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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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  1. योगी स्वधाम तज बाहर दूर आता, सद्ध्यान से स्खलित हो अति कष्ट पाता ॥ तालाब से निकलकर बाहर मीन आता। होता दुखी, तड़पता, मर शीघ्र जाता ॥
  2. दीपक में यदि तेल भर दिया पर बत्ती सारी जल गई है, अथवा बत्ती ठीक है पर तेल छान कर नहीं भरा है, तब भी बत्ती नहीं जलेगी। अत: अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्त कारणों के होने पर ही कार्य पूरा होता है। प्रभु के चरणों में तो रोज लोट रहे हैं, पोट रहे हैं वीतराग बनने की पात्रता भी है पर जो कमियां हैं उसे दूर करने की कोशिश करनी है। लोहे को पारसमणि सोना बनाता है, पर लोहे पर थोड़ा भी आवरण हो तो सोना नहीं बनेगा। कमी पारस में नहीं है लोहे पर आवरण है। उसी प्रकार भगवान् महावीर में कमी नहीं है पर उनके सिद्धान्तों पर आपको वास्तविक श्रद्धा नहीं हो रही है।
  3. चेहरे में चेहरे हैं, बहुत ही गहरे हैं, किन्तु, खेद है त्याग के क्षेत्र में अन्धे और बहरे हैं।
  4. भगवान् महावीर स्वयं त्यागी थे, उन्होंने भोगों को ठुकराया था और दुख की निवृत्ति के लिए योग को अपनाया था, उसी त्याग को अपना कर आप उसी योग की जय-जयकार बोलें, उपासना करें।
  5. संसार मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो दर्शन ज्ञान को सम्यक्त्वाचरण चारित्र से, संयमाचरण चारित्र से युक्त करो। सबसे पहले ज्ञान नहीं, सबसे पहले दीक्षा, फिर शिक्षा, गणपोषण और अन्त में आत्म संस्कार है। मोक्ष मार्ग की शिक्षा चाहते हो तो पहले संयमाचरण, सम्यक्त्वाचरण चारित्र की दीक्षा ली तब शिक्षा मिलेगी।
  6. स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा तथा श्रमण संस्कृति की रक्षा हो सकती है। चारित्र तो होना ही चाहिए, पर उसके साथ ज्ञान भी हो। निर्जरा के लिए स्वाध्याय, उससे ज्यादा निर्जरा के लिए अध्यापन बताया। लेख लिखने से भी मन केंद्रित हो सकता है, इससे भी असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होगी। और जीवन सुन्दरतम बनता चला जाएगा। गुरु शिष्य पर उपकार करता है, पर शिष्य भी गुरु के अनुरूप चलकर गुरु पर उपकार कर सकता है।
  7. दीवार है अमित औ अवरूद्ध द्वार। क्यों ही प्रवेश निज में जब हैं विकार ॥ कैसे सुने जबकि अन्दर मुक्ति नार। जो आप बाहर खड़े, करते पुकार ॥
  8. सम्यक दर्शन के ८ अंगों में सर्व प्रथम नि:शंक है, जिसका अर्थ शंका रहित ही नहीं, बल्कि भय का अभाव भी है। पूर्ण अंग को निकाल दे, तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा। एक आधा अंग कम भी हो तो सम्यक दर्शन का काम चल जायेगा। प्रयोजन भूत तत्व, मोक्ष मार्ग में तत्व की प्ररूपणा में है, उसमें संदेह नहीं होना चाहिए।
  9. गृहस्थाश्रम को चलाने के लिए धन की आवश्यकता है पर २४ घण्टे मात्र इसी का आराधन ठीक नहीं। लक्ष्य धन नहीं, धर्म है। यही नि:कांक्षित अंग है, धर्म की उपासना में जीवन व्यतीत करना। सुख आत्मा में है, यही आस्था नि:कॉक्षित अंग है।
  10. शरीर को जो बिगाड़ता है, वह भी हिंसक है। शरीर का शोषण भी नहीं तो पोषण भी नहीं। उसे अपने अधिकार में रखी ताकि आत्मिक विकास के काम आ सके। शरीर के प्रति ज्यादा निरीहता व पोषण भी नहीं, यह निर्विचिकित्सा है।
  11. पति पत्नी का जोड़ा होता है। दोनों एक दिशा में चलेंगे तो वीर चरणों में चले जायेंगे। परिग्रह प्रमाण रख कर सुख शांति का अनुभव हो सकता है। पत्नी का तथा पति का कर्तव्य है कि परिवार को सम्भाले, बोझ कम करे। पत्नी अगर अपनी इच्छा को पूर्ण करने में आगे दौड़ेगी तो परिवार आगे नहीं बढ़ सकता। नारियों ने बच्चों के संस्कारों पर प्रभाव डालकर सच्चे बच्चे बना दिए।
  12. या जिनवाणी के ज्ञान में सुझे लोकालोक सो वाणी मसलता चढ़े, सदा देते हूं धोक
  13. आत्मा के परिणामों की बड़ी विचित्रता है। अनादिकाल से यह संसारी जीव भोगों का दास बना हुआ है। इन्द्रियों की इच्छा पूर्ण करने में लगा है। आज एक प्राणी ने भोगों को पाप का मूल समझा और उसके मन में त्याग के भाव जागे हैं। अब वह सबसे पहले आरम्भ परिग्रह का त्याग करेगी। आरम्भ को इस जीव ने अनादि से अच्छा मान रखा है पर इस महिला ने इसे पाप का मूल समझा। ८ वीं प्रतिमा आरम्भ त्याग प्रतिमा होती है। अब यह सांसारिक कार्यों, खाने-पीने के बारे में आरम्भ नहीं करेगी, धार्मिक कार्य कर सकती है। इसके बाद परिग्रह त्याग प्रतिमा है।
  14. आचार्यों का लक्ष्य वीतरागता है न कि सम्यक दर्शन मात्र। मोक्ष मार्ग कहते ही आपकी दृष्टि सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की ओर हो, आपके मोह का नाश हो। ज्ञान प्राप्त हो तो उसी रूप त्याग भी होना चाहिए।
  15. अर्थ का उपार्जन परमार्थ के साधन के लिए है, अनर्थ के लिए नहीं। वही धन परिग्रह है जो धार्मिक क्षेत्र में खर्च न होकर अन्य सांसारिक कार्यों में हो। मूच्छ का नाम परिग्रह है। धन के द्वारा धर्म की प्रभावना हो सकती है, इसके द्वारा दूसरों का उपकार व अपना विकास कर सकते हैं।
  16. आप लोग समय-समय पर सुख की सामग्री समझकर बाहरी वस्तुएँ बटोर रहे हैं। पर आत्म तत्व को जानने वाले निस्पृही मुनिराज जो मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखते, बाल के अग्रभाग पर रखने योग्य परिग्रह को भी न रखते हैं, न रखाते हैं, न अनुमोदन करते हैं। महावीर ने परिग्रह को जहर बताया, जिसे आप अमृत मान रहे हो। अमृत और जहर में जमीन-आसमान, संसार-मुक्ति, स्वभाव-विभाव, प्रकाश-अन्धकार की तरह फरक है। जिसके त्याग हैं, वही वास्तविक सुखी है।
  17. आज परिग्रह के पीछे जीवन इतना व्यस्त हो गया कि उपासना में भी विचारों की तरंगें चलती रहती हैं। मात्र कामना, खाना, पीना, सोना यही आप लोगों के सामने है। आप सोचते हैं कि महावीर जी में छोटे घड़े की नसियां में अथवा तिजारा में भगवान् की मूर्ति में चमत्कार है। लेकिन महावीर अथवा अन्य वीतरागी भगवान् कोई चमत्कार नहीं दिखाते। आज तक आपने उनके स्वरूप को समझा ही नहीं, महावीर को दुनियाँ से मतलब नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे भक्त लोग दिखाते हैं और महावीर की प्रभावना करते हैं। नमस्कार चमत्कार के लिए नहीं। चमत्कार का बहिष्कार कर, विषयों का तिरस्कार कर, नमस्कार करें, इसी में कल्याण निहित है।
  18. गृहस्थ के निर्विचिकित्सा अंग में मात्र शरीर सेवा नहीं, धर्म की सुरक्षा हो, तभी वह पात्र बनने की क्षमता रखेगा, वह उस प्रकार बन्ध करेगा, ताकि मोक्ष मार्ग में उपयुक्त सामग्री प्राप्त हो जाये। अमूर्त आत्मा की उपासना, उसमें विश्वास कर सके, इसके लिए आचार्यों ने बहुत परिश्रम कर विशद विवेचन किया। वे तो कृतार्थ हो गये, जब उसको जीवन में उतारेंगे, तब हम भी कृतार्थ होंगे। जो चारित्र अपनाने का विचार रखता है तो चारित्रधारी के पास जायेगा, उनकी सेवा करेगा, उनके आदर्श को जीवन में उतारेगा, तभी सुख का अनुभव करेगा। उसका अपूर्ण जीवन पूर्णता में परिणत हो जायेगा।
  19. वीतरागता में, न डर है, न डराने की जरूरत है। मुनिराज जब प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति में तल्लीन हैं, आत्म तत्व में चित्त है, तो सिंह से भी नहीं डरेंगे न डराएँगे। जब प्रवृत्ति करेंगे, विहार करेंगे तो मार्ग में सिंह जिधर से आ रहा है, उससे दूर होकर निकलेंगे।
  20. महावीर भगवान् मौन रहे। मौन का मतलब स्वीकृति नहीं। ‘मौनम् सम्मति लक्षणम्' नहीं, बल्कि ‘मौनम् सन्मति लक्षणम्' है।
  21. कोई भी जीव चाहे वह राजा हो या महाराज हो, मिथ्यादर्शन के साथ ही मनुष्य गति में जन्म लेगा, बाद में सम्यक दर्शन को अपनाता है। धन से शरीर से वात्सल्य नहीं होता है। शरीर के साथ तो बहुत वात्सल्य सेवा की, पर शरीर करुणा वात्सल्य को नहीं जानता। करुणा का अनुभव करने वाला आत्मा है। अत: आत्मा पर, जीव पर करुणा करो। हरेक जीव वास्तविक तत्व को जान सकता है, केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
  22. धर्म प्राप्ति के लिए विशेष तौर से जो प्रयत्न किया जाये, उसका नाम प्रभावना है। जिस प्रकार शरीर की स्थिति के लिए अन्न-जल, वस्त्र जरूरी है, उसी प्रकार जीवात्मा के जीवन को चलाने के लिए उसके योग्य खुराक मिलनी चाहिए। मनुष्य के जीवन के लिए केवल अन्न-जल आदि ही जरूरी नहीं है, इनसे तो शरीर की सुरक्षा हो सकती है। किन्तु आत्मा का जीवन उसके योग्य भाव मिलने पर चलता है। आज तक हमने शरीर पुष्ट होने के लिए तो भावना भाई पर प्रभावना नहीं चाही।
  23. दिगम्बर वीतराग मुद्रा स्वपर कल्याण कारक है। जवानी तो शरीर की अवस्था है, पुद्गल का खेल है। जब अन्दर आत्मचिंतन, तत्व का चिंतन चलता है, तब ये पर्यायें नजर नहीं आती। आप लोगों का थकने योग्य कार्य हो रहा है। परमार्थ भूत तत्व देव शास्त्र गुरु की उपासना से अनादि से किए अनर्थ दूर हो जाएँगे।
  24. सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की समष्टि सो मोक्ष मार्ग है। हरेक क्षेत्र में समन्वय की नीति काम करती है। एक कार्य की निष्पति के लिए अनेक कारण अपेक्षित हैं। इसीलिए आचार्यों ने मोक्ष मार्ग में सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों अंगों को कारण माना।
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