहते हैं। संत कहते हैं जब तक मैं और मेरे पन का भाव है तब तक दुख है। इसलिए इसे भी हटाओ। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी के प्रति मैं और मेरे पन का भाव आने पर तुम दुखी कैसे होते हो? जिस चीज के प्रति स्वामित्व का भाव होता है वह हमें प्रभावित करती है और जब मनुष्य उससे प्रभावित होता है तो दुखी हुए बिना नहीं रहता। दो उदाहरण आपको बता रहा हूँ। एक सेठ का इकलौता बेटा चार साल की उम्र में खो गया। सेठ ने बहुत खोजा पर बेटा नहीं मिला। सेठ बहुत दुखी हुआ। काफी मन्नतों के बाद तो वह बेटा हुआ था और वह भी चार साल की उम्र में खो गया। बेटे को खोजते-खोजते दिन बीतते गए पर बेटा नहीं मिला। समय के साथ-साथ सेठ ने बेटे को भुला दिया। दस-बारह साल बाद सेठ को एक नौकर की आवश्यकता पड़ी। सेठ के पास किसी ने सोलहा साल को एक युवक को भेजा, सेठ ने उसे काम पर लगा लिया। सेठानी रात-दिन उससे काम कराती, न ढंग से खाने देती, न पीने देती, उसे निरन्तर काम में इधर से उधर दौड़ाती रहती। वह ढंग से सो भी नहीं पाता था। ये रोज का क्रम था। बेचारा नौकर अपनी किस्मत पर रोता हुआ काम कर रहा था। एक रोज उसे उठने में विलम्ब हो गया, सेठानी ने जोर से चिल्लाया। चिल्लाने के बाद भी जब नौकर की तरफ से कोई आवाज नहीं आई, कोई जबाब नहीं मिला तो वह चिल्लाते-चिल्लाते उग्र हो गई और नजदीक पहुँचकर उसकी चादर तेजी से खीचीं। चादर हटने पर देखा कि वह जो बेसुध पड़ा हुआ है। सेठानी उसका हाथ खीचतें हुए झुंझलाकर बोली- ये क्या नाटक चल रहा है, दिन चढ़ गया है, तुम अभी तक सो रहे हो, ये कोई सोने का समय है, यहाँ सोने के लिए आए हो कि काम करने के लिए? वह नौकर बेसुध था, सेठानी ने उसका हाथ पकड़ा तो उसका सारा शरीर तप रहा था, 105 डिग्री ट्रेम्प्रेचर (बुखार) था। सेठानी ने जैसे ही उसका हाथ खींचा तो उसके हाथ में लिखा हुआ गुदना दिखाई पड़ा। उस गुदने में उस लड़के का नाम था। अरे ये गुदना! ये नाम, ये तो मेरे बेटे का नाम था, इसके हाथ में ये गुदना लिखा है। चेहरे को गौर से देखा तो अरे। ये तो मेरे बेटे से मिलता-जुलता है। हाय! ये कहाँ चला गया था, ये तो मेरा बेटा है। 'मेरा बेटा है" कहते हुए रोना-चिल्लाना शुरु कर दिया, अपने पति को बुलवाकर कहा- देखो इसका कैसा हाल हो गया, ये अपना बेटा है। पति भी नजदीक से देखकर बोला- हाँ, ये अपना ही बेटा है, चेहरा भी मिलता है, ये कहाँ खो गया था और यहाँ कैसे आया इसका पता लगाओ। सेठानी बोली- ये सब बातें बाद में पहले डॉक्टर को दिखाओ इलाज करवाओ पहेचान होने से पहेले भी वह लड़का था और अब भी वह लड़का है लेकिन पहले नौकर था अब बेटा हो गया। जब तक नौकर था तब तक उस पर इतना कष्ट हुआ पर कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन जब मन में बेटा जुड़ गया तो मन विह्वल हो उठा, अच्छी तरह से उसकी चिकित्सा, सेवा-सुश्रुषा में लग गए। बंधुओं! ये किस बात का द्योतक है? वह लड़का पहले भी बेटा था और बाद में भी बेटा था लेकिन जब तक लड़के के साथ मेरा नहीं जुड़ा था तब तक कोई दुख नहीं था, मेरा जुड़ते ही दुख शुरु हो गया। दुनिया में कुछ भी घटित हो जाए तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, अखबार पढ़ते हो- तीन मरे और तेरह घायल, रोज पढ़ते हो पर तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन जिनसे तुम्हारा जुड़ाव है उनमें से किसी के साथ कुछ हो जाए तो मन प्रभावित हो जाता है। एक आदमी का किसी महानगर के बीच चौराहे पर चार मंजिला मकान था। उस मकान में आग लग गई, आग की लपटों में मकान धू-धू करके जल रहा था और वह रो रहा था, विलाप कर रहा था- मेरा सर्वनाश हो गया, सब कुछ मिट गया, मेरा कुछ नहीं बचा। लोग उसे सान्त्वना दे रहे थे, इसी बीच उसका एक परिचित आया और बोला- भैया! रो क्यों रहे हो? तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है, इस मकान का सौदा हो गया है, कल ही तुम्हारे बेटे ने इस मकान को बेचने का एग्रीमेन्ट किया है, मुझे पक्का पता है। बोलाअच्छा? बोले हाँ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, मकान तो बिक चुका है। मकान बिकने की बात सुनकर वह व्यक्ति हँसने लगा। मकान अब भी जल रहा है पर अब वह हँस रहा है। पन्द्रह मिनट बाद उसका बेटा बदहवास सी हालत में आया और बोला पापा! गड़बड़ हो गई। पूछा क्या हो गया? बेटा बोला- सामने वाला सौदे से मुकर गया है कि मकान में आग लग गई है, अब कुछ नहीं बचा। बेटे की बात सुनकर वह व्यक्ति फिर से रोने लगा। अरे भाई! क्या हो गया? मकान पहले भी जल रहा था, अब भी जल रहा है; जब मकान के साथ 'मेरा' जुड़ा तो वह मकान मातम का कारण बन गया और 'मेरा' हटा तो वही मकान आनन्द का कारण बन गया। जहाँ-जहाँ मेरापन है वहा दुःख है | इसी ममत्व को दूर करने का नाम आकिंचन्य है | ‘ममेदमभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्'। सब ठाठ यहीं रह जायेगा 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय को दूर करने का नाम आकिञ्चन्य है, इसी को बोलते है खालीपन। शरीर की आसक्ति को खत्म करो। सम्पत्ति की बात कर रहे हो, ये जड़ सम्पति है, अपनी निजी सम्पत्ति को देखो। मनुष्य के जीवन की ये बड़ी विचित्रता है वह धन-वैभव के पीछे सारी जिदगी पागल रहता है पर अपने भीतर के गुण-वैभव का उसे पता ही नहीं चलता। धन-वैभव को मत देखो, गुण-वैभव को देखो। तुम्हारे अंदर भरा हुआ जो अपार भण्डार है उसे पहचानने की कोशिश करो। जो तुम्हारा है उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं और जो तुम्हारा नहीं है उसके पीछे तुम पागल हो। अपने को पहचानो, अपने को सम्हालो। जो शाश्वत है, स्थायी है, तुम्हारा स्वभाव है उसका संरक्षण करो लेकिन तुम शाश्वत को भूलकर भंगुर के पीछे लग रहे हो, स्थायी को भूलकर क्षणिक के पीछे पागल हो रहे हो, निजी को भूलकर पराये की सेवा में लगे हो और स्वभाव को त्याग कर विभाव के पीछे भाग रहे हो। पहचानो, अपनी सम्पति क्या है? तुमने पर को अपना मान लिया है। पर को जब तक अपना मानते रहोगे दुखी बने रहोगे और जिस दिन अपने आप को पहचान लोगे सुखी हो जाओगे। ये सम्पति, जड़ सम्पत्ति है इसका कोई अंत नहीं। सम्पत्ति को साथ रखी लेकिन सम्पत्ति में स्वामित्व मत रखी, उसमें आसक्त मत हो। सम्पत्ति के लिए मत जियो, सम्पत्ति का जितना उपयोग करना है करो, उसमें आसक्त मत बनो। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने एक बहुत अच्छी बात लिखी। उन्होने लिखा- मैं अपने एक धनी मित्र के यहाँ मिलने के लिए गया। उसका बहुत अच्छा मकान था, उसने अपना मकान दिखाया, बड़े ठाट-बाट। सब कुछ दिखाकर उसने पूछा- मेरा घर पसन्द आया? मैंने कहा- हाँ! बहुत अच्छा; पर तभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इस उत्तर पर मकान मुस्कुरा रहा है और उसकी मुस्कुराहट में मिठास नहीं व्यंग्य है। मैंने पूछा- क्यों जी! तुम क्यों हँसे? मकान बोलाबस यूँ ही; तुम्हारे मित्र की बात सुनकर हँसी आ गई। इसमें हँसने की क्या बात? अरे! इसमें हँसने के सिवाय और बात ही क्या है? ये कहता है मेरा घर, यही इसका बाप कहा करता था और यही इसके बाप का बाप, दोनों न जाने कहाँ चले गए हैं? हाँ दोनों की तस्वीरें जरूर मेरी दीवारों पर टंगी हुई हैं जिन्हें मेरे एक छोटे से छेद में रहने वाली हजार दीमकों में से कोई नन्ही सी दीमक कुछ ही पलों में चट कर सकती है। मैंने देखा मकान अब भी मुस्कुरा रहा था। बंधुओं! मकान ही क्या, संसार की हर वस्तु मनुष्य की इस अज्ञानता पर हँसती है, जिन्हें वह अपना मानने का भ्रम पालता है। काश! तुम पहचान पाते तुम्हारा क्या है, तुम्हारी अपनी सम्पति क्या है? ये सब पराई हैं, तुम्हारी नहीं। इन्हें छोड़ो, इनसे विमुख हो और अपने को पहचानने की चेष्टा करो। जो अपने को पहचान लेता है वह पराये में कभी नहीं उलझता। कभी आपने सोचा है कि आपके जीवन की दशा क्या है? एक दिन सब छूटने वाला है। आप ये गीत गुनगुनाते हो ‘जिंदगी इक किराये का घर है इसको इक दिन बदलना पड़ेगा। मौत तुझको जब आवाज देगी तुमको घर से निकलना पड़ेगा।' जिंदगी एक किराये का घर है, एक दिन तुम्हें इस घर से निकलना ही होगा, इस सच्चाई को पहचानो। चाहे अरबपति हो, चाहे करोड़पति हो, चाहे लखपति हो या हजारपति या भिखारी जब तक रह रहें हैं, रह रहें हैं। झोपड़ी में रहने वाला भी रह रहा है, महलों में रहने वाला भी रह रहा है, झोपड़ी और महल तो यहाँ फिर भी टिके रह सकते हैं लेकिन उनमें रहने वाला कभी टिकने वाला नहीं है, एक दिन उसे खाली करना पड़ेगा। झोपड़ी में हो तो झोपड़ी खाली करके जाओगे, महलों में हो तो महल खाली करना पड़ेगा। ये तुम्हारे अंदर का अज्ञान ही तो है जो बार-बार तुम्हें उस ओर आकृष्ट करता है, तुम्हें अपनी ओर खींचता है कि आओ-आओ-आओ। तुम पकड़े हुए हो ये अज्ञानता है, इस अज्ञानता को जब तक दूर नहीं करोगे जीवन सुखी नहीं होगा। कहाँ-कहाँ जुड़ जाता लगाव! तीसरा है सामग्री के प्रति लगाव। सामग्री से व्यक्ति को बहुत लगाव होता है। सामग्री यानि तुमने जो अपने घर-परिवार के साथ चाहे तुम्हारे घर के बर्तन-भांडे हों, चाहे अन्य चीजें हैं, वे भी एक प्रकार से सम्पत्ति का अंश हैं। मनुष्य के मन में उनके प्रति जुड़ाव बना रहता है, उन्हीं के पीछे लगा रहता है। तुम्हारी अवधारणा है कि सामग्री जुटाने से अधिक से अधिक सुख पाया जा सकता है। सुख पाने के लिए मनुष्य सामग्री जोड़ता है पर बंधुओं! आपने कभी इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की कि सामग्री जोड़ने से सुख मिला भी या नहीं। आज तुम्हारे पास जितने संसाधन हैं आज से पच्चीस वर्ष पहले इतने संसाधन नहीं थे, फिर दूसरी तरफ देखो आज जितना टेंशन है क्या पच्चीस वर्ष पहले ऐसा टेंशन था? फिर ये अवधारणा कितनी सही है कि सामग्री से सुख मिलता है? सामग्री से सुख मिलता है ये तुम्हारा अज्ञान है। सामग्री के मोह को छोड़ो, सुख को पहचानो। आखिरी है सम्बन्धी। सम्बन्धी जनों के प्रति मोह। ये मेरा बेटा, ये मेरी पत्नी, ये मेरे पिता, ये मेरे भाई, ये मेरी बहन। जो मेरे की बाते हैं ये सब अज्ञानता है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं ये सब अप्रतिबुद्धता है, इनके व्यामोह में फसा हुआ व्यक्ति गहन सुषुप्ति में जी रहा है। तीन प्रकार की आत्माएँ हैं- एक प्रसुप्त आत्मा, एक प्रबुद्ध आत्मा और एक जागृत आत्मा। प्रसुप्त आत्मा वह है जो गहन मोह के अंधकार में जी रहे हैं, गहन सुषुप्ति में जी रहे हैं, जिन्हें अपने होने का भी पता नहीं, संसार में जी रहे हैं, मैं कौन, मेरा कौन इसका कुछ अता-पता ही नहीं वह प्रसुप्त है। एक बार एक व्यक्ति से किसी ने कहा भैया तुम यहाँ क्या कर रहे हो, तुम्हें पता नहीं? बोले क्या? तुम्हारी पत्नी विधवा हो गई है। इतना सुनते ही उसने रोना शुरु कर दिया। 'पति के जिंदा रहते पत्नी विधवा हो गई।' ये समाचार सुनकर पति रो रहा है। ये क्या है? ये है गहन सुषुप्ति जिसमें व्यक्ति को अपने होने का भी पता न चले। मैं कौन हूँ और मेरा क्या है इसका जिसे पता नहीं वह सुषुप्ति में जीने वाला अप्रतिबुद्ध आत्मा है। जिसने जान लिया और मान भी लिया कि शरीर भिन्न है, सम्पति भिन्न है, सम्बन्धी भिन्न हैं, मेरे आत्मा के अतिरिक्त संसार का एक परमाणु भी मेरा नहीं है वह प्रबुद्ध तो हो गया लेकिन अभी भी फसा हुआ है घर गृहस्थी में, गोरख धन्धे में वह प्रबुद्ध है। वह उन सब में रमा हुआ है पर अंदर से जानता है कि ये मेरे नहीं हैं, अनासक्त होकर जीता है। अनासक्त होकर जी रहा है लेकिन अभी फसा हुआ है। जल से भिन्न कमल की तरह है लेकिन पूरी तरह दूर नहीं है। तीसरी अवस्था है जागृत आत्मा, जिसने एक बार मुँह मोड़ा तो मोड़ लिया। अब दिखना ही नहीं है तो उसमें तत्पर क्यों? छूटा सी छूटा। अपने में खो गया। प्रसुप्त अवस्था से ऊपर उठो, प्रबुद्ध अवस्था को पाओ और जागृत आत्मा की श्रेणी में आने की कोशिश करोगे तो अपने जीवन को आगे बढ़ा सकोगे। ये चार हमारे लिए बाधक हैं। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी का मोह ये सब उलझा कर रखते हैं और इनमें उलझने वाला ही भारी होता है। भार का मतलब? भार यानी बोझ। एक आदमी कुछ अशांत सा दिख रहा था। उससे किसी ने पूछा- भाई! क्या बात है, कुछ अशांत से दिख रहे हो? वह बोला- बहुत वजन है। भाई! खाली तो दिख रहे हो तुम पर कौन सा वर्डन(भार) है? बिल्कुल खाली हो, सौ ग्राम भी वजन तुम्हारे पास दिख नहीं रहा फिर भी बोल रहे हो बहुत वर्डन है, बड़ा बोझ है। अरे! भाई। दिमाग पर बोझ है। किस चीज का बोझ है? बोला- काम का बोझ है, जिम्मेदारियों का बोझ है। बोले दिखता तो नहीं है, क्या काम तुम्हारे पास आ गए, कौन सी जिम्मेदारियाँ तुम्हारे पास आ गई? वह बोलाकाम और जिम्मेदारियाँ तो हैं। ध्यान रखना। काम कुछ भार नहीं बनते, जिम्मेदारियाँ बोझ नहीं बनती; काम और जिम्मेदारी बोझ तभी बनती हैं जब मनुष्य उन्हें ओढ़ लेता है। ये हमारी मान्यता का बोझ है। लोक में सबसे भारी यदि कुछ है तो वह है हमारी मान्यता, जो हमारे ममत्व और आसक्ति से होती है। जिसके सिर पर जितनी क्षमता उसके सिर पर उतना बोझ और जिसके सिर पर जितना बोझ वह उतना दुखी। जो जितना भारी है वह उतना दुखी है। इस ममत्व को खाली करो। खालीपन आते ही खुलापन आएगा। एकदम इन्जॉय(आनन्द) करो। किसी से कोई मतलब नहीं, किसी प्रकार का किसी तरह का कोई टेंशन नहीं, आनन्द से जियो, निर्दन्द्वता का जीवन, निस्संगता का जीवन। खुलापन चाहते हो कि नहीं चाहते हो? सब कहते हैं कि महाराज! हम लोग फ्रीडम चाहते हैं, खुलापन चाहते हैं। आज किसी से भी बात करो खासकर यंग जनरेशन(नई पीढ़ी) के युवको से बात करो तो कहते हैं- हम फ्रीडम चाहते हैं। मैंने कहा- हमारा अध्यात्म फ्रीडम की ही तो बात करता है और जिसे तुम फ्रीडम मानते हो उसमें तुम बंध जाते हो। एक युवक ने कहा- महाराज! हम फ्राफीडम(स्वतन्त्रता) चाहते हैं, हम अपने हिसाब से चुनाव करना चाहते हैं। एक लड़की से उसका रिलेशन(सम्बन्ध) बन गया, वह लड़की के साथ शादी करना चाहता था। मैंने कहा- ठीक है, तू कह तो रहा है फ्रीडम चाहता हूँ लेकिन तेरे को फ्रीडम मिलेगी नहीं। ध्यान रखना। उससे बंधने के बाद सारी जिंदगी भर के लिए गुलाम बन जाएगा। अभी कह रहा है फ्रीडम, पर बंध जाने के बाद जिंदगी भर का गुलाम जैसा कि इसगुल्म को भी आग प्रीम के नाम पारस्वाकर करता है। पति-पत्नी दोनों एक पार्क में गए। पत्नी ने एक पेड़ के छोटे से लता-मण्डप को दिखाते हुए कहा कि आपको पता है ये वही लता-मण्डप है जिसमें आज से बीस साल पहले हम दोनों आए थे। हम दोनों छिप गए थे, अगर उस दिन पिता जी ने देख लिया होता तो बड़ी गड़बड़ हो जाती। पति यह सुनते ही एकदम रोने लगा। पत्नी ने पूछा- आप रो क्यों रहे हो? मैंने तो खुशी मनाने की बात सुनाई और आप रो रहे हो। तब पति बोला- काश! उस दिन पिता जी ने हमको देख लिया होता और हम पकड़े जाते तो अच्छा होता। पत्नी ने पूछा ऐसा क्यों? पति ने कहा- अगर उस समय पकड़े जाते तो आज मैं आजाद होता। जिसको लोग फ्रीडम मानते हैं वह उसकी गुलामी है। ये अज्ञानता है। एक लड़के ने मुझसे कहा- महाराज! मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ और वह हमारे हिसाब से जैन धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार है, जैसा मैं चाहता हूँ वह वैसा ही करेगी। मैंने कहाबस! यही खतरनाक है। उसने पूछा क्यों? मैंने कहा- ये बताओ तुमसे कोई तुम्हारे धर्म को त्यागने की बात करे तो क्या तुम उसको त्याग दोगे? बोला- नहीं महाराज! मैं तो धर्म को नहीं त्यागूँगा। मैंने फिर कहा- किसी भी हालत में धर्म को त्यागने की बात हो तो? वह बोला- नहीं, मैं किसी भी हालत में धर्म को त्याग नहीं सकता, मैं धर्म के प्रति निष्ठावान हूँ। तब मैंने कहा- निष्ठावान व्यक्ति कभी भी अपने धर्म को नहीं त्यागता, जो आज अपने धर्म को त्याग सकता है वह कल तुमको भी त्याग सकता है। इसकी क्या गारंटी है, इसका क्या भरोसा कि कल वह तुम्हें भी न त्याग दे? ये मोह है, इस मोह के आवेग में आकर ऐसी भाषा का प्रयोग हो रहा है। सच्चाई को जानोगे तो कभी भ्रम में नहीं पड़ोगे। आज तुम्हें वह अच्छी लग रही है और तुम उसे अच्छे लग रहे हो, हो सकता है कल दोनों एक-दूसरे को बुरे लगने लगी। इसलिए पहले विवाह होता है, बाद में विवाद, फिर तलाक। मामला गड़बड़ हो जाता है। जहाँ सम्हलना है वहाँ सम्हलना चाहिए। अकिञ्चन्य : खालीपन से खुलेपन की यात्रा मैं आपसे कह रहा हूँ फ्रीडम चाहते हो तो मोह, ममता और आसक्ति के वजन को उतारो, यही सबसे बड़ा बोझ है। ये बोझ जिसके ऊपर हावी होगा वह कभी सुखी नहीं होगा। आचार्य कुन्दकुन्द ने आकिञ्चन्य अंग के बारे में कहा कि वह निस्संग होता है इसलिए निर्द्धन्द्र होता है। निस्संग यानी, किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं, परिग्रह नहीं, खाली। खालीपन होगा तो खुलापन होगा। तत्त्व ज्ञान को बल पर मन को खाली करो। एगो मे सास्सदो आदा णाणदसणलक्खणो | सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा || मैं अकेला हूँ, मैं एक मात्र ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला शाश्वत आत्मतत्व हूँ, मुझसे बाहर के जितने भी पदार्थ हैं वे सब संयोग लक्षण वाले हैं, मेरे नहीं हैं और मैं भी उनका नहीं हूँ -ये पहचान अपने मन में रखी। सबके बीच में रहो पर अपने में रमी इसी का नाम है खालीपन और खुलापन। अपने आपको जितना भरोगे उतना भारी होगे। सब भर रहे हैं। भर-भर के अपने आपको भारी बना रहे हैं। जितने भरोगे उतने भारी होगे और भारी चीज कहाँ जाती है? नीचे और नीचे क्या है? कहाँ जाने की तैयारी है? आपको कहाँ जाना है? आप लोग तो बनिया हो, व्यापारी हो तराजू से तो सबका परिचय है। तराजू के दो पलड़े होते हैं एक पलड़ा नीचे और दूसरा पलड़ा ऊपर। कौन सा पलड़ा ऊपर होता है और कौन सा पलड़ा नीचे होता है? एक संदेश ले लो जितना भार होगा उतने भारी होगे और भारी होगे तो नीचे जाओगे। जितना भार मुक्त होगे उतने हल्के होगे और जितने हल्के होगे उतने ऊपर उठोगे। एक व्यक्ति की धर्मपत्नी गुजर गई, वह बहुत फूट-फूट कर रो रहा है। आस-पड़ोस की महिलाएँ आई, उसे सान्त्वना दी। एक युवक ने पूछा- भाई। सालभर पहले तुम्हारी दादी गुजरी तुम इतना नहीं रोए, छह महीने पहले तुम्हारी माँ गुजरी तब भी तुम इतना नहीं रोए, आज तुम्हारी पत्नी गुजरी तो तुम इतना रो रहे हो, पत्नी से इतना ज्यादा लगाव था क्या? बोले लगाव-अगाव छोडो, दादी गुजरी तो पूरे मौहल्ले की माताएँ आकर बोलीं- बेटे दादी चली गई तो क्या हुआ हम तो हैं, माँ गुजरी तब भी अड़ोस-पड़ोस की सारी महिलाएँ आ गई और बोलीं- चिंता मत कर, माँ गई है, अभी हम तो हैं लेकिन आज पत्नी मरी है तो अभी तक एक भी औरत नहीं आई। सब अपने लिए रोते हैं। ये रोना अज्ञान है इसलिए इसे छोड़ी। बस ये चार सूत्र याद रखो- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। हमें भरापन और भारीपन को छोड़ना है तथा खालीपन और खुलापन को आत्मसात करना है तब हम अपने जीवन के इस अकिञ्चनत्व को प्राप्त कर पाऐंगे। आचार्य कहते हैं अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः। योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः॥ 'मैं आकिञ्चन्य हूँ। इस बात की एक पल की अनुभूति कर लो, तीन लोक के अधिपति बन जाओगे। मैंने योगियों के द्वारा गम्य परमात्मा का रहस्य बताया है। आज तक परमात्मापने को जिन्होंने भी पाया है इसी खालीपन के बल पर पाया है। हम भी अपने आपको खाली करें ताकि खुलेपन का आनन्द ले सकें।
  11. ब्रम्हचर्य : आत्मा का नैकट्य आज बात ब्रह्मचर्य की है। वह ब्रह्मचर्य जिसके बिना कोई साध ना फलवती नहीं होती। प्रत्येक साधना-पद्धति में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ब्रह्म का अर्थ होता है आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में भेद करके चलना है। जो ब्रह्म को पहचाने और उसका आचरण ब्रह्मचर्यमय होता है वह ब्रह्मचारी तथा जिसे अपने आत्म-ब्रह्म का ज्ञान नहीं, जो भ्रम में जिए वह भ्रमचारी। प्रभो! अनादि से अपने ब्रह्म-स्वरूप को न जान पाने के कारण मैं भ्रमचारी बनकर इस संसार में फिरता हुआ दुखों का पात्र बना रहा, आज आपकी कृपा से मुझे मेरा ज्ञान हुआ, मुझे मेरा परिचय प्राप्त हुआ और अब मैं ब्रह्मचर्य के रास्ते को अंगीकार करके आपके नजदीक आने का मार्ग पकड़ रहा हूँ। बंधुओं! ब्रह्मचर्य बहुत उच्च आध्यात्मिक साधना है। जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो उसका सम्बन्ध प्राय: यौन-सदाचार तक सीमित रखा जाता है लेकिन ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल यौन सदाचार तक सीमित नहीं है। यौन-संयम मात्र ब्रह्मचर्य नहीं है, ब्रह्मचर्य का मतलब है विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होकर जीना। ब्रह्म यानी आत्मा की ओर मुड़ना। जो आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी और जो आत्मा से जितना दूर है वह उतना अब्रह्मचारी। मतलब आत्मा की निकटता और दूरी ही ब्रह्म और अब्रह्म का द्योतक है। अगर हम ऊँची भूमिका के स्तर से विचार करते हैं तो आत्मा से दूर गए, भ्रम में फसे, आत्मा के नजदीक हुए तो ब्रह्म को पा लिया। हमें आत्मा से दूर कौन ले जाता है? अगर देखा जाए तो हम तो अपने भीतर हैं लेकिन फिर भी भीतर रहकर भी हम अपने आप से कोशों दूर हैं। हमें दूर ले जाने वाला कौन? हमारे भीतर काम-भोग की लालसा और उसे जन्म देने वाला कौन? हमारे मन में पलने वाला अज्ञान। मनुष्य को जब तक अपने ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता वह भ्रम में उलझा रहता है। बाह्य तत्वों में उलझकर अपने जीवन का सर्वनाश कर डालता है और जिसे अपने ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है वह अपनी प्रवृत्तियों को सीमित, संयमित और नियंत्रित करके अंतर्मुखी चेतना का विकास करता है। ये अंतर्मुखी चेतना ही उसको परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति का साधन बनती है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं जह णाम को वि पुरिसो रायाण जाणिदूण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण। एवं हि जीवराया णादवो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेणा॥ जैसे कोई अर्थ का अभिलाषी व्यक्ति राजा को जानकर राजा के अनुकूल कृत्य करता है, उस पर श्रद्धान करता है, उसके बारे में जानता है और उसके अनुकूल आचरण करता है ताकि राजा की कृपा का पात्र बनकर कुछ धन पा सके; ऐसे ही यदि तुम्हे मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर बैठे जीव रुपी राजा की जानी, पहचानो और उसका अनुशरण करो। मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर के ब्रह्म को पहचानो, अपनी आत्मा की जानी। अपने आत्म-ज्ञान के बिना कल्याण संभव नहीं और जिसे आत्मा का ज्ञान हो जाता है, भेद-विज्ञान हो जाता है उसके जीवन में ब्रह्मचर्य बहुत सहजतया घटित हो जाता है। आज मैं अपनी बात एक ब्रह्मचारिणी गाय की कथा से प्रारम्भ कर रहा हूँ। अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने अपनी कृति 'गहरे पानी पैठ' में इस घटना का उल्लेख किया है। घटना बहुत पुरानी है। आजादी की लड़ाई के समय वे जेल में थे। वहाँ उनके किसी मित्र ने ये कथा उन्हें सुनाई। ग्वालियर के किसी परिवार में एक गाय पलती थी। उस गाय ने छह बछड़े और बछड़ियों को जन्म दिया। उसके बाद जब उसे गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो वह गर्भवती नहीं हो सकी। जब बार-बार उसके साथ ऐसा प्रयास किया जाने लगा तो एक दिन उस गाय ने उस घर में पलने वाली एक छोटी बच्ची को सपना दिया और कहा कि मैं ब्रह्मचर्य व्रत ले चुकी हूँ इसलिए मुझे पुन: गर्भवती बनाने का प्रयास न किया जाए अन्यथा मैं कुएँ में कुदकर जान दे दूँगी। बेटी ने घर के लोगों को ये बात बताई लेकिन लोगों की बात समझ में नहीं आई और सबने सपना कहकर टाल दिया कि गाय में कौन सा ब्रह्मचर्य होता है। आदमी ब्रह्मचर्य नहीं पालता गाय कहाँ से पालेगी? उस बच्ची की बात की नजरअंदाज कर दिया गया और जब वापस गाय को गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो गाय अपने सपने के अनुसार तेज गति से भागी और घर के आँगन के कुएँ में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ये एक ब्रह्मचारिणी गाय का उदाहरण है। पशु को भी आत्मा का ज्ञान हो जाता है तो उसके अंत:करण में वैराग्य आ जाता है। हम बनें बिलासी चैतन्य आत्म के आज की चार बातें- विलास, विनाश, विकास और विराग। विलास आज हर व्यक्ति को प्रिय है। संत कहते हैं तुम्हें विलास प्रिय है, विलासी बनो, मैं आपसे कहता हूँ जितना विलास करना है करो। महाराज! क्या हुआ? आज विलास करने की बात कर रहे हो, विलास तो जीवन का अभिशाप है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ, होश में बोल रहा हूँ- तुम्हें जितना विलास करना है करो, जी भरकर करो पर किसका विलास करो? चैतन्य का विलास करो। विलास को दो रूप हैं- एक चैतन्य-विलास, एक भोग-विलास। चैतन्य-विलास का मतलब अपनी आत्मा में रमना, अपनी आत्मा से बंधना, अपनी आत्मा में संतुष्ट होना और कामेच्छा को समाप्त कर डालना। जिसके अन्दर समस्त कामनाए अंतर्लीन हो जाए, जिसका भीतर सारी वासनाएँ विलीन हो जाएँ और जिसके अंदर सारी इच्छाएँ अंतर्धान हो जाएँ उसका नाम है चैतन्य-विलास। विलास का मतलब होता है आनंद, रस, तृप्ति, प्रसन्नता। तुम्हारे भीतर आनंद हो। धर्म आनन्द को छुडाने की बात नहीं करता; धर्म और अध्यात्म मनुष्य के जीवन में सच्चा आनन्द दिलाने की बात करते हैं। विलास चाहिए, केसा विलास? अंदर का विलास, अंदर की तृप्ति जिसमें किसी साधन की जरूरत नहीं। चैतन्य-विलास जो स्वाश्रित है और भोग-विलास जो पराश्रित है। चैतन्य के विलास के लिए किसी दूसरे साधन और व्यक्ति की आवश्यकता नहीं और भोग-विलास सदैव दूसरों के माध्यम से होता है, उसमें सामने किसी की उपस्थिति चाहिए, चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। चैतन्य-विलास में कोई सामने नहीं चाहिए बल्कि जब तक कोई सामने है तब तक चैतन्य का विलास ही नहीं है, स्वाश्रित है। चैतन्य के विलास में परम तृप्ति की अनुभूति और भोग के विलास में सदैव आतुरता और अतृप्ति का अनुभव। आपने आज तक किसका विलास किया? सारा जीवन भोग-विलास में खपा दिया और खपा रहे हो इसलिए कि तुम्हें अपने चैतन्य स्वरूप का पता नहीं। जिस मनुष्य के भीतर आत्म-दृष्टि प्रकट हो जाती है उसकी देहासक्ति खत्म हो जाती है। जिसकी देहासक्ति नष्ट होती है उसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है और जिसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है, उसके अंदर की वासना विलुप्त हो जाती है। देहासक्ति से भोगासक्ति और भोगासक्ति से वासना के भाव मन में पैदा होते हैं। ये मनुष्य को भटकाने वाले कारण हैं, इनको खत्म करना है। भेद-विज्ञान करके आत्म ज्ञान करो, आत्म-ज्ञान होते ही देहासक्ति खत्म होती है, आत्मानुरक्ति बढ़ती है, भोगासक्ति नष्ट होती है, अन्दर की विरक्ति बढ़ती है, वासना नष्ट होती है, वात्सल्य प्रकट हो जाता है, अतृप्ति नष्ट होती है और शांति की अनुभूति प्रकट होती है। चैतन्य का विलास चाहते हो तो चैतन्य को पहचानो, तुम कौन हो? जब तक तुम्हारी देह पर दृष्टि रहेगी तब तक चैतन्य का विलास कर ही नहीं सकोगे। सच्चा आनंद नहीं होता। बच्चा रोता है तो माँ कभी-कभी उसे निप्पल पकड़ा देती है, बच्चा मुँह में निप्पल लेकर मग्न हो जाता है, मन ही मन बड़ा खुश होता है कि चलो मुझे निप्पल मिल गया। मैं पूछता हूँ निप्पल दबाने से बच्चों को उस निप्पल में कोई रस मिलता है क्या? क्या है निप्पल में? रस है या रस का भ्रम है? रस का भ्रम है, वह निप्पल उसे रस का भ्रम दे रही है, रस तो उसके मुँह से निकल रहा है लेकिन वह सोच रहा है कि ये सारा रस निप्पल दे रही है। निप्पल को चूसते-चूसते वह थक जाएगा पर उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, उसे पुष्टि नहीं मिल सकती अगर उसी निप्पल की जगह माँ का दूध थोड़ी देर पी ले तो पुष्ट हो जाता है। चैतन्य-विलास माँ के दूध की तरह है और भोग-विलास निप्पल की तरह है। तुम क्या पसंद करते हो भोग-विलास या चैतन्य-विलास? अभी तक तुमने केवल भोग-विलास का ही रसास्वादन किया है, चैतन्य-विलास का तुम्हें अनुभव ही नहीं हुआ। उस चैतन्य की पहचानो, जिस पल उसे पहचान लोगे तुम्हारी वृति और प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाएगी, तुम्हारे सोचने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारे देखने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारा आचार बदलेगा, तुम्हारा विचार बदलेगा, फिर तुम्हें ज्यादा और उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- भोगना है तो अपनी चेतना को भोगो, अनुभव करना है तो अपनी चेतना का अनुभव करो। भोग-विलासिता के चक्कर में तो तुमने अनन्त जन्म गँवा दिए, अपने आप को नहीं पहचाना। सद्गुरु की कृपा से यदि तुम्हें अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ है तो उसे पहचानने की कोशिश करो। वे कहते हैं एदहि रदो णिच्च संतुष्ट्रो होहि णिच्चमेदहि। एदेण होहि तितो होहदि तुह उत्तमं सोक्ख। अपने भीतर के इस चैतन्य में तुम रत रहो, इसी में संतुष्ट हो, इसी में तृप्त हो, इसी में तुम्हें परम सुख की प्राप्ति होगी। देह-दृष्टि से ऊपर उठो, चेतना की दृष्टि को पकडो अगर तुम्हारे भीतर वह चैतन्य-विलास प्रकट हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में किसी विलास की जरूरत नहीं है। देह-दृष्टि से ऊपर उठने के बाद भेद-विज्ञान से सम्पन्न साधक उस परम दृष्टि को प्रकट करते हैं। देहाकर्षण : विवेक का अपकर्षण आज लोगों की दृष्टि, देह-दृष्टि है, आत्म-दृष्टि है ही नहीं और इसी कारण देहासक्ति होती है। देह से आकृष्ट होकर मनुष्य कदाचार अपनाता है, यौन-दुराचार करता है। आज यौन-अपराध हो रहे हैं, काश! व्यक्ति अपने आपको पहचानता। लोगों का आकर्षण शरीर है, आत्मा की पहचाना ही नहीं। आत्मा की पहचान लोगे तो देहाकर्षण छूट जाएगा, देहाकर्षण छूटते ही तुम्हारे जीवन की धारा बदल जाएगी। देखिए देह के आकर्षण और आत्मा के आकर्षण में कितना अंतर होता है। देह के आकर्षण में भी आकर्षण है और आत्मा के आकर्षण में भी आकर्षण है। रामचन्द्र जी के प्रति सीता का आकर्षण था तो सूर्पनखा भी उनके प्रति कुछ पल के लिए आकृष्ट हुई थी पर दोनों की दृष्टि में जमीन आसमान का अंतर था। सीता ने रामचन्द्र जी को पति के रूप में ही नहीं परमेश्वर के रूप में देखा, सीता-राम का जो सम्बन्ध था वह आत्मिक स्तर का सम्बन्ध था और सूर्पनखा रामचन्द्र जी की ओर आकृष्ट हुई तो उनके रूप पर मुग्ध होकर। ये कथा आप सुनोगे तो बड़े आश्चर्यचकित हो जाओगे। सूर्पनखा का बेटा शम्बुकुमार बाँस के बीड़ों में छिपकर चन्द्रहास नामक खड्ग की सिद्धि कर रहा था। सूर्पनखा रोज उसे भोजन देने आती थी। राम-लक्ष्मण भी उसी वन में आए हुए थे। लक्ष्मण घूमने के लिए गए तो उन्हें एक दिव्य खड्ग लटका हुआ दिखाई पड़ा। जब व्यक्ति के पुण्य का उदय होता है तो अनायास ही बहुमूल्य चीजें उन्हें प्राप्त हो जाती हैं। शम्बुकुमार जिस खड्ग को सिद्ध करने के लिए तपस्या कर रहा था. वह चन्द्रहास खड्ग प्रकट हो चुका था। लक्ष्मण ने जैसे ही उसे देखा तो उसका आह्वान किया। वह खड्ग लक्ष्मण के हाथ में आ गया। उसकी धार की परीक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने उसका प्रहार उस बाँस के बीड़े पर किया, एक ही झटके में बांस के साथ भीतर छिपा शम्बुकुमार भी मर गया, उसकी गर्दन धड़ से अलग हो गई। लक्ष्मण जी को बहुत तकलीफ हुई लेकिन क्या कर सकते थे, अनजाने में ये हत्या हो गई। वे लौटकर अपने भाई रामचन्द्र जी के पास आए, उन्हें सारी कथा सुनाई। इधर सूर्पनखा अपने बेटे को भोजन देने के लिए आई तो देखा कि मेरे बेटे का सिर धड़ से अलग है। वह एकदम भाव-विह्वल हो गई। रोती-कलपती चरण-चिह्नों का अनुशरण करती हुए रामचन्द्र जी की कुटिया तक पहुँची। कुटिया में जैसे ही रामचन्द्र जी परं नजर पड़ी तो वह उन पर मुग्ध हो उठी, उसके अंदर की कामासक्ति जाग गई, सब कुछ भूल गई, पुत्र के वियोग को भूल गई, एक ही साथ काम के दस बाणों से बिंध गई। रामचन्द्र जी के पास जाकर सारी लज्जा, मर्यादा और संकोच को त्यागकर अपने आपको प्रप्रोज (समर्पित) कर दिया। रामचन्द्र जी ने सुना तो इकदम सहम गए और उसे समझाने की दृष्टि से सोचा कि मैं क्या समझाऊँ, इसे लक्ष्मण ही ठीक ढंग से समझा सकता है। उन्होंने कहा- देखो! तुम्हारी भावना की पूर्ति मैं नहीं कर सकता, मैं विवाहित हूँ, मेरे साथ मेरी धर्मपत्नी है, तुम लक्ष्मण के पास जाकर अपनी इच्छा पूरी कर सकती हो। कहते हैं बावली (पगली) सूर्पनखा लक्ष्मण के पास चली गई। लक्ष्मण के पास जाकर जब उसने अपना प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मण तो इकदम तुनक गए, उसको फटकारते हुए बोले- अरे! तुझे शर्म नहीं आती। कुछ पुराणों में लिखा है कि लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी। मुझे नहीं पता लक्ष्मण ने नाक काटी या नहीं काटी लेकिन सूर्पनखा की नाक कट जरूर गई। हमारी भारतीय परम्परा के अनुसार कोई भी क्षत्रिय किसी स्त्री, किसी निशक्त और निरपराध व्यक्ति के ऊपर अस्त्र नहीं चलाता। लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक नहीं काटी होगी; ऐसा मेरा विश्वास है लेकिन सूर्पनखा की नाक कट गई, क्यों कटी? जब कोई स्त्री सारी मर्यादा और संकोच को त्यागकर किसी पर-पुरुष के पास जाकर अपना प्रणय-प्रस्ताव रखे और ठुकरा दी जाए, इससे बडी नाक कटाई और क्या होगी? उसकी नाक कट गई, रिफ्यूज हो गई। उसकी नाक कटने की कहानी अपनी जगह है। जैन पद्मपुराण के आधार पर मैंने आपको ये बात बताई। विवेक की बाड़, मर्यादा का रक्षण मैं एक ही बात कहता हूँ- एक तरफ सूर्पनखा का आकर्षण, एक तरफ सीता का आकर्षण। थोड़े और आगे चलो- सीता के प्रति रावण भी आकृष्ट हुआ और सीता के प्रति लक्ष्मण के मन में भी आकर्षण था। रावण ने सीता को सदैव भोग की दृष्टि से देखा और लक्ष्मण ने अपनी पूज्या माँ की दृष्टि से देखा। कहते हैं जब रावण सीता का हरण करके जा रहा था तो सीता ने अपने आभूषणों को इस भाव से रास्ते में उतार कर फेंका कि इधर से रामचन्द्र जी गुजरेंगे तो शायद मेरे गुजरने की पहचान हो जाए। सीता-हरण होने के बाद रामचन्द्र जी जब वहाँ से गुजरे तो अचानक रामचन्द्र जी की दृष्टि उन आभूषणों पर पड़ी, उन्होंने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! देखो यह मुकुट सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, यह हार सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, ये कुण्डल सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण मौन, ये बाजूबंद सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण अब भी मौन थे। अचानक रामचन्द्र जी को सुहाग को चिह्र-स्वरूप एक नुपुर (बिछिया) हाथ लगी, राम ने उस बिछिया को लक्ष्मण को दिखाते हुए लक्ष्मण से फिर कहा- देखो लक्ष्मण! ये नुपुर सीता के प्रतीत होते हैं, उन नुपुरों को देखकर लक्ष्मण ने कहा - नाह जानामि केयूरे नाह जानामि कुण्डले। नुपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्। भैया! मुझे नहीं पता यह मुकुट किसका है, मुझे नहीं पता यह हार किसका है, ये कुण्डल किसके हैं और ये बाजूबंद किसके हैं पर मैं ये पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि ये नुपुर तो माता सीता के ही हैं क्योंकि मैं रोज उनकी पाद-वंदना को जाता था तो मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी, मैंने आज तक अपनी आँखें उठाकर उन्हें देखा ही नहीं। ये है उदार-दृष्टि, ये भारतीय संस्कृति का एक रूप है। आप लोगों को ये बात अतिरंजना पूर्ण लग सकती है लेकिन लक्ष्मण जैसे महापुरुष के व्यक्तित्व को अपने बौने हाथों से नापने की कोशिश न करें, आज तो सारी मर्यादाएँ ही खत्म हो गई। अब मर्यादा बचे भी कैसे? जब भाभियाँ देवर की शादी में बीच सड़क पर नाचेंगी तो मर्यादाएँ बचेंगी कैसे? हमारी संस्कृति एकदम तार-तार होती जा रही है। मैं आपसे कह रहा था कि साकांक्ष प्रेम नाक कटाता है और निष्कांक्ष प्रेम लाज बढ़ाता है। अभी तक तुमने नाक कटाने का काम किया, अब लाज बढ़ाने का काम करो। देहासक्ति तुम्हारी नाक कटाएगी और आत्मानुरक्ति तुम्हारे जीवन को ऊँचा उठाएगी। क्या करना चाहते हो? एक में जीवन का विकास है, दूसरे में जीवन का विनाश है। देह की आसक्ति से मुक्त होकर आत्मा की अनुरक्ति की तरफ ध्यान होना चाहिए। जब ये अनुरक्ति हमारे भीतर प्रकट होगी तब हमारे जीवन का सच्चे अथों में कल्याण होगा। आचार्य श्री ने मूकमाटी में बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने लिखा - प्रीत मैं उसे मानता हूँ, जो अंगातीत होता है। गीत मैं उसे मानता हूँ, जो संगातीत होता है। अंगातीत प्रीत और संगातीत गीत की अनुभूति ही वास्तविक चैतन्य का विलास है। अंगातीत प्रीत कब होगी? जब देह-दृष्टि खत्म होगी। देह-दृष्टि को खत्म करना बहुत जरूरी है। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने ब्रह्मचर्य की बात करते हुए ये नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष का एक दूसरे से दूर हट जाना ही ब्रह्मचर्य है, वे कहते हैं- देह-दृष्टि से ऊपर उठने का नाम ब्रह्मचर्य है। मलबीज मलयोनि गलन्मल पूतिगन्धि बीभत्सम्। पश्यन्नङ्गमनङ्गाद् विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥ जो अपने शरीर को मल की योनि, मल का बीज, पूति, गन्ध, बीभत्स रूप में देखते हुए, अंग को इस प्रकार विकृत, अशुचि देखते हुए जो अनंग यानी काम से विरक्त होता है सच्चे अर्थों में वह ब्रह्मचारी होता है। काम-भोग की कथाएँ बहुत पुरानी हैं, अनादि से ही करते आए हो, आज तक मिला क्या? आज तक का अनुभव क्या है? कभी सोचा है क्या मिला? सिवाय प्यास, अतृप्ति और आकुलता के आज तक कुछ नहीं मिला। किसी को तृप्ति नहीं मिली, आज एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कहे कि मैंने काम (इच्छा-पूर्ति) करके अपने आपको तृप्त किया है। संत कहते हैं- काम इच्छा के माध्यम से कामना को तृप्त करना तो अग्नि को घृत से शान्त करने की चेष्टा है। जलती हुई ज्वाला में घी की आहूति दोगे तो क्या होगा वह ज्वाला बढ़ेगी या कम होगी? बढ़ेगी, क्योंकि काम से काम की पूर्ति नहीं होती और आग से आग को बुझाया नहीं जा सकता, उसे तो आध्यात्मिक दृष्टि से ही सम्पन्न किया जा सकता है इसलिए देह-दृष्टि से मुक्त होकर भेद विज्ञान को प्राप्त करें। जिसके हृदय में ऐसे भेद-विज्ञान की भावना विकसित हो जाती है वह संसार में कभी भी रुकता नहीं। जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य को चैतन्य का विलास बताते हुए इसकी बड़ी उच्च व्याख्या की है। ब्रह्मचर्य की साधना जिस प्रकार से जैन साधनापद्धति में है वैसी कहीं नहीं है। दुनिया में जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो केवल उसे ब्रह्मचर्य माना जाता है जो मात्र स्त्री का संसर्ग त्याग देता है। हमारे जैन आचार्य कहते हैं- स्त्री का त्यागी ब्रह्मचारी है सो है ही, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी बन सकता है। बनना चाहते हो? गृहस्थ और ब्रह्मचारी? गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है किसके बल पर? स्वदार-संतोष व्रत का पालन करते हुए, विवाह के बंधन में बंधने के बाद एक से अपना सम्बन्ध सीमित करते हुए स्त्री-पुरुष पति और पत्नी के बीच बस एक के अतिरिक्त सभी स्त्री-पुरुषों के प्रति पवित्र दृष्टि को रख ले तो वह ब्रह्मचारी है। अपनी पत्नी या अपने पति के अतिरिक्त संसार की हर स्त्री में माँ, बहिन और बेटी का रूप देखना और हर पुरुष में पिता, पुत्र और भाई का रूप देखना ये ब्रह्मचर्य की एक बहुत बड़ी साधना है। एक गृहस्थ के जीवन में भी ऐसा हो सकता है। यौन-सदाचार और संयम का अनुपालन कौन कर सकता है? जो आत्मदृष्टा हो, उसके जीवन में ही ऐसा हो सकता है। जिसके अंदर में आत्मा का ज्ञान नहीं है वह सामाजिक भय, कानूनी जटिलताओं या अन्य मर्यादायों के डर से भले ही शील की पाल ले लेकिन अन्त:प्रेरित शील उसके जीवन में घटित नहीं हो सकता। जिसके अंदर आत्मा का ज्ञान है उसके लिए किसी बाहरी दबाव की जरुरत नहीं, वह स्व-प्रेरणा से ब्रह्मचर्य का पालन करता है। महाराज छत्रसाल जिन्होंने कुण्डलपुर के बड़े बाबा के जिन मंदिर का जीणोद्धार कराया; एक रोज एक युवती उनके पास आ पहुँची और उस युवती ने कहा कि मैं आप जैसा प्रतापवान और ज्ञानवान पुत्र चाहती हूँ। छत्रसाल महाराज ने कहा- भगवान आपकी इच्छा पूरी करे। उस युवती ने कहा कि मेरी ये इच्छा आपके सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती। राजा छत्रसाल ने कहा- तुम्हारी इच्छापूर्ति में मैं क्या सहयोग कर सकता हूँ? उस स्त्री ने कहा- एक पुरुष के संयोग के बिना कोई स्त्री किसी पुत्र को जन्म कैसे दे सकती है? मेरे पति इसमें अक्षम हैं। छत्रसाल जी ने जैसे ही सुना, वे एक पल का विलम्ब किए बिना उसके चरणों में गिर पड़े और कहा- ले माँ यदि तुझे मुझ जैसे पुत्र की जरूरत है तो आज से मैं ही तेरा पुत्र हूँ तुम मुझे स्वीकार कर लो। ये एक आध्यात्मिक दृष्टि है। हमारे देश के राजा-महाराजा भी ऐसी अध्यात्म-दृष्टि से सम्पन्न हुआ करते थे। अतीत के राजा-महाराजाओं के चरित्र को पलटें और आज के शासकों को देखें। छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का एक प्रसग है। जब उनको मराठा सैनिक कल्याण राज्य पर विजय प्राप्त कर लौटने को बाद उनके पास आए तो शिवाजी महाराज ने खुश होकर पूछा- मेरे लिए क्या लाए? उनके सैनानियों ने कल्याण नरेश की पुत्रवधु को उनके सामने खड़ा करते हुए कहा कि हम आपके लिए विश्व की सबसे सुंदर स्त्री लेकर आए हैं। छत्रपति महाराज ने सुना तो इकदम सकपका गए, अपने आसन से खडे हो गए और बोले- ये अपराध तुमने कैसे कर लिया? इतना गंदा काम तुमने कैसे किया? तुम्हें मालूम नहीं कि कल्याण नरेश की पुत्रवधु केवल कल्याण नरेश की ही पुत्रवधु नहीं हमारी-तुम्हारी भी पुत्रवधु है, पुत्रवधु नहीं, वह तो हमारी-तुम्हारी बहिन है। तुमने बहुत गंदा काम किया है, ये हमारी बहिन है, आज से ये मेरी ही नहीं वरन सम्पूर्ण मराठवाड़े की बहिन है। तुम ससम्मान इन्हें वापस कल्याण तक पहुँचाओ। ये दृष्टि किसके अंदर होती है? जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान हो, जो शील, संयम, सदाचार की महिमा को जानता हो। आज इन्हीं का नाम लेने वालों के जीवन में बढ़ते हुए कदाचार को देखो तो बड़ा आश्चर्य होता है। अपने जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि विकसित होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का मतलब है ऑख की पवित्रता। आँखों में पवित्रता ही ब्रह्मचर्य है। अगर तुम्हारे अंदर ब्रह्मचर्य है तो आँखों में पवित्रता आ जाएगी, किसी को देखकर तुम्हारा मन नहीं डोलेगा। एक दिन एक युवक ने मुझसे पूछा- महाराज! आप दिगम्बर मुद्रा में रहते हैं, आपके पास अनेक स्त्रियाँ आती हैं, बैठती हैं, बातचीत भी करती हैं, क्या कभी आपका मन नहीं डोलता? उस युवक ने साहस पूर्वक पूछा। ये विचार आपके मन में भी आ सकता है। मैंने उससे एक ही सवाल किया- ये बताओ, जब कभी भी तुम अपनी माँ-बहिन के पास रहते हो तो क्या तुम्हारा मन डोलता है? बोला- महाराज! कभी नहीं डोलता, उस समय मन में पवित्रता आ जाती है। मैंने कहाबस, यही अंतर है हममें और तुममें, तुम्हारे लिए तो कोई एक माँ और कोई एक बहिन है, मेरी नजर में तो संसार की सारी स्त्रियाँ माँ और बहिन की तरह हैं। ऑखों में ये पवित्रता आते ही ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होगा। पवित्रता चाहिए, दृष्टि की पवित्रता चैतन्य को विलास को जन्म देती है और दृष्टि की अपवित्रता भोग-विलास में फसा देती है। अभी तक भोग-विलास में ही फसे हुए हो। आज तक का इतिहास है चैतन्य का विलास आत्मा का विकास करता है और भोग-विलास आत्मा का विनाश करता है। किधर बढ़ रहे हो विकास की तरफ या विनाश की तरफ? आज तक तुमने किया क्या है?आचार्य कुंदकुंद कहते हैं सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयक्तस्सुवलभो णवरि ण सुलभो विह तस्स। संस्कार पड़े हैं जनमों-जनमों के तुम्हारे द्वारा काम, भोग और बंध की कथाएँ जन्म-जन्मान्तरों से सुनने में आई हैं, परिचय में आई हैं, अनुभव में आई हैं, तुमने जन्म-जन्मान्तरों तक अगर सुना है, परिचय किया है, अनुभव किया है तो केवल काम, भोग और बंध की कथा का। अगर परिचय पाना है तो उसका परिचय पाओ जो आज तक अपरिचित रहा है और जिसको परिचय को बाद अन्य कोई परिचय बाकी न हो। भोग करना है तो उसका भोग करो जिसके बाद भोगने की इच्छा ही न रहे, अनुभव करना है तो उसका अनुभव करो जिसके बाद फिर कोई, अनुभव ही बाकी न रहे, उस तत्व को पहचानो। अभी तक तुमने जो कुछ भी किया है वह सब पुनरावृत्ति है। स्कूल में मास्टर साहब ने बच्चों को कुत्ते पर लेख लिखकर लाने का सबक (गृहकार्य) दिया। सब बच्चे लेख लिखकर लाए, एक बच्चे का लेख देखकर मास्टर साहब बड़े आश्चर्यचकित हो गए। वह उस बच्चे से बोले- लेख तो तुमने बहुत सुंदर लिखा है, तुम्हारा लेख बहुत अच्छा है लेकिन मामला क्या है? ठीक ऐसा ही लेख पिछले वर्ष तुम्हारा बड़ा भाई लिखकर लाया था, उस लेख और इस लेख में एक हलन्त और मात्रा का भी अंतर नहीं है मामला क्या है? उस बच्चे ने कहा- सर कुत्ता वही है तो लेख दूसरा कहाँ से आएगा। ये सच है, हर प्राणी अनादि काल से एक ही कुत्ते पर लेख लिखता आ रहा है, वह है काम-भोग का लेख, आहार, भय, मैथुन या परिग्रह का लेख। चार संज्ञाओं का लेख लिखते आए हो, भोग विलास में फसे हो, चैतन्य के विलास को पहचानो। तुम्हारी आत्मा का पतन इसी के कारण हुआ है लेकिन क्या करें? लोगों को आज रस नहीं आता, आज पूरे विश्व में एक आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान की भोग-विलासिता की वृत्ति ने मनुष्य की चेतना की जडाक्रान्त कर दिया है। उसकी सोच और समझ खत्म हो गई है। जड़ता इस तरह से हावी होती जा रही है जिसका कोई ठिकाना नहीं, मीडिया ने तो इसे और अधिक हवा दे दी। हमारे सारे संस्कार नष्ट हो रहे हैं। सब गड़बड़ होता जा रहा है। कहाँ हमारे महा ब्रह्मचर्य का उच्च आदर्श और आज कहाँ "लिव इन रिलेशनशिप' जैसा कान्सेप्ट? मनुष्य को भोग की आग में झोंकने जैसा कुकृत्य है। इसके दुष्परिणाम भी आ रहे हैं। समाज इसे भोग रहा है। सावधान होना चाहिए। शील, संयम, सदाचार का संकल्प लेना चाहिए। अपनी भोगासक्ति को बंद करना चाहिए। मैं यहाँ उपस्थित लोगों से आज के ब्रह्मचर्य धर्म के दिन कहना चाहता हूँ कि प्रारम्भिक रूप में केवल दो संकल्प लें कि विवाह-पूर्व कोई सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा तो मैं समझता हूँ आपका ब्रह्मचर्य सार्थक हो जाएगा। विवाह-पूर्व सम्बन्ध नहीं और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं लेकिन क्या करें आज के तथाकथित सेलिब्रिटी लोग भी यह कहते हैं कि विवाह-पूर्व या विवाहेतर सम्बन्धों में कुछ भी गलत नहीं। सच्चे अर्थों में ऐसे लोग भारत के वंशज नहीं कहला सकते। ऐसे लोगों को भारत में जगह भी नहीं मिलनी चाहिए। जिन्होंने भारत की आत्मा को नहीं पहचाना वे ही ऐसा बोल सकते हैं। मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्। आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥ ये उद्घोष जिस देश में गूंजा, उस देश में इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ बहुत गंदी हैं। इस गंदी प्रवृत्ति से समाज को जितनी जल्दी संभव हो बचना और बचाना चाहिए। हमारे युवा : भटकती दिशा बंधुओं मैं क्या बताऊँ। आज जो समाज की तस्वीर उभर रही है वह बड़ी बीभत्स और घिनौनी है। आप सब को पता नहीं नई पीढ़ी में बहुत जबरदस्त भटकाव आ रहा है। मनुष्य की बढ़ती हुई भोग-लालसा ने सम्बन्धों की पवित्रता को भी संदिग्ध बना दिया है। मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूँ कि भाई-बहिन के सम्बन्धों की पवित्रता भी अब नष्ट हो रही है। सावधान हो जाओ, मेरे पास ऐसे भी प्रकरण आए हैं जिनमें सगे भाई-बहिन के मध्य भी सम्बन्ध बने हैं। बहुत घिनौना रूप है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं सुनकर। आज के युवक-युवतियों में जबरदस्त भटकाव है। इसलिए मैं कहना चाहता हूँ 10-11 साल की उम्र हो जाने के बाद बहिन और भाई को कभी एक साथ नहीं रखना चाहिए, मर्यादा को सुरक्षित रखना चाहिए। हमारे यहाँ कुछ व्यवस्थाएँ दी गई थी ताकि उस तरह की शारीरिक, भौतिक और मानसिक परिस्थितियों से बचा जाए और लोग यौन-कदाचार से बच सकें। आज सह-शिक्षा (को-ऐजुकेशन) के कारण ये सब गड़बड़ियाँ हो रही हैं। हमारे शास्त्रकार कहते हैं तारुण्ये इन्द्रियनिग्रह दुष्करम्। तरुण अवस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना बहुत कठिन है। आज के इस उन्मुक्त वातावरण और सह शिक्षा की व्यवस्था ने सारी व्यवस्थाओं को चरमरा दिया है, सत्यानाश कर दिया है। कल शाम के 'शंका समाधान' में आपके बीच का एक युवक बोला कि मेरे साथ पढ़ने वाले दो सौ लड़कों में से मैं सिर्फ दस को ही अपना मित्र बना सका जो एल्कोहल (शराब) नहीं लेते, बाकी सब लेने वाले मिले। एल्कोहल ही नहीं, अन्य प्रकार के अनाचार भी आज बढ़ते जा रहे हैं। कोई भी इनसे अछूता नहीं बचा। सावधान होने की जरूरत है। यदि यही स्थितियाँ बनी रहीं तो हमारे समाज की क्या दशा होगी? हमारे संस्कार कहाँ जीवित रहेंगे? महाविनाश के गर्त में सब जा रहे हैं। उस महाविनाश से बचना और बचाना है तो सावधानी की जरूरत है। मैंने पहले भी कहा था आज फिर कह रहा हूँ- आज उच्च शिक्षा में भेजना युग की आवश्यकता है। युवक-युवतियों की उच्च-शिक्षा सम्पन्न होनी चाहिए पर वे अपनी लिमिटेशन (मर्यादा) को कभी भूले नहीं, अपनी बोन्ड्रीज (सीमाओं) का ख्याल रखें और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहें तो कभी भटकाव नहीं आ सकता। इसके लिए शुरु से गुरुओं के साथ जुड़ाव जरूरी है। यदि बच्चों का गुरुओं से जुड़ाव होगा तो वे कभी भटकगे नहीं और यदि कदाचित भटक जाते हैं तो कभी आकर प्रायश्चित लेने का भी भाव करते हैं। अभी तीन दिन पहले दो बच्चे मेरे पास आकर बोले- महाराज श्री! आप से कुछ समय चाहिए। मैं व्यस्त था, मैंने कहा- अभी नहीं। नहीं महाराज! अभी चाहिए और एकान्त में चाहिए। दोनों बच्चों ने अपनी बात कही- महाराज! हम भटक गए, हमने शराब का भी पान किया और हमने सम्बन्ध भी बनाए। महाराज! हमारा मार्ग प्रशस्त कीजिए, अब हम शुद्ध जीवन जीना चाहते हैं। भटकाव में आकर हमने ऐसा कर लिया। दोनों इंजीनियरिंग के छात्र थे, माहौल के कारण भटके लेकिन गुरुओं से जुड़े रहने के कारण सम्हल गए। जो बच्चे गुरु से जुड़े रहेंगे वे कभी बर्बाद नहीं हो सकेंगे और जो बच्चे धर्म और गुरुओं से दूर रहेंगे वे कभी भी आबाद नहीं हो सकेंगे, कभी भी कहीं भी भटक सकते हैं। इसलिए आप लोगों को चाहिए कि अपने साथ अपने बच्चों को भी इस तरीके से जोड़ें। मानता हूँ कि बच्चे रोज नहीं आ सकते, उनकी दिनचर्याएँ कुछ इस तरह की होती हैं, पढ़ाई का बोझ उनके ऊपर इतना होता है। मैं तो अब सोचता हूँ कि समय-समय पर कुछ ऐसे कार्यक्रम दो-तीन दिन के होने चाहिए जो केवल बच्चों के लिए हों, युवक-युवतियों के लिए हों और उन्हें सही मार्गदर्शन दिया जाए एक वकशाप की तरह ताकि वे एक आध्यात्मिक चेतना को जगा सकें। इसकी शुरुआत जयपुर से हो रही है। जयपुर चातुर्मास का योग कुछ ऐसा है कि कई अच्छी शुरुआत यहाँ हो रही हैं। मैंने णमोकार महामंत्र के कोटि-जाप के लिए दस साल से सोच रखा था, अनायास यहाँ हो गया। वकशाप के सम्बन्ध में मैंने कलकत्ता में सोचा था कि इसको शुरु करना है पर योग जयपुर में लगा है ताकि जीवन में बदलाव आए, संस्कृति का जो क्षरण हो रहा है उसे रोका जा सको, चेतना का विकास हो। बंधुओं! भोग-विलास को त्यागें और चैतन्य-विलास से अनुराग हो तो हमारा जीवन धन्य होगा। चैतन्य को विलास से जीवन का विकास है और भोग के विलास से जीवन का विनाश है इसलिए मन में विराग के भाव आने चाहिए। अगर तुम्हारे अंत:करण में वैराग्य हो तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें हिला नहीं सकती और जिस मनुष्य के मन में वैराग्य न हो वह जीवन में कभी टिक नहीं सकता। ये वैराग्य ही भेद विज्ञान को जन्म देता है और वैराग्य से ही भेद-विज्ञान पुष्ट होता है। वैराग्य जीवन के लिए बहुत जरुरी है। यह हमारी आध्यात्मिक सम्पदा है, इसे अपने भीतर जगाकर रखना चाहिए। विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव, विषयों के प्रति हेयदृष्टि की वृद्धि, यही वैराग्य है। ये अच्छे-अच्छे लोगों के जीवन में भी नहीं दिखता। अच्छे-अच्छे बुजुर्गों के भी अंदर की भोगासक्ति मंद नहीं होती तो बड़ा आश्चर्य होता है कि लोग कहाँ जा रहे हैं। आचार्य श्री ने मूक माटी में बहुत अच्छी बात लिखी वासना का सम्बन्ध, न तन से, न वसन से, अपितु माया से प्रभावित मन से है। अपना मन अच्छा रखो, माया से मुक्त करके रखो तो हमारा जीवन धन्य होगा अन्यथा सब नष्ट हो जाएगा। शुकदेव जी आजन्म दिगम्बर थे ऐसा कहा जाता है। भागवत का प्रसंग है एक बार शुकदेव जी एक तालाब के पास से निकले। उस तालाब में कुछ युवतियाँ स्नान कर रही थीं, शुकदेव जी कब निकले उन्हें पता ही नहीं चला और स्त्रियाँ भी अपने स्नान में मग्न रहीं। थोड़ी देर बाद वहीं से व्यास जी निकले। व्यास जी जब उधर से गुजरे तो स्त्रियों ने अपने-अपने वस्त्रों से अपने अंगो को आच्छादित करना शुरु कर दिया, ढकने लगीं। ये देखकर व्यास जी को बड़ा अटपटा लगा। व्यास जी ने स्त्रियों से कहा- मैं ये क्या देख रहा हूँ? अभी मेरा जवान बेटा इधर से गुजरा तब तो तुमने कोई प्रतिकार नहीं किया और मैं वृद्ध इधर से गुजर रहा हूँ तो तुम मुझे देखकर अपने शरीर को ढक रही ही बात क्या है? उन स्त्रियों ने व्यास जी को जो बात कही वह बहुत मनन करने योग्य है। उन्होंने कहा- व्यास महाराज! शुकदेव जी कब आए और कब गए हमें पता नहीं लेकिन आपने अपनी उपस्थिति का बोध करा दिया। हम तो इतना ही जानते हैं कि जवान होने के बाद भी शुकदेव जी के मन में बुढ़ापा है और बूढ़े होने के बाद भी आपका मन अभी तक जवान बना हुआ है तभी तो इस तरफ आकृष्ट हुए हो। बूढ़े होने के बाद भी मन में जवानी, ये आसक्ति विनाश का कारण है। अपने आप को रोको, अपने आप को टोको, अपने आप को थामों। तन काम नहीं करता तब भी मन में इच्छाएँ जगती रहती हैं। ये इच्छाएँ विनाश का कारण हैं, इन इच्छाओं से मुक्त होंगे तो हमारा जीवन धन्य होगा।
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