आत्मिक साधना उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है,
और मुक्तिसुंदरी आपके समीप आ रही है,
यह राज हमें भी सिखा दीजिए।
तन की सुंदरता के लिए नहीं,
शिवरमा को पाने के लिए,
आत्मिक शाश्वत सौन्दर्य पाने के लिए।
ज्ञानगुरु पर्वत से पावन, विधाधारा फूट पड़ी।
विधामृत को जी भर पीने, सारी जनता उमड़ पड़ी।।
जिसने पान किया श्रद्धा से, अमर तत्व को जान लिया।
विधासागर गुरु को अपना, परमातम हीं मान लिया।।
जिसकी सौम्यछवि दर्शन कर, आतम दर्शन होता हैं।
सदियों से जो भाग्य सो रहा, तत्क्षण जागृत होता है।।
पशु भी परमेश्वर पथ पाता, मानव की क्या बात कहे।
भाव सहित जो गुरु को वंदे, सिद्धदशा तक साथ रहे।।
हे शुद्धात्म प्रदेश निवासी, गुरुवर तुमको वंदन हो।
निजात्म प्रेमी ज्ञानी-ध्यानी, गुरुवर का अभिनंदन हो।
हे अनन्य आत्मीय मुनीश्वर, जग का हरते कंदन हो।
विद्यासागर परम कृपालु, पद में जीवन अर्पण
अर्हत् जिन से जनक गुरु के, जिनवाणी सी मैय्या है।
गणधर जैसे भैय्या जिनके, गुरुवर एक खिवैया है।।
महंत जन से परिचय जिनका, उनकी महिमा क्या कहना।
ऐसे गुरु के चरण कमल में, शाश्वत काल मुझे रहना।।”
शांतिसागराचार्यवर्य से, वीरसिंधु आचार्य हुए।
तदनंतर शिवसागर सूरि, ज्ञानसिंधु आचार्य हुए।।
ज्ञान गुरु ने निज प्रज्ञा से, हीरा एक तराश लिया।
युगों-युगों तक जो चमकेगा, विधासागर नाम दिया।।”
मन गुरु दर्शन मिलन से तृप्त कब होता?
गुरु प्रतीक्षा में हृदय संतप्त कब होता?
रात-दिन वसु याम मैं अवगाहती जिसमें,
वह गुरु भक्ति का ही पावन सरोवर है।
गुरुवर! मेरा जीवन तुम्हारी ही धरोहर है।।''
छियालिस सन् शरद पूनम को, विद्या शशि का उदय हुआ।
पिता मल्लप्पा श्रीमंति माँ का, अतिहर्षित हृदय हुआ।।
सत् परिभाषित करने वाले, ग्राम सदलगा जन्म लिये।
विद्या धन उद्घाटित उद्दघाटित करने, ज्ञानसिंधु की शरण लिये।।''
आप तो सदा अपने में रहते हो
और सबको अपना बना लेते हो।
हमें अपना बना स्वयं निज में उतर जाते हो,
दुनिया से बेखबर हो जाते हो।
हमें अकेला छोड़कर क्यों चले जाते हो?
अपने शरीर से जितना बन सके, त्याग-तपस्या का अभ्यास करते रहना चाहिए। जितना त्याग कर सकें, जितनी तपस्या कर सकें, शरीर व साधना के मध्य सन्तुलन बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। फिर जब समय आए। तो समाधि ले सकते हैं।
हमारे यहाँ जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का रिवीजन नहीं होता, वैसे ही हम लोग गुरुदेव के निर्णय को बदलने की भावना तक नहीं रखते। वह एक बार जो कह दें, सो कह दें। यह केवल धरती पर आचार्य विद्यासागर का कमाल है, और किसी का नहीं।
गुरुदेव के चरणों में रात में वैय्यावृत्ति करते-करते कहा- महाराज! आपने कैसे निकाल दिया इन लोगों को? अभी तो यह बहुत छोटे हैं, आपने विहार क्यों करा दिया? गुरुदेव ने रात में इशारा करके कहा- कब तक उंगली पकड़े रहेंगे? फिर कहा- ठोक बजाकर देख लो, मैंने तैयार किया है, तब भेजा है।