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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. परम पूज्य आचार्य श्री 108 समयसागरजी महाराज की पूजन Samaysagar Ji Maharaj Folder new.pdf स्थापना ज्ञानोदय छेद समयसार का सार बसा है, गुरु आपके चेतन में। स्वानुभूति के निर्मल झरने, झरते रहते हैं मन में ।। विद्या गुरु सम सौम्य छवि लख, लगता ऋद्धिधारी हो । परम दयालु करुणासागर, गणधर सम उपकारी हो ॥ 1 ॥ समयसागराचार्य गुरुवर, जिनशासन के गौरव हैं। नगर- नगर में गुरु चर्या की, फैली अनुपम सौरभ है ॥ मेरे दर का कोना-कोना, गुरुवर तुम्हें पुकार रहा। लगा आज तब दर पर आकर, स्वप्न मेरा साकार हुआ ॥2 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वानम् । ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठः ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सविधीकरणम् । द्रव्यार्पण विद्यासिन्धु में नयन मूंदकर, नित्य तैरते रहते हो । 'ओम् शांति कहकर हे गुरुवर, निजातमा में रमते हो ॥ समयसागराचार्य आपकी छवि से समता रस बरसे। श्रद्धा जल अर्पण करने को, भक्तजनों का मन तरसे ॥1 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल....। अज्ञानी तन शीतल करने, चंदन लेप लगाता है। भक्त आपके श्री चरणों में, शीतलता को पाता है ।। समयसागराचार्य गुरु की, चन्दन-सी शीतल वाणी । भव भव का सन्ताप मिटाती, परम प्रमाणी कल्याणी ॥2 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन .... । अक्षय सुख पाने हे गुरुवर, विद्या गुरु का पथ भाया । दर्शन करके कहें भव्यजन, शिवपुर का यह रथ आया ॥ समयसागराचार्य गुरु के पद में अक्षत लाया हूँ । नश्वर में सुख कभी न मानूँ, यह वर पाने आया हूँ ॥3 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् .... । स्वभाव की सामर्थ्य जानकर, स्वात्म ब्रह्म में लीन हुए। गुरु सम्मुख आ कामदेव के, तीक्ष्ण बाण भी क्षीण हुए || समयसागराचार्य गुरु ने सब विकार पर वार किया। शरणागत को एक नजर से, गुरु आपने तार दिया ॥ 4 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं .... । मूलाचार ग्रन्थ अनुसारी, दोष रहित आहार करें। निराहार पद विदेह पाने, यतिवर आत्म बिहार करें || समयसागराचार्य चरण में, चरु चढ़ाने लाया हूँ । गहन साधना देख आपकी, शीश झुकाने आया हूँ || 5 || ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ..... । विद्या गुरु से ज्ञान दीप ले, निज आतम गृह उजियारा | भेदज्ञान के प्रकाश द्वारा, मिटा रहे हैं अंधियारा ॥ समयसागराचार्य गुरु की आरति करने आया हूँ । रत्नत्रय का प्रकाश पाने, भाव हृदय में लाया हूँ ॥6॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप.....। कर्मफलों में अनासक्त हे सच्चे योगी तुम्हें नमन । इक या दो भव में पा लेंगे, निश्चित गुरुवर मोक्ष गगन || समयसागराचार्य मुनीश्वर, छाँव मिले तव चरणन की। तीन योग से महिमा गाऊँ, हे गुरुवर तव गुण गण की ॥7॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अष्ट कर्मदहनाय धूप ..... । रत्नत्रय तरुवर पर बैठे, मुक्तीफल के प्रत्याशी । तुम सम बन जाने की गुरुवर, मेरी भी आतम प्यासी ॥ समयसागराचार्य गुरु मैं, आशा लेकर आया हूँ । नरभव सफल बनाने पावन, श्रद्धा का फल लाया हूँ ॥ 8 ॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल ..... । पद प्रसिद्धि की नहीं कामना, अनर्घ्य पद ही मैं चाहूँ । अष्ट द्रव्य का अर्घ्य चढ़ाकर, मोक्ष पथिक मैं बन जाऊँ ॥ समयसागराचार्य मुनीश्वर, धन्य आपकी समता है। शिवपथगामी श्री चरणों में, श्रद्धा से सिर झुकता है ॥9॥ ॐ ह्रूं श्री 108 आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अ..... जयमाला ज्ञानोदय छन्द जयवन्तों आचार्यवर्य गुरु, जब तक रवि शशि नभ में है। जिनशासन जयशील रहे नित, यही भावना मन में है । शरद पूर्णिमा की शुभ तिथि में, ग्राम सदलगा जन्म लिया। बचपन से थे शान्त इसलिए, शान्तिनाथ शुभ नाम दिया ॥1 ॥ जैसा नाम रखा वैसा ही काम आपने दिखा दिया | शान्त स्वरूपोऽहं का अद्भुत, सूत्र आपने सिखा दिया || द्रोणागिरी श्रीसिद्ध क्षेत्र पर 'विद्या' गुरु से दीक्षा ली। सिद्ध शुद्ध पथ को पाने की, श्री यतिवर से शिक्षा ली ॥ 2 ॥ विद्या गुरु के ज्येष्ठ श्रेष्ठतम, शिष्य आप कहलाते हो । ज्ञान ध्यान रत निश्छल मूरत, भक्तों के मन भाते हो । तिलतुष मात्र परिग्रह ना है, सच्चे हैं निर्ग्रन्थ यति । ऐ सा लगता सुन आये हैं, तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि ॥3॥ आत्मप्रशंसा कभी न सुनते, गुरु पर पूर्ण समर्पण है। गुरु महिमा सुन प्रसन्न होते, गुरु आज्ञा ही धड़कन है ॥ वीरप्रभु औ गौतम जैसे, गुरु शिष्य द्वय धन्य हुए। योग्य शिष्य को आचारज पद, दे गुरुवर अविकल्प हुए ॥ ॥ छत्तीस मूलगुणों के पालक, मेरु समान अकम्प रहें। दृष्टि में सब समान चाहें, राजा हो या रंक रहे । तव वात्सल्य सरोवर तट आ, भव्य कमल खिलकर महके । पर प्रपञ्च से दूर रहें गुरु, दिव्यदृष्टि निज में धर के ॥5॥ अल्प बोलकर सैद्धान्तिक या आध्यात्मिक गुरू वाणी है। चातक सम भविजन को लगती, अमृत सम कल्याणी है ॥ शब्द बूँद सम गुण समुद्र सम, कैसे पूर्ण करूँ वर्णन । अतः हृदय के भावों से ही, यह जयमाला है अर्पण ॥16॥ दोहा शरण आपकी प्राप्त कर, भूल गया संसार। ऐसे सच्चे सन्त को, प्रणयूँ बारम्बार ॥ 7 ॥ ॐ ह्रूं श्री १०८ आचार्य समयसागरमुनीन्द्राय जयमाला पूर्णा...। घत्ता श्री समयसिन्धु की गणनायक की, जो भवि पूजा नित्य करें । सब विघ्न नशावें, शिवसुख पावें, 'विद्यासागर पूर्ण' करें ॥ ॥ इत्याशीर्वादः ॥ रचयित्री : आर्यिका श्री 105 पूर्णमति माताजी
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