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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

रतन लाल

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प्रवचन Reviews posted by रतन लाल

  1. शरीर तो जड़ पदार्थ है, बिखरने वाला है। इसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मोह नहीं करना चाहिए, इससे अनन्त संसार बढ़ जायेगा, वह अपने आपके प्रति निर्दयी बन जायेगा। शरीर के स्नान से आरम्भ परिग्रह हिंसा होती है, इसलिए मुनि शरीर का स्नान नहीं करते। वे हवा, धूप, वर्षा आदि से प्राकृतिक स्नान करते हैं। शरीर को जितना जितना शुद्ध करेंगे उतना शुचिता से दूर हो जाओगे। शरीर अशुचि है, आत्मा शुचि है। शरीर के प्रति मोहभाव है, इसलिए आत्मा अशुचि है।

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  2. जिसका राग व्यतीत हो गया है, वही वीतरागी है। सुख बाहर से नहीं आता, जिसकी अपेक्षा की जाये वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।

  3. संयम का मतलब बंध जाना। व्रत-नियम में कानून में बंध जाना। हरेक क्षेत्र में संयम की बड़ी आवश्यकता है। बंधन जब तक टूटता नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है और जब तक बंधन (संयम) नहीं है, तब तक मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार ऊंट के लिए नकेल, घोड़ों के लिए लगाम, मोटर के लिए ब्रेक की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के लिए ब्रेक, बंधन, संयम की आवश्यकता है।

  4. द्रव्य संयम में मान रहता है, भाव संयम में मान नहीं रहता। द्रव्य संयम एक प्रकार से ऊपर का फोटो है और भाव संयम अन्दर का एक्स-रे। वह अन्दर की कमी बताता है। मिथ्यादृष्टि भाव संयम को नहीं अपना सकता है। अत: अपने ऊपर कंट्रोल कर वास्तविक संयम को अपनाओ।

  5. अन्तरंग तप में ध्यान और बहिरंग तप में कायोत्सर्ग मुख्य रखा गया है। अनशन तो बहुत दूर रह गया है। खाने का लक्ष्य कर जो कायोत्सर्ग करता है उससे चित्त की प्रवृत्तियाँ चंचल होती है। कुतप के द्वारा तो संसार के अनेक पदार्थ प्राप्त कर लिए पर मुक्ति नहीं। सम्यक दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सुख दुख राग द्वेष युक्त आत्मा से है। अत: जिस प्रकार भगवान् महावीर ने तप को अपनाया है, आप भी उसे अपनाओ। उन सत् तपस्वियों के लिए मेरा शत-शत प्रणाम।

  6. सरलता स्वभाव की ओर और कठिनता बाहर की ओर ले जाती है। ग्रहण करने में समय लगता है, पर छोड़ने में नहीं, फिर प्राप्त होवे नहीं भी होवे। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। 

  7. भगवान् के पास, निरभिमानी के पास निरभिमानी बन कर जाना चाहिए और विचार कर कहना चाहिए कि मैं बालक हूँ, मंद बुद्धि हूँ, छोटा हूँ, राग को अपना रहा हूँ। हे भगवान्! मुझे मुझमें मिला कर सुखद शांति दिला दे। ये चैतन्य शक्ति जो आत्मा के पास है, वह ज्ञान दर्शनात्मक है, वह शक्ति सच्चेतन बन जाये, अपने आप में मिल जाये। चेतन आपके पास भी है, पर वह तो कर्म चेतना है, अपने स्वभाव को भूल कर रस ढूँढ़ रही है। बाहर की ओर चेतना नहीं जाने देना यही आकिंचन्य धर्म है, बाकी तो मात्र अभिनय है।

  8. प्रेम का मतलब हरेक व्यक्ति सुखी रहे, मोही कहता है मैं ही जीवित रहूँ चाहे दूसरों का सत्यानाश हो जाये। संतोष वहाँ है, जहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ तो फिर प्रेत है। विश्वासघात प्रेम पर आघात है। जो कुछ बाहर से प्राप्त करने की चेष्टा है, उसे भूलकर ब्रह्मा के पास जाने की चेष्टा करो। ब्रह्मचर्य की महिमा बहुत अनोखी है, उसे अपनाओ। जो ब्रह्मा में रमण कर रहा है, उसको शत-शत प्रणाम।

  9. मात्र विषय वासना को लेकर साथीपन नहीं है। रत्नत्रय का पालन दर्शन आर्य बनने के लिए करना है। अनादि से मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी छत्र त्रय की आपने सेवा की है। आज तक आपका जीवन रूढ़िवाद को अपनाए है, इसे भूलने की चेष्टा करो और दर्शन आर्य, बनो।

  10. शरीर जब शिथिल हो जाता है, तब ज्ञान में शिथिलता आ जाती है, क्षायोपशम ज्ञान में परिवर्तन हो जाता है। मन की भी ऐसी ही स्थिति हो जाती है, कषायों की बाढ़ चालू हो जाती है, परन्तु सम्यक्त्व, क्षमा, विवेक अगर साथ है, तो कषायों का वेग शांत हो जाता है। प्रतिकूल वातावरण में भी अनुकूल वातावरण का अनुभव करना, क्षमा के बिना सम्भव नहीं है।

  11. जीवन भर भगवान् की उपासना करके जो अन्त में सल्लेखना धारण करता है तब पूरा फल मिलता है। सल्लेखना एक प्रकार से परीक्षा है। क्षमा करना गुणस्थान को बढ़ाना है और 

  12. पूर्ण परित्याग न हो सके तो आवश्यक का संरक्षण कर अनावश्यक का त्याग तो करो। स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है कि आविष्कार करेंगे तो दुनियाँ में शांति होगी, लेकिन जब आप आवश्यकताएँ कम करेंगे, तभी वास्तविक शांति होगी। जहाँ याचना नहीं वहीं पर वास्तव में आर्थिक विकास है। जहाँ वित्त को जहर मान लिया वहीं सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।

  13. आवश्यकता के उपरांत जो है, वही परिग्रह है, जो अधोगति का कारण है। परिग्रह और आवश्यक दोनों अलग है। निग्रन्थ का अर्थ यही है कि अनावश्यक को छोड़कर आवश्यक को रखें नहीं तो महान् ग्रन्थी बने रहोगे जिससे कल्याण होने वाला नहीं है।

  14. जो पढ़ता है, लिखता है, बोलता है, उसके बजाय नहीं बोलने वाला भी ज्यादा उद्धार कर सकता है। ज्ञान को लेकर भी मद की प्रादुभूति हो जाती है। अत: समता, वीतरागता और ऋजुता को नहीं छोड़ना है। दूसरों के हित को ध्यान में रखना है। सिर्फ नाम से श्रमण नहीं काम से मतलब है। अत: ऐसे श्रम को अपनाओ जिससे स्व पर हित हो।

  15. जो जैन कुल में जन्म ले चुके हैं, वे इस बात को भूल रहे हैं, वे मात्र जीवन यापन समय मापन करना ठीक समझ रहे हैं। आपका लक्ष्य अहिंसा का संवर्धन ही होना चाहिए ताकि अहिंसा का आलम्बन लेकर प्रत्येक प्राणी संसार से तिरे। 

  16. पुद्गल के साथ जीव में भी परिवर्तन आना चाहिए, मोह के चिह्न दूर होने चाहिए। आप रागी-द्वेषी बनकर संसार की वृद्धि चाह रहे हैं। मुक्ति का रस लो, थोड़ा प्रयास करने पर क्रान्ति आ सकती है। चारों ओर भोग सामग्री जो प्रतीक्षा में है, उसे ठुकरा दो, सूघो भी मत। 

  17. जो कृतज्ञ है, वही सर्वज्ञ है। जो कृतघ्न व्यक्ति है, वह नर से नारकी, तिर्यञ्च बन सकता है। कृतज्ञ बनने पर सारे अन्धकार हट सकते हैं। दूसरों को जिलाने की, जीवन दान करने की शक्ति हममें नहीं है तो किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है। मारना ही जीवन लेना नहीं है। बल्कि दूसरों का धन लेना, निरपराधी को अपराधी ठहराना भी जीवन लेना है। खून सर्वप्रथम कोई नहीं पीता। क्रूर से क्रूर प्राणी भी अपनी माँ का दूध ही पीते हैं। अत: आज से ऐसी प्रतिज्ञा करो कि अपने जीवन को विकसित बनाएँगे। उस पार्थिव शरीर के द्वारा जो कुछ समय बाद बिखरने वाला है, अच्छे कार्य करेंगे। 

  18. अगर पूजन करते समय भी असंतोष है तो वह पूजन नहीं कहलाएगी। जहाँ सन्तोष है, वहीं पूजन है। दौड़ धूप कम हो। अन्दर में भाव उज्ज्वल हो, लिप्सा में कमी हो, जो बाजार में भी पूजन करता हो, वही वास्तविक पूजन है। जो सिर्फ मन्दिर में ही पूजन करता है और बाहर असंतोष में रहता है, वह पूजक नहीं है। प्राय: देखने में आता है कि जैसे-जैसे तिजोरी में नोटों की गिनती बढ़ती जाती है, तब चाहे पेट खाली भी हो तो भी खून बढ़ता जाता है, मुख पर ऐसी चमक आती है, जैसे बिजली के बल्बों द्वारा भी चमक नहीं होती।

  19. श्रद्धान उन गुप्त स्थानों तक ले जाता है, जहाँ आज तक नहीं गये, वह अंतर्दृष्टि बनाता है, जिससे अमूर्त पदार्थ दिखने लगता है, यह अन्धविश्वास नहीं है। विश्वास परोक्ष से होता है। जब परोक्ष सामने आ जाता है, तब साक्षात अनुभव हो जाता है। गुरुओं के उपदेशों से, शास्त्र पढ़कर तथा देवदर्शन से अविदित पदार्थ विदित हो जाते हैं। प्यासे व्यक्ति को पानी का आश्वासन मिलने पर, हालांकि पानी नहीं पिया, एक सुख की अनुभूति होती है। विश्वास के साथ आशावादी होना चाहिए। आपको आचार्यों के वचनों में विश्वास ही नहीं है, इनके वचन झूठे नहीं होते।

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